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Memories of Another day

Memories of Another day
While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Friday, May 30, 2014

जाति मजबूत होने से हिंदुत्व मजबूत होता है जो सामाजिक न्याय और समता का निषेध है। यह विशुद्ध अंबेडकरी मत है,कम्युनिस्ट/ मार्क्सवादी/ माओवादी नहीं। लीजिये,जाति तो कांशीराम जी के रास्ते चलते चलते मजबूत करते ही रहे बहुजन,तो फिर पुराने तमाम कांडों से लेकर भगाणा सआदतगंज तक बहुजन शासक जातियां दलितों के साथ ऐसा क्यों कर रहे हैं? सवर्ण राज खत्म करने पर भी क्यों नहीं मिल रहा है? न्याय दिल्ली में कब तक जंतर-मंतर जंतर-मंतर करते / करती रहेंगे / रहेंगी?

जाति मजबूत होने से हिंदुत्व मजबूत होता है जो सामाजिक न्याय और समता का निषेध है।

यह विशुद्ध अंबेडकरी मत है,कम्युनिस्ट/ मार्क्सवादी/ माओवादी नहीं।

लीजिये,जाति तो कांशीराम जी के रास्ते चलते चलते मजबूत करते ही रहे बहुजन,तो फिर पुराने तमाम कांडों से लेकर भगाणा सआदतगंज तक बहुजन शासक जातियां दलितों के साथ ऐसा क्यों कर रहे हैं? सवर्ण राज खत्म करने पर भी क्यों नहीं मिल रहा है? न्याय दिल्ली में कब तक जंतर-मंतर जंतर-मंतर करते / करती रहेंगे / रहेंगी?

पलाश विश्वास


हमारे डायवर्सिटी मित्र एच एल दुसाध ने हस्तक्षेप में प्रकाशित लेखों के संदर्भ में सवाल किया हैः


पलास दा कारपोरेट राज की खिलाफत तथा जाति उन्मूलन के प्रति आपकी व्यग्रता की हम कद्र करते हैं.आप इस पर समय -समय पर लिखते रहते हैं.पर आपके लेखों से कार्पोरेट राज को रोकने तथा जाति के खात्मे का सूत्र नहीं पाया.प्लीज लिखें.जहाँ तक मैं समझता हूँ जाति के खात्मे का आप के पास मार्क्सवादियों  से भिन्न कोई उपाय  नहीं होगा,जो उन्होंने चंडीगढ़ में प्रस्तुत किया था.मैंने जाति उन्मूलन की मार्क्सवाद के मुकाबले अम्बेडकरवादी परियोजना प्रस्तुत करते हुए एक किताब लिखी थी जो आपको डेडीकेट भी किया था .पर उस पर आप और तेल्तुम्ब्दे साहब की कोई प्रतिक्रिया है नहीं आई.खैर कार्पोरेट राज रोकने और जाति च्वंश का उपाय बताएं।


दुसाध जी ने बेहद संघर्ष किया है।दिल्ली में उनका मकान नहीं है। वे भाजपा सांसद संजय पासवान के साथ रहते आये हैं और ईमानदारी से सामाजिक न्याय और समता के लिए अवसरों और संसाधनों के न्यायपूर्ण बंटवारा को भाजपाई समरसता अभियान का वर्षों से अंग बनाते रहे हैं।


जाहिर है कि दुसाध जी,अंबेडकरी पार्टियों और संगठनों के झंडेवरदारों और मसीहा संप्रदाय के अंध भक्तों में नहीं हैं।


डायवर्सिटी पर उनकी अनेक पुस्तकें हैं,जिनमें एक हस्तक्षेप पर ही जाति विमर्श के सिलसिले में अभिनव सिन्हा के आलेखों से शुरु विवाद के सिलसिले में मार्क्सवादियों के खिलाफ दुसाध जी ने लिखा है और चूंकि अभिनव के सीधे तौर पर अंबेडकरी जाति उन्मूलन को नकार देने का मैं लगातार विरोध कर रहा था,यह पुस्तक दुसाध जी ने मुुझे समर्पित किया है।मेरे असंख्य पढ़े लिखे मित्र देश और देश के बाहर भी हैं।हम बेहद मामूली हैं पर मेरे असंख्य मित्र न केवल प्रतिष्ठित हैं,उनमे से अनेक विश्वविख्यात हैं।पर किसी ने कभी मुझे इसकरह याद नहीं किया है।


यह सवाल पूछकर सार्वजनिक तौर पर दुसाध जी ने मुझे उनका आभार जताने का मौका दे दिया है।इसके साथ ही उन्होंने मुझे और अभिनव सिन्हा को एक पंक्ति पर खड़ा कर दिया है।अभिनव हमें अपनी पांत में मानते नहीं हैं और इसलिए भी दुसाद जी का आभार।


जवाब देने में देरी इसलिए हुई कि हम पर किसी व्यक्ति या संगठन की कृपा है नहीं।सबकुछ भुगतान करने पर ही मिलता है।मेरा पीसी बैठ गया था।महीने के आखिर में इनसुलिन,गैस,बिजली बिल,दवाइय़ां,अखबारों का बिल,आदि रोककर पीसी ठीक राकर ही लिख पा रहा हूं।अबी नौकरी पर हूं,अगले महीने तक संकट टालकर ऐसा अब भी कर पा रहा हूंषआगे रामराज की महिमा अपरंपार।मुझे कहीं से लिखकर पैसे भी नहीं मिलते,हां गालियां खूब मिलती है और अनचाही दुश्मनियां भी।इसका भी आभार।बंगाल में तो ममता समर्थकों और वाम समर्थकों ने भी मेरा बायकाट शुरु कर दिया है।बांग्ला में अप्रत्याशित नियमित लेखन के लिए।


बाकी लोग जो पार्टी,संगठन या किसी राजनेता या मसीहा से जुड़े हैं,दुसाध जी की तरह उदार नहीं है।बजरंगी सिर्फ केसरिया ही नहीं होते।बजरंगी लाल,नील, हरे गोआ कि हर रंग बिरंग के हो सकते हैं और आचरण में वे उतने ही निरंकुश,असहिष्णु और फतवाबाज होते हैं जैसे कि केसरियाषहिंदू राष्ट्र का एजंडा चाहे जितना वीभत्स हो,उसके प्रचारकों का आचरण एकदम नमसदृश्य अटल आडवाणी है।वे बाकी लोगं की तरह सीधे सीधे वार नहीं करते।हस्तक्षेपी लेखों पर तीखी प्रतिक्रियाएं आ रही हैं।


इन चुनावों से काफी  पहले मान्यवर कांशीराम जी के निकट सहयोगी और उनके बाद स्वयं बामसेफ अध्यक्ष बीडी बोरकर ने कांशीराम को फेल बता दिया था।जाति मजबूत करके सत्ता दखल करने से सामाजिक न्याय और समता का लक्ष्य हासिल नहीं हो जाता।लोकसभा चुनावों के नतीजों में जाति क्षत्रपों और उनकी बहुजन पार्टियों के मुकाबले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की जवाबी ओबीसीकेंद्रित सोशल इंजीनियरिंग व समावेशी समरसता और हिंदू एकात्मता ने जो इकतीस फीसद मतदाताओं के समर्थन से जनादेश हासिल किया है,उससे साफ जाहिर है कि जाति पहचान के आधार पर जाति हितों के परस्परविरोधी टकरावमध्ये बहुजनसमाज का कोई वजूद संभव नही है।


इसलिए हम मान रहे हैं कि कांशीराम फेल है और अस्मिता आधारित बहुजनवाद से समता और सामाजिक लक्ष्य हासिल नहीं हो सकता।अब चूंकि हम राष्ट्र के चरित्र,समाज वास्तव,वैज्ञानिक दृष्टि,ऐतिहासिक वस्तुवादी व्याख्या और अर्थशास्त्र की बात कर रहे हैं।तो अब दुसाध जी जैसे लोग भी हमारी राह लाले लाल समझने लगे हैं,जबकि हम तब भी अंबेडकरी विचारों के तहत बात कर रहे थे और आज भी कर रहे हैं।तब भी हम अभिनव को लगातार लिख रहे थे कि अंबेडकरी जाति उन्मूलन परिकल्पना ही मुक्तिकामी संघर्ष और मुक्तबाजारी जनसंहारी अर्थ व्यवस्था के विरुद्ध प्रतिरोध का प्रस्थानबिंदू है।


दुसाध जी को मार्क्सवादी विचारधारा से परहेज हो सकती है लेकिन दुनियाभर में मुक्तिसंघर्ष की इस विचारधारा के अवदान को भारतीय नेताओं की विश्वासघाती भूमिका की वजह से हम खारिज नहीं कर सकते।बाबासाहेब को भी साम्यवादी विचारधारा से परहेज न था।परहेज था भारतीय साम्यवादी आंदोलन के वर्णवर्चस्वी नेतृत्व से।भारत के मौजूदा श्रम कानून उन्हीकी वजह से है तो भारतीय मजदूर आंदोलन में भी उनका योगदान रहा है।वे अगर पढ़े लिखे नहीं होते तो अर्थ व्यवस्था पर बात नहीं करते।वे अगर साम्यवादी विचारधारा के शत्रु ही होते तो कभी नहीं कहते कि भारतीय मेहनतकश वचित वर्ग के दो दुश्मन हैं,दोनो बराबर दुश्मन पूंजीवाद और ब्राह्मणवाद।


बाबसाहेब के बाद ब्राह्मणवाद के खिलाफ लड़ाई जाति उन्मूलन के एजंडे को हजारों मील पीछे छोड़कर अपनी अपनी जाति मजबूत बनाओ अभियान के तहत सव्रणों के बदले खुद अपनी जाति सत्ता स्थापित करने की गरज से नामवास्ते ब्राह्मणवादविरोध के जरिए या फिर ब्राह्मण नियंत्रित सर्वजनहिताय कांशीरामपथे सीमाबद्ध हो गयी।उत्तरप्रदेश और हरियाणा में जिस जाति सत्ता के खिलाफ इतना आक्रोश उबल रहा है,वह कांशीराम जी के जाति मजबूत बनाओ संदेश का परिणाम है।


अंबेडकरी आंदोलन में अंबेडकर होते तो जाति उन्मूलन की सर्वोच्च प्राथमिकता के सवाल पर दुसाध जी जैसे डायवर्सिटी मसीहा हम जैसे मामूली लोगों से जाति उन्मूलन का तरीका नहीं पूछ रह होते।हमने अंबेडकर उतने सिलसिलेवार तरीके से पढ़ा ही नहीं है।जो लोग पढ़े हैं वे समझ सकते हैं कि जाति उन्मूलन की अंबेकर की परिकल्पना क्या रही है और पूंजीवाद को ब्राहमणवाद के बराबर बाताने वाले अंबेडकरके रास्ते पूंजीवादकायाकल्पित मुक्तबाजारी कारपोरेट राज का प्रतिरोध संभव है या नहीं।


हम तो सिर्फ यही कह सकते हैं कि


जाति मजबूत होने से हिंदुत्व मजबूत होता है जो सामाजिक न्याय और समता का निषेध है।

यह विशुद्ध अंबेडकरी मत है,कम्युनिस्ट/ मार्क्सवादी/ माओवादी नहीं।

लीजिये,जाति तो कांशीराम जी के रास्ते चलते चलते मजबूत करते ही रहे बहुजन,तो फिर पुराने तमाम कांडों से लेकर भगाणा सआदतगंज तक बहुजन शासक जातियां दलितों के साथ ऐसा क्यों कर रहे हैं? सवर्ण राज खत्म करने पर भी क्यों नहीं मिल रहा है? न्याय दिल्ली में कब तक जंतर-मंतर जंतर-मंतर करते / करती रहेंगे / रहेंगी?

आनंद तेलतुंबड़े इस सिलसिले में लंबी बातें हुई हैं।उनका कहना है कि वर्षों से हम जाति उन्मूलन की अंबेडकरी परिकल्पना पर लिख रहे हैं और ये लोग जाति मजबूत बनाने की बहुजन आरक्षण राजनीति करते रहे हैं,सत्ता में साझेदारी करते रहे हैं।अब इनका क्या कहा जाये।

इस प्रसंग में तुलसीराम जी का कुछ लिखा पेस करने की इजाजत दें।आनंद तेलतुंबड़े और बद्रीनारायण ने बहुजन सत्ता साझेदारी की सोशल इंजीनियरिंग पर दो बेहतरीन लेख लिखे हैं और चार फीसद वोड पाने के बावजूद बसपा के सफाये का राज खोला है।आनंद का लेख अंग्रेजी में हैं तो बद्रीनारायम का बांग्ला में।हिंदी में मिले तो डाल दूंगा।

तुलसी रामजी का लिखा पढ़ने के बाद वरिष्ठ लेखिका अनीता भारती जी की टाइम लाइन से साभार उनके कुछ मंतव्यपेश हैं जो इस जाति तंत्र का सिलसिलेवार खुलासा करता है।उन्हें अवश्य पढ़े।अनीता जी,आपके विचारों को बिना इजाजत अपना पक्ष रखने के लिए इस्तेमाल कर रहा हूं।माफ करेंगी।

गौर करें कि अनीता जी ने लिखा हैः


कोई भी विमर्श या वाद अपने आप में पूर्ण नही होता. उसकी हदबंदी उसे सीमित दायरे में कैद कर देती है इसलिए उसमें हमेशा विस्तार, सुधार परिवर्तन और चिंतन मनन की गुंजाईश होनी और रहनी चाहिए. आज स्त्रीवाद के बरक्स दलित स्त्रीवाद खडा है। कल दलित स्त्रीवाद के बरक्स कोई और स्त्रीवाद खडा होगा और उसके समक्ष चुनौती बनकर खडा होगा. तब ऐसी हालत में दलित स्त्रीवाद को उस अन्य स्त्रीवाद से संवाद के रास्ते हमेशा खुले रखने होगे .

हमारी तरफ से जवाब इतना शानदार देने के लिए अनीता जी का आभारी हूं।

परिदृश्य : दलित-जातिवादी राजनीति बनाम हिंदुत्व

तुलसीराम

जनसत्ता 25 मई, 2014 : पिछले पचीस सालों में दलितों के साथ पिछड़े वर्ग की राजनीति में जातिवाद अपनी चरम सीमा पार कर गया था, जिसका परिणाम यह हुआ कि विशुद्ध हिंदुत्व की राजनीति करने वाली भाजपा ने अकेले बहुमत पाकर भारत की सत्ता प्राप्त कर ली। भारतीय जाति-व्यवस्था की सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि इसे धर्म और ईश्वर से जोड़ दिया गया। यही कारण था कि इसे ईश्वरीय देन मान लिया गया। गांधीजी जैसे व्यक्ति भी इसी अवधारणा में विश्वास करते थे। इस अवधारणा का प्रचार सारे हिंदू ग्रंथ करते हैं। इसलिए हिंदुत्व पूर्णरूपेण जाति-व्यवस्था पर आधारित दर्शन है।

विभिन्न जातियां हिंदुत्व की सबसे मजबूत स्तंभ हैं। इसलिए इन स्तंभों की रक्षा के लिए ही भारत के सभी देवी-देवताओं को हथियारबंद दिखाया गया है। इसका परिणाम यह हुआ कि दलितों पर आज भी वैदिक हथियारों से हमले जारी हैं। ऐसी स्थिति में जब जाति को मजबूत किया जाता है, तो हिंदुत्व स्वत: मजबूत होता चला जाता है। पिछले पचीस वर्षों में ऐसा ही हुआ है।

नब्बे के दशक में कांशीराम ने एक अत्यंत खतरनाक नारा दिया था- 'अपनी-अपनी जातियों को मजबूत करो'। इसी नारे पर बहुजन समाज पार्टी (बसपा) खड़ी हुई। परिणामस्वरूप डॉ. आंबेडकर द्वारा स्थापित जाति-व्यवस्था विरोधी आंदोलन की अवधारणा को मायावती ने शुद्ध जातिवादी अवधारणा में बदल दिया। इतना ही नहीं, गौतम बुद्ध द्वारा दी गई 'बहुजन हिताय' की अवधारणा को चकनाचूर करके उन्होंने 'सर्वजन हिताय' का नारा दिया, जिसका व्यावहारिक रूप सभी जातियों के गठबंधन के अलावा कुछ भी नहीं था। परिणामस्वरूप दलितों की विभिन्न जातियों के साथ-साथ ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों के अलग-अलग सम्मेलनों की बसपा ने भरमार कर दी, जिससे हर जाति का दंभी गौरव खूब पनपने लगा।

ब्राह्मण सम्मेलनों के दौरान बसपा के मंचों पर हवन कुंड खोदे जाने लगे और वैदिक मंत्रों के बीच ब्राह्मणत्व का प्रतीक परशुराम का फरसा (वह भी चांदी का) मायावती को भेंट किया जाने लगा। इस दौरान दलित बड़े गर्व के साथ नारा लगाते थे- 'हाथी नहीं, गणेश हैं, ब्रह्मा-विष्णु-महेश हैं'। मायावती हर मंच से दावा करने लगीं कि ब्राह्मण हाशिये पर चले गए हैं, इसलिए वे उनका खोया हुआ गौरव वापस दिलाएंगी। वे इस तथ्य को जरा भी समझ नहीं पार्इं कि ब्राह्मण कभी भी हाशिये पर नहीं जाते हैं। उनका सबसे बड़ा हथियार धर्म और ईश्वर है। इन्हीं हथियारों के बल पर ब्राह्मणों ने हमेशा समाज की बागडोर अपने हाथ में रखी।

इससे पहले मायावती तीन बार भाजपा के सहयोग से मुख्यमंत्री बनीं और गठबंधन की सरकार चलाई। इतना ही नहीं, भाजपा के सहयोग से मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए मायावती विश्व हिंदू परिषद के त्रिशूल दीक्षा समारोह में भी शामिल हुर्इं। पर जब वे मोदी का प्रचार करने गुजरात गर्इं, तो उन्होंने धार्मिक उन्माद पर खुलेआम ठप्पा लगा दिया। दलित सत्ता के नारे के साथ मायावती ने जातीय सत्ता की प्रतिस्पर्द्धा को जन्म दिया। इस जातीय सत्ता की होड़ में मंडलवादियों ने शामिल होकर धर्म के स्तंभों को और मजबूत किया।

अगर राजनीति में धर्म का इस्तेमाल धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के विरुद्ध है, तो धर्म से उत्पन्न जाति का इस्तेमाल कैसे धर्म-निरपेक्ष हो सकता है? इसलिए धर्म का राजनीति में इस्तेमाल जितना खतरनाक है, जाति का इस्तेमाल उससे कम खतरनाक नहीं है। इस तथ्य को न कभी मायावती समझ पार्इं और न ही मंडलवादी। मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, शरद यादव और नीतीश कुमार आदि सब ने जातिवादी राजनीति के माध्यम से धर्म की राजनीति को मजबूत किया।

आज नरेंद्र मोदी जो छप्पन इंच का सीना तान कर घूम रहे हैं, उसकी पृष्ठभूमि में जातिवादी राजनीति रही है। उक्त सारे नेताओं द्वारा जाति के साथ-साथ मुसलिम वोटों का अपने पक्ष में ध्रुवीकरण करने के प्रयास से आम हिंदू नाराज होकर पूरी तरह भाजपा की तरफ चला गया। इसलिए संघ परिवार जिसकी वकालत बरसों से कर रहा था, उसमें वह पूर्णत: सफल रहा। भाजपा ने धर्म और जाति, दोनों का इस्तेमाल बड़ी रणनीति के साथ किया, जिसके पीछे वह चालाकी से 'विकास' की बात करके जनता को भ्रमित करने में सफल रही, जबकि असली मुद्दा धार्मिक ध्रुवीकरण का ही था।

मायावती ने डॉ. आंबेडकर की मूर्तियों और पार्कों की आड़ में दलितों को उनके रास्ते से भटकाने का काम बड़ी सफलता से किया। डॉ. आंबेडकर ने दलितों को सामाजिक और धार्मिक भेदभाव से मुक्ति दिलाने के लिए एक दोहरी रणनीति अपनाई थी। एक तरफ उन्होंने जाति-व्यवस्था विरोधी आंदोलन का सूत्रपात करके 'मनुस्मृति' को जलाया था और दूसरी तरफ जातिवाद को स्थापित करने वाले वैदिक ब्राह्मण धर्म के विकल्प के रूप में बौद्ध धर्म को अपनाया था। मायावती डॉ. आंबेडकर की दोनों रणनीतियों को दरकिनार करके जातिवादी राजनीति के चंगुल में फंसती चली गर्इं।

एक बार कांशीराम ने घोषणा की थी कि वे डॉ. आंबेडकर से कहीं ज्यादा लोगों के साथ, यानी बीस लाख से अधिक लोगों के साथ बौद्ध धर्म ग्रहण करेंगे, पर स्वास्थ्य की समस्या के कारण वे ऐसा नहीं कर पाए। बाद में मायावती ने कहा कि बौद्ध धर्म ग्रहण करने से सामाजिक सद्भावना के बिगड़ने की संभावना है, इसलिए जब वे प्रधानमंत्री बन जाएंगी, तो बौद्ध धर्म ग्रहण करेंगी। जाहिर है, जब उन्होंने उक्त बातें कहीं, उस समय मायावती भाजपा के साथ उत्तर प्रदेश की सरकार चला रही थीं।

डॉ. आंबेडकर के दर्शन के बारे में एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वे भारत के लिए द्वि-दलीय प्रणाली की वकालत करते थे, इसलिए वे दलित नाम से कोई पार्टी नहीं चलाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने रिपब्लिकन पार्टी को प्रस्तावित किया। कांग्रेस का यही विकल्प उन्होंने प्रस्तुत किया था। पर एक बात उन्होंने जोर देकर कही थी कि दलितों को आरएसएस और हिंदू महासभा (वर्तमान विश्व हिंदू परिषद) जैसे संगठनों के साथ कभी भी समझौता नहीं करना चाहिए।

संघ ने 1951 में जनसंघ की स्थापना की थी, पर आंबेडकर के समय में उसका प्रभाव नगण्य था। इसीलिए सीधे-सीधे उन्होंने संघ से किसी भी तरह का समझौता करने से दलितों को मना किया था। मायावती ने डॉ. आंबेडकर के हर कदम को नजरअंदाज करके संघ-परिवार का हाथ मजबूत किया। डॉ. आंबेडकर का जनतंत्र में अटूट विश्वास था, जिसकी झलक भारत के संविधान में साफ तौर पर मिलती है। उनका मानना था कि जाति-व्यवस्था एक तरह से तानाशाही वाली व्यवस्था थी, जिसके

चलते दलित हर तरह के मानवीय अधिकारों से वंचित रहे। इसलिए जनतांत्रिक प्रणाली को वे दलितों के लिए सर्वोत्तम प्रणाली समझते थे।

पर सारी जातिवादी पार्टियां अपनी ही जाति के लोगों को हमेशा जनतांत्रिक अधिकारों से वंचित करती रही हैं। ऐसी पार्टी के नेताओं में मायावती का नाम सबसे ऊपर आता है। यहां तक कि बैठकों के दौरान न सिर्फ मायावती कुर्सी पर बैठा करती थीं और बाकी नेता जमीन पर बैठते थे; विधानसभा हो या संसद, उनके डर से कोई पार्टी विधायक या सांसद कुछ भी बोलने से डरता था। उनका व्यवहार एकदम सामंती हो गया था। उन्हें आम सभाओं में चांदी-सोने के ताज पहनाए जाते थे और उनके हर जन्म दिवस पर लाखों रुपए की भारी-भरकम माला भी पहनाई जाती थी। 1951 में मुंबई के दलितों ने बड़ी मुश्किल से दो सौ चौवन रुपए की एक थैली डॉ. आंबेडकर को उनके जन्मदिन पर भेंट की थी, जिस पर नाराज होकर उन्होंने चेतावनी दी थी कि अगर कहीं भी ऐसा दोबारा किया तो वे ऐसे समारोहों का बहिष्कार करेंगे।

पिछली दफा राज्यसभा का परचा दाखिल करते हुए मायावती ने आमदनी वाले कॉलम में एक सौ तेईस करोड़ रुपए की संपत्ति दिखाई थी। हकीकत यह थी कि मायावती के गैर-जनतांत्रिक व्यवहार के चलते बसपा में भ्रष्ट और अपराधी तत्त्वों की भरमार हो गई थी, जिसके कारण पूरा दलित समाज न सिर्फ बदनाम हुआ, बल्कि इससे दलित विरोधी भावनाएं भी समाज में खूब विकसित हुर्इं। एक तरह से मायावती दलित वोटों का व्यापार करने लगी थीं। पिछले अनेक वर्षों में चमार और जाटव समाज के लोग उत्तर प्रदेश में भेड़ की तरह मायावती के पीछे चलने लगे थे। इसलिए वे भ्रष्टाचारियों और अपराधियों को चुन कर विधानसभा और संसद में भेजने लगे थे।

बाबा साहेब आंबेडकर ने संविधानसभा में बोलते हुए एक बार कहा था, 'धर्म में नायक पूजा किसी को मुक्ति प्रदान कर सकती है, पर राजनीति में नायक पूजा निश्चित रूप से तानाशाही की ओर ले जाएगी।' मायावती के संदर्भ में यह शत-प्रतिशत सही सिद्ध हुआ। राजा-रानियों की तरह मायावती ने अपने उत्तराधिकारी की घोषणा करते हुए प्रेस सम्मेलन में कहा था, 'मेरा उत्तराधिकारी चमार जाति का ही होगा, जिसका नाम मैंने एक लिफाफे में बंद कर दिया है। यह लिफाफा मेरी मृत्यु के बाद खोला जाएगा।' इससे एक बात साफ हो गई कि मायावती के रहते कोई अन्य दलित नेता नहीं बन सकता था।

उनके द्वारा बार-बार चमार जाति के उल्लेख से दलित की गैर-चमार जातियां बसपा से कटती चली गर्इं और उनमें से अधिकतर या तो भाजपा के साथ हो गर्इं या मुलायम सिंह यादव के साथ चली गर्इं। उत्तराधिकारी की घोषणा के बाद एक रोचक घटना हुई। मीडिया वालों ने अंदाजवश आजमगढ़ के राजाराम के रूप में उत्तराधिकारी की पहचान कर ली। परिणामस्वरूप मायावती ने अविलंब राजाराम को पार्टी से बर्खास्त कर दिया।

जब मायावती सामाजिक अभियांत्रिकी (सोशल इंजीनियरी) के नाम पर ब्राह्मणों को सतीश मिश्रा के माध्यम से अपनी तरफ खींचने का अभियान चला रही थीं तो दलितों के विरुद्ध उसका दूरगामी प्रभाव पड़ा। इससे पहले चुनावी राजनीति में ही सही, सारी पार्टियां दलितों को अपनी तरफ खींचने का प्रयास करती थीं और उनके लिए तरह-तरह के वादे भी किया करती थीं, जिसका परिणाम अनेक अवसरों पर काफी सकारात्मक भी हुआ करता था। इसलिए दलित हमेशा एक दबाव समूह का काम करते थे। पर मायावती उस तथाकथित सामाजिक अभियांत्रिकी के चलते हर पार्टी के लिए ब्राह्मण खुद दबाव समूह के लिए दलितों को हाशिये पर डाल दिए। परिणामस्वरूप मायावती के चक्कर में दलित हर पार्टी के लिए दुश्मन बन गए। अब उनके कल्याण के लिए कोई भी पार्टी तत्पर नहीं दिखाई पड़ती। सच ही कहा गया है, 'माया मिली न राम।'

मायावती के एक अन्य दलित-विरोधी फैसले का दूरगामी प्रभाव पड़ा। किसी गैर-दलित मुख्यमंत्री की कभी हिम्मत नहीं पड़ी कि वह 'दलित अत्याचार विरोधी अधिनियम' से छेड़छाड़ करे। पर मायावती जब भाजपा के साथ संयुक्त सरकार चला रही थीन, तो उन्होंने गैर-दलितों को खुश करने के लिए उपरोक्त अधिनियम में संशोधन करके यह प्रावधान कर दिया कि दलित महिलाओं के साथ बलात्कार जैसे अपराधों को पुलिस तब तक दर्ज न करे, जब तक कि डॉक्टर प्रमाणित न कर दे कि सही मायने में बलात्कार हुआ है। मायावती के इस आदेश का परिणाम यह हुआ कि दलितों पर तरह-तरह के अत्याचार होते रहे, पर पुलिस अधिकतर मामलों में आज भी केस दर्ज नहीं करती है।

इस बार लोकसभा चुनावों में जब बसपा का सफाया हो गया, तो मायावती ने इसके लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहरा दिया। हकीकत तो यह है कि मायावती अपनी व्यक्तिगत सत्ता के लिए लगातार जातिवादी नीतियां अपनाती रही हैं, जिससे दलित निरंतर सबसे कटते चले गए। पिछले पचीस सालों के अनुभव से पता चलता है कि अब देश को जातिवादी पार्टियों की जरूरत नहीं है, बल्कि सबके सहयोग से जाति-व्यवस्था विरोधी एक मोर्चे की आवश्यकता है, अन्यथा जातियां मजबूत होती रहेंगी, जिससे धर्म की राजनीति को ऑक्सीजन मिलता रहेगा। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान डॉ. आंबेडकर ने गांधीजी से कहा था, 'स्वतंत्रता आंदोलन में सारा देश एक तरफ है, पर जाति-व्यवस्था विरोधी आंदोलन सारे देश के खिलाफ है, इसलिए यह काम बहुत मुश्किल है।' उम्मीद है, दलित इतिहास से कुछ सीख अवश्य लेंगे।



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Zahreelaa Tapan

36 minutes ago · Edited

बदायूँ-प्रकरण पर फेसबुक पर गुस्से का इजहार कर रहे चिंतकों और एक्टिविस्टों की क्या घटना-स्थल पर चल कर पुलिस-प्रशासन को अपराधियों के खिलाफ कड़ी और त्वरित कार्यवाही करने का दबाव बनाने की कोई योजना है?


दिल्ली में कब तक जंतर-मंतर जंतर-मंतर करते / करती रहेंगे / रहेंगी?


सनद रहे कि मैं साथ रहूँगा.


Anita Bharti

May 28 · Edited

कोई भी विमर्श या वाद अपने आप में पूर्ण नही होता. उसकी हदबंदी उसे सीमित दायरे में कैद कर देती है इसलिए उसमें हमेशा विस्तार, सुधार परिवर्तन और चिंतन मनन की गुंजाईश होनी और रहनी चाहिए. आज स्त्रीवाद के बरक्स दलित स्त्रीवाद खडा है। कल दलित स्त्रीवाद के बरक्स कोई और स्त्रीवाद खडा होगा और उसके समक्ष चुनौती बनकर खडा होगा. तब ऐसी हालत में दलित स्त्रीवाद को उस अन्य स्त्रीवाद से संवाद के रास्ते हमेशा खुले रखने होगे .

Anita Bharti

May 28 · Edited

सवर्ण स्त्रीविमर्श दलित स्त्रीविमर्श को हमेशा खारिज करता रहा है. दलित स्त्री के सवाल और उसके मुद्दे कभी स्त्रीविमर्श की चिंता मनन के कारण नही बने. महिलाओं की लडाई को वर्गबद्ध करने और बनाने की लडाई करने की जगह अपने छोटे दायरे में विमर्श करता रहा जिसकी हद देहविमर्श पर जाकर जड हो जाती है. जब दलित स्त्रियां अपने दैहिक शोषण उत्पीडन के सवालों को उठाती है तो इनके अनुसार यह वितंडावाद हो जाता है. मतलब आपका सवर्ण स्त्री विमर्श चित भी मेरी और पट भी मेरी के सिद्धांत पर चल रहा है. आपके अपने घर में हुआ दैहिक उत्पीडन स्त्रीविमर्श का रुदन और मुक्ति का सबब बन जाता है और दलित आदिवासी वंचित स्त्री का दैहिक, जातिगत, आर्थिक सामाजिक उत्पीडन कोरा अस्मिता का छद्मवाद? और जब हम इसके खिलाफ आवाज उठाए तो हमी जातिवादी ? अरी बहनो जातीय आधार पर तो आपने एका कर रखा है, हमने नही। हमारा दलित स्त्री विमर्श तो स्त्रीवाद में अपनी माकूल जगह चाहता है अलग से नही, पर जब आप अपने अंदर बैठी जातीय घृणा के कारण कमर कस कर बैठी हो कि दलित स्त्रियों को उनके सवालों को अपने मंच पर नही फटकने दोगी। तब दलित स्त्रियाँ क्या हाथ पर हाथ धरकर बैठी रहे? हाथ पर हाथ धरकर बैठना उनकी आदत में नही है. इसलिए वह अपनी बात जरुर कहेगी चाहे कितनी भी विपरित परिस्थितियां हो. चाहे मित्र भी दुश्मन की भूमिका मे आ जाएं. वैसे भी यह जान लो दलित महिलाओं की लडाई झूठे सम्मान की नही, सुविधाओं से समझौता या बँटवारा करने की नही, मठों के कंगूरे बनने की नही, बल्कि सच्चे सम्मान और अधिकार को पाने की है। और इससे भी बढकर ऐसे समाज की स्थापना के लिए है जहां जहां जाति लिंग रंग धर्म भाषा क्षेत्र वर्ग उम्र, क्षमता के आधार पर किसी के साथ भेदभाव ना हो, सबको मानवीय गरिमा से जीने और निर्णय लेने का बराबरी का अधिकार हो.अकेले अकेले मुक्त होने की कामना दलित स्त्रीवाद की कामना नही है. ना ही शोषण और भेदभाव के एकांगी रुप से लडना दलित स्त्रीवाद का लक्ष्य है. ( जो सवर्ण मानसिकता से मुक्त है वे इसको अन्यथा ना लें)


Anita Bharti

39 minutes ago · Edited

भगाणा के लोग कहते है कि हरियाणा का मुख्यमंत्री कहता है 'पहले मैं जाट हूं बाद में मुख्यमंत्री'

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री का फादर कहता है 'लडके है लडकों से गलती हो जाती है तो क्या उन्हे फासी पर लटका दें?


Anita Bharti

1 hr · Edited ·

भगाणा गांव का सरपंच कहता है लडकियां कल सवेरे तक मिल जायेंगी. बदायूं की पुलिस बच्चियों के पिता को कहती है देख लो दोनों लडकियां कही पेड पर लटकी मिल जायेंगी. मतलब दलित बच्चियों की जान और अस्मिता की कीमत कुछ नही. खो गई लड़कियां, अपहरण कर ली गई लड़कियों. उठा ली गई लड़कियां. बलात्कार की गई लड़कियां, बलात्कार करने के बाद मार कर या जिंदा पेड़ पर लटका दी गई लडकियां किसी की चिंता का सबव नही बनता ना राज्य का ना प्रशासन का और ना ही मानवीयता का.


Anita Bharti

48 mins ·

हरियाणा की सरकार और उसकी मशीनरी भगाणा के लोगों की जात देखकर न्याय नही कर पा रही है.

उत्तर प्रदेश की सरकार और मशीनरी बच्चियों के परिवार वालों से एफ आई आर करने से पहले उनकी जात पूछती है.


Lalajee Nirmal

4 hrs · Edited ·

बदायूं में दलित बच्चिओं के साथ हुआ बलात्कार और हत्या बर्बर है ,अमानवीय है |भगाना की छात्राओं के साथ हुए बलात्कार के बाद हुई यह घटना प्रदर्शित करती है कि भारतीय समाज आज भी अपनी बर्बरता छोड़ नहीं पा रहा है |इस प्रकार की घटनाएँ असभ्य समाज की पहचान हैं |दलितों के साथ हो रही ये घटनाएँ सभ्य समाज को उद्वेलित नहीं करतीं |उन्हें पीड़ा होती है केवल निर्भया के लिए क्यों कि निर्भया दलित नहीं है |कैसे रुकेगी दलितों के साथ यह बर्बर घटनाएँ !अगर हमारे लोगों के पास जमीनें होतीं ,हमारे पास भी ब्यवसाय होते,हम भी दबंग होते ,हमारे पास भी असलहे होते तो फिर जो हाथ दलितों के उपर उठते वे तोड़ दिए जाते | नौकरिओं में आरक्षण हमारी प्राथमिक जरूरत है किन्तु 30 करोड़ की दलित आबादी के लिए जमीन का सवाल ,शौच के लिए जमीन ,खेती के लिए जमीन ,एक मकान के लिए जमीन बेहद जरूरी है |हर इट में भागीदारी ,आर्थिक सशक्तिकरण दलित आन्दोलन का अब मुख्य बिंदु बनाना होगा |


Jagadishwar Chaturvedi

52 mins · Azadpur · Edited ·

बीबीसी के अनुसार बदायूं के रेपकांड पर जानें-

''जब हम पुलिस के पास पहुँचे तो सबसे पहले हमारी जात पूछी, जात बताने पर नीचे खड़ा रहने के लिए कह दिया, गंदी-गंदी गालियाँ देकर हमारा मज़ाक़ बनाने लगे. दो घंटे की मिन्नतों के बाद वे चारपाई से उठे. मुझे कई बार उनके पैर छूने पड़े."

उत्तर प्रदेश के बदायूँ ज़िले में गैंगरेप के बाद पेड़ से लटकी मिली दो लड़कियों में से एक के पिता के ये शब्द इस इलाक़े में व्याप्त जातिवाद की तस्वीर है।

बदायूँ के कटरा शहादतपुर गाँव में पुलिस के ख़िलाफ़ भारी ग़ुस्सा है. पीड़ित परिवारों को लगता है कि यदि पुलिस उनकी मदद करती तो उनकी बेटियाँ बच सकती थीं.

पीड़ितों का आरोप है कि अभियुक्त और पुलिसवाले एक ही जाति के थे इसलिए पुलिस ने अभियुक्तों की ही मदद

वो कहते हैं, "सिपाही सर्वेश यादव ने गाँव जाकर आरोपियों को भगाने में मदद की, लेकिन एक आरोपी को मैंने पकड़ लिया था. पुलिस पूछताछ में उसने क़बूला कि लड़कियाँ उसके घर पर हैं. इसके बावजूद लड़कियों को बरामद करने का प्रयास करने के बजाए सिपाही सर्वेश ने कहा कि दो घंटे बाद तुम्हारी लड़कियाँ मिल जाएंगी."

मृत लड़की के पिता कहते हैं, "दो घंटे बीत गए लेकिन लड़कियाँ नहीं मिली. पुलिस से फिर पूछा तो कहा कि लड़कियाँ नहीं हैं, जाओ जाकर ढूंढो, कहीं पेड़ पर लटकी मिल जाएंगी."

"लड़कियों को बरामद करने का प्रयास करने के बजाए सिपाही सर्वेश ने कहा कि दो घंटे बाद तुम्हारी लड़कियाँ मिल जाएंगी. दो घंटे बीत गए लेकिन लड़कियाँ नहीं मिली. पुलिस से फिर पूछा तो कहा कि लड़कियाँ नहीं हैं, जाओ जाकर ढूंढो, कहीं पेड़ पर लटकी मिल जाएंगी."

एक मृतक लड़की के पिता

वो आरोप लगाते हैं कि बच्चियों की लाश मिलने के बाद भी पुलिस ने पीड़ित परिवार की कोई मदद नहीं की. वो कहते हैं, "पुलिस ने हमारी मदद करने के बजाए अभियुक्तों की ही मदद की. हमारी बेटियाँ चार बजे तक पेड़ पर लटकी रहीं, उसके बाद ही पुलिस ने हमारी कोई बात सुनी."

पीड़ित परिवार अब मामले की सीबीआई जाँच की माँग कर रहे हैं. लड़की के पिता कहते हैं, "हमें यहाँ की पुलिस पर कोई भरोसा नहीं हैं. हमारी बेटियों के शव पेड़ से लटके रहे और आरोपी खुले घूमते रहे. अब हमें सीबीआई जाँच चाहिए."

ग्रामीणों का कहना है कि दस हज़ार की आबादी वाले इस गाँव में जाति की अहम भूमिका है. इन परिवारों के पड़ोसी रमेश कहते हैं कि भले ही क्लिक करें प्रभावशाली जाति के लोगों की संख्या कम है लेकिन पुलिस और प्रशासन में उनकी जाति की भारी मौजूदगी के कारण वे लोग ताक़तवर हैं.

रमेश कहते हैं, "भले ही कुछ पुलिसवाले निलंबित कर दिए गए हैं लेकिन इससे कुछ नहीं बदलेगा क्योंकि जो नए आएंगे वे भी वैसे ही होंगे. वे भी भेदभाव करेंगे. हमारी जाति के लोग ग़रीब और कम पढ़े-लिखे होने की वजह से ताक़तवर और प्रभावशाली पदों तक नहीं पहुँच पाते हैं."


নীতীশ কুমার হেরেছেন, কিন্তু হারিয়ে যাননি

বিহারের লোকসভা নির্বাচনের ফলাফল অনেককেই স্তম্ভিত করেছে। আসনসংখ্যার নিরিখে তো বটেই বিজেপি-র নেতৃত্বে এনডিএ পেয়েছে ৩১টি আসন, তার পর রাষ্ট্রীয় জনতা দল-কংগ্রেসের ৭টি আসন আর নীতীশ কুমারের সংযুক্ত জনতা দল আর সিপিআই-এর জোট পেয়েছে মাত্র দু'টি আসন। ভোটের অনুপাতও অবাক হওয়ার মতোই। এনডিএ-র পক্ষে যেখানে ৩৯ শতাংশ ভোট পড়েছে, সেখানে আরজেডি-কংগ্রেস পেয়েছে ২৮ শতাংশ আর নীতীশ কুমার পেয়েছেন মাত্র ১৬ শতাংশ।


BSP's Rout

Anand Teltumbde


The last general elections had full of surprises although it was a foregone conclusion that the Congress led UPA would be defeated and BJP-led NDA would come to power. While most pre-poll and post-poll surveys corroborated this national mood, until the eve of the results few expected the BJP to cross the magic figure of 272 with such a comfortable margin as they did and the tally of NDA to go well beyond 300. Well, the BJP eventually got 282 and the NDA to 336. Many regional satraps like Sharad Pawar in Maharashtra, Mulayam Singh Yadav in Uttar Pradesh, Nitish Kumar in Bihar were brought to their knees. But by far the biggest shock of the election result has been the complete rout of the BSP on its own turf of Uttar Pradesh (UP). In the context of some people fancying an idea, which was believed in by BSP-protagonists that if the NDA fails to get 272 on its own, in the resultant political turbulence Mayawati could spring yet another surprise by being a dark horse jumping onto the prime ministership of the country, its complete defeat has been stunning. What has really happened?

In a post-result press conference, Mayawati claimed that her constituency of dalits and lower castes has been intact and the poor showing in the poll was merely due to communal polarization indulged in by the BJP. She said that while the upper castes and the backwards castes were lured away by the BJP, Muslims were scared to vote for the Samajwadi Party. She did not offer any explanation of course how these well established elections games were illegitimate. In terms of voting percentage, it is true that the BSP stands third in Uttar Pradesh as well as nationally. At the national level, it got 2.29 crore votes, with a vote share of 4.1 percent, behind BJP's 31.0 percent and Congress's 19.3 percent, very closely followed by Mamata Bannerjee's All India Trinmul Congress (TMC), a relatively young party, at 3.8 percent. The BSP had 21 seats in the 15th Lok Sabha, 20 of which were from UP alone. Several parties, despite having lower vote shares than the BSP, managed much more seats. The 3.8 percent vote share of TMC, for instance, fetched the party a good 34 seats and the AIADMK, with a still lesser vote share of 3.3 percent, notched up 37 seats, more than TMC's. Even the AAP, with a vote share of just 2.0 percent, managed to win four seats. In UP, BSP got 19.6 percent votes just behind BJP's 42.3 percent and SP's 22.2 percent. Some silver lining is still there: Election Commission data showed that the BSP had finished second in 34 of the 80 constituencies in the sprawling state.

The foremost reason for the BSP's anomalous result that the third biggest vote-catcher should not have existence in the parliament is our election system, against which BSP would never complain. The election system that consistently surprised us, this time little more is our wonderful first-past-the-post (FPTP) type of election system. The BJP with just 31.0 percent of the polled votes could win 282, i.e., 52 percent seats. As per the Election Commission's data the polling percentage in the election was 66.38 percent, which means that BJP had the consent of just one-fifth of (20.5 percent) the voters and still they commanded more than half the seats. In contrast, although BSP came the third, it did not have any. As I have been saying the choice of the FPTP has been one of the well-thought intrigues of our ruling class, although most colonies like us of the erstwhile British Empire adopted it as default. In a country hopelessly divided horizontally and vertically into castes, communities, ethnicities, languages, regions and religions, etc., there could not be surety of continuing dominance in the polity with any other method of elections. The FPTP provided scope for manipulations so as to manage it. The empirical result in terms of the Congress or the BJP dominating national politics is the proof of the pooding. If for instance, the proportional representation (PR) system, which is more popular among and more effective method of elections for representative democracies had been adopted, all small groups also would have gained their 'independent' representation and posed a threat to this dominance all the time. In the context of dalits, it would have eliminated the need for even that much vaunted social justice instrument called system of reservation, which has only served to be a humiliating adage of their existence. No dalit party, the least the BSP, would however raise any objection against the FPTP system because it gives their leaders the same manipulative leverage for benefiting enormously as it does to the ruling class parties.

The other reason is the perils of identity politics, which paradoxically paid the BSP spectacular dividend so far. The entire success of the BSP was based on the peculiar demography of dalits in UP in which a single dalit caste of Jatav-Chamars constitute 57 percent of the dalit population. The next dalit caste is Pasi with 16 percent population. This is unlike any other state where the difference between population of the first two or three dalit castes is not very pronounced. This makes them competitors, one claiming allegiance to Ambedkar and other to Jagjivanram or some other. But in UP with such a big difference between population between Jatavs and Pasis, there is no rivalry of this kind and they could be politically consolidated with the common caste interests. With the next three castes – Dhobi, Kori and Balmiki—added, this combination becomes 87.5 percent of the total dalit population, which means 18.9 percent of total population and approximately so in votes. This constituted the core constituency of the BSP. The BSP's vote share of 19.6 percent in this election reflects that this core constituency of BSP may have approximately remained intact.

The Jatav-Chamars, unlike dalits in other states were economically well off and in corollary politically organized since the days of Babasaheb Ambedkar. After the formation of the RPI in 1957, the UP had strong pockets of the RPI next to or even ahead of Maharashtra until the RPI splintered. Following the misdoings of the RPI leaders in Maharashtra, the heavyweight RPI leaders like Buddha Priya Maurya and Sangh Priya Gautam in UP went over to the Congress and the BJP respectively. There was thus leadership vacuum in UP for a decade or so when Kanshiram entered UP. His strategic acumen could grasp the potential of his bahujan politics. He and Mayawati put in great efforts in reconsolidating dalits and attracting the poorer sections of backwards and Muslims. When he could actually demonstrate the success of his strategy, initially giving tough fight to the well established parties and thereafter winning the seats, many politically fringe social groups jumped on to BSP's bandwagon. Mayawati took over from there and astutely played the game her mentor taught her. When she became the chief minister with the support of the BJP, it further consolidated the BSP. It is from this position of strength Mayawati began negotiating with any political party to her own advantage.

It is lamented by some well meaning dalit intellectuals that she has not done anything for the upliftment of dalits. The fact of the matter is that the logic of the game perhaps does not permit her to do it. As for the ruling class parties it is vital that they keep the populace in backwardness and poverty, it is the same logic that informed Mayawati to hold dalits in UP in a vulnerable state. She could build grand memorials, put up statues of dalit heroes, name things after them, organize massive rallies and intoxicate dalits with pride in their identity but could not afford to materially uplift them lest the contradictions following from such a move topples the tenuously built caste based apple cart. The monuments, etc., contribute to the BSP's win and hence are accepted reluctantly by all constituent castes and communities, who developed stake in it but differential material benefit would create unbridgeable fissures in society which would not be politically manageable. It is not to mean however that a dalit or poor-oriented agenda could not be worked out at all. The limitation of the political framework notwithstanding, she could have still shown what a 'dalit ki beti' could do the poor people. But she has not only squandered the opportunity but also exploited their faith and allegiance.   

Later, her heightened ambitions led her to play a dangerous game: transiting from bahujan to sarvajan on the eve of 2007 elections, doing a complete ideological volte face and further diluting whatever little concern she had for dalits. Many analysts had predicted then that dalit voters would get alienated from the BSP but to their dismay dalits thronged behind her more solidly than ever before and brought her unprecedented victory in 2007. It only exposed their vulnerability. They could not go away from BSP, whatever its supremo may say or do, because they feared, without the BSP's protective cover, they would face heavy backlash from SP-supporters in villages. If Mayawati takes pride in seeing her dalit voters being faithful to her, the credit goes to herself that she has rendered them so vulnerable that they cannot ordinarily afford not to. Surely, some dalits castes have been lured away by the BJP this time. They must be the fringe caste like Gond, Dhanuk, Khatik, Rawat, Baheliya, Kharwar, Kol, etc., which together are about 9.5 percent of dalit population. Muslims are another vulnerable mass who have to constantly assess its protective cover. This time with the mounting Modi wave, and declining BSP-prospects, they veered around the SP and were doomed. In the 2007 elections, all these castes including the Brahmans, who wanted to resurge in political sphere in UP piggy-backing BSP, thronged around BSP and gave Mayawati her massive win but BSP could not live up to their expectation. They began retracting, which showed up just within two years. In the 2009 general elections, BSP's vote share declined from 30.46 percent in the 2007 to 27.42 percent, a decrease of 3.02 percent. After three years it further dropped by 1.52 percent to 25.90 percent in 2012 Assembly election and now in 2014 it has come down to 19.60 percent, a whooping drop of 6.30 percent. It clearly shows that other castes and minorities are fast deserting BSP and it well portends that even dalits may slowly follow suit. Actually, she should wake up to the fact that her national vote share itself has fallen from 6.17 percent in 2009 to 4.1 percent this time.

While the core Jatav-Chamar votes seem to be with her, it is a matter of time how far they will hold on. Mayawati has been exploiting their vulnerability with impunity. Not only has she been selling the BSP tickets to the highest bidders, she has developed arrogance that she can transfer dalit votes to anyone. She forsook the legacy of Ambedkarite movement in campaigning for Modi in post-2002 elections when the entire world blamed him for the genocide of Muslims. She discarded even her mentor Kanshiram's slogan such as 'tilak taraju aur talwar, unako jute maro char' and opportunistically, coined 'hathi nahi ganesh hai, brahma Vishnu Mahesh hai'. Dalits can be intoxicated with this identity brew for some time but that does not mean they lost their brains. They are realizing her hollow politics and slowly drifting away from the BSP. They have given her four times chief ministership of U.P. but she has only kept them backward and rendered more vulnerable during her rule. Dalits in UP continue to be more backward on any developmental parameters than their counterparts in other states except for a few states like Bihar, Orissa, Madhya Pradesh and Rajsthan. She has created new benchmarks in corruption and promotion of decadent feudal culture, antithetical to Babasaheb Ambedkar in whose name she has raised her business. UP still continues to be the number one state in terms of atrocities on dalits and still it was Mayawati, the first chief minister, who had temerity to issue her grossly illegal dictate that no atrocity would be registered under the Atrocity Act without the permission of the district collector.

The success of caste politics completely blinded the BSP to realize the myriad changes that are creeping in the society. The new generation is feeling the heat of the crises neoliberal economic policies have unleashed. There has been jobless growth and whatever jobs are getting created in the service sector, they are being pushed into the low paying informal sector. Reservations are becoming increasingly irrelevant because of the shrinking base of the public and government sector. On the other hand, their aspirations are increasing with the increasing information intensity. They have not faced the heat of caste discrimination as their parents did and hence are unable to experientially relate with the vile portraiture of the upper castes; many of them mingling with friends belonging to the latter without hassle. Although, they would not dissociate from their social, when someone talks about development, it would appeal to them more than the identitarian trash they have been hearing all along. dalit youth are not immune to neoliberal culture, moreover. Individualism, consumerism, utilitarianism, etc. are influencing them too, albeit relatively slowly. The subtle change that has come in even villages has changed the complexion of constituencies, which has been skilfully used by the BJP in its recent campaign. But the BSP and SP remained rooted in their old styled caste and community rhetoric. That BSP could not attract the young dalit voters in UP has clearly showed up in the fact that out of a total increase of 1.61 crore dalit voters only 9 lacs have voted for BSP in this election.

The aggressive strategy followed by the BJP-RSS combine for appropriating dalit and backward caste votes also had its impact on the BSP's performance. Amit Shah, the coordinator of the BJP's campaign in UP, along with RSS cadres carried out extensive communication exercise with various caste leaders and associations. Shah made use of the Muzaffarnagar riots in luring in backward castes to its fold. He also used Modi's caste to enthuse OBCs that one of their own was becoming the India's Prime Minister. This strategy effectively weakened SP's appeal to backward castes in regions considered its strongholds. The strategy also included detaching the non-Jatav castes from the dalit base of BSP. BJP's emphasis on development and exposing BSP's opportunistic caste politics with its well honed communication strategy has no doubt been the potent factor in BSP's debacle. But more than anything else, BSP's own misdoings have been responsible for its miseries.

One hopes, Mayawati realizes that BSP's debacle is not a temporary cyclical decline; it verily shows an unmistakable marks of erosion in her base. It is in her own interest to arrest it to survive as a mainstream politician. As for dalits, it is all inconsequential!



উত্তরপ্রদেশে এ ফল আপনাআপনি হয়নি

এসপি বা বিএসপি বুঝতে পারেনি, সমাজ পালটাচ্ছে। তারা সেই চিরাচরিত পরিচিতিভিত্তিক রাজনীতিই আঁকড়ে থেকেছে। অন্য দিকে দলিত এবং অনগ্রসর শ্রেণির ভোট নিজের দিকে নিয়ে আসার সঙ্গে সঙ্গে বিজেপি হিন্দুত্ববাদী রাজনীতিকেও সংহত করেছে, কিন্তু অতীতের তুলনায় অনেক সূক্ষ্ম ভাবে। ​বদ্রী নারায়ণ

২৮ মে, ২০১৪, ০০:০৩:২৭


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কারিগর। নির্বাচনী জনসভায় অমিত শাহ। মির্জাপুর, উত্তরপ্রদেশ। ছবি: পিটিআই।


ষোড়শ লোকসভা নির্বাচনে উত্তরপ্রদেশে বিজেপির অভাবনীয় সাফল্যের কারণ কী? এই প্রশ্ন নিয়ে গত কয়েক দিন ধরে অনেক কথা শোনা গেছে। 'মোদী ওয়েভ' থেকে 'সুনামো'— একটা অস্বাভাবিক তরঙ্গের কথা মেনে নিতে কোনও আপত্তি নেই, কিন্তু তার পরেও প্রশ্নটা থেকে যায়: এমনটা ঘটল কেন? আমাদের দেশের আগের আগের নির্বাচনের অভিজ্ঞতায় দেখা গেছে, সাধারণত চার-পাঁচ শতাংশ ভোটার কাকে ভোট দেবেন তা নিয়ে একটা দোলাচলে থাকেন, কোনও একটা দিকে বিশেষ হাওয়া থাকলে তাঁরা সে দিকে ঝুঁকে পড়েন। জাতপাত, ধর্ম বা জনগোষ্ঠী নির্বিশেষে এটা ঘটে থাকে। কিন্তু বিজেপি'র ভোটের অনুপাতে এ বার যে বিপুল বৃদ্ধি ঘটেছে (প্রায় ২৫ শতাংশ-বিন্দু), সেটা এই ধরনের অভিজ্ঞতা দিয়ে ব্যাখ্যা করা যায় না। আর একটু খতিয়ে দেখা দরকার।

প্রথমেই একটা কথা বলা দরকার। ইউপিএ জমানার দশ বছরে তরুণ ভোটারের সংখ্যা বিপুল ভাবে বেড়েছে। পাশাপাশি, নতুন আর্থিক নীতির প্রসার ঘটেছে, বাজার আরও বিস্তৃত হয়েছে, উপভোক্তার সংখ্যা অনেক বেড়েছে। উত্তরপ্রদেশের গ্রাম ও শহরের চেহারা পালটে গেছে। ভাল ভাবে বাঁচার আকর্ষণ বেড়েছে, নানা ধরনের ভোগ্যপণ্যের চাহিদা বেড়েছে, আয় বেড়েছে, ক্রয়ক্ষমতাও। টিভি, মোবাইল, ইন্টারনেটের প্রবেশ ঘটেছে সর্বত্র। সমাজের এই নতুন ভোগবাদী রূপ সমাজবাদী পার্টি বা বহুজন সমাজ পার্টি যথেষ্ট বুঝতে পারেনি, তারা সেই চিরাচরিত পরিচিতিভিত্তিক রাজনীতিই আঁকড়ে থাকতে চেয়েছে। ইতিমধ্যে অনগ্রসর শ্রেণির মধ্যে একটা প্রবল মধ্যবর্গ উঠে এসেছে, যারা ফেসবুক এবং টুইটারের মতো সামাজিক মিডিয়ার মাধ্যমে নিজের রাজনৈতিক শক্তি বানাতে তৎপর। এসপি বা বিএসপি এই নতুন গোষ্ঠীর সঙ্গে সংযোগ স্থাপন করতে পারেনি। বিজেপি এবং নরেন্দ্র মোদী সোশ্যাল মিডিয়া মারফত এঁদের সঙ্গে সরাসরি যোগাযোগ করেছেন। ভোটে তার সুফল পেয়েছেন।

এ বিষয়ে কোনও সন্দেহ নেই যে, যাঁরা আগের নির্বাচনে সমাজবাদী পার্টি, বহুজন সমাজ পার্টি এবং কংগ্রেসকে ভোট দিয়েছিলেন, তাঁদের একটা বড় অংশ এ বার বিজেপিকে সমর্থন করেছেন। শুধু উচ্চবর্ণের নয়, অনগ্রসর এবং দলিত ভোটারদের একটা বড় অংশও এ বার বিজেপিকে ভোট দিয়েছেন, তাঁদের মধ্যে থেকে এই দল এতটা সমর্থন আগে কখনও পায়নি। এর পিছনে বিজেপি এবং রাষ্ট্রীয় স্বয়ংসেবক সঙ্ঘের একটি সুচিন্তিত পরিকল্পনা কাজ করেছে। উত্তরপ্রদেশে দলের নির্বাচনী প্রস্তুতি পরিচালনার ভারপ্রাপ্ত বিজেপি নেতা অমিত শাহ আরএসএস-এর প্রচারকদের সঙ্গে যৌথ ভাবে বিভিন্ন জাতভিত্তিক সংগঠনের কর্মকাণ্ডে শরিক হয়েছেন, অনগ্রসর ও দলিতদের এগিয়ে দিয়েছেন, মুজফফরনগর দাঙ্গার পরে হিন্দু ভোট এককাট্টা করার উদ্যোগে জোরদার ভূমিকা নিয়েছেন, দলিত এবং অনগ্রসরদের মধ্যে প্রচার করেছেন যে, কংগ্রেস মুসলিম ভোট পাওয়ার জন্য লালায়িত, হিন্দুদের নিয়ে তাদের কোনও মাথাব্যথা নেই। ওঁরা এটাও ব্যাপক ভাবে প্রচার করেছেন যে, এই প্রথম এক জন ওবিসি বর্গের মানুষ ভারতের প্রধানমন্ত্রী হবেন। দলিতদের মধ্যে এ কথাও প্রচার করা হয়েছে যে, মায়াবতী তাঁদের জন্য সত্যিকারের কিছুই করেননি। পাশাপাশি, অমিত শাহ অম্বেডকর এবং অন্যান্য দলিত নেতাদেরও আত্মসাৎ করার চেষ্টা করেছেন, কাঁসিরামকে ভারতরত্ন দেওয়ার প্রতিশ্রুতি দিয়েছেন, উত্তরপ্রদেশের গ্রামাঞ্চলে সামাজিক সংহতি কর্মসূচি শুরু করেছেন এবং সেবাভারতী বিশ্ব হিন্দু পরিষদের মতো সংগঠনের সাহায্যে রাজ্যের বিভিন্ন দলিত অধ্যুষিত গ্রামে সভা করেছেন। তিনি নির্বাচনী প্রচারে কল্যাণ সিংহ এবং উমা ভারতীর মতো অনগ্রসর শ্রেণির নেতাদের গুরুত্ব দিয়েছেন। এই নির্বাচনে বিজেপি উত্তরপ্রদেশে অনগ্রসর শ্রেণির সাতাশ জন প্রার্থীকে টিকিট দিয়েছে। অনুপ্রিয়া পটেলের আপনা দল প্রধানত অনগ্রসর লোধ জাতির সংগঠন, এই দলের সঙ্গে বোঝাপড়া করেছে বিজেপি, তার সুফলও পেয়েছে।

উত্তরপ্রদেশে মোট জনসংখ্যার অর্ধেক অনগ্রসর শ্রেণির মানুষ। এই বর্গের ভোট যথেষ্ট সংখ্যায় না পেলে বিজেপি এত আসনে জয়ী হতে পারত না। অমিত শাহ গোটা রাজ্যের জনবিন্যাসের একটা হিসেব কষেন এবং বিভিন্ন অনগ্রসর জাতির সংগঠনের সভায় যোগ দেন। এই সব জাতির প্রভাবশালী নেতাদের সামনে নিয়ে আসেন। তাঁদের মাধ্যমে জাতিগোষ্ঠীর সমর্থন নিশ্চিত করেন। রাজ্যের দুই অনগ্রসর শ্রেণির নেতা সত্যেন্দ্র কুশবহা এবং রামেশ্বর চৌরাসিয়াকেও তিনি সঙ্গে নেন। নরেন্দ্র মোদী যখন উত্তরপ্রদেশে বিজেপির শক্তি এবং প্রভাব বাড়ানোর উদ্দেশ্যে বিজয়শঙ্খনাদ সমাবেশের আয়োজন করেন, তখন সভামঞ্চে কল্যাণ সিংহ ও উমা ভারতীকে গুরুত্বপূর্ণ আসন দেওয়া হয়। এই প্রতিশ্রুতিও দেওয়া হয় যে, শিক্ষা এবং কাজের ক্ষেত্রে বিভিন্ন অনগ্রসর শ্রেণির মানুষের জন্য জনসংখ্যায় তাঁদের অনুপাত অনুসারে আসন সংরক্ষণ করা হবে। এই প্রতিশ্রুতির তালিকায় যে সব জাতির স্থান ছিল তাদের মধ্যে আছে জাঠ, লোধ, কুর্মি, কুশবহা, মৌর্য, সাইনি, নিষাদ, কশ্যপ, পাল বাগেল, কুমার, সাহু ইত্যাদি। ভোটের টিকিট দেওয়ার সময়েও আঞ্চলিক জনবিন্যাসে এই সব গোষ্ঠীর গুরুত্বের হিসেব মাথায় রাখা হয়েছিল। যেমন উমা ভারতীকে ঝাঁসিতে প্রার্থী করা হয়, এটায় দাঁড় করানো হয় কল্যাণ সিংহের ছেলে রাজবীরকে, ফারুকাবাদে দাঁড়ান মুকেশ রাজপুত। এই ভাবে যে সব জায়গায় সমাজবাদী পার্টির দাপট ছিল, সেখানে বিভিন্ন গুরুত্বপূর্ণ অনগ্রসর শ্রেণিকে বিজেপির পাশে এনে দাঁড় করানো হয়েছে। এই কৌশল খুবই সফল হয়েছে। তেমনই, জনবিন্যাসের যুক্তিতে ফতেপুরে সাধ্বী নিরঞ্জন জ্যোতিকে টিকিট দেওয়ার ফলে বিজেপি কশ্যপ এবং নিষাদদের সমর্থন পেয়েছে, আবার হামিরপুরে এক জন ঠাকুরকে দাঁড় করানো হয়েছে, বান্দায় টিকিট পেয়েছেন এক জন ব্রাহ্মণ। আর একটা কৌশল কাজ দিয়েছে। বিএসপি'র প্রধান জাতিগত ভিত্তি হলেন জাতভরা। জাতভ ছাড়া অন্যান্য দলিত গোষ্ঠী, যেমন পাসি, সানকর, রাওয়াত ইত্যাদির প্রার্থীদের বিভিন্ন জায়গায় টিকিট দিয়ে বিজেপির পক্ষে এবং মায়াবতীর বিপক্ষে দলিত ভোট সংহত করা হয়েছে।

উত্তরপ্রদেশে দলিতরা মোট জনসংখ্যার প্রায় ২২ শতাংশ। তাঁরাই মায়াবতীর বিএসপি'র জনসমর্থনের প্রধান ভিত্তি। শুধু দলিতদের ভোটে মায়াবতীর পক্ষে কোনও নির্বাচনে বেশি আসন পাওয়া সম্ভব নয়। অন্য নানা সামাজিক বর্গকে সঙ্গে নিয়ে আসতে পারলে তবেই দলিত ভোটকে যথেষ্ট আসনে রূপান্তরিত করা সম্ভব। বিএসপি'র প্রথম যুগে কাঁসিরাম প্রান্তিক, অনগ্রসর এবং মুসলিম জনগোষ্ঠীকে বিএসপি'র ছত্রচ্ছায়ায় সমবেত করার চেষ্টা করেছিলেন, কিন্তু বাস্তবে অনগ্রসর এবং দলিত বর্গের মধ্যে সামাজিক দ্বন্দ্ব প্রবল, তাই সেই উদ্যোগে স্থায়ী সাফল্য পাওয়া যায়নি। তবে অনগ্রসর শ্রেণির একেবারে পিছিয়ে থাকা কিছু অংশ এবং মুসলমান সমাজের একটা ছোট অংশ বিএসপি'র সঙ্গে থেকে গেছে। মায়াবতী যখন দেখলেন যে, অনগ্রসর শ্রেণিকে এককাট্টা করে রাখতে পারবেন না, তখন তিনি ব্রাহ্মণ, অন্য উচ্চবর্ণ এবং বণিকদের সঙ্গে নিয়ে সামাজিক পুনর্গঠনের (সোশ্যাল ইঞ্জিনিয়ারিং) পথে যেতে চাইলেন। ২০০৭-এর বিধানসভা এবং ২০০৯-এর লোকসভা নির্বাচনে তিনি সফলও হলেন। এ বারেও তিনি ওই কৌশল কাজে লাগানোর উদ্দেশ্যে কুড়ি জন ব্রাহ্মণ এবং উনিশ জন মুসলমানকে টিকিট দিয়েছিলেন। লাভ হয়নি। ব্রাহ্মণরা তো একযোগে বিজেপিকে ভোট দিয়েছেনই, দলিত এবং সবচেয়ে প্রান্তিক বর্গের প্রায় ষাটটি জনগোষ্ঠীর মানুষও বিজেপির পক্ষে এসেছেন, কারণ বিএসপি'র জমানায় তাঁরা কিছুই পাননি।

দলিত এবং সবচেয়ে প্রান্তিক জনগোষ্ঠীগুলির অন্তর্নিহিত দ্বন্দ্বের কথা অনুধাবন করে আরএসএস অনেক দিন ধরেই তাদের মধ্যে কাজ করে আসছে। সামাজিক সংহতি প্রচার অভিযানের মাধ্যমে তারা ওই গোষ্ঠীগুলিকে নিজেদের বলয়ে নিয়ে আসার চেষ্টা করেছে, তাদের বিজেপির সমর্থক করে তোলার  জন্য নানা ধরনের উদ্যোগ নিয়েছে। সেই প্রয়াসের ফল দেখা গেছে এ বারের ভোটে। দলিত এবং বিভিন্ন অনগ্রসর শ্রেণির ভোট নিজের দিকে নিয়ে আসার সঙ্গে সঙ্গে বিজেপি উত্তরপ্রদেশে হিন্দুত্ববাদী রাজনীতিকেও সংহত করেছে, কিন্তু অতীতের তুলনায় অনেক বেশি সূক্ষ্ম ভাবে। রামমন্দিরের মতো বিষয়গুলি নিয়ে মোদী সরাসরি কোনও প্রচার করেননি, কিন্তু তিনি সুকৌশলে নিজের হিন্দুত্বকে মানুষের কাছে তুলে ধরেছেন। মুসলিমদের 'স্কাল ক্যাপ' পরার প্রস্তাব প্রত্যাখ্যান করে তিনি বুঝিয়ে দিয়েছেন যে, হিন্দুত্ব এবং হিন্দু আচারের ব্যাপারে তিনি কোনও আপস করতে রাজি নন। 'উন্নয়নের প্রতীক' নরেন্দ্র মোদীর সাফল্যের এই তাৎপর্যটি উত্তরপ্রদেশের প্রেক্ষিতে মাথায় রাখা দরকার।

ইলাহাবাদ বিশ্ববিদ্যালয়ে জি বি পন্থ সোশাল সায়েন্স ইনস্টিটিউট-এ ইতিহাসের শিক্ষক

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