Friday, 24 February 2012 10:20 |
अनिल चमड़िया आज उसका ढांचा इस रूप में हमारे सामने है कि सरकारी स्कूल आधुनिक शिक्षा के खंडहर-से दिखाई देते हैं। सरकारी स्कूलों का मतलब समाज के वंचित वर्गों को शिक्षा के नाम पर बहलाने-फुसलाने की इमारतें और भूखे बच्चों के मुस्कुराने के लिए उनमें कथित पोषाहार बांटने वाले ठिकानों के तौर पर होकर रह गया है। सरकारी स्कूल एक तरह से शैक्षणिक उपनिवेश की जगहें नजर आते हैं। जैसे अमीर देश या राज्य अपने लिए मजदूरों की जरूरत पूरी करने की खातिरकई इलाकों को पिछडेÞपन के गर्त में रखने की नीति मुस्तैदी से लागू करते हैं। यहां फिर से ऊपर के उदाहरण को अपने मूल सवाल के रूप में उठाना चाहता हंू। उस उदाहरण में भाषा का सवाल महत्त्वपूर्ण नहीं है। महत्त्वपूर्ण यह है कि समाज के वंचित हिस्से खुद को सक्षम बनाने के लिए एक भाषा की तरफ देखते हैं। वह भाषा उन्हें महत्त्वपूर्ण इसीलिए लगती है क्योंकि उन्हें संस्कृत, फारसी जैसी भाषाओं के जरिए ही वंचना की अवस्था में रहने की नियति तैयार की गई। उनका अंग्रेजी सीखना दूसरों को इसीलिए खल रहा था क्योंकि वे समाज को संचालित करने वाले सत्ता केंद्रों में हिस्सेदारी पा रहे थे। उनका अंग्रेजी पढ़ना एक सामाजिक समस्या के रूप में दिखाई दे रहा था। इस समस्या का आशय क्या हो सकता है? स्वातंत्र्योत्तर भारत में राष्ट्रवाद के नाम पर उन्हें अपनी कही जाने वाली भाषाओं की तरफ जाने के लिए तो प्रेरित किया गया, लेकिन उसमें मूल सवाल 'सत्ता में हिस्सेदारी के लायक' उन्हें बनाने का कतई नहीं था। यह बात सत्ता में उनकी हिस्सेदारी के जितने भी तरह के प्रयास हुए उनके तीखे विरोध से भी स्पष्ट होती है। हिस्सेदारी से वंचना जब राष्ट्रवाद या नवोदित राष्ट्र की नेतृत्वकारी शक्तियों के इरादे में ही शामिल हो तो वे शिक्षा के स्तर पर वे इसके लिए किस तरह की तैयारी कर रही थीं? यह कहना बेमानी होगा कि वंचितों को सरकारी स्कूलों में शिक्षा के अवसर मुहैया कराए गए। अवसर तब अवसर के रूप में व्यक्त होता है जब उसका उद्देश्य की पूर्ति में योगदान हो। कुल मिलाकर तो स्थिति यह बनी कि स्कूली शिक्षा, जो सत्ता में हिस्सेदारी और राष्ट्र-निर्माण में योगदान करने का विश्वास पैदा करती वह वंचना की स्थिति में रहने की ही नियति को विकसित कर सकी। भाषा का प्रश्न इस रूप में अगर अपनी जगह बनाए रखे कि वह वंचितों को वंचना की स्थिति में ही रखे तो हिंदी, फारसी और अंग्रेजी सब एक-से नाम लगने लगते हैं। अंग्रेजी का प्रश्न कभी भाषा के प्रश्न के रूप में नहीं आता है। वह राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक सत्ता को बनाए रखने के रूप में सामने आता है। आखिर यह कैसे संभव हो सकता है कि बहुमत से चुनी गई सरकारें तो भारतीय भाषाओं में शिक्षा का जाप करें और विशाल तंत्र, दूसरी- शासन करने वाली- भाषा का विकसित हो। इसका मतलब यह है कि कहने को भले लोकतंत्र हो, नीति-निर्धारण की निर्णायक जनता नहीं है, बल्कि व्यवस्था को चलाने वाली शक्तियां हैं। अब तो हिंदी भी नहीं रह गई है। अंग्रेजी से अनूदित भाषा को ही हम हिंदी के रूप में देख रहे हैं। क्या अनुवाद की भाषा से किसी समाज का वास्तविक और स्वाभाविक विकास हो सकता है? दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहलाने वाला भारत दुनिया का अकेला ऐसा देश है जिसके पास ज्ञान और चिंतन के लिए अपनी भाषा भी नहीं रही। |
This Blog is all about Black Untouchables,Indigenous, Aboriginal People worldwide, Refugees, Persecuted nationalities, Minorities and golbal RESISTANCE. The style is autobiographical full of Experiences with Academic Indepth Investigation. It is all against Brahminical Zionist White Postmodern Galaxy MANUSMRITI APARTEID order, ILLUMINITY worldwide and HEGEMONIES Worldwide to ensure LIBERATION of our Peoeple Enslaved and Persecuted, Displaced and Kiled.
Thursday, February 23, 2012
सत्ता में हिस्सेदारी और भाषा
सत्ता में हिस्सेदारी और भाषा
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