अगर संसार में समानता और न्याय नहीं है तो कैसा ईश्वर और कैसा धर्म?
आपका ईश्वर होगा, मेरा कोई ईश्वर नहीं!
अयोध्या में राम मंदिर बनाने की तिथि फिर तय हो गई है।
सर्वत्र अंध फासिज्म के मनुस्मृति राष्ट्रवाद की हारके सिलिसिले में यूपी चुनाव से ऐन पहले उज्जैन से आयी यह खबर गौरतलब है कि धर्म संसद में अयोध्या में राम मंदिर बनाने की तिथि तय हो गई है। इसी वर्ष कार्तिक अक्षय नवमी (नौ नवंबर ) से मंदिर का निर्माण शुरू किया जाएगा। शुरुआत रामलला परिसर में सिंह द्वार निर्माण से की जाएगी। ऐसी घोषणाओं पर अमल के लिए न जाने कितनी बार महाभारत होगा।
अब रिटायर कर रहा हूं पत्रकारिता से तो ईश्वर याद आ रहे हैं,ऐसा भी नहीं है।हमने अपने जीवन को अपने ढंग से जीने का फैसला किया और सारे विकल्प हमने चुने,तो इसकी जिम्मेदारी किसी ईश्वर की नहीं होती।होती तो वह ईश्वर भी सबको समान अवसर देता और मनुष्य नियतिबद्ध नहीं होता।
नियति ईश्वर का विधान नहीं है,ईश्वरत्व की सीमा है।अगर सबकुछ नियतिबद्ध है तो ईश्वर का चमत्कार कैसा और किस ईस्वर की कृपा के लिए अपनी अपनी उपासना पद्धति के वर्चस्व के लिए यह पृथ्वी खून की अनंत नदी में तब्दील है और मनुष्यता विलुप्तप्राय है।धर्म नहीं, धर्मोन्माद की राजनीति के वध्य हो गये हैं तमाम आस्थावान आस्थावती नागरिक नागरिकाएं।यह विचित्र किंतु अद्भुत समाज वास्तव जितना है उतना सैन्य राष्ट्र का चरित्र और मुक्तबाजार की निर्मम चांदमारी ज्यादा है।
आप इतिहास में,मिथकों में ईश्वर या अवतार खोजते होंगे,मैं नहीं।
स्वामी विवेकानंद और रवींद्र नाथ के नरनारायण के शब्दबंध भी हमें विरोधाभास का पुलिंदा नजर आता है क्योंकि नर को अमूर्त नारायण का स्वरुप बनाकर दिखाना भी आस्था है,वास्तव नहीं।फिर किसी धर्मस्थल में ईश्वर कैद है से ज्यादा यथार्थ तो ईश्वर के किसी मेनहोल के अंधेरे में,या किसी गैस चैंबर में,या किसी कोयला खदान में कैद होने की कल्पना में होता।समाज सचेतन कल्पनाशीलता का बहुत अभाव है।व्यक्ति केंद्रित उपभोक्ता संस्कृति में सामाजिकता की सभ्यता सिरे से अनुपस्थित है और इसीलिए असभ्य बर्बर समय के मुखातिब हम किसी ईश्वर की वानर सेना हैं।
यह तात्कालिक प्रतिक्रिया है और इसमें सनी लिओनी की इरोटिका की कोई भूमिका नहीं है।
पलाश विश्वास
किसी भी कोण से मैं धार्मिक नहीं हूं।आपका ईश्वर होगा,मेरा कोई ईश्वर नहीं है।इंसानियत के मुल्क से बड़ा मेरे लिए कोई धर्मस्थल नहीं है।आस्तिक नहीं हूं लेकिन नास्तिक भी नहीं हूं।मुझे किसी ईश्वर,अवतार या उसके धर्म की शरण में स्वर्गवास या मोक्ष की आकांक्षा नहीं है।चाहे अनंत नर्कयंत्रणा मेरे लिए जारी ही रहे।
दूसरे धार्मिक लोगों और उनकी आस्था का पूरा सम्मान करता हूं और धर्म के अतर्निहित मूल्यबोध के तहत जो जीजीविषा स्त्रियों,दबे कुचले उत्पीड़ितों और वंचितों को दुस्समय के विरुद्ध लड़ते रहने की प्रेरणा देती है,उस शक्ति को मेरा नमस्कार है लेकिन मैं किसी ईश्वर से कोई प्रार्थना नहीं करता और बजाये इसके कर्मकांड के पाखंड और नानाविध पुरोहित तंत्र के आगे आत्मसमर्पण किये गौतम बुद्ध का धम्म का अनुशीलन मुझे ज्यादा प्रासंगिक लगता है,हालांकि बौद्धधर्म का अनुयायी भी नहीं हूं।
संजोग से लगभग देश के हर हिस्से में जाना हुआ है हालांकि अपने पिता या बाबा नागार्जुन या राहुल सांकर्त्यान की तरह यायावर भी नहीं हूं।
बचपन से बूढापे तक विविध धर्मस्थलों में जाना होता रहा है और पवित्र नदियों और पहाड़ों से जुड़ा भी रहा हूं,लेकिन मेरी कोई उपासना पद्धति भी नहीं है।
अब रिटायर कर रहा हूं पत्रकारिता से तो ईश्वर याद आ रहे हैं,ऐसा भी नहीं है।
हमने अपने जीवन को अपने ढंग से जीने का फैसला किया और सारे विकल्प हमने चुने,तो इसकी जिम्मेदारी किसी ईश्वर की नहीं होती।
सबकुछ ठीकठाक सही सलामत करने की ईश्वर की जिम्मेदारी होती तो वह ईश्वर भी सबको समान अवसर देता और मनुष्य नियतिबद्ध नहीं होता।
नियति ईश्वर का विधान नहीं है,ईश्वरत्व की सीमा है।
अगर सबकुछ नियतिबद्ध है तो ईश्वर का चमत्कार कैसा और किस ईश्वर की कृपा के लिए अपनी अपनी उपासना पद्धति के वर्चस्व के लिए यह पृथ्वी खून की अनंत नदी में तब्दील है और मनुष्यता विलुप्तप्राय है।धर्म नहीं, धर्मोन्माद की राजनीति के वध्य हो गये हैं तमाम आस्थावान आस्थावती नागरिक नागरिकाएं।
यह विचित्र किंतु अद्भुत समाज वास्तव जितना है उतना सैन्य राष्ट्र का चरित्र और मुक्तबाजार की निर्मम चांदमारी ज्यादा है।
यह तात्कालिक प्रतिक्रिया है और इसमें सनी लिओनी की इरोटिका की कोई भूमिका नहीं है।
अविराम जारी राममंदिर आंदोलन और वैदिकी अश्वमेध के दुस्समय में आस्थावान लोगों को ऐसे ईश्वर की खोज जरुर करनी जाहिये जिसके राज में समानता और न्याय हो।
सर्वत्र अंध फासिज्म के मनुस्मृति राष्ट्रवाद की हारके सिलिसिले में यूपी चुनाव से ऐन पहले उज्जैन से आयी यह खबर गौरतलब है कि धर्म संसद में अयोध्या में राम मंदिर बनाने की तिथि तय हो गई है। इसी वर्ष कार्तिक अक्षय नवमी (नौ नवंबर ) से मंदिर का निर्माण शुरू किया जाएगा। शुरुआत रामलला परिसर में सिंह द्वार निर्माण से की जाएगी। ऐसी घोषणाओं पर अमल के लिए न जाने कितनी बार महाभारत होगा।
धर्म संसद का आयोजन उसी सिंहस्थ परिसर में हुआ,जहां दलित साधुओं का अछूतोद्धार भी हुआ। धर्मसंसद में संतों ने बताया कि राममंदिर निर्माण से मोदी सरकार का कोई लेना-देना नहीं है। मंदिर जनता के सहयोग से बनाया जाएगा।
श्रीराम जन्मभूमि मंदिर निर्माण न्यास अयोध्या के अध्यक्ष महंत जन्मेजय शरण महाराज ने कहा कि राम जन्मभूमि जिसे विवादित कहा जाता है, वहां की 77 एकड़ जमीन निर्मोही अखाड़ा की है।
उज्जैन में चल रहे सिंहस्थ कुंभ में धर्म संसद में साधु-संतों ने ऐलान किया है कि अयोध्या में 9 नवंबर से जन्मभूमि परिसर के चारों ओर सिंहद्वार का निर्माण किया जाएगा। धर्म संसद में संतों ने ऐलान किया कि 9 नवंबर से अयोध्या में सिंहद्वार का निर्माण किया जाएगा।
गौरतलब है कि इससे पहले वीएचपी भी कई बार मोदी सरकार से राम मंदिर बनाने का आह्वान कर चुकी है। इससे पहले भाजपा सांसद सुब्रह्मण्यम स्वामी भी नवंबर मेंराममंदिर का निर्माण शुरू करने की बात कह चुके हैं।
अगर संसार में समानता और न्याय नहीं है तो कैसा ईश्वर और कैसा धर्म।
सर्वव्यापी ईश्वर की धारणा को वैज्ञानिक निकष पर कसा जाये तो यह समझना होगा कि इस ब्रह्मांड में आकाशगंगाओं के आर पार विदेशी पूंजी की तरह उनकी अबाध गतिविधि के लिए उनका वेग और उनका घनत्व भी प्रकाश कण की तरह होना चाहिए।यानी वेग का चरमोत्कर्ष और घनत्वहीन।रुप रस गंध हीन।इंद्रियों से मुक्त।
इसलिए अगर ईश्वर हैं तो उसके अवतार होने का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है।इतिहास मनुष्य रचता है और उसकी प्रामाणिकता महाकाव्यों के नायकों और नायिकाओं के मिथकीयचर्तिर से बेहतर नहीं है।
हमारे गुरुजी ताराचंद्र त्रिपाठी ने किशोरवय में ही अच्छीतरह समझा दिया है कि जनगण का कोई इतिहास नहीं होता।
इतिहास के नाम जो कुछ रचा जाता है,वह सत्तावर्ग के हितों के मुताबिक एकाधिकार सत्ता सुनिश्चित करने का प्रयास के सिवाय कुछ भी नहीं है।
आप इतिहास में,मिथकों में ईस्वर या अवतार खोजते होंगे,मैं नहीं।
स्वामी विवेकानंद और रवींद्र नाथ के नरनारायण के शब्दबंध भी हमें विरोधाभास का पुलिंदा नजर आता है क्योंकि नर को अमूर्त नारायण का स्वरुप बनाकर दिखाना भी आस्था है,वास्तव नहीं।फिर किसी धर्मस्थल में ईश्वर कैद है से ज्यादा यथार्थ तो ईश्वर के किसी मेनहोल के अंधेरे में,या किसी गैस चैंबर में,या किसी कोयला खदान में कैद होने की कल्पना में होता।
समाज सचेतन कल्पनाशीलता का बहुत अभाव है।व्यक्ति केंद्रित उपभोक्ता संस्कृति में सामाजिकता की सभ्यता सिरे से अनुपस्थित है और इसीलिए असभ्य बर्बर समय के मुखातिब हम किसी ईश्वर की वानर सेना हैं।
आदिवासी किसानों की लोकसंस्कृति सूफी संत बाउल फकीर परंपरा में जो जीवन दृष्टि है,वही मुझे बिना ईश्वर के शरण में गये प्रकृति और प्रकृति से संबद्ध मनुष्यता के पक्ष में लामबंद करती है और चाहे कुछ भी हो जाये,यही मेरा अंतिम मोर्चा है।
मैं किसी पापबोध या अपराधबोध का शिकार नहीं हूं और पंचतत्व में निष्णात हो जाने से पहले इस जीवन को अंतिम पल तक दूसरों के लिए उपयोगी बनाये रखने की चिंता मुझे ज्यादा है।क्योंकि हमारे किसी पुरखे संत कबीर दास ने कहा हैः
पाहन पूजै हरि मिले, तो मैं पूजूं पहार। ताते यह चाकी भली, पीस खाए संसार॥
वे यह भी कह गयेः
पूरब दिसा हरि को बासा, पश्चिम अलह मुकामा। दिल महं खोजु, दिलहि में खोजो यही करीमा रामा॥
कस्तूरी कुन्डल बसे, मृग ढूढै बन माहि। ऐसे घट-घट राम हैं, दुनिया देखे नाहि॥
कबीर दास कोई वैज्ञानिक न थे अलबर्ट आइंस्टीन की तरह।
कबीर दास को फर्जी डिग्री के तहत अपनी काबिलियत साबित करने की जरुरत नहीं पड़ी और पोथी लिखकर जग की तरह वे मुआ भी नहीं गये बल्कि कबीरा तोअब भी बाजार खड़े हैं ,जस के तस,लेकिन घर फूंकने को तैयार लोग तभ भी नहीं थे और आज भी नहीं है।
आइंस्टीन के कहे मुताबिक ईथर जैसे तत्व में ही ईश्वर का वास होना चाहिए ताकि वे सर्वत्र पहुंच सकें तब उस ईश्वर को तो ईथर में ही कैद होना चाहिए.जहां हिलने डुलने की कोई गुंजाइश ही नहीं है।शायद इसीलिए उनकी बनाई दुनिया पर उनका कोई नियंत्रण नहीं है और जीव जंतु का जीवनधारण असंभव हो जाता है।
संत कबीर ने किसी विश्वविद्यालय में पांव नहीं धरे और विज्ञान उनका भी विषय नहीं था।
फिरभी आइंस्टीन और कबीर के ईश्वर संबंधी विचार एक से लगते हैं।यही नहीं, इस भारत देश के किसी भी साधु,संत,फकीर ,बाउल के तत्वज्ञान और आध्यात्म में यही वैज्ञानिक दृष्टि है और उनका समग्र दर्शन जीवन और सृष्टि के पक्ष में,प्रकृति और मनुष्यता के पक्ष में है।
गौर करें कि आइंस्टीन कहा करते थेः
मैं ये जानना चाहता हूं कि ये दुनिया आखिर भगवान ने कैसे बनाई। मेरी रुचि किसी इस या उस धार्मिक ग्रंथ में लिखी बातों पर आधारित किसी ऐसी या वैसी अदभुत और चमत्कारिक घटनाओं को समझने में नहीं है। मैं भगवान के विचार समझना चाहता हूं
किसी व्यक्तिगत भगवान का आइडिया एक एंथ्रोपोलॉजिकल कॉन्सेप्ट है, जिसे मैं गंभीरता से नहीं लेता।
ईश्वर पांसे नहीं फेंकता है ।
इतनी तरक्की और इतने आधुनिक ज्ञान के बाद भी हम ब्रह्मांड के बारे में कुछ भी नहीं जानते। मानव विकासवाद की शुरुआत से लेकर अब तक अर्जित हमारा सारा ज्ञान किसी स्कूल के बच्चे जैसा ही है। संभवत: भविष्य में इसमें कुछ और इजाफा हो, हम कई नई बातें जान जाएं, लेकिन फिर भी चीजों की असली प्रकृति, कुछ ऐसा रहस्य है, जिसे हम शायद कभी नहीं जान सकेंगे, कभी नहीं।
एक पैटर्न देखता हूं तो उसकी खूबसूरती में खो जाता हूं, मैं उस पैटर्न के रचयिता की तस्वीर की कल्पना नहीं कर सकता। इसी तरह रोज ये जानने के लिए मैं अपनी घड़ी देखता हूं कि, इस वक्त क्या बजा है? लेकिन रोज ऐसा करने के दौरान एक बार भी मेरा ख्यालों में उस घड़ीसाज की तस्वीर नहीं उभरती जिसने फैक्ट्री में मेरी घड़ी बनाई होगी। ऐसा इसलिए क्योंकि मानव मस्तिष्क फोर डायमेंशन्स (चार डायमेंशन्स – लंबाई, चौड़ाई,ऊंचाई या गहराई और समय) को एकसाथ समझने में सक्षम नहीं है, इसलिए वो भगवान का अनुभव कैसे कर सकता है, जिसके समक्ष हजारों साल और हजारों डायमेंशन्स एक में सिमट जाते हैं।
वैज्ञानिक शोध इस विचार पर आधारित होते हैं कि हमारे आस-पास और इस ब्रह्मांड में जो कुछ भी घटता है उसके लिए प्रकृति के नियम ही जिम्मेदार होते हैं। यहां तक कि हमारे क्रियाकलाप भी इन्हीं नियमों से तय होते हैं। इसलिए, एक रिसर्च साइंटिस्ट शायद ही कभी ये यकीन करने को तैयार हो कि हमारे आस-पास की रोजमर्रा की जिंदगी में घटने वाली घटनाएं किसी प्रार्थना या फिर किसी सर्वशक्तिमान की इच्छा से प्रभावित होती हैं।
अगर लोग केवल इसलिए भद्र हैं, क्योंकि वो सजा से डरते हैं, और उन्हें अपनी भलाई के बदले किसी दैवी ईनाम की उम्मीद है, तो ये जानकर मुझे बेहद निराशा होगी कि मानव सभ्यता में दुनियाभर के धर्मों का बस यही योगदान रहा है। मैं ऐसे किसी व्यक्तिगत ईश्वर की कल्पना भी नहीं कर पाता तो किसी व्यक्ति के जीवन और उसके रोजमर्रा के कामकाज को निर्देशित करता हो, या फिर वो, जो सुप्रीम न्यायाधीश की तरह किसी स्वर्ण सिंहासन पर विराजमान हो और अपने ही हाथों रचे गए प्राणियों के बारे में फैसले लेता हो। मैं ऐसा इस सच्चाई के बावजूद नहीं कर पाता कि आधुनिक विज्ञान के कार्य-कारण के मशीनी सिद्धांत को काफी हद तक शक का फायदा मिला हुआ है ( आइंस्टीन यहां क्वांटम मैकेनिक्स और ढहते नियतिवाद के बारे में कह रहे हैं)। मेरी धार्मिकता, उस अनंत उत्साह की विनम्र प्रशंसा में है, जो हमारी कमजोर और क्षणभंगुर समझ के बावजूद थोड़ा-बहुत हम सबमें मौजूद है। नैतिकता सर्वोच्च प्राथमिकता की चीज है...लेकिन केवल हमारे लिए, भगवान के लिए नहीं।
ऐसी कोई चीज ईश्वर कैसे हो सकती है, जो अपनी ही रचना को पुरस्कृत करे या फिर उसके विनाश पर उतारू हो जाए। मैं ऐसे ईश्वर की कल्पना नहीं कर सकता जिसके उद्देश्य में हम अपनी कामनाओं के प्रतिरूप तलाशते हैं, संक्षेप में ईश्वर कुछ और नहीं, बल्कि छुद्र मानवीय इच्छाओं का ही प्रतिबिंब है। मैं ये भी नहीं मानता कि कोई अपने शरीर की मृत्यु के बाद भी बचा रहता है, हालांकि दूसरों के प्रति नफरत जताने वाले कुछ गर्व से भरे डरावने धार्मिक विचार आत्माओं के वजूद को साबित करने में पूरी ताकत लगा देते हैं।
मैं ऐसे ईश्वर को तवज्जो नहीं दे सकता जो हम मानवों जैसी ही अनुभूतियों और क्रोध-अहंकार-नफरत जैसी तमाम बुराइयों से भरा हो। मैं आत्मा के विचार को कभी नहीं मान सकता और न ही मैं ये मानना चाहूंगा कि अपनी भौतिक मृत्यु को बाद भी कोई वजूद में है। कोई अपने वाहियात अभिमान या किसी धार्मिक डर की वजह से अगर ऐसा नहीं मानना चाहता, तो न माने। मैं तो मानवीय चेतना, जीवन के चिरंतन रहस्य और वर्तमान विश्व जैसा भी है, उसकी विविधता और संरचना से ही खुश हूं। ये सृष्टि एक मिलीजुली कोशिश का नतीजा है, सूक्ष्म से सूक्ष्म कण ने भी नियमबद्ध होकर बेहद तार्किक ढंग से एकसाथ सम्मिलित होकर इस अनंत सृष्टि को रचने में अपना पुरजोर योगदान दिया है। ये दुनिया-ये ब्रह्मांड इसी मिलीजुली कोशिश और कुछ प्राकृतिक नियमों का उदघोष भर है, जिसे आप हर दिन अपने आस-पास बिल्कुल साफ देख और छूकर महसूस कर सकते हैं।
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