TaraChandra Tripathi
अस्मिताबोध भाषाओं के लिए की संजीवनी है. जिन भाषाओं को बोलने वाले लोगों में स्वाभिमान होता है, उनकी भाषाएँ, संख्यात्मक दृष्टि से दुर्बल होने के बावजूद जीवित रहती हैं. पर जिन भाषाओं को बोलने वाले लोगों का अस्मिताबोध क्षीण होता है, उनकी भाषाएँ बोलने वालों की अपेक्षाकृत विशाल संख्या के बावजूद काल कवलित हो जाती हैं.
जो समाज अपनी भाषाओं को स्वयं बचाने की अपेक्षा सरकार का मुँह जोहते हैं, उनकी भाषाओं को राजनीति खा जाती है.. उत्तराखंड भाषा संस्थान इस का प्रत्यक्ष उदाहरण है. यह संस्थान बना था उत्तराखंड की संकटग्रस्त लोक भाषाओं को बचाने के लिए. सरकार को लगा कि वोट बैंक तो उर्दू और पंजाबी में है. अत: यह विज्ञपित किया गया कि ये दोनों भाषाएँ भी बहुत खतरे में हैं. इन्हें बचाना भी बहुत जरूरी है.
निश्शंक जी भले ही रूढ़िवादी और कुटिल राजनीतिज्ञ थे, लेकिन लोक भाषाओं को बचाने के लिए उन्होंने भाषा संस्थान की तत्कालीन निदेशक श्रीमती सविता मोहन को स्वतंत्र अधिकार दे रखा था. उनके जमाने में लोक भाषा अनुसंधान त्था रचनाकारों के प्रोत्साहन की अनेक योजनाएँ क्रियान्वित हुईं. निश्शंक क्या गये, शंक के आते ही भाषा संस्थान भैंस के मरे पाडे सा रह गया, जिसके द्वारा देहरादूइन में ही अड़े रहने का जुगाड़ लगाये, अफसरों को एक ठिकाना और मिल गया.
अब सुना है कि सरकार प्राथमिक पाठशालाओं में लोक भाषाओं को पाठ्यक्रम में लगाने जा रही है. पर किन पाठशालाओं में, सम्पन्नों के स्कूलों में तो हिन्दी भी लतियायी जा रही है, फिर लोक भाषाओं की क्या विसात कि वे उनके गेट तक भी पहुँच पायें. बलि के बकरे तो हमारी प्राथमिक पाठशालाओं के बच्चे ही बनेंगे. जो वैसे भी अध्यापकों की बेरुखी से बौद्धिक मरणासन्नता से उबर नहीं पा रहे हैं.
यदि इन बच्चों के बलिदान से कोई भाषा बचने वाली है तो उसका विलुप्त होना ही श्रेयस्कर है. क्योंकि भाषा जीवन के लिए है न कि जीवन भाषा के लिए.
किसी भी भाषा की विलुप्ति में सम्पन्न वर्ग सर्वाधिक उत्तरदायी होता है. उसकी देखा-देखी विपन्न वर्ग भी अपनी भाषाओं की उपेक्षा करने लगता है. अत: लोक भाषाओं को बचाने की सर्वाधिक दायित्व भी उन्हीं का है. अत: यह सर्वथा अनुचित है कि भाषा को मिटायें सम्पन्न और भाषा को बचाने के .लिए मिटें विपन्न.
भाषा ही क्या देश के हर क्षेत्र में यही हो रहा है. विजय माल्या, ललित मोदी, डकारें हजारों करोड़, जेल जाये हजार के उधार वाला अधमरा किसान.
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