Wednesday, 20 February 2013 11:27 |
विजय बहादुर सिंह साहित्य का यह दल-दल इतना प्रबल था कि आज भी खत्म नहीं हो सका है। यह और बात है कि इसमें ढेर सारी अच्छी-भली प्रतिभाएं धंसकर और फंसकर रह गर्इं- एकाध कोई शमशेर, एकाध कोई नागार्जुन और एकाध कोई मुक्तिबोध ही सही साबुत बचीं। इनका अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व है। प्रयोगवाद के साथ भी, यहां तक कि नई कविता में भी यह दलदल कम नहीं था। वहां बौद्धिक चमत्कार की गूढ़ गांठें बहुत थीं। संघर्षशून्य जीवन का अवसरवाद बेहद चिकना और सयाना था। फलत: यों भी इसमें वैसा ताप और तेज नहीं आना था जैसा कि अपेक्षित था। अज्ञेय, भारती जैसी प्रतिभाएं ही अपनी सिद्धि पर पहुंच सकीं। भवानी प्रसाद मिश्र काव्य की इस चमत्कारवादी धारा से कभी भी सहमत नहीं हो पाए। बल्कि इसके विरुद्ध ही रहे। पिछली धारा के लिए जन-यथार्थ जहां बैनर और फैशन था, इस धारा के लिए एक बाहरी और उपेक्षणीय वस्तु। यहां काव्य-वस्तु से कहीं अधिक कवि-कथन की प्रबलता के साथ-साथ काव्येतर प्रतिमानों- यथा नयापन, आधुनिकता- का आग्रह अधिक था। कवि भवानी प्रसाद मिश्र ने लगभग झटकेदार तेवर में कहा- कवि न नया होता है, न पुराना। वह तो केवल कवि होता है। और प्रत्येक स्थिति में उसके होने का सबसे बड़ा निर्द्वंद्व अर्थ होता है कि जब भय और स्वार्थ से तमाम अभिजात, अनभिजात बौद्धिक आवाजें जिस-तिस रणनीति के तहत चुप्पी साध लेती हैं या हामीकार बन जाती हैं, कवि की आवाज आर-पार के इस अंधेरे को चीरती हुई सुनाई देती है। मुक्तिबोध ने ऐसी ही आवाजों को नमन करते हुए अभिव्यक्ति का खतरा उठाने वाली आवाज कहा था। और भवानी प्रसाद मिश्र में यह बान बचपन से ही थी। इसका एक कारण शायद यह रहा हो कि वे कोई समतल जमीन पर पैदा हुए और पले-बढ़े कवि नहीं थे। उनका बचपन और कैशोर्य ऐसे ही अगम-दुर्गम इलाकों के साहचर्य में गुजरा था- नदी-नालों और निर्झरों के साथ। वनों-पर्वतों के बीच। ऐसा न होता तो वे सन्नाटा (1936- तेईस बरस में), सतपुड़ा के जंगल (1939- छब्बीसवें साल में) कैसे लिख पाते। ये उनकी नहीं हिंदी की कालजयी कविताएं हैं। पर इनसे भी पहले चौदह-पंद्रह की उम्र में उन्होंने लिखकर बता दिया था- 'मैं माता का पूत कसौटी का कोई पत्थर ले आए/मुझसे ऐसी रेख खिंचेगी/जिससे सोना भी शरमाए।' और यह रेख उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन में भी खींची, ऐन पके हुए बुढ़ापे में भी, आपातकाल के विरुद्ध 'त्रिकाल-संध्या' की कविताएं लिखकर भी। हिंदी के पाठक शायद यह सीधा अर्थ लगा लें कि वे एक राजनीतिक कवि थे, जैसा कि आलोचक आंख मूंदे मानते और कहते रहे कि वे एक गांधीवादी कवि थे। कवि भवानी प्रसाद मिश्र ने इन दोनों ही कथनों को नकारते हुए कहा कि उनकी कविता बुनियादी तौर पर अहिंसा और प्रेम की कविता है, पर इस अर्थ में तो कदापि नहीं कि वह अपने आसपास घटित होते किसी अत्याचार को लेकर आंख मूंद लेगी। कवि के लिए यह प्राथमिक और बुनियादी कसौटी है, पर उसकी कविता की सहज प्रवृत्ति तो उस लोक के प्रति होनी चाहिए जिसमें धरती, आकाश, हवा-पानी और आग के साथ समूचा जीव-जगत सांस ले रहा है। जहां सन्नाटा भी है, शोर भी, नर्मदा का रव-संगीत है तो पहाड़ी नालों और निर्झरों का झर-झर गीत भी। ये तमाम ध्वनियां, ब्रह्माण्डीय अनुगूंजें उनकी कविता में जैसा स्वर-समारोह संयोजित करती हैं, वह समकालीन हिंदी कविता की एक दुर्लभ उपलब्धि है। इसलिए नहीं कि इसे भवानी प्रसाद मिश्र नामक कवि ने लिखा है, इसलिए कि इन नैसर्गिक अनुगूंजों ने भवानी प्रसाद मिश्र नाम के कवि को पहचान दी है। एक बात जिसकी ओर शुरू में भी इशारा किया गया है वह यह कि भवानी प्रसाद मिश्र अपनी कविता में उस क्रांतिकारी भारत को खोजते रहे जो पश्चिमी अंधड़ों में भूल-भटक गया है। याद करें तो यही लड़ाई गांधी, रवींद्रनाथ ठाकुर और कला के मोर्चे पर आनंद कुमार स्वामी भी लड़ रहे थे। धर्म के मोर्चे पर इसे विवेकानंद ने लड़ा था। ये वे स्वदेशी लड़ाइयां थीं, साम्राज्यवादी आधुनिकता जिन्हें आज भी उखाड़ फेंकना चाहती है। मैकाले के वंशजों की विपुल तादाद के बीच इन ठिकानों पर खड़े होना और लड़ना जिन कुछेक के लिए दीवानगी से कुछ कम नहीं था, भवानी प्रसाद मिश्र उनमें सबसे विरल योद्धा थे। उनकी कविता में उनकी यह मुद्रा कभी भी निस्तेज नहीं होती बल्कि रोज-रोज उसकी तेजस्विता का सौंदर्य बढ़ता ही जाता है। न उसके घुटने मुड़ते हैं, न रीढ़ झुकती है। न चित्त भयभीत होता है और न आंखें मुंदतीं या झपकती हैं। |
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Wednesday, February 20, 2013
कविता की स्वदेशी तेजस्विता
कविता की स्वदेशी तेजस्विता
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