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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Sunday, February 3, 2013

सिर्फ योजनाएं नहीं

सिर्फ योजनाएं नहीं


Sunday, 03 February 2013 13:16

सय्यद मुबीन ज़ेहरा 
जनसत्ता 3 फरवरी, 2013: गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्र को संबोधित करते हुए राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने महिलाओं के विरुद्ध बढ़ते अपराध को लेकर अपनी चिंता जाहिर की। इससे कुछ दिन पहले कांग्रेस के जयपुर चिंतन शिविर में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भी महिलाओं के मुद्दे पर अपनी चिंता सामने रखी थी। लेकिन इन सब विचारों के बीच जिस समाचार ने हमें विचलित किया वह दामिनी का परीक्षाफल था। उसकी बेरहम हत्या के एक महीने बाद आए नतीजे में उसे न सिर्फ अच्छे नंबर मिले थे, बल्कि वह अपने कॉलेज की टॉपर लिस्ट में थी। सोचने की बात है कि जिस शिक्षा को नारी के उत्थान का एक बड़ा हथियार कहा जाता है वही शिक्षा हासिल करते हुए यह बच्ची दरिंदगी का शिकार हो गई। जाहिर है, महिलाओं की शिक्षा में अनेक बाधाओं में उनकी असुरक्षा भी एक बड़ी रुकावट है। 
शिक्षा महिला सशक्तीकरण का अहम अस्त्र है। एक महिला के शिक्षित होने का अर्थ है उसके पूरे परिवार का शिक्षित हो जाना। हमारे यहां शिक्षा को सर्वोदय के रूप में सदा से प्रचारित-प्रसारित किया जाता रहा है। जहां तक भारत में आधी आबादी की शिक्षा का सवाल है, संयुक्त राष्ट्र संघ के आंकड़े आईना दिखाने के लिए काफी हैं। उनके मुताबिक हमारे यहां हर पांच में से केवल दो महिलाएं लिख-पढ़ सकती हैं। चौदह वर्ष से कम आयु की चालीस प्रतिशत महिलाएं विद्यालय का मुंह भी नहीं देख पातीं। ये आंकड़े यह दिखाने के लिए काफी हैं कि हमारी आधी आबादी आज भी जहालत के अंधेरों में भटकने को मजबूर है। 
यह इसलिए भी शर्म की बात है कि हमारा इतिहास ऐसी महिलाओं से भरा पड़ा है, जिन्होंने शिक्षा से अपनी पहचान बनाई। गार्गी, मैत्रेयी, रजिया सुल्तान, पंडिता रमा बाई, आनंदी बाई जोशी, सरोजनी नायडू, सावित्री बाई फुले, विजय लक्ष्मी पंडित आदि महिलाओं को उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है। 
हमारे यहां शिक्षा को लेकर नारों की कमी नहीं है। 'स्कूल चलें हम', 'शिक्षा का अधिकार', 'पढ़ें बेटियां बढ़ें बेटियां', 'मैं पढ़ना चाहती हूं' जैसे नारे सुनते-सुनते हमारे कान बजने लगे हैं। लड़कियों को स्कूल आने-जाने के लिए साइकिल देना, उन्हें हुनर सिखाना या उनके लिए छात्रवृत्ति जैसी योजनाओं की भी कमी नहीं है। लेकिन बड़ा सवाल फिर भी वही है कि क्या महिला शिक्षा की ये सरकारी योजनाएं और नारे महिला सशक्तीकरण का एकमात्र साधन या हल हैं? अगर ये योजनाएं वाकई सफलता का मापदंड होतीं तो शहरों में बड़ी-बड़ी कोठियों में नन्ही-नन्ही बच्चियां झाड़ू-पोंछा नहीं कर रही होतीं। उन नगरों में, जहां उनके भविष्य की योजनाएं बनती हैं वहीं के ट्रैफिक सिग्नल पर फूल-से कोमल चेहरे वाली मासूम बच्चियां आपसे गुलदस्ते खरीदने का अनुरोध नहीं कर रही होतीं। सवेरे-सवेरे जब आप अपने लाडलों और लाडलियों को स्कूल पहुंचाने जा रहे होते हैं तो कूड़े के ढेर में कुछ मासूम बच्चियां न सिर्फ शिक्षा का अधिकार ढूंढ़ रही, बल्कि अपने लिए चलाई जा रही योजनाओं के घाव भी कुरेद रही होती हैं। इससे यही साबित होता है कि अगर एक तरफ सरकार बालिकाओं के लिए योजनाओं का संसार सजाने में लगी है वहीं दूसरी ओर एक ऐसा समाज भी मौजूद है, जो उनसे सारे अधिकार छीन लेना चाहता है। 
नारी को शिक्षित करने के लिए योजनाएं बनाने से पहले उन कारणों को दूर करने की जरूरत है, जो उनकी शिक्षा की राह में रोड़ा बनते हैं। हमें यह भी देखना है कि जहां ये बच्चियां पढ़ने जाती हैं वहां का वातावरण साफ और स्वस्थ हो। देखा यह गया है कि आज भी बहुत से बालिका विद्यालयों में बच्चियों के लिए शौचालय तक का सही प्रबंध नहीं होता और उन्हें खुले में जाना पड़ता है। यही नहीं, घर से स्कूल की दूरी अधिक हो तो भी लड़कियों को स्कूल न भेजने का मां-बाप को एक बड़ा कारण हाथ लग जाता है। बाल विवाह भी एक ऐसा कारण है, जो महिलाओं की शिक्षा में रुकावट बनता है।  इसके अलावा लड़कियों के साथ होने वाली छेड़छाड़ और अभद्र सलूक, उन पर तेजाब फेंकने की घटनाएं या फिर उनके साथ बलात्कार जैसे अपराध न सिर्फ उन्हें शिक्षा से दूर कर देते, बल्कि दूसरी बच्चियों को भी डरा देते हैं। 

दामिनी के साथ जो कुछ दिल्ली में घटा उसके बाद क्या उसके गांव के लोग अपनी किसी बेटी को पढ़ने के लिए दिल्ली या किसी और महानगर में भेजने की हिम्मत जुटा पाएंगे? या वहां की बेटियां हिम्मत करके आगे पढ़ना और आगे बढ़ना चाहें भी तो उनके माता-पिता के पास उनकी सुरक्षा से जुड़ा एक बड़ा कारण उन्हें घर से बाहर निकलने से रोकने का मौजूद नहीं रहेगा?
इसलिए हमें समाज का ऐसा स्तर बनाना होगा, जहां महिलाओं की सुरक्षा की एक ऐसी भावना पैदा हो कि जो भी सरकारी योजनाएं उनके लिए चलाई जा रही हैं वे अपनी शिक्षा और प्रगति के लिए उनका भरपूर लाभ उठा सकें। क्योंकि केवल साइकिल देने भर से उनकी कठिन डगर आसान नहीं हो जाती। उन्हें इन साइकिलों पर चढ़ कर समाज के बनाए उन रास्तों से रोज गुजरना होता है, जहां कोई उस पर फब्ती कसता है, कोई उसे देख कर सीटी बजाता है। छोटीमोटी छेड़छाड़ को भाग्य का लिखा समझ कर वह इसलिए बर्दाश्त करती है कि अगर वह इसकी शिकायत करेगी तो घर वाले उसका स्कूल जाना ही रोक देंगे और आगे का जीवन अंधकारमय हो जाएगा। इन सामाजिक बुराइयों के चलते कई बार लड़कियों को अपनी शिक्षा बीच में ही छोड़ देनी पड़ती है। 
चाहे कोई भारत बनाम इंडिया की बहस   छेड़े, पर शहरों और गांवों में औरतों को लेकर मर्द की मानसिकता एक जैसी दिखाई देती है। इसलिए हमारा सोचना है कि समाज को महिलाओं के प्रति हर हाल में सहनशील और परिपक्व बनाना ही इस समस्या का एकमात्र हल हो सकता है। अगर हमें में महिलाओं की स्थिति बदलनी है तो इसके लिए समाज और सरकार के बीच एक बेहतर तालमेल की जरूरत है। 
एक शिक्षित और सशक्त कोख ही शिक्षित और सशक्त भविष्य को जन्म दे सकती है। महिला शिक्षित होगी तो समाज में सकारात्मक बदलाव आएगा। इससे समाज में युवकों का सकारात्मक सोच पनपेगा। यही युवा आगे चल कर राजनीति का भी हिस्सा बनेंगे तो पूरे देश में नारी को लेकर स्वीकृति बढ़ती जाएगी। यही स्वीकृति आगे बढ़ कर औरत के प्रति समाज का सोच बदलने में सहायक होगी। इसके लिए बड़ी-बड़ी नहीं, बल्कि छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखना होगा। बालिका विद्यालयों में मुक्त और मुफ्त शिक्षा उपलब्ध करानी होगी। हमें अपने भारतीय समाज को मजबूर करना होगा कि वह अपनी महिलाओं के हाथ में शिक्षा की कभी न बुझने वाली मशाल थमा सके। सरकार को महिलाओं की शिक्षा को लेकर नई राष्ट्रीय नीति बनानी होगी, जिसमें उनकी सुरक्षा और स्वास्थ को अहमियत देनी होगी। 
महिलाओं को भी उन्हें मिले अवसरों का लाभ उठाते हुए, हर कठिनाई का सामना करते हुए अपने आप को हर हाल में शिक्षित करना होगा। यही नहीं, हमें शिक्षा हासिल करके रुकना नहीं है। दूसरी महिलाओं तक शिक्षा की ज्योति इस तरह पहुंचानी होगी कि एक से दूसरी और दूसरी से तीसरी महिला के हाथ में शिक्षा की यह मशाल पहुंचती रहे और आगे बढ़ते-बढ़ते शिक्षा का उजियारा घर-घर को रोशन करता हुआ पूरे समाज को रोशनी में नहला दे।

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