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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Saturday, April 27, 2013

'लूट को कानूनी बनाती सरकार'

'लूट को कानूनी बनाती सरकार'


करेंगे ऐतराज तो माओवादी होंगे आप 

छत्तीसगढ़ की मजदूर नेता सुधा भारद्वाज से जस्टिन पोदुर की विशेष बातचीत

साक्षात्कार थोड़ा लम्बा है लेकिन महत्वपूर्ण है, इसलिए सब्र से पढ़ें. यह महत्वपूर्ण है उन पत्रकारों-बुद्धिजीवियों के लिए जो संघर्ष के छत्तीसगढ़ को तथ्यगत रूप से समझना चाहते हैं. यह अरुचिकर उन छात्रों-युवाओं के लिए भी नहीं है, जो लूट, विकास और देशभक्ति की गुत्थी में उलझ गए हैं. अरुचिकर तो यह उनमें से किसी के लिए नहीं है जो सच में अपना देश सुरक्षित रखना चाहते हैं,राष्ट्र की संपत्ति को जनता के हवाले रखना चाहते हैं. अंग्रेजी की जनपक्षधर वेबसाइट 'काफिला' पर छपे इस साक्षात्कार को जनज्वार के लिए अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद- शीरीं ने किया है. जनज्वार टीम साक्षात्कारकर्ताजस्टिन पोदुर और अनुवादक शीरीं के प्रयासों की शुक्रगुजार है...संपादक 


एक वकील और ऐक्टिविस्ट के रूप में आप कानूनी काम और ऐक्टिविज़्म के बीच क्या सम्बन्ध देखती हैं? 
मैं अपने आपको मुख्यतः एक ट्रेड यूनियनिस्ट के रूप में देखती हूं. मैं 20 साल पहले मजदूर आन्दोलन से जुड़ी. ट्रेड यूनियन ने ही मुझे वकील बनाया. ट्रेड यूनियन वालों को लगा कि कारपोरेशनों के खिलाफ लड़ाई में मजदूरों को एक अच्छे वकील की जरूरत है. हमारी यूनियन मुख्यतः संविदा मजदूरों की यूनियन है, जो मजदूर वर्ग को बांटने के प्रयासों के खिलाफ लगातार प्रयासरत है. यहां मजदूरों का किसानों से एक गहरा नाता है. हमारा विश्वास है कि किसानों के साथ काम करना मजदूर यूनियन का ही हिस्सा है. हां, इस प्रक्रिया में कई बार सत्ता और कार्पोरेट घराने कानूनों का बेजा इस्तेमाल भी हमारे खिलाफ करती हैं. फंसाने के लिए मुकदमें दर्ज कराती हैं.

sudha-bhardwaj

क्या आप इन संघर्षों के कुछ उदाहरण हमें दे सकती हैं? 
हमने सीमेन्ट उद्योग में संगठन बनाया. यहां एक बड़ा सीमेन्ट कारपोरेशन है -होलसिम. यह एक स्विस मल्टीनेशनल कम्पनी है. इसने एसीसी और अम्बुजा को अधिगृहित कर लिया है. हालांकि ये भारतीय कारपोरेशन अपने ब्राण्ड नामों को बनाए हुए हैं. होलसिम स्पेन और अमेरिका के अपने प्लाण्टों को बन्द करके यहां आयी है. क्यों? यदि हम वैश्विक पैमाने पर इस उद्योग के निवेश पर मुनाफे को देखें तो पाएंगे कि और जगह उन्हें 1.3 प्रतिशत का फायदा होता है, लेकिन भारत में यह मुनाफा 13 प्रतिशत है. ये बहुराष्ट्रीय कम्पनियां यहां बड़े मुनाफे की चाह में आयी हैं. उन्होंने स्थानीय प्रशासन पर अपनी मजबूत पकड़ बना ली है. चाहे वह मन्त्री हों, वन विभाग के अफसर, श्रम, खनन या पर्यावरण विभाग हों. यहां सीमेण्ट उद्योग में एक वेज बोर्ड समझौता है. इसके अनुसार लोडिंग, अनलोडिंग और पैकिंग के अलावा किसी भी क्षेत्र में संविदा मजदूरों का इस्तेमाल नहीं किया जाएगा और वहां भी उन्हें नियमित मजदूरों के बराबर ही वेतन दिया जाएगा. लेकिन ये बहुराष्ट्रीय प्लाण्ट सीमेण्ट उत्पादन की सभी प्रक्रियाओं में संविदा मजदूरों का इस्तेमाल कर रहे हैं और कानून की अनदेखी करते हुए बहुत कम न्यूनतम मजदूरी दे रहे हैं. जब हमने सड़कों पर इसके खिलाफ संघर्ष शुरू किया तब उन्होंने कानूनों का हमारे मजदूरों के खिलाफ ही इस्तेमाल किया. विशेष रूप से अम्बुजा बहुत ही बदले की भावना के साथ काम करता है. इन संघर्षों के एक मजदूर साथी को 13 महीने जेल में बिताने पड़े क्योंकि उन पर एक सुरक्षा अफसर से मोबाइल और 3500 रुपया लूटने का झूठा मुकदमा जड़ दिया गया था. अम्बुजा में एक संविदा मजदूर को 180रु प्रतिदिन के हिसाब से मिलता है. यह 4 डालर से कम है. एसीसी में प्रतिदिन 200रु मिलते हैं. यह 4 डालर के बराबर है. एक स्थायी मजदूर को 700रु प्रतिदिन की दर से मिलते हैं जो 14 डालर के बराबर है. दूसरी ओर एक स्विस मजदूर को 2500रु प्रतिदिन की दर से मिलते हैं जो 50 डालर के बराबर है. उनके सीईओ को 2.2 लाख रु प्रतिदिन की दर से मिलते हैं जो 4400 डालर के बराबर हैं. इस स्विस कम्पनी के सर्वाधिक शेयर रखने वाले थामस शिमिडिन को 2 करोड़ रु प्रतिदिन की दर से मिलते हैं जो 400000 डालर के बराबर है. यहां बुनियादी मजदूर अधिकारों को भी हासिल करना बेहद कठिन है. मजदूरों को यह भी अहसास है कि ये कारपोरेशन किसानों और आदिवासियों के खिलाफ भी एक तीखा युद्ध चला रही हैं. 

तो क्या इसके खिलाफ मजदूरों आदिवासियों और किसानों का एक साझा संघर्ष चलाने का प्रयास हो रहा है? 
निश्चित ही प्रयास हो रहा है. हमारी यूनियन 'छत्तीसगढ़ बचाओ आन्दोलन' नामक मोर्चे का घटक है. इस मोर्चे में आदिवासी महासभा, भारत जन आन्दोलन, गोण्डवाना गणतन्त्र पार्टी जैसे जन संगठन शामिल हैं. इसमें बहुत से गांव स्तर के सामूहिक संगठन भी शामिल हैं जो विस्थापन के खिलाफ लड़ रहे हैं और पेसा कानून तथा वनाधिकार नियम को लागू करवाने के लिए लड़ रहे हैं. यह एक चुनावी वर्ष है इसलिए हमें कांग्रेस से भी कुछ सकारात्मक संकेत देखने को मिल सकते हैं. कांगे्रस भी बढ़ते असन्तोष को भुनाने का प्रयास कर सकती है. लेकिन सामान्यतः सभी राजनीतिक पार्टियों के प्रतिनिधि इन विरोधो को खरीदने का प्रयास करते हैं. छत्तीसगढ़ बचाओ आन्दोलन के पास एक समय निर्णायक जनाधार होगा, इसी आशा के साथ हमने दो-तीन साल पहले इसकी नींव डाली थी.

मैं यह समझने का प्रयास कर रहा हूं कि बस्तर के जंगलों में क्या हो रहा है?
छत्तीसगढ़ के नक्शे पर एक नज़र दौड़ाइये. यदि आप जंगल, आदिवासी गांव और खनिज सम्पदा के नक्शों को एक के ऊपर एक रखें तो आपको नज़र आएगा कि जंगल में जहां आदिवासी गांव हैं उसी के नीचे खनिज सम्पदा भी हैं. जब 2000 में मध्यप्रदेश को काट कर छत्तीसगढ़ बनाया गया तो इसके पहले मुख्यमन्त्री ने एक मुहावरा गढ़ा कि 'यहां की धरती समृद्ध है और लोग गरीब हैं'. छत्तीसगढ़ बनने के 12 वर्षों बाद आज यहां की जनता और गरीब हुयी है वहीं दूसरी ओर जमीन के नीचे और ज्यादा धनसम्पदा की खोज हुयी है. इस राज्य में खनिज सम्पदा का बड़ा भण्डार है- भारत के लौह अयस्क का 19 प्रतिशत, कोयले का 11 प्रतिशत. इसके अलावा बाक्साइट, चूना पत्थर और कई तरह के कीमती खनिज यहां बड़ी मात्रा में उपलब्ध हैं. बस्तर यानी दक्षिण छत्तीसगढ़ को समझने के लिए हमें उत्तर छत्तीसगढ़ से शुरू करना पड़ेगा. उत्तर में रायगढ़ में आपको जिन्दल का एक पूरा देश ही मिलेगा. आपको हर तरफ जिन्दल-जिन्दल ही नजर आएगा. इन 12 वर्षों में सिर्फ रायगढ़ में 26000 एकड़ कृषि भूमि खनन और प्लाण्टों के लिए अधिगृहीत की जा चुकी है. इस प्रक्रिया में उजड़े लोग कहां जाएंगे. असमानता और भी तीखी हुयी है. 1990 के दशक के अन्त और 2000 की शुरुआत में माओवादी उत्तरी जिले सरगुजा में आए. लेकिन उन्हें तुरन्त ही कुचल दिया गया. वे झारखण्ड से आए थे. उन्होंने कुछ जमीनों का पुनर्वितरण किया. इसी दरम्यान इस क्षेत्र में, 20-25 मुठभेड़ों में, इनके बहुत से नेताओं को मार दिया गया. बहुत सी आदिवासी जनता आज भी जेलों में कैद है. सरगुजा में बाक्साइट है. यहां बहुत घने जंगल हैं. वन मन्त्रालय का कहना है कि ये अछूते जंगल हैं और खनन के लिए इनका इस्तेमाल नहीं किया जा सकता. लेकिन छत्तीसगढ़ सरकार ने इनका इस्तेमाल शुरू कर दिया है और यहां एक रेल कारिडोर तथा कई पावरप्लाण्ट बना दिये. एक गांव प्रेमनगर की ग्राम सभा ने 12 से 15 बार मतदान करके यह कहा कि उन्हें पावर प्लाण्ट नहीं चाहिए. पावर प्लाण्ट के खिलाफ उन्होंने बहुत तर्कसंगत बातें रखीं. अनुसूचित क्षेत्र यानी आदिवासी बहुतायत वाले क्षेत्रों में ग्रामसभा को निर्णायक अधिकार हासिल हैं. अतः इससे निपटने के लिए राज्यसरकार ने एक अधिसूचना द्वारा ग्राम पंचायत को नगर पंचायत में बदल डाला और इसके सारे अधिकार छीन लिए. निश्चित रूप से यह असंवैधानिक है. लेकिन इसका फैसला कभी नहीं हो पाएगा और यहां कोई अन्तरिम राहत भी नहीं है. अतः इस बीच जमीन की लूट जारी रह सकती है. 

इस प्रक्रिया में निजीकरण की क्या भूमिका है?
कम्पनियों के लिए खनन जमीन के मालिकों से जमीन लीज पर लेने पर आधारित है न कि जमीन अधिग्रहण पर. पहले लीज पब्लिक सेक्टर को ही दी जाती थी और आप खनन का काम तबतक शुरू नहीं कर सकते जब तक कि आप अपना प्लाण्ट खड़ा नहीं कर लेते. लेकिन अब पब्लिक/प्राईवेट पार्टनरशिप के सिद्धान्त के अनुसार निजी कम्पनियां न सिर्फ खनन कर सकती हैं और यहां तक कि यह 'कैप्टिव यूज' के लिए नहीं भी हो सकता है. इसका साफ मतलब है कि 'खोदो और बेचो'. यह और कुछ नहीं बल्कि नंगा पूंजीवाद ही है. रायगढ़ में कोसाम्पाली गांव दोनो तरफ से जिन्दल की 150 फीट गहरी खदानों से घिरा हुआ है. तीसरी तरफ नदी है. गांव के लोगों के पास बाहर निकलने का सिर्फ एक रास्ता है और इस रास्ते की जमीन भी खनन के लिए चिन्हित हो चुकी है. यह गांव वस्तुतः एक द्वीप बनने का दुर्भाग्य झेल रहा है. कानून इसके बारे में क्या कहता है? जब खनन कम्पनियां लीज के लिए आवेदन करती हैं तो आवेदन फार्म में उनसे पूछा जाता है कि क्या अभ्यर्थी के पास 'सर्फेस राइट' है? यदि नहीं तो क्या जमीन के मालिक की सहमति ले ली गयी है? यदि इसका उत्तर न में होता है तो आवेदन को तुरन्त वापस करके यह सहमति लेने के लिए बोला जाता है. लेकिन खनन कम्पनियां अपने फार्म में यह सीधे लिख देती हैं कि 'सहमति प्राप्त कर ली गयी है.' और कानून के इस बड़े लूपहोल का फायदा उठा लिया जाता है जो यह कहता है कि 'सहमति लीज के बाद और प्रवेश से पहले ली जा सकती है.' अतः सरकार खनन कम्पनी की मदद के लिए आ खड़ी होती है. तहसीलदार एक नोटिस चस्पा कर देता है, जिसमें लीज पर ली गयी सारी जमीनों का ब्यौरा होता है. जिसमें यह कहा गया होता है कि आइये, और भूमि अधिग्रहण कानून के अनुसार अपना मुआवजा ले जाइये. वे जनता को यह नहीं बताते कि उनके पास इससे असहमत होने का भी विकल्प है. सामान्यतः जनता इसे निर्विवाद तथ्य के रूप में ले लेती है. वे आकर अपना मुआवजा ले जाते हैं और यह समझ लिया जाता है कि उन्होंने अपनी सहमति दे दी. कुछ मामलों में गांव वाले अपना मुआवजा लेने के बाद दूसरे गांव में जमीन खरीदने का प्रयास करते हैं. इसमें अधिकांशतः यह होता है कि उस गांव के स्थानीय लोग इन्हें बाहरी मानकर वहां बसने नहीं देते. कोसामपल्ली गांव के लोग कहते हैं 'यदि आप यह अन्तिम जमीन भी खनन के लिए ले लेते हैं तो कोई भी राशि हमारे लिए पर्याप्त नहीं हो सकती. क्योंकि हम यहां नहीं रह पाएंगे.' हमें फिलहाल खनन के खिलाफ स्टे मिल गया है और अन्तिम सुनवाई का इन्तजार है. यदि आप छत्तीसगढ़ में हैं तो आपको जशपुर जिला जाना चाहिए. यहां इस वक्त भी अछूते जंगल है. लेकिन लगभग समूचा जिला सम्भावित खनन के लिए लिया जा चुका है. पन्द्रापथ नामक एक पूरे पहाड़ और पठार को लीज पर लिया जा चुका है. यहां पहाड़ी कोरवा आदिम जनजाति रहती है. चुनाव के बाद यहां खनन शुरू होगा और जंगल नष्ट हो जाएगा. 

इस क्षेत्र में ऊर्जा की राजनीति के बारे में भी कुछ बताइये?
उत्तर का एक दूसरा जिला जांजगीर चांपा सूखा प्रभावित क्षेत्र है. सरकार ने यहां सिंचाई के क्षेत्र में काफी निवेश किया और 78 प्रतिशत जिला सिंचित हो गया. लेकिन अब इसी पानी का इस्तेमाल करते हुए यहां 34 पावर प्लाण्ट लगाने की योजना है. 60000 मेगावाट बिजली पैदा करने के लिए पूरे छत्तीसगढ़ में 70 प्लाण्ट लगाने की योजना है. राज्य में ऊर्जा की अधिकतम जरूरत 2500 मेगावाट है. हमारी क्षमता पहले से ही 5000 मेगावाट की है. तो क्या हम अतिरिक्त बिजली पड़ोसियों को बेचेंगे? आन्ध्रप्रदेश में 45000 मेगावाट बिजली पैदा करने की योजना है. गुजरात और मध्यप्रदेश में भी 45000 मेगावाट बिजली पैदा करने की योजना है. तो ये सब क्या हो रहा है? मुझे लगता है कि यह सब ऊर्जा की बात नहीं है. यहां मामला खनन का है. यहां 2 लाख एकड़ जमीन इन प्लाण्टों के लिए आवण्टित की जा चुकी है. और 1 लाख एकड़ जमीन खनन के लिए आवण्टित की जा चुकी है. इन प्लाण्टों के लिए जितने पानी की जरूरत होगी वह सतह पर उपलब्ध समूचे पानी से कहीं ज्यादा है. यानी अब हम भूगर्भीय जल के लिए और गहराई में जाएंगे. यह भूमि और खनिज सम्पदा को निजी हाथों में सौंपना है. जब वैश्विक वित्तीय संकट शुरू हुआ तो बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने यहां आकर भारतीय कम्पनियों के साथ मिलकर अकूत मुनाफा कमाना शुरू किया. अतः जब कोरस को लौह अयस्क की जरूरत होगी तो इसका भारतीय चेहरा टाटा होगा. विदेशी खनन कम्पनियों को कुछ दिक्कत हो सकती है. लेकिन यदि वे किसी भारतीय खनन कम्पनी से गठजोड़ कर लेती है तो उन्हें कोई समस्या नहीं आएगी. जब आप खनन और जमीन के लिए इस लूट खसोट को समझ जाएंगे तो आप दक्षिण छत्तीसगढ़ यानी बस्तर को भी समझ सकते हैं.

बस्तर, जहां पर माओवादी हैं. क्या वाकई माओवादी जनता को बरगला रहे हैं ?
नक्सली बस्तर में 1980 में आए. उस समय यह क्षेत्र पूरी तरह उपेक्षित था. सरकारी अधिकारियों के लिए यह क्षेत्र 'पनिशमेंट पोस्टिंग' की जगह थी. आदिवासियों एवं जंगल में रहने वाले लोगों का शोषण बहुत ही नंगा और क्रूर था. बहुत से आदिवासी अपनी जीविका के लिए तेंदू पत्ता इकट्ठा करते थे. तेंदू पत्तों के बेहतर मूल्य के लिए आदिवासियों का एक बड़ा आन्दोलन यहां हुआ. इन आन्दोलनों की मदद से नक्सलियों ने यहां एक मजबूत आधार तैयार कर लिया. 2005 में उस वक्त के डीजीपी के अनुसार इस क्षेत्र में 50000 संघम सदस्य थे और निश्चित ही वास्तविक संख्या इससे कहीं अधिक होगी. इस विशाल क्षेत्र में जंगल विभाग के अधिकारी नहीं जा सकते हैं. लेकिन अध्यापकों और डॉक्टरों को यहां जाने की इजाजत है. सलवा जुडूम के बाद इस क्षेत्र में अचानक तेज गति से हिंसा बढ़ गयी. सलवा जुडूम का समय वही समय था जब छत्तीसगढ़ सरकार बहुत से एमओयू कर रही थी और जमीन की लूट जारी थी. इसी समय 2200 हेक्टेयर जमीन टाटा को और इतनी ही जमीन एस्सार को लौह अयस्क निकालने के लिए दी गयी. अतः, बस्तर में इस दुर्दशा के लिए राज्य जिम्मेदार है. उन्हें खनिज चाहिए, उन्हें कार्बन डेटिंग के लिए कुछ जंगल भी चाहिए, लेकिन उन्हें जनता से परहेज है. सलवा जुडूम 2005 में शुरू हुआ. यह वही 'रणनीतिक हैमलेटिंग' का विशिष्ट तरीका था जहां जनता को उनके गांव से निकाल कर कैम्पों में ले जाया गया. यही तरीका, बगावत से निपटने के लिए उत्तरपूर्व, मिजोरम और त्रिपुरा में भी अपनाया गया था. सलवा जुडूम के तहत उन्होंने 644 गांवों को खाली कराया. सरकारी आंकड़ों के अनुसार यह संख्या 3 लाख 50 हजार थी. इनमें से 50000 लोगों को कैम्पों में लाया गया. आज भी इन कैम्पों में 10,000 लोग हैं. कुछ पड़ोसी राज्यों, विशेषकर आन्ध्रप्रदेश में भाग गए. बाकी बचे हुए लोग कहां गए? ऐसा लगता है कि वे अन्दर घने जंगलों में चले गए. अनुमानतः इनकी संख्या 2 लाख है. वे जंगल में रहने और खेती करने का प्रयास कर रहे हैं. लेकिन राज्य उनके साथ अपराधियों जैसा व्यवहार कर रहा है. इस विस्थापन की प्रक्रिया बहुत ही हिंसक रही है. सुप्रीम कोर्ट में दायर बहुत से 'सलवाजुडूम' सम्बन्धित केसों में शपथपत्र व साक्ष्य दर्ज हैं. जैसे नन्दिनी सुन्दर और कर्तम जोगा के केस. सिर्फ अकेले कोण्टा ब्लाक में 500 हत्याएं, 99 बलात्कार हुए और 2000 घरों को आग के हवाले कर दिया गया. यह राज्य प्रायोजित एक हिंसात्मक हमला था, जिसे माओवादियों ने सैन्य रूप से पराजित कर दिया. यह विचार कि कुछ माओवादी जनता को बरगला रहे हैं, बहुत सरलीकृत है. अखबार भी किसी एम्बुश की खबर देते हुए हमें बताते हैं कि उस वक्त 700 या 1000 हमलावर शामिल हुए. जनवादी आन्दोलनों में हमारे लिए किसी रैली के लिए 700 लोगों को जुटाना मुश्किल होता है. यदि 700 लोग युद्ध कर रहे हैं तो निश्चय ही वे इसे आदिवासी या राष्ट्रीय मुक्ति युद्ध के रूप में ले रहे होंगे. दरअसल राज्य ही उन्हें इधर या उधर पक्ष लेने के लिए बाध्य कर रहा है. 

मैंने इसे इस तरीके से कभी नहीं देखा, आखिर सच क्या है ?
हां आप कह सकते हैं कि यह माओवाद समर्थित आदिवासी विद्रोह हैं, जिसकी विचारधारात्मक जड़ें हैं. लेकिन बहुत से सामान्य लोग जो इस आन्दोलन में हैं, वे इसे अपनी जमीन बचाने के एकमात्र तरीके के रूप में देखते हैं. हम लोग जो जनवादी आन्दोलन में हैं, पीयूसीएल में हैं, वे राज्य से कहते हैं कि हिंसा बन्द कीजिए. जनता को उनके गांव में वापस आने दीजिए. नागरिक प्रशासन बहाल कीजिए. अध्यापकों को काम पर जाने दीजिए. राज्य ने स्कूल, राशन की दुकान और यहां तक कि वोटिंग मशीनों को भी सलवा जुडूम कैम्पों में पहुंचा दिया है. ऐसी परिस्थिति में यह कैसे हो सकता है कि आप मतदान में धोखाधड़ी न करें. यदि आप यानी राज्य जंगल में रहने वालों को अपराधी मानते हैं तो इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि आप आक्रमणकारी सेना की तरह व्यवहार कर रहे हैं. भारतीय सेना अभी एक साल पहले यहां आ चुकी है. यहां 700 चुने हुए प्रतिनिधियों, सरपंचों और पंचों की एक रैली हुयी थी. उन्होंने कलेक्टर के पास जाकर अनुरोध किया कि हमें यहां सैन्य आधारों की जरूरत नहीं है. लेकिन उनकी इस मांग पर अभी तक कोई कार्यवाई नहीं की गयी है. यहां एक गांव था सरकेगुडा. यह बहुत मजबूत गांव था. जब सलवा जुडूम शुरू हुआ तो ग्रामीणों ने गांव खाली करने से इन्कार कर दिया. अन्ततः कई लोग सलवा जुडूम के द्वारा मारे गए, कुछ गिरफ्तार हुए अनेक घर जलाए गए और अन्ततः 2006 में सभी लोग आन्ध्र चले गए. हिमांशु कुमार के 'वनवासी चेतना आश्रम' और खम्मम के 'कृषि और सामाजिक विकास समाज' ने एनएचआरसी के अनुमोदन के अनुसार इस गांव को दुबारा से बसाने का प्रयास किया. वे 2009 में वापस आए. 28-29 जून 2012 को क्या हुआ- एक दूसरा फर्जी मुठभेड़. 7 बच्चों समेत 17 लोग मारे गए. अपने विस्थापन के 8 साल बाद आज भी सरकेगुडा अपने बसने का इन्तजार कर रहा है. उन्हें यह महसूस हो रहा है कि राज्य यह नहीं चाहता कि वे वहां रहें. आदमी और औरत राशन की दुकानों पर जाने से डरते हैं कि कहीं उन्हें गिरफ्तार न कर लिया जाए. राशन की दुकानों पर इस बात का ध्यान रखा जाता है कि उन्हें कुछ भी अतिरिक्त न मिले. इसके पीछे समझ यह है कि यह अतिरिक्त सामान माओवादियों के पास चला जाएगा. बुनियादी मानवीय जरूरतों को यहां पूरी तरह से नकार दिया गया है. इसके पहले 17 लोग सिंगावरम में एक झूठी मुठभेड़ में मार दिये गए. वहां के एसपी राहुल शर्मा ने कहा कि चूंकि उनके पास क्लोरोक्विन की गोली और डेटोल की बोतल पायी गयी इसलिए वे निश्चय ही या तो नक्सल होंगे या नक्सलियों के करीबी होंगे. 

माओवादियों से बातचीत को लेकर सरकार का क्या रवैया है ?
सरकार बातचीत द्वारा युद्ध को रोकने के लिए कतई इच्छुक नहीं है. बातचीत के लिए आगे आने वाले माओवादी प्रवक्ता आजाद की हत्या कर दी गयी. पश्चिम बंगाल के माओवादी नेता किशन जी को भी मार दिया गया जो राज्य सरकार से बातचीत चला रहे थे. राज्य लगातार अपनी सैन्य उपस्थिति बढ़ा रहा है और सभी आदिवासियों को माओवादी होने का तमगा पहना रहा है. जेल में हजारों आदिवासी अभी भी अपने ट्रायल शुरू होने का इन्तजार कर रहे हैं. पुलिस सैकड़ों की तादात में जंगलों में जाती है. वे गांव के उन सभी लोगों को पकड़ लेते हैं जो भागने में असमर्थ होते हैं और वे सभी को लाकर जेल में बन्द कर देते हैं. उनमें से अधिकांश को हिन्दी नहीं आती. वे अपनी आदिवासी जबान बोलते हैं. उनके लिए कोई अनुवादक भी नहीं होता. उनके पास इसके सिवाय कोई चारा नहीं होता कि वे जेलों में रहकर अपने दोषमुक्त होने का इन्तजार करें. वह वक्त आएगा, क्योंकि उनके खिलाफ कोई भी साक्ष्य नहीं है. वे केन्द्रीय जेलों में इन्तजार करते हैं. उनके परिवार उनसे मिल नहीं पाते. वकील भी उनसे मिलने नहीं जाते क्योंकि उन वकीलों की फोटो खींच कर उन्हें 'नक्सल वकील' प्रचारित कर दिया जाता है. सरकार के पास 'स्पेशल पब्लिक सेफ्टी ऐक्ट' है. इसके अनुसार नक्सलियों को किसी भी तरह की 'मदद' गैर कानूनी है. चाहे आपको इसकी जानकारी हो या न हो, या आपका इरादा हो या न हो. बिलासपुर में उस दुकानदार पर मुकदमा चलाया जा रहा है जो जैतूनी हरा कपड़ा बेचता था. उस पर आरोप लगाया गया है कि वह नक्सलियों को उनकी वर्दी सप्लाई करता था. उस क्षेत्र में सुरक्षाबल जो कर रहे हैं उसके लिए एक सैन्य शब्दावली है-'एरिया डामिनेशन'. इसका मतलब है 'उन सभी का सफाया कर दो.' लेकिन यह सफल नहीं होगा. कश्मीर में क्या हुआ. उन्होंने 'मिलिटैन्ट्स' को उखाड़ फेंका. लेकिन अब वहां के नौजवान पत्थर चला रहे हैं. वहां भीषण गुस्सा है और सरकार उनके साथ कोई समझौता नहीं करना चाहती. उड़ीसा के पोस्को प्रभावित क्षेत्र में जनता दूसरे तरीकों से लड़ रही है. उत्तरी बंगाल से झारखण्ड, उड़ीसा, छग और विदर्भ तक लोग जमीन और जंगल के लिए बड़े संघर्ष कर रहे हैं. यह सिर्फ बस्तर में ही नहीं हो रहा है. जब तक सरकार नरसंहार नहीं कर देती, (जो कि सम्भव है) तब तक यह खत्म नहीं होने वाला. मुझे लगता है कि वक्त आ गया है कि हम 'समृद्ध भूमि और गरीब लोग' के बारे में पुनर्विचार करें. हमने निजी पार्टियों को खनिज सम्पदा लूटने की इजाजत दी. क्या हुआ? स्मार्ट लोग अपने संसाधनों का इस्तेमाल नहीं करते. अमेरिका ने अपना तेल बचा कर रखा है, जिसकी खोज वर्षों पहले हो गयी थी. हम भारत में उन सभी चीजों को बेच रहे हैं जो हमारे पास है. उसके बाद हम रोएंगे और इस प्रक्रिया में हम अपनी जनता के सभी अधिकारों और अपने सिद्धान्तों को कुचल रहे हैं. 

इसका प्रतिरोध कैसे होगा?
एक मार्क्सवादी होने के नाते मेरा एक विचार है. आज इसी व्यवस्था के भीतर, न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका के माध्यम से जनता के लिए अपने अधिकारों को प्राप्त करने की बहुत कम जगह बची है. यह व्यवस्था काम नहीं कर रही है. इसे बदलना होगा. माओवादियों के पास एक रणनीति है. वे इस व्यवस्था को उखाड़ फेंकने में विश्वास करते हैं. लेकिन हम जैसे जनवादी लोग थोड़ा कन्फ्यूज्ड हैं. हममें से कुछ लोग मानते हैं कि व्यवस्था को चुनाव के माध्यम से बदला जा सकता है. छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा चुनाव के बारे में एक लचीला रुख रखता है. हम चुनावों के खिलाफ नहीं हैं. हम व्यक्तिगत उम्मीदवारों का विरोध करने, उन्हें समर्थन देने या खुद चुनाव लड़ने का तरीका अपनाते हैं. यह इस पर निर्भर करता है कि कौन सी चीज हमारे संगठन को मजबूत करती है, लेकिन हम यह नहीं मानते कि इससे व्यवस्था बदली जा सकती है. आजकल के गांव के स्तर के चुनावों में भी लाखों रुपए बहाए जाते हैं और सांसद और विधायक के चुनाव में तो करोड़ों रुपए बहाए जाते हैं. पैसों के इन तमाशों के बीच जनता द्वारा उनको अपनी बात सुनाना वैसा ही है, जैसे किसी डिस्को में दर्शनशास्त्र पर व्याख्यान देना. यह हास्यास्पद है. मीडिया का कारपोरेटीकरण हो चुका है. जब मीडिया ने अन्ना हजारे के आन्दोलन को कवर किया तो उनके साथ एक बड़ा आन्दोलन था और उसके बाद उन्होंने इसको कवर करना बन्द कर दिया. मैंने देखा कि यूके में उन्होंने आक्यूपाई आन्दोलन के साथ कैसा व्यवहार किया. उन्हें ठंडा कर दिया गया. उन्हें बहस से ही बाहर कर दिया गया, अलगाव में डाल दिया गया और कुछ समय बात उनके शिविरों को उखाड़ फेंका गया. यह बेहद चालाक रणनीति है. भारतीय राज्य भी कुछ कम चतुर नहीं है. यह बहुत चतुर है. उत्तरपूर्व में देखिए, कश्मीर, बस्तर और गुजरात में देखिए. जनता को बाहर निकाल दिया गया. उन्हें टुकड़ों में बांट दिया गया. हम अपनी एकताबद्ध कार्यवाही नहीं कर पाए. 

justin-podurजस्टिन पोदुर टोरन्टो में यार्क विश्वविद्यालय में प्रोफेसर और लेखक हैं. वर्तमान में दिल्ली में जामिया मिलिया इस्लामिया में विजिटिंग प्रोफेसर हैं.

http://www.janjwar.com/2011-05-27-09-07-00/3948-trade-union-leader-subdha-bhardwaj-interview-by-justin-podur

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