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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Monday, May 26, 2014

रुश्दी और तस्लीमा पर हल्ला मचाने वाले नंदी पर खामोश क्यों हैं ?

रुश्दी और तस्लीमा पर हल्ला मचाने वाले नंदी पर खामोश क्यों हैं ? 

सलमान रुश्दी और तसलीमा नसरीन के खिलाफ तुरंत कार्रवाई करने वाले लोग ममता बनर्जी और बुद्धदेव भट्टाचार्य, बंगाली सुशील समाज आशीष नंदी के विस्फोटक मंतव्य पर एकदम खामोश हैं। क्यों?

 पलाश विश्वास

  बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने सलमान रुश्दी को बंगाल आने से रोक दिया है, पक्ष-विपक्ष में महाभारत शुरु हो गया है। इससे पहले तसलीमा नसरीन को रातों-रात कोलकाता से जयपुर पैक करके भेज दिया गया था। तब वामराज के मुख्यमंत्री थे बुद्धदेव भट्टाचार्य। वह बहस भी अभी जारी है। लेकिन पूरे देश में विख्यात समाजशास्त्री आशीष के बयान पर विवाद के बावजूद पक्ष-विपक्ष एकदम खामोश है। सलमान रुश्दी और तसलीमा नसरीन के खिलाफ तुरंत कार्रवाई करने वाले लोग, ममता बनर्जी और बुद्धदेव भट्टाचार्य, बंगाली सुशील समाज आशीष नंदी के विस्फोटक मंतव्य पर एकदम खामोश हैं। क्यों? अभी-अभी केंद्र सरकार ने दिल्ली बलात्कार कांड के परिप्रेक्ष्य में युवा आक्रोश का सम्मान करते हुए बलात्कार को खत्म करने के लिए वर्मा कमीशन की सिफारिशों को दरकिनार करते हुए अध्यादेश लाने का ऐलान किया है। बलात्कार और यौन उत्पीड़न अब एकाकार है। राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के राष्ट्र के नाम संबोधन से इसका संकेत पहले ही मिल गया था। क्या इस अध्यादेश के आलोक में तसलीमा के उस बयान की भी जांच करायी जायेगी कि उनका यौन शोषण हुआ बंगाल में, बांग्ला ही नहीं भारतीय साहित्य के एक पुरोधा के हाथों? महीनों बीत गये, साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में यौन उत्पीड़न के खुलासे के बाद न मीडिया ने इसे तरजीह दी और न सरकार ने इस आरोप का संज्ञान लिया। पर तसलीमा से सहानुभूति जताने वाले लोग और खास तौर पर उनके उपन्यास लज्जा से हिंदुत्व की राजनीति में उनका उपयोग करने वाले लोग यह जानने की कोशिश करते हुए भी नहीं देखे गये कि आखिर सच क्या है। कोलकाता का नागरिक समाज और सांस्कृतिक आइकन जहां तसलीमा या रुश्दी के माले में बेहद संवेदनशील हैं, बाकी देश के बुद्धिजीवियों की तरह वे अनुसूचितों और पिछड़ों के संदर्भ में कोई बात नहीं करते। महाश्वेता दी आदिवासियों के बारे में लंबी लड़ाई करती रही हैं। पर शरणार्थी समस्या या बंगाल में पिछड़ों और अनुसूचितों के हक-हकूक के बारे में एक शब्द तक नहीं बोलतीं।

पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं। आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के पॉपुलर ब्लॉगर हैं। "अमेरिका से सावधान "उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना।

कम से कम अपनी खास शैली में इस प्रसंग में बहस की गुंजाइश पैदा करने के लिए वंचितों को आशीष नंदी का आभार मानना चाहिए। उनकी गिरफ्तारी की मांग करने के बजाय उनका सम्मान करना चाहिए। ये तमाम आदरणीय उत्तर भारत की मध्ययुगीन गायपट्टी के सामाजिक बदलाव आंदोलन के जरिये जात-पांत को मजबूत करने के खिलाफ हैं। सत्ता वर्ग के सभी क्षेत्रों में वर्चस्ववादी एकाधिकार को वे जातिवादी नहीं मानते और न ही उन्हें देश में कहीं मनस्मृति व्यवस्था दीखती हैं। मायावती, लालू, राम विलास पासवान, शरद यादव, करुणानिधि, मुलायम सिंह यादव, उदित राज, शिबू सोरेन जैसे नामों से ही इन्हें सख्त नफरत है। हालांकि वे आर्थिक स्वतंत्रता के प्रगतिवाद के अंतर्राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं। आर्थिक सुधारों के खिलाफ भी वे बोलते हैं। पर कॉरपोरेट राज, हिंदुत्व और वर्चस्ववाद के विरुद्ध पिछड़ों, अनुसूचितों और अल्पसंख्यकों के हक हकूक की हिफाजत में बोलने से उन्हें सख्त परहेज है। जलेस के पलटीमार बयानों में भी इसी मानसिकता की चामत्कारिक अभिव्यक्ति हुई है।

अगर रुश्दी और तसलीमा के लिखे से अल्पसंख्यकों की भावनाएं आहत होती हैं तो क्या बंगाल की आठ फीसद शासक जातियों के अलावा बाकी जनता की भावनाओं को आहत होने का अधिकार भी नहीं है कान्यकुब्ज ब्राह्मणों के वंशजों के राज में पक्ष-विपक्ष बाकी शासित 92 फीसद के हक-हकूक की चर्चा तक की इजाजत नहीं है। वाक् स्वतंत्रता के नाम पर कुछ भी कहना संभव है तो कुछ लोगों के खिलाफ कार्रवाई होती है तो बाकी लोगों के खिलाफ क्यों नहीं? बंगाल से चारों वेदों के अध्येताएक उत्तरआधुनिक मीडिया विशेषज्ञ का कहना है कि चूंकि मजबूत किले पर हमला हुआ है, तो बेचैनी है। यह मजबूत किला कहां है? कितना पुराना है? और इस किले के रक्षक कौन हैं? ऐसी किलेबंदी होती तो इस देश के आदिवासी जल, जंगल, जमीन और आजीविका से निर्विरोध बेदखल नहीं किये जाते। ऐसी घनघोर किलेबंदी होती तो केंद्र और राज्यों में अति अल्पसंखक खास जातियों का राज नहीं होता। भ्रष्टाचार के मामलों में गिनाने लायक नाम सिर्फ राजनीतिक संरक्षण से उत्पन्न मलाईदार तबके के चुनिंदा लोग ही नहीं होते। यह सही है कि मीडिया ने पूरी बात का खुलासा नहीं किया और सनसनीखेज टुकड़े पेश किये। हम मायावती या राम विलास पासवान या पिछड़ोंअनुसूचितों और अल्पसंख्यकों के राजनेताओं में से किसी के समर्थक नहीं हैं और न ही हम नंदी को उनके वक्तव्य के लिए सजा दिलाने के पक्षधर हैं। हम नंदी, रुश्दी, तसलीमा और उनके साथ ही इरोम शर्मिला, सोनी सोरी, कबीर कला केंद्र, उत्तर प्रदेश के रिहाई मंच, कश्मीर और पूर्वोत्तर के मानवाधिकार आंदोलन के कार्यकर्ताओं और देश भर में अबाध पूजी प्रवाह के विरुद्ध,  भूमि सुधार के हक में, परमाणु विध्वंस के खिलाफ लड़ते, बड़े बांधों के खिलाफ आंदोलन कर रहे कार्यकर्ताओं, भोपाल गैस त्रासदी और गुजरात नरसंहार सिखों के नरसंहार का न्याय मांगने वालों की वाक् स्वतंत्रता के भी पक्षधर हैं।

हम तो बाकायदा आशीष नंदी के कहे पर बहस चलाने की बात कर रहे हैं। पर मीडिया में नंदी की वाक् स्वतंत्रता का महिमामंडन तो है लेकिन लोकतांत्रिक समाज में प्रतिपक्ष के विचारों को समान महत्व देने की जो अवधारणा है, उसके मुताबिक हमारी बात कहने की कोई जगह नहीं है। आशीष नंदी की हैसियत से और उनकी बहस शैली में पारंगता से कोई इंकार नहीं है। उन्होंने बहस के लिए गौरतलब मुद्दे उठाये हैंउन पर चर्चा जरूर होनी चाहिेए। भ्रष्टाचार में भी जाति की गिनती जरूर हो, हम तो सिर्फ जाति आधारित जनगणना की बात कर रहे हैं जो संसद में सर्वदलीय सर्वानुमति के बावजूद हुई नहीं है। अगर जनसंख्या अनुपात न मालूम हो तो गणित के हिसाब से भ्रष्टाचार का विवादित समीकरण हल कैसे कर लिया जायेगा? उनके जैसे समाजशास्त्री अगर कहते हैं कि बंगाल में पिछले सौ साल से पिछड़ों और अनुसूचितों को सत्ता में हिस्सेदारी नहीं मिली इसलिए बंगाल में भ्रष्टाचार सबसे कम है, तो इस पर सवाल कैसे उठाये जा सकते हैं इसी फार्मूले को बाकी देश में भी अपनाया जाना चाहिए। बंगाल में तर्क यह है कि जब आर्थिक विकास में बंगाल के अनुसूचित और पिछड़े बाकी देश से आगे हैं तो राजनीतिक हिस्सेदारी की जरूरत ही क्या है। हम तो उन्हीं के तर्क के आधार पर कहते हैं कि आप जरा सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश की अध्यक्षता में सच्चर आयोग की तरह एक और आयोग गढ़ दें जो पता करें कि बंगाल में किस-किसका कितना विकास हुआ और किस किस का नहीं हुआ। ऐसे सर्वे से बंगाल में जंगल महल और पहाड़ की असली समस्या के बारे में खुलासा हो जायेगा और हम जैसे लोग मिथ्या भ्रम नहीं फैला पायेंगे। आयोग यह जांच करे कि बंगाल में ओबीसी जातियां कौन-कौन सी हैं और उनका कितना विकास हुआ। अनुसूचितों और अल्पसंख्यकों का कितना विकास हुआ और बंगाल में बड़ी संख्या में रह रहे गैर बंगालियों का कितना विकास हुआ। सांच को आंच नहीं। हम सच उजागर होने पर अपना तमाम लिखा वापस ले लेंगे।

 

इस बहस में यहाँ भी अवश्य देखें—–

कॉल अ स्पेड, अ स्पेड, यानी बेलचे को बेलचा कहो

नंदी प्रकरण : मायावती का रास्ता हिन्दू राष्ट्र को ही जाता है कॉमरेड

जिस मायावती के 2/3 मंत्री पकड़े गये वो नंदी को पकड़वाएंगी सभी किस्म के भ्रष्टाचरण की धुरी है आर्थिक भ्रष्टाचार अब नंदी के साथ आया जलेस भ्रष्टाचार में जाति ? जाति के आधार पर जनगणना भी हो जाये!!! आरक्षण में अति पिछड़ो़, अति दलितों का कोटा हो अलग- अखिलेन्द्र आपातकाल से भी ज्यादा निर्ममता से मानवाधिकारों का गला घोंट रही है सरकार नंदी ने मजबूत किले पर हमला बोला है, यही है बेचैनी का सबब देश में बढ़ गये जेहनी तौर पर अपाहिज In Defence of Ashis Nandy : for academic and intellectual freedom बहिष्कृतो, बहुजनों का नेतृत्व करने वाले नेताओं की जान तोते (CBI) में है? 
विचारधाराओं और आंदोलनों पर जिनका कब्जा है,उनकी आलोचना से बात बनेगी नहीं - See more at: http://www.hastakshep.com/intervention-hastakshep/%e0%a4%ac%e0%a4%b9%e0%a4%b8/2013/02/02/%e0%a4%b0%e0%a5%81%e0%a4%b6%e0%a5%8d%e0%a4%a6%e0%a5%80-%e0%a4%94%e0%a4%b0-%e0%a4%a4%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%b2%e0%a5%80%e0%a4%ae%e0%a4%be-%e0%a4%aa%e0%a4%b0-%e0%a4%b9%e0%a4%b2%e0%a5%8d%e0%a4%b2#sthash.zELMr7jW.dpuf

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