Tuesday, 19 February 2013 10:55 |
कुमार प्रशांत जन लोकपाल की परिकल्पना में बार-बार इस बात पर जोर दिया गया है कि सीबीआइ को सरकारी चंगुल से आजाद किया जाए और इसके नियमन और संचालन के लिए स्वतंत्र व्यवस्था बने। उसकी परिकल्पना ऐसी है कि सीबीआइ लोकपाल के अधीन हो और उसके प्रति उत्तरदायी हो। लोकपाल सर्वोच्च न्यायालय के प्रति उत्तरदायी हो। सत्ताधारी कांग्रेस से लेकर कोई भी राजनीतिक दल सीबीआइ की इस परिकल्पना से सहमत नहीं है। सभी सीबीआइ की स्वतंत्रता चाहते हैं लेकिन तब तक, जब तक वे विपक्ष में हैं। सत्ता में आते ही सभी सीबीआइ नाम का डंडा अपने हाथ में रखना चाहते हैं। सीबीआइ के कार्यकलापों में सत्तादल की कदम-कदम पर दखलंदाजी होती है और वह राजनीतिक हथियार के तौर पर काम करती है, ऐसा हर सीबीआइ निदेशक खुलेआम बताता है- लेकिन अवकाश प्राप्ति के बाद! नौकरी करने और उससे जुड़ी सारी सुविधाओं और सुरक्षा का पूरा का पूरा फायदा उठाने लेने के बाद। अगर कोई दूसरी राजनीतिक फायदे वाली जगह नहीं मिली है, तो हर सीबीआइ प्रमुख और उसका बड़ा अधिकारी आपको बताएगा कि कब, कहां, कैसे किस सरकार या मंत्री ने उसका कैसे इस्तेमाल किया! लालूप्रसाद यादव, मायावती, मुलायम सिंह यादव, सुखराम आदि सभी सीबीआइ के मारे हैं और यह देश इनका मारा हुआ है। सीबीआइ के बनने से लेकर आज तक मुझे किसी भी निदेशक की याद नहीं है कि जिसने अपने कार्यकलापों में राजनीतिक दखलंदाजी का खुलेआम, जोरदार खुलासा किया हो और फिर बात इस्तीफे तक पहुंचा दी हो! अपने पेशे के बारे में, अपनी जिम्मेवारियों के बारे में, अपने सम्मान के बारे में और देश के प्रति अपने दायित्व के बारे में अगर इतनी सावधानी किसी सीबीआइ प्रमुख की नहीं है तो क्या वह इस पद का अधिकारी है? सड़क-चौराहे पर खड़े पुलिस कांस्टेबल से हम कितनी सारी अपेक्षाएं करते हैं लेकिन उनके अधिकारियों से ज्यादा रीढ़विहीन कोई देखा नहीं है हमने! सीबीआइ की कार्यकुशलता और उसकी तटस्थता का एक ही उदाहरण देना हो तो हम आरुषि हत्याकांड का उदाहरण ले सकते हैं। मुझे इसकी शिकायत नहीं है कि आरुषि हत्याकांड की गुत्थी अब तक नहीं सुलझी है। मेरी शिकायत यह है कि उसकी सारी की सारी गुत्थी सीबीआइ की अबूझ अकुशलता के कारण उलझी है। आरुषि अपने माता-पिता की कम, सीबीआइ के भोंडेपन की कहानी ज्यादा कहती है। मुझे लगता है कि किसी पुलिस अधिकारी को इस मामले की जांच सौंपी गई होती और उसे स्वतंत्रता से काम करने दिया गया होता तो उसने अब तक सारे मामले की जांच-परख कर, इसे सुलझा भी दिया होता और अपराधी जेल पहुंच चुके होते। लेकिन सीबीआइ ने उस पूरे कांड को इतना अशोभनीय औरभद््दा स्वरूप दे दिया है कि वह हमारे वक्त की बेहद करुण, अमानवीय दास्तान बन गई है। इस तरह दो बातें बचती हैं- सामान्य मामलों में भी सीबीआइ की तटस्थता और कार्यकुशलता बहुत कम दिखाई देती है और आज के स्वरूप में, राजनीतिक मामलों में उसकी स्वतंत्रता संभव ही नहीं है। फिर इस सीबीआइ को खत्म ही क्यों न करें हम? यह जनता का पैसा फूंकने वाली, बेहद खर्चीली व्यवस्था है जो जनता के प्रति (संसद के प्रति!) उत्तरदायी भी नहीं है। भयादोहन की इसकी क्षमता असीम है। यह रीढ़विहीन अधिकारियों की पनाहगाह बन गई है। ऊपर से नीचे तक के न्यायालयों ने कई-कई बार, कई-कई मामलों में इसकी कार्यप्रणाली की, इसकी सुस्ती की, इसके राजनीतिक झुकाव की तीखी आलोचना की है। सीबीआइ के कारण हमारी सामान्य पुलिस-व्यवस्था का स्तर इतना गिरा है कि वह हफ्ता वसूलने वाली एक सरकारी मशीनरी से ज्यादा कोई मतलब नहीं रखती है। उस पर न सरकार भरोसा करती है न समाज करता है। आज जरूरत इस बात की है कि इस पुलिस-व्यवस्था को झाड़-पोंछ कर खड़ा किया जाए। पुलिस के बिना हमारा समाज चले, ऐसा जब होगा तब होगा, अभी तो इतना हो कि हम अच्छी, सक्षम, कुशल पुलिस-व्यवस्था बनाने का अभिक्रम खड़ा करें। एक लोकतांत्रिक देश के समाज को सुचालित, संयमित और अनुशासित रखने वाली पुलिस कैसी होगी, इसकी कल्पना करें और उसमें रंग भरें तो सीबीआइ की इस बदरंग व्यवस्था के बोझ और खर्च से छुटकारा पा सकेंगे। |
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Tuesday, February 19, 2013
अंतहीन जांच के रास्ते
अंतहीन जांच के रास्ते
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