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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Friday, February 3, 2012

कमाई से लथपथ अग्निपथ! बाजार का …से …के लिए!

कमाई से लथपथ अग्निपथ! बाजार का …से …के लिए!


 आमुखसिनेमा

कमाई से लथपथ अग्निपथ! बाजार का …से …के लिए!

3 FEBRUARY 2012 NO COMMENT
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♦ जुगनू शारदेय

म तौर पर वैसी फिल्में नहीं देख पाता हूं, जो बॉक्सऑफिस हिट मानी जाती हैं। इन्हें साल छह महीने बाद ढेर सारे विज्ञापनों के साथ अपने ही तय किये तीन चार महीनों के ब्रेक में देखता हूं। कभी-कभी तो ऐसा भी होता है कि समझ में नहीं आता कि हिंदी की फिल्म देख रहा हूं या कि किसी दक्षिण भारतीय भाषा की फिल्म। यह भी कह सकते हैं कि टेलीविजन पर इन डब फिल्मों का लती हो गया हूं। हाल ही हिंदी में डब की हुई बाजीराव फाइटर देखी थी। पता चला कि यह तो अपने सिंघम का ओरिजनल है। पर ऐसा नहीं है कि हिंदी में ओरिजनल फिल्में नहीं बनती हैं। खूब बनती हैं। अब उसमें दो-चार दृश्य किसी अंग्रेजी सिनेमा से मारे होते हैं, तो इसे प्रेरणा कहा जाता है। ऐसी ही एक प्रेरक फिल्म प्लेयर्स से इस साल की शुरुआत हुई थी। इसके बारे में हमें बार-बार बताया गया कि यह ओरिजनल इटालियन जॉब की ऑफिसियल नकल है। अब हम हिंदुस्तानी नकल देखते-देखते इतना दुखी हो चुके हैं कि हमने प्लेयर्स को भाव ही नहीं दिया। हमारे पास भी अपना ओरिजनल नकल अपने असली नाम से आने वाला था। आया भी 26 जनवरी गणतंत्र दिवस के महान अवसर पर, अग्निपथ!

यह एक अतिमहान फिल्म है। इसकी वजह यह नहीं है कि अभी तक 2012 की सबसे बड़ी कमाऊ फिल्म है। कारण यह भी नहीं कि रोज-रोज का एक नया मुहावरा गढ़ने वाला मुन्ना भाई एमबीबीएस के मुन्ना भाई के नायक संजय दत्त इसमें खलनायक हैं। हमें पहली बार पता चला कि भैंसा जैसे बदन पर काला कपड़ा पहन कर सिर पर बालमुंडा आदमी डरावना भी होता है। फिल्म बनाने वालों को पता था कि हम नादान हैं, उसे जोकर भी समझ सकते हैं, इसलिए परदे पर इसके अवतरण के साथ हमें बता दिया जाता है कि यह कांचा चीना है और बड़ा डरावना है। हम डरे भी। मजा भी आया क्योंकि हमारे साथ सुबह-सुबह साढ़े नौ बजे के शो में डेढ़ सौ रुपये के सस्ते टिकट खरीद कर साथ में देखने वाले नौजवान बड़ा रस ले रहे थे कांचा चीना के गीतावादी डलाग पर।

हमें भी अपनी अधेड़ावस्था का कांचा चीना डैनी डेंग्‍जोप्पा याद आया। 1990 तक वह खानदानी विलन हो चुके थे। यह और बात है कि उनके पास कोई भी ऐसा डलाग नहीं था कि लोग गुनगुना सकें कि कितने आदमी थे रे और न ही उनके पास मोगांबो खुश हुआ जैसा खुशी का माहौल बना। न ही वह हमारे सतरु भइया जैसे विलन बने कि परदे पर आएं तो हमारे जैसे तब के नौजवान ताली बजाएं। पर इक्कसवीं सदी के पहले युग के नौजवानों को मजा आया मुन्ना भाई के कांचाचीनापन पर।

बचपन से ही हम इस बात को जानते थे कि अंग्रेजी में फिल्म समीक्षा लिखने वाले यह जरूर बताते थे कि फलां फिल्म हॉलीवुड की टंला फिल्म की नकल है। यहां भी हमारे एक अधेड़ दोस्त ने हमें बताया कि कांचा चीना ऑफ संजय दत्त तो हॉलीवुडीय महान अभिनेता मार्लन ब्रांडो की पिक्चर एकोल्पिकस नाउ के कर्नल कुर्ट की नकल हैं। कहां वह एक मिनिटिया भूमिका मार्लन ब्रांडो की और कहां यह अपने आप ही गीता पाठ करता हुआ हास्यास्पद विलन। हम बुढ़ा जो गये हैं। पर हमारे इक्कसवीं सदी के नौजवान तो अभी से अधेड़ हो गये हैं। पर हमने नौजवानों से कुछ सीखा है। उनमें से एक है फेस बुक। यह इंटरनेट का खुला सा बंद मंच है। इस मंच पर लोग अपनी भड़ास और व्यथा व्यक्त करते हैं। वहां हमारे गुरू परिवार की एक बेटी ने जाहिर की अग्निपथ पर अपनी व्यथा। बेटी अनपढ़ नहीं है। समझदार पत्रकार है। उसे अग्निपथ में बड़ी महान हिंसा दिखी और ऋतिक रोशन विस्मयकारी दिखे। हिंसा पर हमने भी फेसबुकिया दिया कि बीसवीं सदी के सातवें दशक से जो सिनेमाई समाज बना, जिसे विज्ञापन की दुनिया ने इक्कसवीं सदी का महानायक बना दिया, अमिताभ बच्चन ही जिम्मेदार हैं। हालांकि सच यह है कि वह जिम्मेदार नहीं हैं। जिम्मेदार तो उनका कभी का मित्र परिवार गांधी परिवार का शासन रहा है। सिनेमा में इसका चलन हमें एक चतुर सुजान ने हमें हमारी नौजवानी के दिनों में समझाया था कि हैरॉल्ड रॉबिंस के अंग्रेजी उपन्यास कॉरपेटबेगर से यह परंपरा चली कि बाप का जहां पर कत्ल हुआ हो, वहीं पर जा कर बेटा बाप के कातिल को मारता है। अभी हमारे नौजवान फिल्मी समीक्षकों ने फिर से याद दिलाया कि ओरिजनल अग्निपथ हॉलीवुडीय स्कारफेस से प्रेरित थी। उस स्कारफेस में हीरो थे अल पचिनो – बेचारे हमारे तरह ही बुढ़ा गये हैं। पर अंग्रजीदां नौजवां और टीवीदेखक ज्ञानी उन्हें गीता ज्ञान से भरपूर गॉडफादर सीरिज से जानते हैं। बड़ी वाली गॉडफादर में मॉर्लन ब्रांडो ही हीरो थे यानी गॉडफादर। उसमें उन्‍होंने अपनी आवाज बदली थी। हमारे आज के सिनेमाई सदी के महानायक अमिताभ बच्चन ने भी ओरिजनल अग्निपथ में अपनी आवाज बदली थी। बदले में पाया था भारत सरकार का सर्वश्रेष्ठ एक्टर का पुरस्कार। पता नहीं विस्मयकारी ऋतिक रोशन को बिना आवाज बदले कितने पुरस्कार मिलते हैं। लेकिन यह कहने में क्या जाता है कि इस अग्निपथ में वह लथपथ नहीं हुए। पर जैसे अमिताभ बच्चन ब्रांडो या पचिनो की ऊंचाई पर नहीं पहुंच सकते, वैसे ही रोशन भी अमिताभ बच्चन की ऊंचाई पर नहीं पहुंच सकते।

जवानी से अधेड़ावस्था में पहुंच रहे हमारे ओरिजनल अग्निपथ में एक थे मिथुन चक्रवर्ती नारियलवाला। अब वह गायब हैं। अब सामने आ गये हैं ताउम्र रोमेंटिक नाच गाना करने वाले ऋषि कपूर, क्षमा करें रिशी कपुर। हिंदी सिनेमा में हिंदी नाम बदल जाया करते हैं। आज कल हमें टीवी बता रहा है कि देखिए सुर्यवंषम्। हम मान लेते हैं कि यही सही है सूर्यवंशम् गलत है। तो हमारे नजवान रणबीर कपूर के पिता श्री ऋषि कपूर यहां हैं रौफ लाला यानी रउफ लाला। इस फिल्म में बेटी बेचवा हैं। ड्रग बेचवा हैं। काफी दिनों से हीरो के अगले पायदान चरित्र अभिनेता की भूमिका निभा रहे हैं। यहां उनको भी विलन कहा गया। पर कहां खुश हुआ मोगांबो। अगर गेट अप से ही कोई विलन बन जाए तो लोग कैसे याद करें असली वाले विलनों को। पर हैं तो हैं।

आज कल हिंदी सिनेमा में दो शब्द बहुत सुनाई पड़ते हैं – दोनो अंग्रेजी के शब्द हैं। एक है रेट्रो और दूसरा कल्ट। किसी जमाने में हम रेट्रोस्पेक्टिव बोलते थे। हमारे एक धांसू फिल्म समीक्षक मित्र सिंहदर्शन लिखते थे। हम फांसू लिखते बोलते थे सिंहावलोकन। अब इसको कैसे कहा जाए सिंहा – सो सहज लगता है रेट्रो। कुछ कुछ मनमोहन सिंह की इकॉनॉमी जैसा जो है भी और नहीं भी है। वैसे ही है कल्ट। हमें बार बार बताया गया है कि अग्निपथ फिल्म नहीं कल्ट फिल्म है। काहे का कल्ट। प्रतिशोध का – बदला का। तो बनी पढ़ी हैं ऐसी न जाने कितनी कल्ट फिल्में।

तो अपने आज के अग्निपथ का बाजारवादी सच यह है कि यह बाजार की दुनिया में खरा सोना साबित हुआ है। बाजार में यह इस साल की अभी तक की बाकी फिल्मों की तरह लथपथ नहीं हुआ है। बाकी जिसको जो कहना हो, अपनी अंगरेजन कैटरिना कैफ परदे पर ही चिकनी चमेली दिखती है। पर वह भी तो अपनी शीला की जवानी तक नहीं पहुंच पायी।

जैसे हमारे लोकतंत्र के बारे में कहा जाता है कि यह जनता का, जनता से, जनता के लिए है, वैसे ही मारधाड़ से भरपूर अग्निपथ नये फिल्मी बाजार का, बाजार से, बाजार के लिए है। आमीन!

(जुगनू शारदेय। हिंदी के जाने-माने पत्रकार। जन, दिनमान और धर्मयुग से शुरू कर वे कई पत्र-पत्रिकाओं के संपादन/प्रकाशन से जुड़े रहे। पत्रकारिता संस्थानों और इलेक्ट्रोनिक मीडिया में शिक्षण/प्रशिक्षण का भी काम किया। उनके घुमक्कड़ स्वभाव ने उन्हें जंगलों में भी भटकने के लिए प्रेरित किया। जंगलों के प्रति यह लगाव वहाँ के जीवों के प्रति लगाव में बदला। सफेद बाघ पर उनकी चर्चित किताब मोहन प्यारे का सफेद दस्तावेज हिंदी में वन्य जीवन पर लिखी अनूठी किताब है। फिलहाल पटना में रह कर स्वतंत्र लेखन। उनसे jshardeya@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं।)

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