अभिव्यक्ति के सारे रास्ते बंद नहीं हुए हैं बशर्ते कि हमें उनके इस्तेमाल की तमीज हो और हमारे सरोकार भी जिंदा हों!
पलाश विश्वास
हमारे लोगों को जन्मदिन मनाने की आदत नहीं है । दरअसल उत्सव और रस्म हमारे यहां खेती बाड़ी और जान माल की सुरक्षा के सरोकारों से संबंधित हैं। धर्म और राजनीति भी।हमेशा की तरह मेरे परिवार और मेरे गांव से मेरे जन्मदिन पर इसबार भी कोई संदेश नहीं आया। लेकिन १७ मई की रात से फेसबुक पर संदेशों का धुंआधार होता रहा १८ की रात बारह बजे के बाद भी। इससे मैं अभिभूत हूं। सबसे ज्यादा संदेश पहाड़ से आये और सबसे कम बंगाल से, जहां मैं १९९१ से बना हुआ हूं।मैं इससे गौरव महसूस नहीं कर रह रहा। सैकड़ों संदेशों का अलग अलग जवाब देना स संभव नहीं है। पर फेसबुक मित्रों की सदाशयता का आभारी हूं। इस प्रकरण से मेरी यह धारणा और मजबूत हुई है कि जैसे राम चंद्र गुहा ने लिखा है कि मीडिया कारपोरेट के पे रोल पर है और हम लोग करीब चार दशक से ऐसा ही कह रहे हैं,इसके विपरीत अभिव्यक्ति के सारे रास्ते बंद नहीं हुए हैं बशर्ते कि हमें उनके इस्तेमाल की तमीज हो और हमारे सरोकार भी जिंदा हों!
१९९३ से २००१ तक मैं जब अमेरिका से सावधान लिख रहा था तब देशभर में लगभग सभी विधाओं में मेरी रचनाएं प्रकाशित हुआ करती थी। लेकिन चूंकि शुरू से मैं मुख्यधारा के बजाय हाशिये का लेखक रहा हूं और आलोचकों ने मेरी कोई सुधि नहीं ली, इस पर कोई हंगामा नहीं बरसा। दो दो खाड़ी युद्ध बीत गये। भूमंडलीकरण का पहला चरण पूरा हो गया, पर कारपोरेट साम्राज्यवाद पर नब्वे के दशक में लिखे और व्यापक पैमाने पर छपे मेरे उपन्यास की चर्चा भूलकर भी किसी ने नहीं की। लोग अरुंधति को छापते रहे, क्योंकि वे सेलिब्रिटी हैं। हाल में जब बांग्ला साहित्यकार महाश्वेता देवी ने हिंदुस्तान में एक टिप्पणी कर दी तो कुछ मित्रों को जरूर याद आया। पर हिंदी के पाठक समाज को हमारे लिखे की कोई परवाह नहीं थी और न हमारा लिखा उनतक पहुंच सकता था। मुख्यधारा में तो शुरू से हम अस्पृश्य रहे हैं, पर आहिस्ते आहिस्ते लघु पत्रिकाओं ने भी हमें छापना बंद कर दिया। पर हमारे पास मुद्दे इतने ज्वलंत और हमारे वजूद से जुड़े रहे हैं कि लिखे बिना हमारा काम नहीं चलता था।
इंटरनेट पर तब न फेसबुक था और न ब्लाग ईजाद हुआ था। ट्विटर की त्वरित टिप्पणियां बी नदारद थी। अंग्रेजी माध्यम और अंग्रेजी साहित्य का छात्र होने के बावजूद हमने २००३ तक अंग्रेजी में लिखने का कभी दुस्साहस नहीं किया। तब याहू ग्रुप्स थे और वहां अच्छा खासा संवाद जारी था। हमने इस माध्यम को अपनाने का फैसला किया और अपनी बरसों अभ्यास से बाहर की भाषा अंग्रेजी में लिखना चालू कर दिया। तब याहू में हिंदी का प्रचलन नहीं था। अंग्रेजी में देश विदेश में छपने भी लगा। फिर ब्लाग का प्रचलन हुआ। हमारे मित्र डा मांधाता सिंह लगातार लिख रहे थे और दूसरे मित्र भी सक्रिय थे। लेकिन हिंदी में इनस्क्रिप्ट टाइपिंग का आदी न होने और देर से यूनीकोड आने की वजह से नेट पर हिंदी में लिखना मेरे लिए मुश्किल काम रहा। मैंने एनडीटीवी, इंडियाटाइम्स और सिफी ब्लाग पर लिखना शुरू किया। वेब दुनिया में हिंदी में लिखने का अभ्यास करता रहा अलग। प्रतिक्रिया भी कड़ी होने लगी। एक वक्त तो एनडीटीवी की पत्रकार बरखा दत्त ने सबको मेल भेजकर मेरे बहिष्कार का आह्वान तक कर दिया। एनडीटीवी के ब्लाग माडरेट किये जाने लगे और मैं हमेशा के लिए काली सूची में दर्ज हो गया। सिफीब्लाग खत्म ही हो गया और इंडियाटाइम्स में पोस्टिंग बंद हो गयी।बांग्लादेशन्यूज पर रोजाना मैं छपता था पर अमेरिका से उसके हितैषियों ने इतना तेज मुहिम चेड़ा हमारे खिलाफ कि वहां भी लिखना बंद हो गया।
२००५ तक संपादकों के कहे मुताबिक और उनकी मांग के मुताबिक न लिखने के कारण मेरा लघुपत्रिकाओं में छपना भी बंद हो गया। हारकर मैंने अपनी सारी रचनाएं कबाड़ीवाले को बेच दी। अमेरिका से सावधान के प्रकाशित और अप्रकाशित अंश भी। अब वह किताब कभी नहीं आयेगी। बीच में कुछ दिनों कविताएं भी लिखी थीं।तो हमने कविताओं और कहानियों को भी तिलांजलि देदी।
२००१ में पिता की मौत के बाद शरणार्थी आंदोलन मेरे वजूद का हिस्सा बन गया। पहले से ही मैं मुद्दों पर लिखना पसंद करता रहा हूं और कोलाहल का दोषी रहा हूं। पर २००१ के बाद मेरे लिखने का मकसद सिर्फ आंदोलन और आंदोलन है। नतीजतन मैं मीडिया और साहित्य दोनों से निर्वासित हो गया। मैं बाजार के हक में नहीं , लगातार बाजार के खिलाफ लिखता रहा हूं। बतौर आजीविका पत्रकारिता की नौकरी में भी मेरे कुछ होने की संभावना नहीं थी। कम से कम जनसत्ता ऐसा अखबार है कि जहां बाजार के हक में लिखना नौकरी की शर्त नहीं है, इसलिए तमाम गिले शिकवे के बावजूद जनसत्ता में बना रहा और आगे कहीं जाने की योजना भी नहीं है।मेरे पास अपना कंप्यूटर तो हाल में हुआ वरना साइबर कैफे से ही मैं अपना काम करता रहा हूं जैसे मेरा बेटा एक्सकैलिबर स्टीवेंस मुंबई से कर रहा है क्योंकि वह एक दम फुटपाथ पर है।
पर अंग्रेजी में लिखकर अपने लोगों को संबोधित करना मुश्किल है, यह तो हमारे गुरुजी ताराचंद्र त्रिपाठी ने हमें जीआईसी में अच्छी तरह समझा दिया था। उन्होंने कहा था कि अंग्रेजी सीखों क्योंकि अंग्रेजी सत्ता की भाषा है और सत्ता को संबोधित करने के लिए अंग्रेजी का ज्ञान जरूरी है।तब मैं सिर्फ बांग्ला में लिखा करता था क्योंकि वह मेरी मातृभाषा है। पर गुरूजी ने मुझे यकीन दिलाया कि हिंदी भी मेरी मातृभाषा है और अपने लोगों को संबोधित करने के लिए मुझे हिंदी में ही लिखना होगा। पर लगभग एक दशक तक मैंने गुरूजी के आदेश का उल्लंघन किया और हिंदी के बजाय अंग्रेजी में लिखता रहा। गुरूजी ने हिंदी या बांग्ला में न लिखने के लिए नहीं कहा था बल्कि हिदायत दी थी कि हर हाल में हिंदी में भी लिखना है।
हमने देखा कि किस तेजी से याहू और गूगल समूहों में संवाद की गुंजाइश खत्म कर दी गया। अश्लील सामग्री और स्पैम के जरिये यह मंच निस्प्रभावी बना दिया गया। जन्मदिन से मैंने बात दरअसल फेसबुक और सोशल मीडिया कीबढ़ती ताकत की और इशारा करने के लिए शुरू की। हम जैसे बिना चेहरे के कबंध अछूत शरणार्थी के जीने मरने का क्या? गनीमत है कि हम खेती में मरे कपे नहीं और जैसे भी हों प्रभाष जोशी की कृपा से जनसत्ता में आ गये। हमारे यहां शरणार्थी उपनिवेश में चिकित्सा का कोई इंतजाम नहीं था। पिताजी तो यायावर आंदोलनकारी थे। एकदम शिशु अवस्था में मैं मरणासन्न था। तब चाचा जी ने जुआ खेलते हुए होम्योपथी और ऐलोपैथी का काकटेल बनाकर मेरा इलाज किया था और मैं बच निकला। थोड़ा बड़ा होने पर मेरी दादी ने मुझे यह कहानी सुनायी थीं। पर मेरी दो बहनें इतनी भाग्यशाली न थीं। चाचाजी तब असम में दंगापीड़ित शरणार्थियों के बीच काम कर रहे थे और पिताजी हमेशा आंदोलन में व्यस्त। मेरी दो दो बहनें एक ही साथ बिना इलाज मर गयीं। घर में दादी, ताई, मां और चाची का वह सामूहिक रुदण का दृश्य मुझसे कभी भुलाया नहीं जायेगा। बाद में जब हालात थोड़े बेहतर हहुए , तब हमारे भतीजे विप्लव को महज छह साल की उम्र में हमने खो दिया। उसकी लाश कंधे पर ढोने के बाद जीने मरने का या किसी जन्मदिन का हमारे लिए कोई मायने नहीं है। पर सारी संपत्ति चली जाने के बावजूद न मेरे मां बाप ने और न हमारे परिवार ने आंदोलन का रास्ता छोड़ा और न हम छोड़ेंगे। कला और उत्कर्ष, मान्यता और पुरसकार के लिखते होंगे विद्वतजन सवर्ण, उससे हमारा क्या? विचारधारा हो या साहित्य संस्कृति , अपने लोगों के काम के न हों तो उसके होने न होने का क्या मतलब है?ऐसा मेरे लगभग अपढ़ पिता का कहना था।
बंगाल में ३४ साल के वाम शासन के बावजूद हमें किसी भी भाषा मे हिंदी और अंग्रेजी तो दूर बांग्ला में भी अभिव्यक्ति की आजादी नहीं मिली। इतना वैज्ञानिक सवर्ण वर्चस्व है यहां। अस्पृश्य भी छपते हैं और उन्हें पांत में जगह भी मिल जाती है पर अपने लोगों के हक में कुछ कहने और वर्चस्व के विरोध में आवाज बुलंद करने की इजाजत नहीं है। अगर किसी भी मायने में मैं लेखक हूं तो भारतीय लेखक हूं, बंगाल में बाहैसियत लेखक या पत्रकार हमारी कोई पहचान नहीं है। हमारे मित्रों को याद होगा, जब प्रभाष जी बाकायदा जीवित थे और जनसत्ता के सर्वेसर्वा थे, तब हंस में उनके ब्राह्मणवादी होने के खिलाफ मेरी टिप्पणी आयी थी!दिल्ली में हिंदी विश्वविद्यालय के कार्यक्रम में मैंने बाकायदा देशभर के विद्वतजनों को और खासकर हिंदीवालों को चेताते हुए कहा था कि हिंदी समाज को अपने हक हकूक का ज्ञान नहीं है। उसके पास जो अच्छी चाजें होती हैं, उसकी हिफाजत करना उसे नहीं आता। हिंदी समाज का कोई नायक नहीं है।मेंने दिल्ली के पत्रकारों और साहित्यकारों की मौजूदगी में कहा था कि जनसत्ता और हिंदी मीडिया की हत्या की जा रही हैं। हिंदी के प्रबुद्ध जन कुछ करें। तब भी हमें नौकरी की कोई परवाह नहीं थी। छपने , न छपने और प्रोमोशन पाने न पाने, बदली हो जाने की भी नहीं। मायनेखेज बात यह है कि प्रभाषजी और ओम थानवी के खिलाफ कड़े लफ्ज के इस्तेमाल के बावजूद उसके करीब सात आठ साल बाद भी मैं जनसत्ता में बना हुआ हूं। मैं कार्यकारी संपादक ओम थानवी से नहीं मिलता , उनके साथ बैठकों से गैर हाजिर रहता हूं, सिर्फ इसलिए कि हालात बदलने वाले नहीं है। किसी और अखबार में होता तो क्या होता?
प्रभाष जोशी या ओम थानवी ने कभी मेरे सार्वजनिक बयानों या लेखों पर प्रतिक्रिया नहीं दी। ऐसा आंतरिक लोकतंत्र नहीं मिलने वाला अन्यत्र, यह जानकर सबएडीटर बना रहना हमने बेहतर माना अन्यत्र जाकर बेहतर वेतन, बेहतर ओहदे के प्रलोभन से बचते हुए।मैंने प्रभाष जी के मरने के बाद उन पर कुछ नहीं लिखा। न हमारे कार्यकारी संपादक से हमारे मधुर संबंध हैं और सभी जानते हैं कि जरुरत पड़े तो मैं किसी को छोड़ता नहीं हूं। दरअसल प्रभाष जी की मृत्यु के इतने दिनों बाद उनको लेकर और जलसत्ता को लेकर सोशल मीडिया में जो चल रहा है, वैकल्पिक मीडिया की हमारी लड़ाई को पलीता लगाने के लिए वह काफी है।हमारे साथ जो हुआ, वह छोड़ दें , यह सच है कि जनसत्ता को जनसत्ता बनाया प्रभाष जोशी ने और हम जानते हैं कि जनसत्ता को बचाने की उन्होंने मरते दम अकेले दम कोशिश की है, हिंदी समाज ने उनका साथ नहीं दिया। जब प्रभाष जी हालात नहीं बदल पाये, तो ओम थानवी को कोसकर लोग जनसत्ता का क्या और हिंदी का क्या, समाज का क्या भला कर रहे हैं ?
किसी के साथ बैठने न बैठने को लेकर हमारे दिमाग में कोई अवरोध नहीं है। हमारे लोग अल्पसंखयकों में हैं बंगाल में और बंगाल से बाहर । वजूद के लिए वे पाला बदलते रहते हैं। राजनीति बदलते हैं। विचारधारा बदलते हैं।ऐसा उनका चरित्र नहीं, उनके हालात हैं।शरणार्थी समस्या और हमारे लोगों की नागरिकता की समस्या को लेकर जब हमें देश के किसी राजनीतिक दल या संगठन का साथ नहीं मिला और मूलनिवासी बामसेफ ने समर्थन किया, तो हम उनके मंच पर जाते रहे हैं। आगे भी जरुरत पड़ी तो किसी के साथ भी हम संवाद कर सते हैं बशर्ते कि हमारे लोगों की जान बचायी जा सकें। आप चाहे कितने क्रांतिकारी हों और चाहें आपका संगठन कितना मजबूत हो, अगर आप और आपके संगठन की दिलचस्पी हमारे लोगों की समस्याओं में नहीं है तो आपसे हमारा क्या मतलब? असल तो मुद्दे और सरोकार हैं। हम तो अपने लोगों के लिए ममता बनर्जी, उदित राज, अखिलेश यादव, जय ललिता, सुषमा स्वराज, नवीन पटनायक किसी के साथ भी बात कर सकते हैं, हालांकि हम उनके समर्थक नहीं हैं।कोई किसी के साथ बैठ गया या कोई किसी से मिला , इस बतकही में आप तो कारपोरेट साम्राज्यवाद और खुले बाजार के वर्चस्व को ही बढ़ावा दे रहे हैं।
सच बात तो यह है कि हिंदी समाज एक भयंकर आत्मघाती दुश्चक्र में फंसा हुआ है और इतना मासूम बना हुआ है कि बाजारू चालों को पकड़ने में नाकाम है। हमें तो किसी राम चंद्र गुहा, अरुंधति राय , पी साईनाथ, महाश्वेता देवी या भारत विशेषज्ञ की बात ही समझ में आयेगी ?पर उनको सुनेंगे, पढ़ेंगे और करेंगे अपने मन की। पंचों की राय सर माथे पर.. हमारेयहां होली रंगीन उत्सव है और हम खुद कम रंगीन नहीं है। दूसरों को रंगने और उनके कपड़े फाड़ना तो हमारी संस्कृति है। लोग मुद्दों से भटककर कीचड़ उछालों अभियान में लग गये हैं। कारपोरेट आईपीएल मीडिया तो यही कर रहा है। आनंद स्वरुप वर्मा, प्रभाष जोशी, ओम थानवी,उदयप्रकाश, दिलीप मंडल, मंगलेश डबराल, वीरेन डंगवाल, वगैरह वगैरह पर बहस केंद्रित करके हम लोग असली मुद्दों से भटक रहे हैं और ब्लागों को भी उसी परिणति की ओर ले जा रहे हैं , जो याहू और गूगल समूहों की हुई।यह सब लिखने का मतलब यह नहीं है कि में किसी की चमचई कर रहा हूं या उनका बचाव। न मेरी ऐसी कोई हैसियत है और न चरित्र। कम से कम हमारे मित्र और शायद दुश्मन भी जानते होंगे। मेराआशय इस विनम्र निवेदन हसे है कि गांव देहात के जो करोड़ों लोग सोशल नेटवर्किंग से जुड़े हैं और तेजी से जुड़ते जा रहे हैं, उन्हें हम मुद्दों से बेदखल न करें। ऐसा करके आप हमारे लड़ाकू साथियों की चार दशकों की मेहनत और प्रतिबद्धता पर पानी फेर रहे हैं।
मुझे कोई छापें या न छापें, पढ़ें या न पढ़ें, सोशल मीडिया की वजह से मैं अपने लोगों को संबोधित कर पाता हूं। हर हाथ में मोबाइल हो जाने के बाद सोशल मीडिया की पहुंच तथाकथित मुख्यधारा और लघुपत्रिकाओं से ज्यादा है। बसंतीपुर मेरे गांव, दिनेशपुर मेरे इलाके, उधमसिंह नगर मेरे जिले, नैनीताल मेरा गृहनगर और मेरे पहाड़ के लोगों तक मेरी बात पहुंचती हैं और उन्हें मेरी परवाह है, जन्मदिन की बधाइयों से कम से कम मुझे ऐसा अहसास हुआ। उनकी प्रतिक्रियाएं तो मिलती रहती हैं।कृपया मेरे लिखे पर विवेचन करें। अगले ५ जून से पहले मेरा लिखा आपको शायद ही मिले। क्योंकि मैं २२ को मंबई रवाना हो रहा हूं और २० - २१ को कोलकाता में ही व्यस्त रहना है। इस अवधि में आप चाहे कुछ करें, लेकिन वैकल्पिक मीडिया को बचाने के बारे में सोचें जरूर!
This Blog is all about Black Untouchables,Indigenous, Aboriginal People worldwide, Refugees, Persecuted nationalities, Minorities and golbal RESISTANCE. The style is autobiographical full of Experiences with Academic Indepth Investigation. It is all against Brahminical Zionist White Postmodern Galaxy MANUSMRITI APARTEID order, ILLUMINITY worldwide and HEGEMONIES Worldwide to ensure LIBERATION of our Peoeple Enslaved and Persecuted, Displaced and Kiled.
Saturday, May 19, 2012
अभिव्यक्ति के सारे रास्ते बंद नहीं हुए हैं बशर्ते कि हमें उनके इस्तेमाल की तमीज हो और हमारे सरोकार भी जिंदा हों!
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