जो समझ रहे थे तुम मार दिए गए
लेखक : नैनीताल समाचार :: अंक: 22 || 01 जुलाई से 14 जुलाई 2011:: वर्ष :: 34 :July 26, 2011 पर प्रकाशित
भास्कर उप्रेती
(2 जुलाई 2010 को मूलतः देवलथल, पिथौरागढ़ निवासी पत्रकार हेम चन्द्र पांडे की आंध्र प्रदेश पुलिस ने माओवादी नेता चेरुकुरी राजकुमार के साथ एक फर्जी एनकाउंटर में हत्या कर दी। उसी वक्त यह कविता लिखी गई थी। -सम्पादक)
http://www.nainitalsamachar.in/hem-you-would-never-die/
जो समझ रहे थे तुम मार दिए गए
लेखक : नैनीताल समाचार :: अंक: 22 || 01 जुलाई से 14 जुलाई 2011:: वर्ष :: 34 :July 26, 2011 पर प्रकाशित
भास्कर उप्रेती
(2 जुलाई 2010 को मूलतः देवलथल, पिथौरागढ़ निवासी पत्रकार हेम चन्द्र पांडे की आंध्र प्रदेश पुलिस ने माओवादी नेता चेरुकुरी राजकुमार के साथ एक फर्जी एनकाउंटर में हत्या कर दी। उसी वक्त यह कविता लिखी गई थी। -सम्पादक)
तुम्हारी हत्या की खबर आई तो लगा
मर गए सारे ही स्पार्टाकस
सारे सूरज दफन हो गए एक साथ
पहाड़ों की हिम्मत शीशे की तरह चूर हो गई
गुस्सा रह गया नाड़ियों में ऐंठकर।
मगर !!!!!!
तुम्हारी लाश देखी जंतर-मंतर के उस कोने पर
तुम्हें घेरे थे दसियों दिशाओं से आए लोग
पहाड़ी और द्रविड़
पंजाबी और तेलुगू
चेहरे पर सख्ती लिए चुप थे तुम
हाँ, तुम्हें धोखे से मारा गया था।
तुम्हारी मौत एक गवाह की तरह थी।
लेकिन क्या गोली तुम्हें मार सकती थी !
तुम्हें तोप और बम भी नहीं मार सकते
गोली ने छलनी किया तुम्हारा शरीर
और शफ्फाक विचार बाहर आ गए।
विचार का एनकाउंटर नहीं कर पाएँगे वे
जो धोखे की लडाइयाँ लड़ते हैं।
गृह मंत्रालय की खुफिया
और दिल्ली पुलिस के पहरे में-
लाल किले के उस निगमबोध घाट पर
जब जलाया गया तुम्हारा शरीर
तय हो गया, जलाए नहीं जा सकते ओजपूर्ण विचार
सबकी जुबान पर वे आ गए
एक से दस से सौ से हजार और हजारों-हजार
झूठा रुदन नहीं हुआ
आगे की योजनाएँ बनीं
गले मिले सभी दोस्त
हाथों में थी उस दिन खास सख्ती
कुछ था जो साथ सबके चला।
नागपुर या आदिलाबाद या कहीं भी
जहाँ तुम्हें गोली मारी गई
गूँज आसमान तक गई
तानाशाह की विजय के लिए नहीं
धरती पुत्रों के जीवित होने का संदेश लेकर।
सचमुच उस दिन दिल्ली शर्मिन्दा थी
अपने बेशर्म होने पर-
गरजे जब तुम्हारी अमरता के नारे
होम मिनिस्टर सो नहीं सका रात भर
और देश का सुरक्षातंत्र-
कायरता की शान में नींद की गोलियाँ खाकर मदहोश रहा।
अत्याचारी ही जान सकते हैं पाप की सही-सही गहराई।
हाथ मसलकर रह गए वे
नहीं मारा जा सका विचार !!!!
शरीर में नहीं होता विचार
खालिस दिमागों से भी नहीं उपज आता
विचरता है हिमालय से दंडकारण्य तक बेखौफ
उसकी नुमाइश नहीं होती जेड श्रेणी के सुरक्षा घेरे में।
बता दो अपनी माईबाप ईस्ट इंडिया कंपनियों को फिर
अब भी वफादार है वीर चंद्र सिंह गढ़वाली अपनी माटी के लिए
जंगलों में घूम रहे हैं अब भी बिरसा मुंडा
हुक्मरानो !!!!!
तुम्हारे कपड़े अब भी साधारण लोग बनाते हैं
जो नौकर खिलाते हैं तुम्हें रोटी वे हमारे आदमी हैं
याद रखना-
किसान और मिट्टी की जात एक होती है
तुम मारोगे किसानों को तो वे मिट्टी बन जाएँगे
मिट्टी को मारोगे तो वे तुम्हारी गोलियों से चिपक जाएँगे
बंदूक की गोली लोहे की होती है
और लोहा मिट्टी की संतान।
अभी भले तुम भरमा लो कुछ दिन और
चौंधिया दो सूचनाओं के कोहराम से
उधारी की रंगीन चमक से
जंगलों-घाटियों-बीहड़ों की आवाजों की कर दो मिट्टी पलीत
कफनखोर टीवी चैनलों से गढ़वा लो झूठ के कीर्तिमान
तुम्हारी जीभ में तभी तक रहेगा ये झूठ
जब तक तुम्हारी बंदूकों में गोलियाँ हैं
तुम्हारी गोलियों का बारूद एक दिन कम पड़ जाएगा
इंकलाब के पास बहुत सीने हैं गोली खाने को
-याद रखना जरूर
दिल्ली देश नहीं हो सकती
देश उनके सीनों में धड़कता है जहाँ सीमाओं से लाशें आती हैं
देश पिथौरागढ़ में है, देश बस्तर में है
देशभक्ति को उगा नहीं सकोगे तुम गमलों में।
देशभक्ति ग्रीन हंट और सलवा जुडूम के आर्तनाद से नहीं आएगी
देशभक्ति-देशभक्ति चिल्लाते रहने से भी देशभक्ति नहीं आती।
वह आदिवासियों-वनवासियों के पसीने में महकती है
जिन्हें तुम मानते हो विकास की राह का रोड़ा-
वही किसान उसे अपने हल से सींचते हैं हर रोज।
हेम पाण्डे हो या आजाद…. वे उसी मिट्टी की संतानें हैं।
नहीं पढ़ा होगा उन्होंने विदेशी विश्वविद्यालयों में अर्थशास्त्र
प्रधानमंत्री जी।
भला तुम सोच भी कैसे सकते हो उन्हें मार डाला तुमने।
कान लगाकर सुन आना उन तमाम लोगों को
जिनके बीच वे रहे
बतियाए और मुस्कराए।
बेचैनी से तराश दिए विचार
वे नहीं समझ सकते जिनके गाँवों में
बिनसर पार्क के सुअर नहीं घुसते।
एक पल में नहीं रौंद डालते बच्चे की फीस
और बीमार पति की दवाइयाँ।
धरती माँ के हरकारे ही उन आँसुओं की डाह समझ सकते थे।
जिनके बीच वे रहे और बने और बेहतर
वक्त-बेवक्त देहरियों से भीतर झाँका, माँगा आसरा
पूछना उन माँओं से
जिन्होंने मुंह अंधेरे कलेवा देकर विदा किया
उन पेड़ों से भी जिनके नीचे वे बैठे सुस्ताए।
घोटालों और महाघोटालों की योजनाएँ नहीं थीं कमबख्तो !
इस महादेश के लोगों की बातें थीं।
उनके सपने अलग थे तुम सबों से-
साजिश से हथियाई कुर्सी को वे सपने नहीं आते।
हवाएँ भी-
जो उनकी योजनाओं की गवाह थीं, जो अब भी रीट रही हैं धरती पर
नदी का पानी-
जो उनके थकान भरे पैंरों को नई ऊर्जा से भर देता था
करीब जाकर सुनना उन सबों को
समझ जाना-
तुम्हारी मौत का मर्सिया तैयार है।
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