Friday, 20 July 2012 11:11 |
अरविंद मोहन वह भी एक बड़ा दुरुपयोग और अनैतिक काम था। और कांग्रेस ने परमाणु करार मामले पर सरकार को बचाने से लेकर कई मामलों में मुकदमों और सीबीआई का दुरुपयोग किया है। आज गलत धन के मामले में दिवंगत वाईएसआर का नाम मजे से लिया जाता है, लेकिन टूजी समेत अनेक मामलों में प्रमोद महाजन का नाम लेने से सिर्फ यह कह कर परहेज किया जाता है कि वे अब दिवंगत हो चुके हैं। अचरज नहीं कि इसमें अक्सर कथित राष्ट्रीय पार्टियां खेल करती दिखती हैं और क्षेत्रीय सूरमा शिकार होते हैं। कई बार तो यह घटिया तर्क दिया जाता है कि इन पिछड़े लोगों को पैसा लेना भी नहीं आता। यह संयोग नहीं है कि शिबू सोरेन हों या बंगारू लक्ष्मण, मायावती हों या मुलायम और लालू हों या ए राजा जैसे लोग ही फंसते दिखते हैं। अब इन लोगों ने अगर भ्रष्टाचार किया है तो इनको या इन जैसे सभी लोगों को पकड़ना, दंडित करना चाहिए, इनसे जनता के धन की वसूली होनी चाहिए, पर सिर्फ यही दोषी हों या पकड़े जाना ही उनका गुनाह हो तो यह व्यवस्था पूरी जांच और धर-पकड़ की प्रणाली को सवालों के घेरे में लाती है। और फिर चोरी न पकड़े जाने से ज्यादा नुकसान इस चीज से होता है कि चोरी मुख्य मुद्दा ही नहीं रह जाता। फिर राजनीतिक भेद और जातिगत-सामाजिक भेद ऊपर आ जाते हैं और राजनीति में गलत पैसे की बात कहीं सिर्फ खिलवाड़ बन कर रह जाती है। और इस चक्कर में यह सवाल तो कहीं उठता ही नहीं कि क्या राजनीति सिर्फ वोट पाने और उसके लिए जरूरी पैसे जुटाने का खेल है? जब से यह चलन शुरू हुआ है तभी से क्यों सारी वैचारिक राजनीति विदा हो गई है और संघ और कम्युनिस्ट जमातों में भी पैसे वालों का जोर बढ़ा है। संघ अपनी गुरुदक्षिणा के लिफाफों पर यह संकेत देने लगा है कि कौन कितनी गुरुदक्षिणा देता है, पर वह भी सवाल नहीं करता कि यह धन कैसा है। बात इतनी होती तब भी माफ किया जा सकता था- बोरी भर कर दक्षिणा देने वालों की ज्यादा पूछ होने लगी है। विजयन-अच्युतानंदन में माकपा नेतृत्व क्यों विजयन के साथ रहता है, यह पहेली नहीं है। आते ही प्रमोद महाजन भाजपा पर यों ही नहीं छा गए थे। कांग्रेस में मुरली देवड़ा और अहमद पटेल की पूछ भी धन इकट््ठा करने के उनके कौशल से जुड़ी है। अमर सिंह मुलायम के और प्रेम गुप्ता लालू यादव के यों ही दुलारे नहीं हो जाते। गौर से देखने पर यह भी मिलेगा कि साठ के दशक के अंत से जब राजनीति में पैसे, बाहुबल और जाति-धर्म का जोर बढ़ना शुरू हुआ है तभी से संघर्ष करने वालों, रचनात्मक काम करने वालों, पढ़ाई-लिखाई करके संगठन और पार्टी में ऊंची जगह पाने वालों की पूछ घटी है और अमर सिंह, प्रेम गुप्ता, मुरली देवड़ा-केसरी जैसों की चलती शुरू हुई है। तभी से कामदेव सिंह से बूथ कब्जा कराने की जरूरत पड़ने लगी, जो आज कई विधानसभाओं में करीब आधी तादाद अपराधी पृष्ठभूमि के लोगों की होने तक पहुंच गया है। पार्टियां अपने बुलेटिन और विज्ञप्तियां बाहरी एजेंसियों से बनवाने लगी हैं। चुनाव की रणनीति के लिए मार्केटिंग एजेंसियों की सेवा लेने में किसी को शर्म नहीं आती। यह काम कांग्रेस और भाजपा ही नहीं कम्युनिस्ट पार्टियों में और छोटी कही जाने वाली पार्टियों में भी होने लगा है। हर चुनाव मीडिया और मार्केटिंग वालों के लिए भारी कमाई का अवसर बन जाता है। फिर तो हम-आप भी यह सवाल नहीं पूछते कि आज की राजनीति में संघर्ष वाला, जनता के मुद्दों को लेकर जेल जाने वाला दौर क्यों गायब हो गया है। मायावती जितने दिन विपक्ष में रहती हैं सचमुच कुछ नहीं करतीं। कभी जनता या दलितों के लिए जेल जाना या संघर्ष करने का उनका रिकार्ड नहीं है- उल्टे अगर कोई सक्रिय होता लगे तो उसे ठिकाने लगाने की चिंता उन्हें जरूर होती है। पर वही क्यों, संसद और सड़क का अंतर तो सभी भूल गए हैं। कौन मसला कहां उठना चाहिए यह नहीं समझने के चलते ही संसद और विधानसभा अखाड़ों में तब्दील हो चुके हैं। और फिर इसी देश में गांधीजी रचनात्मक कामों को राजनीति का मुख्य हिस्सा मानते थे या लोहिया जेल, फावड़ा और वोट को राजनीति के तीन हथियार बताते थे यह तो लोग भूल ही गए हैं। वोट जरूरी है, वोट की राजनीति के लिए पैसे जरूरी हैं, लेकिन वही मुख्य कर्म और मुख्य राजनीति में बदल जाए तो यह दुर्भाग्यपूर्ण बात होगी। यही होता लग रहा है।
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This Blog is all about Black Untouchables,Indigenous, Aboriginal People worldwide, Refugees, Persecuted nationalities, Minorities and golbal RESISTANCE. The style is autobiographical full of Experiences with Academic Indepth Investigation. It is all against Brahminical Zionist White Postmodern Galaxy MANUSMRITI APARTEID order, ILLUMINITY worldwide and HEGEMONIES Worldwide to ensure LIBERATION of our Peoeple Enslaved and Persecuted, Displaced and Kiled.
Friday, July 20, 2012
जेल, फावड़ा और वोट का संतुलन नदारद
जेल, फावड़ा और वोट का संतुलन नदारद
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