सफल लोगों के बारे में एक असफल आदमी की कविता
THURSDAY, FEBRUARY 23, 2012
सफल लोगों के बारे में एक असफल आदमी की कविता
आज प्रियदर्शन की कविताएँ कुछ बदले हुए रंग, एक नए मुहावरे में. आख्यान के ढांचे में, कुछ गद्यात्मक लहजे में, लेकिन सहज काव्यात्मकता के साथ- जानकी पुल.
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सफल लोगों के बारे में एक असफल आदमी की कविता
मेरे आसपास कई सफल लोग हैं
अपनी शोहरत के गुमान में डूबे हुए।
जब भी उन्हें कोई पहचान लेता है
वे खुश हो जाते हैं
और अक्सर ऐसे मौकों पर अतिरिक्त विनयशील भी
जैसे जताते हुए कि उन्हें तो मालूम भी नहीं था कि वे इतने सफल और प्रसिद्ध हैं
और बताते हुए कि उन्हें तो पता भी नहीं है कैसे आती है सफलता और कैसे मिलती है प्रसिद्धि।
उनके चेहरों पर होती है थोड़ी सी तृप्त और मासूम मुस्कुराहट
और साथ में हाथ झटकते हुए वे कभी-कभी मान भी बैठते हैं
कि जो भी मिला संयोग से मिला, वरना उन जैसे काबिल लोग और भी हैं
कुछ तो उनसे भी काबिल, जो उनके साथ बैठकर कभी अपनी कलम और कभी अपनी कुंठा घिसते हैं।
इस अर्द्धसत्य में झूठ की मिलावट बस इतनी होती है
कि जिसे वे संयोग बताते हैं, उसे संभव करने के लिए उन्होंने जो कुछ किया
उसे वे छुपा ले जाते हैं।
सच है कि उनको देखकर थोड़ी सी हैरानी होती है,
थोड़ा सा अफ़सोस भी और थोड़ी सी कुंठा भी।
कभी-कभी लगता है, किस्मत उन पर ज़्यादा मेहरबान रही
कि उन्हें वह सब मिलता गया, जिसकी कामना दूसरे करते हैं।
कभी-कभी लगता है, जब मांगने, हासिल करने या छीनने का वक्त आया
तो ज़ुबान तालू से चिपक गई, आंख नीची हो गई, हाथों ने हिलने से इऩकार कर दिया।
हकीकत जो भी हो, एक बात समझ में आई
कि सफलता ऐसे ही नहीं मिलती है,
उसके कुछ छोड़ना भी पड़ता है, कुछ छीनना भी।
पहले अपने-आप को सफलता के लिए सुपात्र बनाना पड़ता है
जिसमें उचित जगह पर रिरियाने की, उचित जगह पर हंसने की, उचित जगह पर तारीफ़ करने की, उचित जगह पर निंदा करने की, उचित जगह पर चीखने की भी समझ और आदत विकसित करनी पड़ती है
जिसमें शुरू में तकलीफ होती है, लेकिन बाद में सब ठीक हो जाता है।
सफलता की गर्द धीरे-धीरे दिल के बोझ से ज़्यादा वज़नदार हो जाती है
और आदमी को हलका-हलका लगने लगता है।
फिर एक बार आप सफल हो गए तो आगे सफलता आपको बनाती है
कुंठित लोग पीछे छूट जाते हैं
कुंठित लोग पीछे छूट जाते हैं
अपनी असफलताओं के लिए दूसरों को जिम्मेदार ठहराते
ख़ुद के न बदलने की मायूसी के मारे
और ऐसी कविताएं लिखते हुए, जिनमें नाकामी के लिए तर्क तलाशे जाते हैं।
लेकिन मेरे पास कोई तर्क नहीं है
इस फर्क के सिवा कि लिखने और बोलने से पहले आसपास देखने और तोलने का अभ्यास कभी बन नहीं पाया।
किसी गर्म, कुरमुरी, जायकेदार जलेबी को मुंह में रखने
और उसे गप कर जाने से पहले उसकी खुशबू और उसके रस का पूरा आनंद
लेने के बीच क्या आपने ध्यान दिया है कि
हमारी भाषा कैसे-कैसे बेख़बर अत्याचार करती है?
अगर किसी को आप जलेबी जैसा सीधा कहते हैं
तो ये उसके टेढ़ेपन पर व्यंग्य भरी टिप्पणी होती है
जबकि सच्चाई यह है कि अपने रूपाकार को छोड़कर- जिसमें उसका
अपना कोई हाथ नहीं है- वह वाकई सीधी होती है।
पहले रस को अपने भीतर घुलने देती है
और फिर बड़ी आसानी से मुंह के भीतर घुल जाती है
जो थोड़ा बहुत कुरमुरापन रहता है, वह उसका जायका ही बढ़ाता है।
कभी चाव से जलेबी खाते हुए और कभी दिल्लगी में दूसरों से अपने जलेबी जैसा
सीधा होने की तोहमत सुनते हुए अक्सर मुझे लगता है
कि वह भाषा भी कितनी सतही होती है जो बाहरी रूप देखकर
किसी से सीधे या टेढे होने का ऐसा नतीजा तय कर देती है जो घिस-घिस कर मुहावरे में बदल जाता है।
लेकिन यह नादानी है या सयानापन है?
कि लोग जलेबी को टेढा बताते हैं?
यह जानते हुए कि वह कुछ बिगाड़ नहीं सकती
आम तौर पर बाकी पकवानों की तरह हाजमा भी ख़राब नहीं कर सकती।
अगर सिर्फ आकार-प्रकार से तय होना हो
कौन सीधा है, कौन टेढ़ा
तो सीधा-सपाट चाकू कहीं ज्यादा मासूम लगेगा जो
सीधे बदन में धंस सकता है
और जलेबी बेचारी टेढ़ी लगेगी जो टूट-टूट कर
हमारे मुंह में घुलती रहती है।
लेकिन जलेबी और चाकू का यह संयोग सिर्फ सीधे-टेढ़े के फर्क को बताने के लिए नहीं चुना है
यह याद दिलाने के लिए भी रखा है कि
जलेबी मुंह में ही घुलेगी, चाकू से नहीं कटेगी
और चाकू से जलेबी काटना चाहें
तो फिर किसी और को काटने के पहले चाकू को चाटने की इच्छा पैदा होगी।
यानी चाकू जलेबी को नहीं बदल सकता
जलेबी चाकू को बदल सकती है
हालांकि यह बेतरतीब लगने वाला तर्क इस तथ्य की उपेक्षा के लिए नहीं बना है
कि जलेबी हो या चाकू- दोनों का अपना एक चरित्र है
जिसे हमें पहचानना चाहिए
और कोशिश करनी चाहिए कि हमारा रिश्ता चाकू से कम, जलेबी से ज्यादा बने।
लेकिन कमबख्त यह जो भाषा है
और यह जो दुनिया है
वह जलेबी को टेढ़ेपन के साथ देखती है, उसका मजाक बनाती है
और
सीधे सपाट चाकू के आगे कुछ सहम जाती है।
और उसे गप कर जाने से पहले उसकी खुशबू और उसके रस का पूरा आनंद
लेने के बीच क्या आपने ध्यान दिया है कि
हमारी भाषा कैसे-कैसे बेख़बर अत्याचार करती है?
अगर किसी को आप जलेबी जैसा सीधा कहते हैं
तो ये उसके टेढ़ेपन पर व्यंग्य भरी टिप्पणी होती है
जबकि सच्चाई यह है कि अपने रूपाकार को छोड़कर- जिसमें उसका
अपना कोई हाथ नहीं है- वह वाकई सीधी होती है।
पहले रस को अपने भीतर घुलने देती है
और फिर बड़ी आसानी से मुंह के भीतर घुल जाती है
जो थोड़ा बहुत कुरमुरापन रहता है, वह उसका जायका ही बढ़ाता है।
कभी चाव से जलेबी खाते हुए और कभी दिल्लगी में दूसरों से अपने जलेबी जैसा
सीधा होने की तोहमत सुनते हुए अक्सर मुझे लगता है
कि वह भाषा भी कितनी सतही होती है जो बाहरी रूप देखकर
किसी से सीधे या टेढे होने का ऐसा नतीजा तय कर देती है जो घिस-घिस कर मुहावरे में बदल जाता है।
लेकिन यह नादानी है या सयानापन है?
कि लोग जलेबी को टेढा बताते हैं?
यह जानते हुए कि वह कुछ बिगाड़ नहीं सकती
आम तौर पर बाकी पकवानों की तरह हाजमा भी ख़राब नहीं कर सकती।
अगर सिर्फ आकार-प्रकार से तय होना हो
कौन सीधा है, कौन टेढ़ा
तो सीधा-सपाट चाकू कहीं ज्यादा मासूम लगेगा जो
सीधे बदन में धंस सकता है
और जलेबी बेचारी टेढ़ी लगेगी जो टूट-टूट कर
हमारे मुंह में घुलती रहती है।
लेकिन जलेबी और चाकू का यह संयोग सिर्फ सीधे-टेढ़े के फर्क को बताने के लिए नहीं चुना है
यह याद दिलाने के लिए भी रखा है कि
जलेबी मुंह में ही घुलेगी, चाकू से नहीं कटेगी
और चाकू से जलेबी काटना चाहें
तो फिर किसी और को काटने के पहले चाकू को चाटने की इच्छा पैदा होगी।
यानी चाकू जलेबी को नहीं बदल सकता
जलेबी चाकू को बदल सकती है
हालांकि यह बेतरतीब लगने वाला तर्क इस तथ्य की उपेक्षा के लिए नहीं बना है
कि जलेबी हो या चाकू- दोनों का अपना एक चरित्र है
जिसे हमें पहचानना चाहिए
और कोशिश करनी चाहिए कि हमारा रिश्ता चाकू से कम, जलेबी से ज्यादा बने।
लेकिन कमबख्त यह जो भाषा है
और यह जो दुनिया है
वह जलेबी को टेढ़ेपन के साथ देखती है, उसका मजाक बनाती है
और
सीधे सपाट चाकू के आगे कुछ सहम जाती है।
मुर्ग़े पक्षियों की तरह नहीं लगते
न ठीक से उड़ सकते हैं न गा सकते हैं
और तो और चिड़ियों में दिखने वाला सौंदर्य बोध भी उनमें नज़र नहीं आता
फूलों और बागीचों में सैर करने की जगह
घूरे में भटकते, चोंच मारते मिलते हैं
और लड़ते हुए इंसानों की तरह।
क्या है वह जो उन्हें हमारी निगाह में चिड़िया नहीं होने देता?
क्या इसलिए कि वे असुंदर हैं?
क्या इसलिए कि उनकी आवाज़ कर्कश है
भले ही वे सभ्यता के सूर्योदय के पहले से ही
हमारी सुबहों को पुकारने का काम करते रहे हैं?
देखें तो वे बेहद उपयोगी हैं- सदियों से हमारे उपभोग की सबसे लज़ीज़ वस्तुओं में एक
आज भी मुर्ग़े के ज़िक्र से किसी चिडिया का खयाल नहीं आता
प्लेट पर परोसे एक खुशबू भरे व्यंजन की महक फैलती है
जबकि यह सब बडी आसान क्रूरता से होता है
बड़ी सहजता से हम उन्हें हलाल होता देखते हैं
पहले उनकी जान ली जाती है, फिर उनके पंख नोचे जाते हैं
फिर उनकी खाल उतारी जाती है
और फिर उन्हें तौला और तराशा जाता है
और यह सब देखते हुए हमारी पलक नहीं झपकती
बाद में खाते हुए भी एक पल को याद नहीं आती
वह तड़फती हुई आख़िरी कोशिश
जो कोई मुर्ग़ा किसी कसाई के हाथ से छूटने के लिए कर रहा होता है।
हालांकि चाहे तो तर्क दे सकते हैं
कि मुर्गे उन ढेर सारे पंछियों से कहीं ज़्यादा ख़ुशक़िस्मत हैं
जिनकी प्रजातियां या तो मिट गईं या मिटने के कगार पर हैं
भले ही वे रोज़ करोडों की तादाद में हलाल किए जाते हों
और बीच-बीच में किसी बीमारी के डर से ज़िंदा जला दिए जाते हों
आख़िर इंसान ही उन्हें पालता है
न उनकी तादाद में कमी है न उनके कारोबार में
वे बचे हुए तो इसलिए कि हम उन्हें खाते हैं
यहां ये मरते या बचते हुए मुर्गे फिर एक दिलचस्प सवाल उठाते हैं,
क्या सिर्फ वही बचे रहेंगे जिन्हें इंसान खाता है या खा सकता है
क्या ये पूरी धरती सिर्फ इंसान के भोग का भूगोल है?
बाक़ी जो हैं बेकार हैं, मार दिए जाने योग्य हैं, या भुला दिए जाने लायक?
आखिरी सच यह है कि एक मरते हुए मुर्ग़े के लिए इन सवालों का कोई मतलब नहीं
हम एक प्रतीक की तरह उसमें चाहे गू़ढ़ार्थ ढूढ़ लें
यह हकीक़त बदलती नहीं
कि मुर्ग़ा बस मुर्ग़ा है, और इंसान को उसके उपयोग की अनंत विधियां मालूम हैं
दरअसल यह भी एक विडंबना है कि एक मुर्ग़े को लेकर अनायास पैदा हुई यह करुणा
एक कविता की अपनी मांग भर है
जो बस लहर की तरह आई है और गुज़र जाएगी
और कवि जब लिखने की मेज़ छोड़ खाने की मेज़ पर जाएगा
तो अपने लिए एक लज़ीज़ मुर्गा ही मंगाएगा
और
एक अच्छी कविता लिखने की खुशी के साथ मिला कर खाएगा।
न ठीक से उड़ सकते हैं न गा सकते हैं
और तो और चिड़ियों में दिखने वाला सौंदर्य बोध भी उनमें नज़र नहीं आता
फूलों और बागीचों में सैर करने की जगह
घूरे में भटकते, चोंच मारते मिलते हैं
और लड़ते हुए इंसानों की तरह।
क्या है वह जो उन्हें हमारी निगाह में चिड़िया नहीं होने देता?
क्या इसलिए कि वे असुंदर हैं?
क्या इसलिए कि उनकी आवाज़ कर्कश है
भले ही वे सभ्यता के सूर्योदय के पहले से ही
हमारी सुबहों को पुकारने का काम करते रहे हैं?
देखें तो वे बेहद उपयोगी हैं- सदियों से हमारे उपभोग की सबसे लज़ीज़ वस्तुओं में एक
आज भी मुर्ग़े के ज़िक्र से किसी चिडिया का खयाल नहीं आता
प्लेट पर परोसे एक खुशबू भरे व्यंजन की महक फैलती है
जबकि यह सब बडी आसान क्रूरता से होता है
बड़ी सहजता से हम उन्हें हलाल होता देखते हैं
पहले उनकी जान ली जाती है, फिर उनके पंख नोचे जाते हैं
फिर उनकी खाल उतारी जाती है
और फिर उन्हें तौला और तराशा जाता है
और यह सब देखते हुए हमारी पलक नहीं झपकती
बाद में खाते हुए भी एक पल को याद नहीं आती
वह तड़फती हुई आख़िरी कोशिश
जो कोई मुर्ग़ा किसी कसाई के हाथ से छूटने के लिए कर रहा होता है।
हालांकि चाहे तो तर्क दे सकते हैं
कि मुर्गे उन ढेर सारे पंछियों से कहीं ज़्यादा ख़ुशक़िस्मत हैं
जिनकी प्रजातियां या तो मिट गईं या मिटने के कगार पर हैं
भले ही वे रोज़ करोडों की तादाद में हलाल किए जाते हों
और बीच-बीच में किसी बीमारी के डर से ज़िंदा जला दिए जाते हों
आख़िर इंसान ही उन्हें पालता है
न उनकी तादाद में कमी है न उनके कारोबार में
वे बचे हुए तो इसलिए कि हम उन्हें खाते हैं
यहां ये मरते या बचते हुए मुर्गे फिर एक दिलचस्प सवाल उठाते हैं,
क्या सिर्फ वही बचे रहेंगे जिन्हें इंसान खाता है या खा सकता है
क्या ये पूरी धरती सिर्फ इंसान के भोग का भूगोल है?
बाक़ी जो हैं बेकार हैं, मार दिए जाने योग्य हैं, या भुला दिए जाने लायक?
आखिरी सच यह है कि एक मरते हुए मुर्ग़े के लिए इन सवालों का कोई मतलब नहीं
हम एक प्रतीक की तरह उसमें चाहे गू़ढ़ार्थ ढूढ़ लें
यह हकीक़त बदलती नहीं
कि मुर्ग़ा बस मुर्ग़ा है, और इंसान को उसके उपयोग की अनंत विधियां मालूम हैं
दरअसल यह भी एक विडंबना है कि एक मुर्ग़े को लेकर अनायास पैदा हुई यह करुणा
एक कविता की अपनी मांग भर है
जो बस लहर की तरह आई है और गुज़र जाएगी
और कवि जब लिखने की मेज़ छोड़ खाने की मेज़ पर जाएगा
तो अपने लिए एक लज़ीज़ मुर्गा ही मंगाएगा
और
एक अच्छी कविता लिखने की खुशी के साथ मिला कर खाएगा।
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