संप्रभु राष्ट्र का क्या हुआ?
पलाश विश्वास
संसद का शीतकालीन अधिवेशन शुरु हो गया है। राजनीति के सौदेबाज, मौकापरस्त चेहरा देखने को अभ्यस्त भारतीय जनता को अपनी तकलीफों से निजात पाने का कोई मौका निकलता नहीं दिख रहा।संसदीय राजनीति के भगवेकरण और कारपोरेट राज की दोहरी पाट में नागरिक मानव अधिकार बेमायने हो गये हैं। वैश्विक वर्चस्ववादी कारपोरेट आक्रामक व्यवस्था के मातहत हम इसवक्त निर्मम खुले बाजार के मध्य बिना क्रय शक्ति के जीने की कोशिश भर कर रहे हैं। खाने को अनाज, रहने को घर और रोजगार के अलावा हमारी जरुरतें इतनी ज्यादा हो गयी हैं कि इसी व्यवस्था में खप जाने के सिवाय हमारे सामने कोई विकल्प नहीं है। डिजिटल बायोमैट्रिक नागरिकता के जरिये हमने अपनी निजता का समर्पण भी कर दिया है।अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मनोरंजन का पर्याय बन गया है । सूचनाएं मिलती नहीं है।लोकतांत्रिक तमाम संस्थाएं संस्थाएं गैर प्रासंगिक हो गयी हैं।ऐसे में जब हम अपनी संप्रभुता के प्रति सजग नहीं हैं, अपने मौलिक अधिकारों के लिए लड़ने को तैयार नहीं है तो सत्ता की राजनीति पर अंकुश लगाने का प्रश्न ही नहीं उठता।पर भारत एक लोक गणराज्य है, संप्रभु राष्ट्र है। उसकी संप्रभुता का क्या हुआ?
आर्थिक सुधारों के प्रति सर्वदलीय आम सहमति है, इसमें लोकलुभावन विरोध के बावजूद शक की कोई गुंजाइश नहीं है। सुधारों के लिए धार्मिक राष्ट्रवाद का उन्माद चरमोत्कर्ष पर है।हम लगातार यह कहते और लिखते रहे हैं कि नवउदारवादी आर्थिक नीतियों और पूंजी के अबाध प्रवाह के नाम पर कालेधन की अर्थ व्यवस्था का हिंदू राष्ट्रवाद के पुनरुत्थान से चोली दामन का साथ है।अभी शिवसेना महानायक बाल ठाकरे के निधन और कसाब को फांसी के मामले में केंद्र की कांग्रेस सरकार ने उग्र हिंदू राष्ट्रवाद के मामले में संघ परिवार को मीलों पीछे छोड़ दिया है। मुकाबला अब हिंदुत्व और हिंदुत्व के बीच है, धर्म निरपेक्षता, लोकतांत्रिक मूल्य और सांस्कृतिक वैविध्य सिर्फ कहने की बात है।संसद या सरकार नीति निर्दारम नही करतीं, इसलिए संसदीय सत्र की नीति निर्धारण में कोई भूमिका नहीं बन पाती। जब राजनीति की ही कोई जवाबदेही नहीं है, तो संसदीय बहस से क्या फर्क पड़ने वाला है।संसद को बाईपास करके तमाम निर्णय कारपोरेट लाबिइंग के मुताबिक हो जाते हैं और बिना कानून पास कराये उन पर अमल भी हो जाता है। आधार कार्ड योजना इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। विनिवेश और विदेशी पूंजी निवेश के सारे मामले संसद कों अंधेरे में रखकर हो रहे हैं।
भारत में वर्चस्ववादी राजनीति व अर्थव्यवस्था के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार कांग्रेस है। सामाजिक योजनाओं की उसकी मुहिम भी बाजार को विस्तार देने के लिए संभावित ग्रामीण उपभक्ताओं को नकदी की आपूर्ति सुनिश्चित करने का मामला है। सरकारी खर्च बढ़ने से ही बाजार का कारोबार चलता है। कृषि और कृषि आधारित उत्पादन प्रणाली को ध्वस्त करने, भूमिसुधार लागू न करने, संसाधनों की लूटखसोट, बहुसंख्यक जनता की जल जंगल जमीन और आजीविका से बेदखली के लिए कांग्रेस की नीतियां ही जिम्मेदार हैं। पर हिंदू राष्ट्रवाद के पुनरूत्थान के मामले में हम हमेशा संघ परिवार को घेरते रहे हैं। वामपंथी राजनीति संघ परिवार को अस्पृश्य मानकर चलते हुए हमेशा कांग्रेस के बचाव में खड़ी हो जाती है।अंबेडकरवादी और समाजवादी राजनीति सामाजिक न्याय के बहाने हमेशा कांग्रेस के साथ खड़ी हो जाती है। पर अब कांग्रेस के धर्मनिरपेक्ष चेहरे का पोस्टमार्टम करना सबसे जरूरी लगता है।सिख नरसंहार के मामले में अभीतक दोषियों को सजा नहीं मिल पायी। अगर सिख नरसंहार के मामले में न्याय हो जाता तो सायद गुजरात नरसंहार की नौबत नहीं आती। रामजन्मभूमि आंदोलन को त्वरा मिलने और अंततः बाबरी मसजिद विध्वंस के परिणाम तक पहुंचने की शुरुआत के पीछे उग्र हिंदुत्व का माहौल सिख विरोधी दंगों से बनने लगा था। दूरदर्शन पर रामायण और महाभारत के प्रसारण और राममंदिर का ताला खुलवाकर कांग्रेस ने ही हिंदू राष्ट्रवाद को भारत में वैधता दी।अभी कांग्रेस के ही पूर्व रक्षा मंत्री और भाजपा के योजना आयोग उपाध्यक्ष केसी पंत के निधन पर राजकीय शोक न मनाने वाली कांग्रेस ने महाराष्ट्र से निरंतर घृणा अभियान के जरिये देश भर में सांप्रदायिकक उन्माद भड़काने वाले शिवसेना के सुप्रीमो बाल ठाकरे के निधन पर राजकीय अंतिम संस्कार का बंदोबस्त किया। मीडिया ने लाइव प्रसारण के जरिये इसे हिंदुत्व लहर बनाया तो महाराष्ट्र सरकार ने अपनी ऐहतियाती कार्रवाइयों से मुंबई को इतना आतंकित कर दिया कि वहां जनजीवन स्तब्ध हो गया। शिवाजी पार्क पर बाला साहेब के सार्वजनिक अंतिम संस्कार और वहां उनके स्मारक बनाये जाने के पीछे कांग्रेस की सबसे बड़ी भूमिका है। शाहीन के फेसबुक मंतव्य पर महाराष्ट्र पुलिस की कार्रवाई पर शिवसेना की सांप्रदायिक राजनीति से ज्यादा कांग्रेस के हिंदुत्व का असर ज्यादा है।इस बीच, मुंबई के जिस शिवाजी पार्क में बाल ठाकरे का अंतिम संस्कार हुआ, शिवसेना नेताओं ने वहीं उनका स्मारक बनाने की मुहिम छेड़ दी है। सरकार ने भी कहा है कि अगर ऐसा प्रस्ताव आया तो सहानुभूतिपूर्वक विचार किया जाएगा। लेकिन इस मुहिम से वे लोग खासे परेशान हैं जो इस पार्क के इर्दगिर्द रहते हैं। शिवसेना नेताओं का कहना है कि स्मारक का विरोध करने वालों को मुंबई में रहने का हक नहीं है। शिवसेना सांसद संजय राऊत ने कहा कि शिवाजी पार्क पर स्मारक होकर रहेगा क्योंकि शिवसैनिकों की ऐसी इच्छा है। उद्धवजी ने बोला है कि अगर शिवसैनिक चाहते हैं तो वो कुछ नहीं बोलेंगे। शिवाजी पार्क के आसपास रहने वालों को इससे क्या दिक्कत है। तकलीफ है तो वो मुंबई में रहने लायक नहीं।बहरहाल, महाराष्ट्र के शहरी विकास मंत्री ने कहा है कि प्रस्ताव आया तो सहानुभूतिपूर्वक विचार किया जाएगा। उधर, बाल ठाकरे के बेटे और शिवसेना के कार्यकारी अध्यक्ष उद्धव ठाकरे फिलहाल इस मुद्दे पर विवाद नहीं चाहते। उन्होंने कहा है कि बाला साहब के स्मारक पर विवाद नहीं चाहिए। स्मारक पर निर्णय शिवसैनिक लेंगे। यह वक्त बहस करने का नहीं है।हालांकि शिवसेना के तेवर बताते हैं कि वो इस मांग से आसानी से पीछे नहीं हटेगी। शिवाजी पार्क में ही शिवसेना का गठन हुआ था, लिहाजा यहां स्मारक बनाना उसके लिए भावनात्मक मुद्दा है। स्थानीय निवासियों का विरोध उसके लिए शायद ही कोई मायने रखे।
कभी वियतनाम युद्ध के खिलाफ तो वामपंथी राज के ३५ साल के दौरान कोलकाता की सड़कों पर अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ तूफान खड़ा कर देने वाले वामपंथी अभी गाजा में इजराइली हमले और नरसंहार के खिलाफ किसी विरोध रैली का आयोजन भी नहीं कर सकी।इसकी वजह क्या है इसवक्त मुस्लिम वोट बैंक ममता बनर्जी के कब्जे में है, जिसे वामपंथियों के पाले में लौटना फिलहाल असंभव है। पर ममता के मुस्लिम राजनीति से नाराज बंगाल के सवर्ण समाज को अपने पक्ष में लाने के लिए गाजा हो या रोहिंगा मुसलमानों का मामला, वामपंथी कुछ बोल नहीं रहे।
आर्थिक नीतियों के खिलाफ फर्जी ही सही, राजनीति विरोध दर्ज कराती रही है। पर इस दरम्यान भारत के फ्रतिरक्षा और आंतरिक सुरक्षा के मामलों में इजराइल पर तेजी से निर्भर होते जाने का भी वामपंथी विरोध नहीं कर रहे।संघ परिवार की नीतियां और ग्लोबल हिंदुत्व इजराइल के साथ है। इजराइल के साथ भारत के इस मधुर संबंध के लिए श्रेय भी संघ परिवार को जाता है।कांग्रेस ने तो जवाहर इंदिरा की विदेश नीति को विसर्जित ही कर दिया।इससे बड़ी राष्ट्रीय शर्म क्या हो सकती है कि कभी निर्गुट आंदोलन के नेता रहे भारत ने गाजा संकट पर कोई भूमिका नहीं निभायी?
आंग सान सू की की भारत यात्रा के दरम्यान रोहिंगा मुसलमानों पर म्यांमार में हो रहे अत्याचारों पर भारत सरकार की खामोशी भी हैरतअंगेज है। गाजा संकट से नये सिरे से तेल विपर्यय का अंदेशा है। अमेरिका में वित्तीय संकट, यूरोजोन में मंदी और देश में तेल अर्थ व्यवस्ता के मद्देनजर भारत मध्यपूर्व की तरफ अपनी राजनयिक आंखें बंद नही रख सकता। जबकि रोहिंगा मुसलमानों के मामले का भारत के पूर्वोत्तर में खासा असर है।हाल ही में इसे लेकर मुंबई में हिंसक प्रदर्शन और जवाब में राज ठाकरे के उत्तर भारतीयों के विरुद्ध जिहाद के नजारे हम देख चुके हैं।संघ परिवार की नीतियां दोनों मामले में साफ हैं। पर भारत सरकार, कांग्रेस और वामपंथियों की क्या नीतियां हैं? संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की-मून और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् ने इजरायल और हमास से उनके बीच हुआ संघर्ष विराम बनाए रखने के लिए गंभीरता से काम करने का आह्वान किया तथा हिंसा रोकने के लिए मिस्र के राष्ट्रपति मोहम्मद मोरसी के प्रयासों की सराहना की है। इन हमलों और हिंसा में करीब 150 लोगों की जान गई है।तेल अवीव से एक वीडियो लिंक के माध्यम से 15 देशों के परिषद् को संबोधित करते हुए बान ने कहा कि फिलहाल इजरायल और हमास का ध्यान युद्धविराम को बनाए रखने और गाजा में जिन्हें जरूरत है उन्हें मानवीय सहायता देने पर होना चाहिए। बान ने कहा, 'मैं आज के युद्ध विराम की घोषणा का स्वागत करता हूं। मैं हिंसा से पीछे हटने के दोनों पक्षों की और बेहतरीन नेतृत्व के लिए राष्ट्रपति मोहम्मद मोरसी की प्रशंसा करता हूं।' परिषद् ने तुंरत पूर्ण शांति स्थापित करने और क्षेत्र में एक साथ मौजूद दो लोकतांत्रिक देशों इस्राइल और फलस्तीन के दृष्टिकोण पर आधारित शांति को हासिल करने के महत्व पर बल दिया है। इसके साथ ही उसने कहा कि दोनों देशों के एक साथ शांति से और सुरक्षित तथा मान्य सीमाओं के साथ रहने की कोशिश भी महत्वपूर्ण है। गाजा में मौजूद संयुक्त राष्ट्र दल के मुताबिक, इस हिंसा में अभी तक फलस्तीन के 139 लोगों की जान गई है जिसमें 70 से ज्यादा आम लोग थे। करीब 900 लोग घायल हुए हैं। इस दौरान 10,000 लोग बेघर हो गए हैं ।
आपको याद होगा कि हम बार बार लिखते रहे हैं कि भारतीय वामपंथी सवर्ण वर्चस्व की राजनीति करते हैं। बंगाल और केरल में उसके ब्राह्मणमोर्चे की सरकारें थीं। वाममोर्चे की नहीं।तो दूसरी ओर, भारत राष्ट्र की सरकार चलानेवाली कांग्रेस राष्ट्रीय हितों की अनदेखी करते हुए, राष्ट्रीय संप्रभुता को तिलांजलि देते हुए जिस हिंदू राष्ट्रवाद के आत्मघाती रास्ते पर चल रही है, वह देश की एकता और अखंडता के खिलाफ है।
संसद के शीतकालीन सत्र से शुरु होने से पहले जिसतरह गुपचुप पाक आतंकवादी कसाब को फांसी दे दी गयी, उसमें न्यायिक प्रक्रिया कम, बल्कि हिंदुत्व की राजनीति पर वर्चस्व की राजनीति ज्यादा है।गुजरात चुनाव से पहले घोटालों से घिरी अल्पमत सरकार को बचाने के लिए कांग्रेस ने आतंकी कसाब की मौत को राष्ट्रीय उत्सव का अंजाम दे दिया है।अमेरिका और इजराइल के आतंक के विरुद्ध युद्ध को सर्वोच्च प्राथमिकता देने की हालत में विदेश नीति के मामले में भारत की संप्रभुता भी दांव पर है।इसके साथ ही, कसाब और अफजल गुरू को लेकर हिंदू राष्ट्रवादी राजनीति की आंधी में आर्थिक मुद्दे, विदेश नीति और तमाम दूसरे मुद्दे गैर प्रासंगिक हो गये हैं। जनता का ध्यान भी आर्थिक मुद्दों से हटाने में पूरी कामयाबी हासिल हो गयी।अजमल आमिर कसाब को फांसी दिए जाने के बाद राजनीतिक प्रतिक्रियाओं का दौर भी शुरू हो गया। कांग्रेस, बीजेपी के बड़े नेताओं सहित सभी ने कसाब को मिली फांसी पर संतुष्टि जताई। लेकिन सभी ने सवाल उठाया कि आखिर अफजल को फांसी कब दी जाएगी।बीजेपी नेता प्रकाश जावड़ेकर ने कहा कि कसाब को फांसी मिले ऐसा पूरा देश चाहता था। देरी से ही सही ये अच्छी खबर है। लेकिन संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु को फांसी क्यों नहीं दी जा रही है। सरकार कहती रही है कि वो कतार में है। कसाब को फांसी के बाद अब तो साफ हो गया है कोई कतार नहीं होती है। अफजल के मामले में सरकार को जवाब देना होगा।गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी सवाल उठाया है कि संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरू पर फैसला कब होगा। उसने तो कसाब से भी कई साल पहले गुनाह किया था। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने ट्विट किया कि आखिरकार कसाब को फांसी हो ही गई। भारत सरकार को अब मुंबई हमले के असली जिम्मेदार लोगों को सौंपे जाने के मुद्दे पर पाकिस्तान से बात करनी चाहिए। इसके अलावा अफजल गुरू का मामला भी शुरू होना चाहिए।
कांग्रेस के हिंदुत्व से इस देश के लिए संघ परिवार के हिंदुत्व के मुकाबले में ज्यादा खतरा पैदा हो गया है, इसमे वामपंथियों की सांप्रदायिकाता को भी जोड़ें तो हिंदू राष्ट्रवाद के सामने आत्मसमर्पण के अलाव कोई चारा नहीं बचता।
मजे की बात तो यह है कि कसाब की फांसी और महाराष्ट्र से उत्तर भारतीयों को खदेड़ने की मांग करते रहने वाली शिवसेना के दिवंगत सुप्रीमो बाला साहेब ठाकरे की नीतियों के खिलाफ उत्तर भारतीय कांग्रेसी अभी भी राजनीति कर रहे हैं। उनका गुस्सा ठाकरे के मरने के बाद भी ठंडा नहीं हुआ है। गुरुवार को जहां संसद में ठाकरे को श्रद्धांजलि दी गई, वहीं यूपी में कांग्रेसियों ने उनका अस्थि कलश संगम में विसर्जित किए जाने का विरोध किया । वहीं आरटीआई दायर कर ठाकरे को राज्य सरकार की ओर से सलामी देने और शिवाजी पार्क में अंतिम संस्कार किए जाने पर भी सवाल उठाए गए हैं।
जेएनयू के रिसर्च स्कॉलर अब्दुल हफीज गांधी ने महाराष्ट्र सरकार से पूछा है कि बाल ठाकरे का अंतिम संस्कार राजकीय सम्मान से किए जाने का कारण पूछा है। उन्होंने अपनी आरटीआई में सरकार से शिवाजी पार्क में अंतिम संस्कार की अनुमति देने की वजह भी पूछी है। हफीज ने महाराष्ट्र सरकार से उन कानूनी प्रावधानों के बारे में भी पूछा है जिनकी बुनियाद पर राज्य सरकार ने ठाकरे को राजकीय सम्मान देने और शिवाजी पार्क में अंतिम संस्कार की अनुमति देने के निर्णय लिए। उन्होंने यह भी जानना चाहा है कि इन निर्णयों को सरकार और प्रशासन में शामिल किन लोगों ने लिया।
इलाहाबाद के संगम तट पर कांग्रेसियों व शिवसैनिकों में जमकर झड़प हो गई। कांग्रेसियों ने उत्तर भारतीयों के मुद्दे को लेकर काले झंडों के साथ शिवसैनिकों का विरोध किया। उन्होंने बाल ठाकरे का अस्थि कलश लेकर जा रहे शिवसैनिकों का रास्ता रोका।
संसद के शीतकालीन सत्र का पहला दिन हंगामे की भेंट चढ़ गया। बीजेपी और लेफ्ट ने एफडीआई के मुद्दे पर वोटिंग के साथ बहस की मांग करते हुए सदन में कामकाज नहीं होने दिया। उधर, बीएसपी ने एससी-एसटी के प्रमोशन में आरक्षण के मुद्दे पर हंगामा किया। जबकि टीएमसी ने यूपीए सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश किया जिसे सिर्फ बीजेडी का समर्थन हासिल हो सका। 50 सांसदों का समर्थन न होने की वजह से ये प्रस्ताव फिलहाल खारिज कर दिया गया है। सरकार ने अब सोमवार को संसद का गतिरोध दूर करने के मकसद से सर्वदलीय बैठक बुलाई है।
रिटेल में एफडीआई की इजाजत को सदन का अपमान बताते हुए बीजेपी और लेफ्ट, नियम 184 के तहत बहस की मांग पर अड़े रहे। इस नियम में बहस के बाद मतविभाजन भी होता है। हंगामे के बीच सदनों की कार्यवाही बार-बार स्थगित होती रही। विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने कहा कि बहु-ब्रांड खुदरा में एफडीआई पर बहस की अनुमति दी जानी चाहिए क्योंकि सरकार ने इस मुद्दे पर पार्टियों से चर्चा करने का आश्वासन पूरा नहीं किया।
इस बीच रिटेल में एफडीआई के फैसले को देशहित के खिलाफ बताते हुए ममता बनर्जी की टीएमसी की ओर से यूपीए सरकार के खिलाफ लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पेश किया गया। लेकिन 18 सांसदों वाली टीएमसी को केवल बीजेडी के तीन सांसदों का समर्थन मिल सका जबकि प्रस्ताव की मंजूरी के लिए 50 सांसदों का समर्थन जरूरी था। ऐसे में लोकसभा अध्यक्ष ने प्रस्ताव को खारिज कर दिया। जब लोकसभा में तृणमूल के अविश्वास प्रस्ताव को स्वीकृति नहीं मिली तो वह भी नियम 184 के तहत बहस की मांग में शामिल हो गई।
इस बीच दलों ने अपनी राजनीतिक प्राथमिकता के लिहाज से आवाज उठाई। बीएसपी ने सरकारी नौकरी कर रहे दलितों और आदिवासियों के प्रमोशन में आरक्षण से जुड़ा बिल पहले पेश करने को लेकर हंगामा किया। बीएसपी अध्यक्ष मायावती ने कानून व्यवस्था का हाल बेहाल बताते हुए यूपी में राष्ट्रपति शासन की मांग भी की।
समाजवादी पार्टी सांसदों ने प्रमोशन में आरक्षण के विरोध में हंगामा किया। उन्होंने रसोई गैस के रियायती सिलेंडरों का मसला उठाया। जाहिर है, सरकार को तंज कसने का मौका मिल गया कि विपक्ष पहले अपनी प्राथमिकता तय करे।
कुल मिलाकर सदन के दोनों सदनों में कोई कामकाज नहीं हो सका। बहस इसी बात पर होती रही कि किन नियमों के तहत बहस हो। ये सिलसिला करीब तीन घंटे चला और दो बजे तक दोनों सदनों को दिन भर के लिए स्थगित कर दिया गया। संसद का शीतकालीन सत्र 20 दिसंबर को समाप्त होगा जबकि इसमें केवल 16 कामकाजी दिन होंगे।
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