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Memories of Another day

Memories of Another day
While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Thursday, April 25, 2013

भदेस वीर बहादुर सिंह की देसी बातें

-दयानंद पांडेय-


भदेस वीर बहादुर परदेस जा कर, पेरिस जा कर मरेंगे - यह भला कौन जानता था? ठीक वैसे ही जैसे गोरखपुर और उन के गाँव हरनही के लोग यह नहीं जानते थे कि उन के गाँव का उन के शहर ज़िले का यह गँवार सा दिखने समझने वाला नेता प्रदेश और देश की राजनीति का शिखर छुएगा। लेकिन वीर बहादुर ने इस शिखर को छुआ और अपनी माटी में 
मरहूम होने के नसीब से महरूम हो गए।


उन के निधन के दो ही बरस पहले की बात है। जून 88 में उन्हों ने अपने बड़े भाई की बेटी के हाथ पीले किए थे। शादी पहले ही से तय थी - शादी की तारीख भी। तब यह प्रदेश सरकार के मुख्यमंत्री थे - चाहते तो वह लखनऊ में ही शादी की जगह तय कर सकते थे। लेकिन नहीं, उन्हों ने गोरखपुर शहर में भी नहीं पैतृक गाँव हरनही में ही शादी करनी ठीक समझी। न सिर्फ़ इतना ही वरन् उन्हों ने अपने चुने हुए रिश्तेदारों और गिने हुए व्यक्तिगत मित्रों को ही इस शादी का न्यौता दिया था। इस शादी को 'सार्वजनिक' नहीं होने देने का उन्हों ने भरसक यत्न किया।


इत्तफ़ाक था कि शादी के चंद रोज पहले ही वह प्रदेश सरकार के मुख्यमंत्री से भारत सरकार के संचार मंत्री हो गए थे। शपथ लेने के दो रोज बाद ही वह गुपचुप गोरखपुर गए तो वहाँ अफवाह उड़ी कि वीर बहादुर के पाँव उखड़ गए। कि वीर बहादुर अब संन्यास ले लेंगे। कि अब वह गोरखपुर ही रहने आए हैं। आदि-आदि। किसी को यह खबर नहीं थी कि वह अपनी भतीजी के हाथ पीले करने आए हैं। यहाँ तक कि ज़िला प्रशासन के भी कई अधिकारियों, स्वनाम धन्य मठाधीशों और नेताओं को भी इस की भनक नहीं थी। इक्का-दुक्का गिने-चुनों को ही यह मालूम था कि उन की भतीजी की शादी है। तब भी दिलचस्प यह था कि वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक और ज़िलाधिकारी आपस में मशविरा कर रहे थे कि मुख्यमंत्री जी का हवाई अड्डे से कैसे-कैसे उन के गाँव की ओर काफिला जाएगा। यह और कुछ अन्य पुलिस अधिकारी इस चिंता में भी दुबले हुए जा रहे थे कि 'मुख्यमंत्री जी' को यह एहसास तनिक भी न हो वह अब मुख्यमंत्री नहीं हैं तो उन के स्वागत में, इंतजाम में कोई ढील हो गई है। उन के व्यक्तिगत मित्र तो उन को यह एहसास भी होने नहीं देना चाहते थे कि उन के मुख्यमंत्री नहीं रहने से संबंधों की गरमाहट सर्द हो जाएगी। वह और भी गरम जोशी से मिल रहे थे। बीरबहादुर सिंह मुख्यमंत्री पद छोड़ने के बाद पहली बार गोरखपुर आए थे। उसी चिरपरिचित बेलौस सहज पर व्यस्त से व्यस्ततम अंदाज़ में। वह हरनहीं जाने लगे तो तैयारी से मालूम ही हो गया कि घर में शादी है। हल्ला हो गया कि वीर बहादुर सिंह की बेटी की शादी है आज। फिर क्या था लोग उमड़ पड़े। वीर बहादुर सिंह ने बड़ी सख्ती से लोगों और तमाम अधिकारियों को ताईद किया कि कोई हमारे घर नहीं आए। यह हमारा पारिपारिक मामला है। जिस को बुलाया है वही आए। बाकी के आने की ज़रूरत नहीं है। इतनी बेरूखी से और वह भी सार्वजनिक रूप से वीर बहादुर सिंह ही कह सकते थे, 'मेरे घर मत आइए।' उन के विरोधी कहने लगे, ''खिसिया गया है। बेइज्जती से डरता है कि कम लोग आएंगे तो कद-कट जाएगा, आदि-आदि।

पर वीर बहादुर सिंह के बेइज्जती किए जाने की हद तक मना करने के बावजूद न सिर्फ़ उन के साथ भारी काफिला हरनही पहुँचा। बल्कि जिस भी किसी को मालूम पड़ा शाम तक वह भी शहर से कोई 30 किलोमीटर दूर उन के गाँव पहुँचता गया। शाम तक वहाँ का माहौल शादी का नहीं मेले का सा हो गया था।

वीर बहादुर सिंह को अंधेरा होते-होते एहसास हो गया था कि उन के लोगों का उन के प्रति प्यार और बढ़ गया था। अलग बात है कि वहां जा कर लोगों को पता लगा कि वीर बहादुर की बेटी की नहीं उन के अग्रज जो अब इस दुनिया में नहीं हैं उन की बेटी के हाथ पीले करने वह संचार मंत्री की शपथ लेने के दो ही दिन बाद गोरखपुर नहीं अपने गांव आए थे। इसी हफ़्ते तत्कालीन उप रेल मंत्री महावीर प्रसाद की बेटी की भी शादी थी। उन्हों ने सब को न्यौता भी दिया था पर उस के पासंग बराबर भी लोग महावीर प्रसाद के घर नहीं पहुंचे जितने हरनहीं में पहुंच कर रावा लगा गए थे। यह तो सिर्फ़ एक घटना है वीर बहादुर सिंह के गोरखपुर और हरनहीं से उन के और लोगों के उन से लगाव की। ऐसी जाने कितनी घटनाएं संदर्भ और स्थितियां और स्मृतियाँ मन में तैर-तैर जाती हैं जिन सब को समेट पाना यहाँ संभव नहीं है।

ऐसा भी नहीं है कि वीर बहादुर सिंह की छवि लोगों के मन में आदर्शवादी जुझारू और कर्मठ नेता के रूप में बसी हो। दरअसल वीर बहादुर सिंह तो द्वंद्व-फंद और फरेबी राजनीति के नाते ही लोगों के दिलोदिमाग पर छाए रहें। कई हास्यास्पद स्थितियों के नाते भी वह ज़्यादा जाने जाते रहे। सलीके से बोलने बतियाने तो उन्हे आता ही नहीं था। वह ठेठ गंवई अंदाज़ में ही बतियाते थे। पुचकारते और डांटते थे तो बहुतों का यह नहीं भाता था। तो उन्हें जाहिल और गँवार करार दे दिया गया। इस से उन्हें कभी कोफ्त भी नहीं हुई कि लोग उन्हें भदेस बताते हैं। उन्हें कभी यह शिकायत भी नहीं हुई कि लोगों की राय में उन्हें बोलने नहीं आता। भरी जनसभी में बिजली की शिकायत पर, ''तार मेरी पिछाड़ी में खोंस दो' कहने वाले राजनारायण कह गए कि वीर बहादुर सिह तो जब पढ़ते थे तब हास्टल के मेस से पिसान (आटा) चुराते थे तो भी वीर बहादुर कुछ नहीं बोले। गोरखपुर से ही विधायक हरिशंकर तिवारी तो लगातार उन पर भ्रष्टाचार के आरोप ही लगाते रहे। लेकिन वह नहीं बोले। बाद में वीर बहादुर के पाले पोसे विधायक रामलक्षन भी आरोपों का पुलिंदा ले कर आंदोलनरत हो गए तो भी वीर बहादुर नहीं बोले।

याद आता है कि जब जनमोर्चा में जाने से पहले संजय सिंह ने वीरबहादुर के खिलाफ एक तूफान ही खड़ा कर रखा था तब नकवी, सुरेंद्र सिंह के इस्तीफे हो चुके थे। संजय सिंह ने एक बड़ा ही उत्तेजक बयान जारी किया था। मै ने संजय सिंह से उसी शाम पूछा कि अगर वीर बहादुर आप से भी इस्तीफा मांग लें तो? संजय सिंह फैल कर बोले, ''उस की इतनी हिम्मत नहीं है। मांग कर तो देखें। वह मुख्यमंत्री नहीं रह पाएगा।''

वीर बहादुर सिंह उस दिन लखनऊ में नहीं थे। दिल्ली में ही डेरा जमाए आर-पार की लड़ाई लड़ रहे थे। उसी शाम उन के घर से मैं ने दिल्ली फ़ोन कर के संजय सिंह के बयान और उन के कहे को अक्षरशः बताया तो वह बोले, 'कहे द उन्हें न। जवन चाहें तवन कहें।' हमने बहुत कोशिश की कि वह कुछ कहें। प्रतिक्रिया शब्द सुन कर बिफर पड़े। बोले, 'कोई प्रतिक्रिया व्रतिक्रिया नहीं। इस बातचीत का ज़िक्र भी नहीं। समझे।' कह कर वह बोले, 'कहीं जाना है। पर न इसे छापना न किसी को बताना।' मैं यह सोच कर हिल गया कि कहीं वीर बहादुर की कुर्सी तो नहीं जाने वाली? पर नतीज़ा सामने था। इसी हफ्ते संजय सिंह का इस्तीफा हो गया था। इस्तीफे की ही शाम वीर बहादुर लखनऊ आए और प्रेस कांफ्रेस की। इस कांफ़्रेंस में वह बोले और खूब बोले। क्या-क्या नहीं कहा संजय सिंह के बारे में। वीर बहादुर 'बिलकुल हरियराये हुए थे। बोले दुनिया के जेतने ऐब हें संजय सिंह में हैं। बताइए। बताइए दिल्ली जाते हैं तो यू0 पी0 निवास या यू॰ पी॰ भवन में नहीं पांच सितारा होटलों में ठहरते हैं।

क्या करते हैं वहां ये? ऐबैं ऐब हैं। दूसरे रोज लखनऊ के सारे अखबारों ने वीर बहादुर उवाच में संजय सिंह के ऐब छांटे छापे। पर मानहानि की अदालती नोटिस तो दूर अखबारों को दो लाइन का खंडन भी संजय सिंह का नहीं आया कि यह सब गलत है। क्यों कि वीरबहादुर बोले थे।

संजय सिंह सैय्यद मोदी हत्याकांड के बाद पद-यात्रा कर रहे थे। उन्हीं दिनों राजीव गांधी का अमेठी दौरा भी पड़ा। दौरे की जनसभाओं में किसी भी ने मोदी हत्याकांड या संजय सिंह के बावत कुछ नहीं बोला। पर वीर बहादुर बोले। बोले, 'देखिए क्या क्या कर के अब पद-यात्रा कर रहे हैं।'

एक बार गौरीगंज (सुल्तानपुर) की एक जनसभा में राजीव के तकनीकी सलाहकार सैम पित्रोदा ने डाक विभाग के डाक वितरण की ऐसी तैसी करते हुए बताया कि हमारी योजना है कि गांव-गांव टेलीफ़ोन लग जाएं ताकि लोग चिट्ठियों पर निर्भर न रहें। ऐसा ही कुछ बोले थे सैम पित्रोदा। सब ने तालियां बजाई। पर जब इस मसले पर वीर बहादुर बोले तो तालियों की गड़गड़ाहट गूंज गई। इन गूंजी तालियों में राजीव की भी तालियां शुमार थीं। वीर बहादुर बोले कि आप किस को फ़ोन देने जा रहे हैं? गांव वालों को। जिन को चिट्ठी भी लिखने नहीं आती। पेट में रोटी नहीं होती। फिर वह किस को फ़ोन करेंगे और कौन करेगा उन को फ़ोन? देना ही है तो हर गांव को चिट्ठी लिखने वाला और पोस्टकार्ड दिया जाए। तालियों की गड़गड़ाहट बरबस ही हो गई और राजीव गांधी भी मुसकुरा कर ताली बजा गए।

कहते हैं सैम पित्रोदा को यह सब रास नहीं आया और तभी से उन्हों ने वीर बहादुर को 'फेल' करने की ठानी। पत्नी चंपा देवी का संग साथ छूटने से वह टूटे तो थे ही सैम पित्रोदा की शेखी ने भी उन्हें कम नहीं तोड़ा था। अच्छे-अच्छे खुर्राट व्यूरोक्रेटों को उन्हों ने उन की औकात में कर दिया था। पर सैम पित्रोदा राजीव के तकनीकी सलाहकार का तमगा ताने हुए थे। वीर बहादुर पित्रोदा को उन की मांद में डाले बिना कूच कर गए तो इसका मलाल भी वह साथ ज़रुर ले गए होंगे।

याद आता है जब वह मुख्यमंत्री बने थे तब उन की गंवारू, बोली पहनावे की हर कोई जब तब नोटिस लेता रहता था। इत्तफाक से तब महावीर प्रसाद भी प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष थे। उन के भी बोलने में भदेसपन बदकता था। संयोग से दोनों गोरखपुर के ही थे। सो गोरखपुर के लोगों को इन दोनों नेताओं की अनगढ़ छवि के चलते जाने-अनजाने खमियाजा भुगतना ही पड़ता था। फिकरा सुनना ही पड़ता था। तो भी फख होता था कि हम गोरखपुर के हैं। अपनी माटी का लाल राज कर रहा है।

मुख्यमंत्री बनने के बाद वीर बहादुर सिंह की देशज बोली तो फिर भी नहीं बदली। पर कुछ ही महीने बाद उन का पहनावा बदल गया। उन के कर्मचारियों की बड़ी कोशिश रही कि वह सुंदर और सलीकेदार दिखें। इसी क्रम में वह चूड़ीदार पायजामा पहनने लगे। शेरवानी भी उन की देह पर आई और गोल्डेन फ्रेम का चश्मा भी। उन के चेहरे को भी तरसवाया गया। और सचमुच वह 'स्मार्ट' दिखने लगे। उन के सूचनाधिकारी मेहता को एक दिन देखा कि गोल्डेन फ्रेम चश्में वाली तसवीर देख-देख गदगद हो रहे थे कि अब अपना मुख्यमंत्री 'लुकेबिल' लगने लगा है। लेकिन वीर बहादुर तो वीर बहादुर थे। कर्मचारियों द्वारा लाख चाक चौबंद करने के शाम की महफ़िल में वह फिर भदेस बन जाते थे। एनेक्सी के मुख्यमंत्री कार्यालय में बाहर के कमरे में बैठे वह टी. वी. न्यूज के बहाने भीतर वाले कमरे में सब को लिए-दिए घुस जाते थे। बैठे-बैठे बतियाते-बितियाते वह आराम की मुद्रा में टेक ले कर बैठ जाते थे और फिर वह टांग फैला कर लेट जाते थे। मैं ने देखा यह उन का नियमित क्रम था। चाहे दिन हो या रात। सिंचाई मंत्री रहे हों या मुख्यमंत्री। वह बतियाते-बतियाते ले्ट ज़रूर जाते थे। लेटते समय वह इस कांपलेक्स में भी नहीं पड़ते थे कि बगल में स्वरूप कुमारी बक्शी भी बैठी हैं कि दीपाकौल, कमला साहनी या सुमनलता दीक्षित सरीखी महिलाएं भी अपनी-अपनी भाव भंगिमा में बैठी हैं। या कि अन्य कैबिनेट मंत्री भी बैठे हैं, विधायक और अधिकारी व्यापारी भी बैठे हैं कोई दिक्कत नहीं होती थी उन्हें वह तो बस लेट जाते थे तो लेट जाते थे। कोई उन्हें थका जान कर चलने को होता तो कहते, 'बैठो चाय पी कर जाओ। फिर चाय आ जाए तो भी, न आ जाए तो भी लोग बैठे रहते थे और वह लेटे । यह करना हर किसी के वश का नहीं होता। यह वीर बहादुर ही कर सकते थे।

कुछ ऐसा ही नजारा था उन के मुख्यमंत्री बनने के पहले दिन का। लखनऊ में बाढ़ की विपदा बंटाने राजीव गांधी आए थे। जाते समय अमौसी हवाई अड्डे पर जहाज में देर तक राजीव के साथ वीर बहादुर पड़े रहे और मुख्यमंत्री नारायणदत्त तिवारी जी थोड़े असहज हुए तो दूसरे रोज लखनऊ के अखबार इस घटना के ज़िक्र और वीर बहादुर के मुख्यमंत्री बनने की संभावना से पटे पड़े थे। फिर नारायण दत्त तिवारी का इस्तीफा भी हो गया और दिल्ली से आये पर्यवेक्षकों का नाटक भी। अफरा-तफरी मची हुई थी। पर वीर बहादुर विधान भवन के अपने सिंचाई मंत्री वाले कमरे में खामोश बैठे थे। विधायक/पत्रकारों से घिरे वीर बहादुर कोई संकेत नहीं दे रहे थे। जो भी आता हार्टिको जूस पी पी कर उन्हें मुख्यमंत्री होने की बधाई देता जाता। पर वह तो जस के तस थे। न उत्तेजना, न उदासी। कुछ भी उन के चेहरे पर नहीं था। न ही उन की जबान पर। हां, कुछ चमचे टाइप लोगों ने जब उन के कसीदे पढ़-पढ़ तिवारी जी को कोसना शुरू कर दिया तो वह चुप नहीं रह पाए। अपने अंदाज़ में ही बोले, ''नहीं-नहीं तिवारी केंद्र में जा रहे हैं।' पर दुबारा फिर वह चुप थे। फिर तो मुख्यमंत्री मनोनीत होने के बाद प्रशसंकों की जो धक्का-मुक्की उन्हें मिली - बिलकुल पराकाष्ठा थी, धक्का-मुक्की की जो शायद ही किसी और मनोनीत मुख्मत्री को नसीब हुई हो और हो।

तो वीर बहादुर सिंह ने मुख्यमंत्री पद का शिखर छू लिया। और काफी दिन तक मालायें पहनते रहे, जश्न चलता रहा। बिलकुल गंवई स्तर और ज़िला स्तर के नेता उन की महफिल में डटे रहते। बहुत लोगों को यह सब नहीं भाता था। अब जैसे कि जार्ज फर्नाण्डीज एक शाम वीर बहादुर से मिलने गए तो उन्हें बड़ा बुरा लगा कि अभी तक जश्न चल रहा है और भीतर गए तो और भी सन्न रह गए। सन्न रहने की बात ही थी। इतने बड़े नेता होने के बावजूद जिस मुख्यमंत्री से यह समय ले कर मिलने गए थे उसी मुख्यमंत्री के बगल में पहले ही से उन की पार्टी का ज़िलाध्यक्ष घुटने तक धोती उठाए बैठा हुआ था। यह ज़िलाध्यक्ष कोई और नहीं गोरखपुर के रामकरन सिंह थे जो तब जनता पार्टी के् ज़िलाध्यक्ष थे जो बाद में विधान परिषद सदस्य भी हुए। जनता पार्टी से बगावत कर कें। यह और ऐसी जाने कितनी घटनाएं है। जो वीर बहादुर के मन और चरित्र को कभी चार चांद लगाती हैं तो कभी थू-थू करवाती है।

जनमोर्चा की अंगड़ाई के तब दिन थे। विश्वनाथ प्रताप सिंह बोफ़ोर्स ले कर गरज रहे थे। ललकार वह भले राजीव गांधी को रहे थे पर ज़मीनी स्तर पर उत्तर प्रदेश में उथल-पुथल मची हुई थी। उन दिनों मैं दारुलशफ़ा के ए ब्लाक में ही रहता था। वीर बहादुर सिंह ने ही वह फ़्लैट मेरे लिए आवंटित किया था। दारुलशफ़ा में ही एक शाम गुपचुप कई कांग्रेसी विधायकों की बैठक की खबर मुझे मिली। मैं ने जब पता किया तो पता चला कि २२ कांग्रेसी हरिजन विधायकों ने जनमोर्चा ज्वाइन करने का प्रस्ताव गुपचुप पास किया था और विश्वनाथ प्रताप सिंह को चिट्ठी लिखी थी। खबर पक्की थी। तब कांग्रेस मेरी बीट नहीं थी। फिर भी मैं ने तब स्वतंत्र भारत के संपादक वीरेंद्र सिंह को यह खबर बताई। उन्हों ने कहा कि तुम खबर लिखो। दूसरे दिन यह खबर बैनर बन कर छपी स्वतंत्र भारत में। अब जैसे कोहराम मच गया। दिल्ली-लखनऊ एक हो गया। लेकिन शाम तक लगभग सभी विधायकों का खंडन आ गया। लेकिन मेरी खबर पक्की थी। मैं ने वीरेंद्र सिंह जी से कहा कि यह खंडन सिर्फ़ एक दिन के लिए रोक दीजिए। दूसरे दिन मेरे जवाब सहित इसे छापिए। एक दिन में कोई पहाड़ नहीं टूट पड़ेगा। वह बोले, 'पहाड़ तो अभी टूट रहा है। पर चलो देखते हैं।' खैर एक दिन बहुत मुश्किल से उन्हों ने यह खंडन रोक लिया। अब बाहर से ज़्यादा भीतर का दबाव बढ गया। एक तो स्वतंत्र भारत के तब के मालिक जयपुरिया का दूसरे एक विशेष प्रतिनिधि थे शिव सिंह सरोज का। कांग्रेस उन्हीं की बीट थी। वह तो मुझे इस्तीफ़ा देने की सलाह दे रहे थे, दूसरे प्रबंधन पर जोर दे रहे थे कि मुझे बर्खास्त कर दिया जाय। वीर बहादुर के कारिंदों के भी कान अलग भर रहे थे। खैर दूसरे दिन मुझे सभी विधायकों की दस्तखत वाले प्रस्ताव की फ़ोटोकापी मिल गई। अब स्वतंत्र भारत में एक साथ जब विधायकों का खंडन और उन के प्रस्ताव पत्र पर दस्तखत एक साथ जब छपा एक बार फिर से बैनर बन कर तो जैसे आग लग गई। रवायत के मुताबिक कुछ विधायकों ने मुझ पर ब्लैकमेल करने का भी आरोप लगाया। एक विधायक फूलचंद तो बाकायदा अखबार के दफ़्तर आ कर जनरल मैनेजर से मिले। एक बार पहले भी उन के खिलाफ़ एक खबर मैं लिख चुका था। सो वह और खिन्न थे। जनरल मैनेजर ने मुझे बुलवाया। उन से मिलवाया। और फिर उन से पूछा कि इन्हें जानते हैं? फूलचंद जी बोले, 'पहली बार इन से मिल रहा हूं।' जब कि इस के पहले वह शिकायत कर चुके थे कि मैं उन के घर जा कर उन्हें ब्लैकमेल कर चुका हूं। जनरल मैनेजर मुसकुराए और उन्हें बताया कि यह वही रिपोर्टर हैं, जिन की शिकायत आप ले कर आए हैं। वह भनभनाते हुए चले गए। पर माने नहीं। विधान परिषद में मेरे खिलाफ़ विशेषाधिकार हनन का प्रस्ताव पेश कर बैठे। और मुझे फ़ोन कर कहा कि जेल भिजवा कर ही दम लूंगा। बात फिर गरमा गई। लेकिन कांग्रेस के ही जगदंबिका पाल ने अप्रत्याशित रुप से इस पूरे मामले में मेरी मदद की। जब प्रस्ताव पर चर्चा शुरु हुई तो फूलचंद ने अपने वक्तव्य में एक जगह कह दिया कि इस समाचार को पढ कर मेरा मानसिक संतुलन बिगड़ गया है। तो जगदंबिका पाल ने फ़ौरन उन की बात को पकड़ लिया और अध्यक्ष से कहा कि माननीय सदस्य का चूंकि मानसिक संतुलन बिगड़ गया है, सो इन को चिकित्सा की सुविधा दी जाए और फ़ौरन सदन से बाहर भेजा जाए नहीं हम लोगों को भी खतरा हो सकता है। लोग हंसने लगे। और मेरे खिलाफ़ विशेषाधिकार प्रस्ताव वहीं ध्वनिमत से गिर गया। बाद में पता चला कि राजीव गांधी के विशेष निर्देश थे कि यह प्रस्ताव पास नहीं होने दिया जाए। क्यों कि इस से लोगों में यह संदेश चला जाएगा कि दलित कांग्रेस से खिसक रहे हैं। हालं कि दलित तो सचमुच कांग्रेस से खिसक गए बाद के दिनों में। अब देखिए न राहुल गांधी घूम-घूम कर दलितों के घर रुक रहे हैं, खाना खा रहे हैं पर दलित कांग्रेस में नहीं लौट रहे हैं तो नहीं ही लौट रहे हैं। बहरहाल इस सब के बाद कई लोगों ने कई तरह से बताया कि वीर बहादुर सिंह इस सब से बहुत नाराज हैं। एक दिन वीर बहादुर सिंह से मुलाकात हुई तो मैं ने पूछा कि, 'सुना है आप बहुत नाराज हैं?'

'किस ने कहा?'

'कई लोगों ने।' मैं ने कहा।

'मैं ने कुछ कहा क्या?' वह बोले, 'चमचे पत्रकारों की मेरे पास कमी नहीं है। बहुत हैं। पर तुम आंख कान खोले रहो। इस खबर से लोग समझ रहे हैं कि मेरा नुकसान हुआ है। गलत सोच रहे हैं। अरे मैं तो इन बाइस में से कम से कम चार को तो मत्री बनाने जा रहा था और यह सब पीठ में छुरा घोंपने में लगे थे।' वह बोले, 'ओ तो दिल्ली से सिगनल का इंतज़ार था नहीं इन सबों के शपथ की तैयारी थी।' बाद में पता चला कि इस मंत्री सूची में फूलचंद का नाम सब से ऊपर था। हालां कि तब वीर बहादुर सिंह को कुछ लोगों ने सलाह दी कि संपादक को पटाना चाहिए। सो उन्हों ने तब के संपादक वीरेंद्र सिंह को पटाने की गरज से डिनर पर बुलवाया। पर सीधे न बुला कर, सूचना विभाग के अफ़सरों के मार्फ़त। वीरेंद्र सिंह को यह नागवार गुज़रा। पहले सूचनाधिकारी तिलोक सिंह मेहता आए और कहा वीरेंद्र सिंह से कि, 'माननीय मुख्यमंत्री जी, आज आप के साथ भोजन करना चाहते हैं।'

'अपने मुख्यमंत्री जी से कहिए कि पहले भोजन करवाने का सलीका सीखें। फिर भोजन पर बुलाएं।' वह बोले, 'मेहता जी अगर आप के साथ भोजन करना हो तो चलिए अभी चलता हूं। लेकिन इस तरह मुख्यमंत्री के साथ तो नहीं। और जो आप के मुख्यमंत्री को लगता है कि उन के साथ भोजन करने से खबरें नहीं छपेंगी तो कहिए कि यह गलतफ़हमी भी दूर कर लें।' मेहता घबरा कर भागे और यह बात सूचना निदेशक अशोक प्रियदर्शी को बताई। प्रियदर्शी जी आई.ए.एस. अफ़सर थे ज़रुर पर कायस्थीय कमनीयता भी भ्रपूरर थी उनमें। बेहद शिष्ट और बेहद मिलनसार। उन को लगा कि छोटा अफ़सर भेज देने से वीरेंद्र सिंह नाराज हो गए हैं। भाग कर खुद पहुंचे वीरेंद्र सिंह के पास। पर वीरेंद्र सिंह ने जो बात मेहता जी से कही थी, वही बात प्रियदर्शी जी से भी दुहरा दी। प्रियदर्शी भाग कर वीर बहादुर के पास गए। वीर बहादुर सिंह ने वीरेंद्र सिंह को खुद फ़ोन किया। पर वीरेंद्र सिंह ने उन से कहा कि, 'आज तो खाली नहीं हूं, फिर किसी दिन कहिएगा तो ज़रुर आ जाऊंगा।' वीर बहादुर ने उन से ठाकुरवाद का वास्ता भी दिया। पर वीरेंद्र सिंह नहीं माने। वीर बहादुर सिंह समझ गए कि किसी कुत्ता टाइप नहीं स्वाभिमानी टाइप संपादक से पाला पड़ा है। बाद में फिर से वीरेंद्र सिंह को भोजन पर बुलाया और सम्मान से तो वीरेंद्र सिंह गए भी। क्या आज भी किसी संपादक में इतना जिगरा है कि मुख्यमंत्री का न्यौता टाल दे? और कि किसी मुख्यमंत्री में इतनी बर्दाश्त या सहनशीलता है जो किसी संपादक का नहीं कहना बर्दाश्त कर ले? जाहिर है कि अब यह दोनों ही बातें संभव नहीं हैं। पर एक और घटना देखिए। तब वीर बहादुर जनमोर्चा नाम से बहुत भड़कते थे उन दिनों। फ़ैज़ाबाद के जनमोर्चा वाले शीतला सिंह को ठाकुरवाद के फेर में वह बहुत मानते थे। एक दिन वह विज्ञापन की बात करने लगे तो वीर बहादुर बोले,' पहले यह अपने अखबार का नाम बदलो। जनमोर्चा किसी सूरत में नहीं चलेगा!' अब उन को कोई यह समझाने वाला नहीं था कि बरसों पुराने किसी अखबार का नाम ऐसे ही नहीं बदल जाता। हालां कि आज के दौर में तो अब कुछ भी हो जा रहा है।

अमिताभ बच्चन उन्हीं दिनों जब आरोप पर आरोप भुगत रहे थे तो एक बार वह बोले कि आज लोग मेरी सफलता से मेरे पैसे से जल भुन रहे हैं जाने क्या-क्या कह रहे हैं। हिसाब मांग रहे हैं पर जब मैं ने बंबई के पार्कों की बेंचों पर भूखे पेट रातें गुज़ारीं उन रातों का हिसाब कोई नहीं मांगता। वीर बहादुर सिंह के साथ भी कमोवेश यही स्थिति है।

जनता सरकार के दिनों में अमेठी दौरे से गौरीगंज जाते हुए संजय गांधी सरे राह उन्हें बेइज्जत कर के उतार गए तो किसी ने अपनी गाड़ी में वीर बहादुर सिंह को नहीं बिठाया। इस अपमान और तिरस्कार के बावजूद वीर बहादुर गौरीगंज के डाक बंगले पहुंचे तो संजय गांधी उन पर फ़िदा हो गए। यह बात तो लोग याद करते हैं पर यह याद नहीं करते कि जनता सरकार के ही दिनों में इसी विधान भवन के सामने वह पुलिस की लाठियों से कूंचे गए थे। बहुत लोग नहीं जानते पर विधान भवन के सामने लगी गोविंद बल्लभ पंत की स्टैचू ने वीर बहादुर को थर-थर कांपते देखा है। जब लाठियों को झेलते तार की बाड़ फांदते वह पंत जी की स्टैचू की शरण में आए थे। तब रामनरेश यादव मुख्यमंत्री थे। हमें लगता है शायद इसी लिये यह रामनरेश यादव के कांग्रेस में आने को मन से स्वीकार नहीं कर पाए थे।

इसी लखनऊ से गोरखपुर जाने वाली रेलगाड़ियों में सेकंड क्लास के डब्बों में वह भी लैट्रीन के पास खड़े रात गुज़ारते हुए यात्रा करते हुए वीर बहादुर को कितने लोगों ने देखा है? तब जब कि वह राज्यमंत्री तक रह चुके थे। उन्हीं जनता सरकार के दिनों में गोरखपुर में गोलघर की बीच सड़क पर डिवाइडर पर खड़े 'ए रेक्शा, रेक्शा। चिल्लाते हुए वीरबहादुर सिंह को भी मैं ने देखा है। तरैना नदी ने देखा है वीर बहादुर को तैर कर पढ़ने के लिए जाते हुए। वीरबहादुर के रिकार्ड मुख्यमंत्री बनने के बावजूद उस तरैना नदी पर तब मजबूत पुल वीरबहादुर भले नहीं बनावा पाए पर खजनी कस्बे को उन्होंने तहसील ज़रुर बना दिया, जहां कंबल बनाने का कारखाना खुलवाया।

यों तो गोरखपुर मंडल की राजनीति में पहले बाबा राघवदास (देवरिया) की जो छवि बनी न आज तक किसी की बनी न बन पाएगी। पूर्वांचल के गांधी कहे जाते थे बाबा राघवदास। फिर प्रोफेसर शिब्बन लाल सक्सेना तथा समाजवादी उग्रसेन (देवरिया) उभरे। बाद में महंथ दिग्विजय नाथ और पंडित सूरतिनारायण मणि त्रिपाठी की प्रतिद्वंद्विता गोरखपुर विश्वविद्यालय की राजनीति में उभरी तो कालांतर में खूनी खेल में खौल उठी। फिर यादवेन्द्र सिंह जो विधानसभा के उपसभापति भी रहे, रामायण राय (देवरिया) और बाद में मुख्यमंत्री टी. एन. सिंह को हरा कर रामकृष्ण द्विवेदी भी गोरखपुर मंडल की राजनीति में उभर कर सामने आये। तब तक वीरबहादुर सिंह भी राजनीति में आ तो गए थे, उपमंत्री भी बन गए थे पर जिसे उभर कर आना कहते हैं उस तरह नहीं आए थे। वैसे तो छोटी-मोटी गोटियां वीर बहादुर सिंह हमेशा से खेलते रहे थे। पर सब से बड़ी गोटी खेली उन्हों ने 1974 में विधान परिषद के एक चुनाव में। ग्राम सभापतियों को गोरखपुर मडल से एम. एल. सी. चुनना था और हरिशंकर तिवारी उम्मीदवार थे। तिवारी भी तब कांग्रेस में थे। पर कई कांग्रेसियों को यह ठीक नहीं लग रहा था पर विरोध की किसी में हिम्मत भी नहीं थी।

फिर यह बीड़ा उठाया वीर बहादुर सिंह ने। बाबू यादवेंद्र सिंह से संपर्क साधा और बड़ी खोज-बीन और ठोंक-पीट के बाद बस्ती के शिवहर्ष उपाध्याय को हरिशंकर तिवारी के खिलाफ मैदान में उतार दिया। शिवहर्ष उपाध्याय चुनाव जीत गए और हरिशंकर तिवारी मात्र ग्यारह वोटों से हार गए। इस के खिलाफ वह हाईकोर्ट भी गए। लेकिन शिवहर्ष उपाध्याय का टर्म खत्म हो गया पर मुकदमा नहीं। उसी समय विरोध स्वरूप तिवारी ने गोरखपुर बंद का आह्वान किया। इस बंद के दौरान गोरखपुर के तब के कोतवाल टाइगर योगेंद्र सिंह ने तिवारी को सरे बा्ज़ार बेइज्जत भी किया। बाद में इस पर बड़ा बवाल भी मचा। पर तिवारी वीर बहादुर का झगड़ा खुल कर सामने आ गया जो उन के मरते दम तक बरकरार रहा और कहीं अधिक घनत्व में। पर वीर बहादुर की यह पहली जीत थी। बाद में हरिशंकर तिवारी के मसले पर वीर बहादुर को अपने स्थानीय गुरू पंडित भृगुनाथ चतुर्वेदी ने फरवरी 1985 के विधानसभाई चुनाव में अपनी सीट न सिर्फ़ हरिशंकर तिवारी को सौंप दी बल्कि उन्हें जिताने के लिए जान लड़ा दी। तो जीतने के बाद हरिशंकर तिवारी ने भृगुनाथ चतुर्वेदी के जीते जी उन के नाम से एक डिग्री कालेज खोल कर उन की आदमकद प्रतिमा भी लगा दी। इस तरह यह दुर्लभ संयोग है कि वीर बहादुर सिंह और हरिशंकर तिवारी जो दोनों दो ध्रुव रहे, एक ही गुरू भृगुनाथ चर्तुवेदी के शिष्य रहे। चतुर्वेदी जी अब नहीं हैं पर जब थे तो लोग कहा करते थे। 'गुरू गरूवै रहले, चेला चीनी हो गइलें।' हालां कि चतुर्वेदी जी तपे तपाये स्वतंत्रता सेनानी थे और उन का बड़ा मान था।

अपने द्वंद्व-फंद के चलते गोरखपुर में वीर बहादुर बदनाम भी बहुत थे पर उन के द्वारा कराए गए विकास के कामों से उन्हें यश भी मिला है। खास कर उन के चुनाव क्षेत्र पनियरा की तो बस पूछिए मत। पनियरा खालिस तराई इलाका है। तराई मतलब घनघोर पिछड़ा इलाका का पर्याय। पर पनियरा जा कर यह भ्रम टूटता है। जहां पुलिया होनी चाहिए वहां पुल खड़ा है। हर गांव में नहर भी है। और ट्यूबवेल भी। अस्पताल भी कई। दो बड़ा अस्पताल। गोरखपुर में तराई होते हुए भी जितने विकास के पांव पनियरा में दौड़े हैं मैं समझता हूं गोरखपुर के किसी क्षेत्र में नहीं। पनियरा क्या है एक बहुत छोटा सा कस्बा है पर वहां से सुल्तानपुर, दिल्ली, लखनऊ, आदि अन्य कई जगहों के लिए सीधी रोडवेज बसें हैं। बीते तीस पैतीस सालों से। यह सब वीर बहादुर सिंह के किए का परिणाम है। इतना ही नहीं गोरखपुर क्षेत्र में खूनी खेल के खौलते लावे को ठंडा करने में भी वह बड़े कारण बने। माफिया ताकतों को न सिर्फ़ उन की मांद में बैठाए रखा उन के सारे ठेके पट्टे भी छिन्न-भिन्न कर दिए। यह हर किसी के वश की बात नहीं थी।

पर जहां वीर बहादुर ने गोरखपुर में विकास के पांवों को लंबा किया उन का जाल और सघन किया वहीं उन के नाम पर उन के परिजनों ने, उन के चहेते अधिकारियों मित्रों ने उन्हें बदनामी भी खूब दी। उन के नाम पर खूब मनमानी भी हुई। वह चाहे अनचाहे इसे रोक नहीं पाए। बदनामी से बचने के लिए अपने मुख्यमंत्रित्व के दो साल पूरे करने पर उन्हों ने एक शासनादंश भी जारी किया कि उन के परिवार या रिश्तेदारों की सिफारिशें न मानी जाएं। पर भला किस की हिम्मत थी जो न मानता। शासनादेश कागजी साबित हो कर रह गया। उन के कई राजनीतिक मित्रों, पत्रकारों ने भी उन्हें खूब चूना लगाया। लेकिन मैं ऐसे भी लोगों को जानता हूं जिन्हों ने उन का भरपूर दोहन किया और देखते ही देखते करोड़ पति हो गये। और ऐसे भी लोगों को जानता हूं जिन्हों ने उन से पैसे भर का भी काम नहीं करवाया जब कि वे उन के अभिन्न थे। जैसे कि गोरखपुर के एक पत्रकार है श्यामानंद श्रीवास्तव। वह उन के विद्यार्थी जीवन के समय से अभिन्न हैं। मै ने देखा वह अकसर आते - वीर बहादुर के पास आते। वीर बहादुर बड़ी देर तक उन्हें अपने पास बैठाए रखते। कोई काम वह बताते नहीं थे। कभी-कभी वीर बहादुर पूछ भी लेते, 'का हो कौंनों कार बताव।' श्यामानंद का जबाव होता, 'बस तू मुख्यमंत्री बनल रह !' कह कर वह गदगद हो जाते और चले जाते। अकसर ही उन दोनों के बीच कुछ ऐसा ही घटता। बात कहीं से भी शुरू हो खत्म यहीं होती थी कि, 'तूं मुख्यमंत्री बनल रह बस।' वीर बहादुर के पास ऐसे मित्रों की भी कमी नहीं थी।

बहुत से लोग कहते हैं वीर बहादुर सिंह योजनाकार नहीं तिकड़मी जीव थे। मुझे यह बात कहीं सच भी लगती हे। हालां कि इस के बावत कई राजनीतिक गैर राजनीतिक, कई जानी कई अनजानी घटनाएं याद आ रही है। पर यहां एक ही घटना का जिक्र करना चाहता हूं।

मार्च का महीना था और वीर बहादुर अपनी आदत के मुताबिक मुख्यमंत्री कार्यालय में लोगों से घिरे लेटे पड़े थे। एक वरिष्ठ आई. ए. एस. अधिकारी कुछ इंजीनियरों के साथ काफी देर से खड़े थे। वह कई बार आए गए भी पर वीर बहादुर ने उन पर ध्यान नहीं दिया। थोड़ी देर बाद वह अधिकारी एक फाइल ले कर उन की ओर बढ़े और बोले कि, 'सेंटर ने फिर प्रस्ताव रिजेक्ट कर दिया है।' वीर बहादुर ने पूछा, 'कौन सा प्रस्ताव?' अधिकारी बाले, 'वही पुल वाला सर। सर, तीन साल से प्रस्ताव भेजा जा रहा है और हर बार रिजेक्ट हो जाता है।'

'क्यों-क्यों?' पूछा तो अधिकारी ने कुछ तकनीकी तथा अन्य मुद्दे बता दिए। वीर बहादुर बोले, 'इस से क्या होता है। एक करोड़ से ऊपर के लिए केंद्र की मंजूरी चाहिए। तीन पुलों के लिए 90-90 लाख का प्रस्ताव बना कर हमें दो। हम मंजूर करेंगे।'

फिर वह अधिकारी खुशी-खुशी जाने लगा तो उसे फिर वापस बुलाया और कहा कि अगले दो हफ्ते में ही तारीख तय कर शिलान्यास करवा डालो फिर बैठे ही बैठे उन्हों ने न सिर्फ़ तारीख तय की वरन् अपने को उद्घाटनकर्ता भी तय कर दिया और कहा कि केंद्र से अध्यक्षता के लिए फला को बुला लो। वह अधिकारी और इंजीनियर सारे समय जी-जी करते रहे। फिर वह अधिकारी और इंजीनियर भाव विभोर हो जाने लगे तो वहीं बैठी एक विधायिका बोलीं 'मुख्मयंत्री जी फला इंजीनियर का ट्रांसफर अभी नहीं हुआ। वहां बैठे सभी लोग मुस्करा पड़े। पर उन्हों ने तुरंत उस अधिकारी को लगभग चिल्लाते हुए बुलाया। वह सर सर कहते आया तो उसे डांटते हुए कहा, 'काहे बेइज्जती कराते हो भाई कल ही उस का ट्रांसफर करो।' वह अधिकारी 'जी-जी !' कहता रहा। वीर बहादुर बोले, 'जी-जी नहीं कर के बताओ।' फिर उस ने, 'जी सर !' कहा।

ऐसे ही एक बार मिर्ज़ापुर के एक विधायक वीर बहादुर से सट कर दुबके हुए बठे थे। तब उन के सचिव वी. के. सक्सेना हुआ करते थे। विधायक महोदय दिन में किसी काम से आए हुए थे। पर किसी मीटिंग के चलते कर्मचारियों ने उन्हें भीतर घुसने नहीं दिया। तो विधायक ने कर्मचारियों की काफी देर तक मां-बहन सुनाई फिर शिकायत करने भी वह आ धमके थे। तभी सचिव वी. के. सक्सेना वहां किसी काम से आ गए। विधायक को देखते ही वह विधायक से मुखातिब हो गए। कहा कि आप को ऐसा नहीं करना चाहिए था। फिर विधायक महोदय सक्सेना पर भी बिगड़ गए। फिर कोई दो मिनट तक सक्सेना और उक्त विधायक अपनी-अपनी बात तू-तू मै स्टाइल में कहते रहे। पर वीर बहादुर इन दोनों से कुछ भी नहीं बोले। चुप-चाप इन दोनों को घूरते रहे। अंततः बिना किसी बीच बचाव के दोनों एक-दूसरे से माफी मांग चलते बने।

ऐसी जाने कितनी घटनाएं बरबस सामने आ जाती हैं जिनका कोई ओर छोर नहीं है। पर क्या कीजिएगा यही है वक्त की नियति कि योजनाबद्ध और समयबद्ध विकास की बात करने वाले हाथों हाथ लोगों कर अर्जियां निपटा देने वाले वीर बहादुर अपने परिवार को योजनाबद्ध-समयबद्ध नहीं कर सके। मुख्यमंत्री के विवेकाधीन कोष से कितनों की बेटियों के हाथ पीले करने के लिए उन्हों ने खुले हाथ दिया। पर अपनी ही बेटियों के हाथ पीले किए बिना ही, बेटों को किसी घाट लगाए बिना ही दुनिया से कूच कर गए वह भी परदेसी माटी पर। पेरिस में।




दयानंद पांडेय

अपनी कहानियों और उपन्यासों के मार्फ़त लगातार चर्चा में रहने वाले दयानंद पांडेय का जन्म 30 जनवरी, 1958 को गोरखपुर ज़िले के एक गांव बैदौली में हुआ। हिंदी में एम.ए. करने के पहले ही से वह पत्रकारिता में आ गए। 33 साल हो गए हैं पत्रकारिता करते हुए। उन के उपन्यास और कहानियों आदि की कोई डेढ़ दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं।

लोक कवि अब गाते नही पर उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का प्रेमचंद सम्मान तथा कहानी संग्रह 'एक जीनियस की विवादास्पद मौत' पर यशपाल सम्मान।

बांसगांव की मुनमुन, वे जो हारे हुए, हारमोनियम के हजार टुकड़े, लोक कवि अब गाते नहीं, अपने-अपने युद्ध, दरकते दरवाज़े, जाने-अनजाने पुल (उपन्यास), 11 प्रतिनिधि कहानियां, बर्फ में फंसी मछली, सुमि का स्पेस, एक जीनियस की विवादास्पद मौत, सुंदर लड़कियों वाला शहर, बड़की दी का यक्ष प्रश्न, संवाद (कहानी संग्रह), हमन इश्क मस्ताना बहुतेरे (संस्मरण), सूरज का शिकारी (बच्चों की कहानियां), प्रेमचंद व्यक्तित्व और रचना दृष्टि (संपादित) तथा सुनील गावस्कर की प्रसिद्ध किताब 'माई आइडल्स' का हिंदी अनुवाद 'मेरे प्रिय खिलाड़ी' नाम से प्रकाशित।


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Last Updated (Sunday, 08 April 2012 22:07)

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