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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Thursday, February 23, 2012

एक अकेला थक जाएगा, मिलकर बोझ उठाना!

एक अकेला थक जाएगा, मिलकर बोझ उठाना!



 आमुखमीडिया मंडीव्याख्यान

एक अकेला थक जाएगा, मिलकर बोझ उठाना!

24 FEBRUARY 2012 NO COMMENT

♦ हावर्ड रेनगोल्ड

इस टेड टॉक में हावर्ड रेनगोल्ड परस्पर सहयोग पर आधारित नयी दुनिया की, भागीदारी से चलते मीडिया की और सामूहिक कार्यवाही की बात करते हैं और यह भी कि कैसे विकीपीडिया हमारे आपसी सहयोग जैसे प्राकृतिक मानवीय गुण का परिणाम हैं। अनुवाद स्‍वप्निल ने किया है, उनका शुक्रिया : मॉडरेटर

मैंयहां आपको उस सेना में भर्ती करने आया हूं, जो इंसानों और बाकी प्राणियों के काम करने के तरीकों को नया आयाम दे रही है। बात पुरानी ही है … हमने पहले भी थोड़ी-बहुत सुनी है। प्रकृति में सबसे ताकतवर ही जिंदा बचता है; कंपनियों और देशों की सफलता का आधार है किसी को हराना, बरबाद कर देना, और प्रतिद्वंदी से आगे बढ़ जाना।

राजनीति का अर्थ है जीत – किसी की कीमत पर। पर मुझे लगता है कि हम एक नयी कहानी की शुरुआत होते देख रहे हैं। और ये किस्सा कई सारे क्षेत्रों में आम होता, फैलता दिख रहा है, जिसमें कि सहयोग, सामूहिक कार्य और परस्पर निर्भरता ज्यादा महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं।

मैंने संचार, मीडिया और सामूहिक प्रयासों के बारे में सोचना शुरू किया, जब मैंने 'स्मार्ट मॉब्स' लिखी और मैं उसके बारे में उसे लिखने के बाद भी सोचता रहा। असल में, अगर आप पीछे जाएं, तो आदमी के बीच संवाद के माध्‍यम और सामाजिक ढांचे की व्यवस्था के विभिन्‍न तरीके समय समय पर विकसित होते रहे हैं। मानव सभ्‍यता की उम्र तो बहुत ज्यादा है, उस लगभग 10,000 साल से जिसमें व्यवस्थित कृषि-आधारित सभ्यता चली।

छोटे परिवारों के रूप में, बंजारे शिकारी के रूप में तो हम खरगोश मारते और खाना बटोरते रहे। उस समय धन-संपत्ति का अर्थ था, जिंदा रहने भर को खाने का इंतजाम। मगर समय के एक बिंदु पर वो एक समूह बने… बड़़ा शिकार करने के लिए। हमें ये तो नहीं पता कि ठीक-ठीक कैसे ये हुआ, मगर उन्होंने निश्चय ही किसी सामूहिक कार्य-प्रणाली का विकास किया होगा; जाहिर है कि आप हाथी और मैमथ जैसे शिकार नहीं कर सकते यदि आप दल के भीतर ही लड़ते-भिड़ते रहें।

सही है कि ठीक से कुछ नहीं कहा जा सकता है, मगर ये तो साफ है कि कोई नया रूप धन-संपत्ति का जरूर निकला होगा। एक शिकारी परिवार के खाने से बहुत ज्यादा खाना आ चुका था। तो इसने एक सामाजिक प्रश्न खड़़ा किया, जिसने मेरे हिसाब से कुछ नये सामाजिक समीकरण रचे। क्या ऐसा हुआ कि जो लोग उस शिकार को खाते थे, वो शिकारी परिवारों के एक प्रकार के देनदार बन जाते थे? यदि हां, तो कैसी पद्धति बिठायी गयी होगी? कोई सबूत नहीं है, मगर ये तो हुआ ही होगा कि किसी तरह की चिन्ह-आधारित संचार प्रणाली रही होगी।

जाहिर है कि कृषि के साथ ही पहली बड़ी सभ्‍यताएं आयीं, पहले शहर मिट्टी और ईंट से बने, पहले साम्राज्य भी। और इन साम्राज्यों के प्रबंधकों ने ही लोगों को नौकरी दी… गेहूं, भेड़ों, और शराब की देनदारी का हिसाब रखने के लिए, और कर का हिसाब रखने के लिए कुछ चिन्ह बना कर जो उस समय मिट्टी के बने होते थे।

जल्द ही, अक्षर ईजाद हुए। और इस महान नुस्खे को, हजारों सालों तक, आरक्षित रखा गया उन संभ्रांत आकाओं के लिए … (हंसी) … जो साम्राज्यों का हिसाब रखते थे। और फिर एक नयी संचार तकनीक ने नये मीडिया का सशक्तीकरण किया : प्रिंटिंग प्रेस आ गयी, और कुछ ही दशकों में, दसियों लाख लोग पढ़ना-लिखना सीख गये। और इस साक्षर जमात से सामूहिक कार्यों के कई नये रूप उभरे – ज्ञान के क्षेत्र में, धर्म और राजनीति के क्षेत्र में। हमने वैज्ञानिक क्रांतियां देखीं, प्रोटेस्टेंट उद्धार देखा, संवैधानिक प्रजातंत्र को वहां आते देखा, जहां पहले वो नामुमकिन थे। प्रिंटिंग प्रेस ने ये नहीं किया, ये हुआ उस सामूहिक कार्य से जो साक्षरता से जन्मा था। और एक बार फिर, धन-संपत्ति का नया रूप उभरा।

देखिए, व्यापार तो पुरातन है। बाजार भी इतिहास जितने पुराने हैं। मगर पूंजीवद, जिस रूप में हम उसे जानते हैं, केवल कुछ ही साल पुराना है, परस्पर सहयोग और तकनीकों पर टिका, जैसे कि कोई कंपनी जिसके कई हिस्सेदार हों, सामूहिक जोखिम वाले बीमे जैसा, या फिर डबल-एंट्री अकाउंटिंग जैसा।

आज तो निश्‍चय ही, संबल देने वाली तकनीक इंटरनेट आधारित हैं, और असीमित तंत्रजाल के जमाने में, हर डेस्‍कटॉप कंप्यूटर खुद में एक प्रिंटिंग प्रेस है, एक प्रसारण केंद्र, एक संप्रदाय, या एक बाजार। विकास की गति निरंतर बढ़ रही है। आजकल तो मामला डेस्कटॉप से हट कर आगे बढ़ गया है, और बहुत ही जल्दी, हम देखेंगे कि ज्यादातर लोग घूमते दिखेंगे, किसी सुपर-कंप्यूटर को लिये हुए या पहने हुए जुड़े हुए, जबरदस्त स्पीड से जिसे हम आजकल ब्रोडबैंड कहते हैं।

जब मैं इस सामूहिक कार्य के विषय पर गहरे गया, मैंने पाया कि ज्यादातर शोध उस चीज पर आधारित है, जिसे समाज-विज्ञानी 'सामाजिक कश्मकश' कहते हैं। और इस सामाजिक कश्मकश के कई रोचक उदाहरण हैं। मैं उनमें से दो को यहां संक्षेप में बताऊंगा : कैदी की कश्‍मकश (prisoner's dilemma) और सामूहिक त्रासदी (tragedy of the commons)…

केविन कैली ने मुझे बताया कि आप में ज्यादातर जानते हैं कि कैदी की कश्मकश किसे कहते हैं, इसलिए मैं फटाफट थोड़े में ही उसके बारे में बता देता हूं। अगर आपके कोई प्रश्न हों तो कृपया केविन कैली से पूछें। (हंसी)

कैदी की कश्‍मकश असल में एक कहानी है, जिसे गेम थ्‍योरी से निकले गणित के एक मैट्रिक्स पर रखा गया है। ये थ्योरी परमाणु युद्ध के बारे में शुरुआती सोच से निकली थी : दो खिलाड़ी हैं, जिन्हें एक दूसरे पर विश्वास नहीं है। ऐसे समझिए कि सारे गैर-गारंटी लेन-देन कैदी की कश्मकश के ही उदाहरण हैं। एक व्यक्ति जिसके पास माल है, दूसरा जिसके पास पैसा है। क्योंकि उन्हें परस्पर विश्वास नहीं है, वो सौदा नहीं करेंगे। कोई भी पहला कदम नहीं लेना चाहता है क्योंकि हो सकता है वहां धोखा मिले, मगर दोनों ही नुकसान में हैं, जाहिर है, दोनों का ही ध्येय पूरा नहीं हो पाता है। यदि वो मान जाएं, और कैदी की कश्मकश को किसी आश्वासन पैदा करने वाले तरीके से जोड़ दें, तो वो आगे बढ़ सकते हैं।

बीस साल पहले, राबर्ट एक्सलरोड ने कैदी की कश्मकश को प्राकृतिक विकास के प्रश्न पर लागू किया था : यदि हम भीषण प्रतिस्पर्धियों की संतानें हैं, तो सहयोग नाम की चिड़िया होती ही क्यों है? तो उन्होंने एक कंप्यूटर टूर्नामेंट आयोजित किया जहां लोग कैदी की कश्मकश की समस्या के हल और योजानाएं जमा करते थे। उन्हें आश्चर्य हुआ क्योंकि एक बहुत ही साधारण सी युक्ति की जीत हुई – उसने पहला टूर्नामेंट जीता, और सबके सामने आने के बाद भी, फिर से उसने दूसरा टूर्नामेंट भी जीत लिया – जस को तस।

अर्थ-शास्त्र से जुड़ा एक और गेम है, जो कैदी की कश्मकश जितना मशहूर नहीं है, आखिरी शर्त का खेल, और ये भी बहुत ही रोचक है ये जानने में कि आखिर लोग कैसे रुपये-पैसे से जुड़े फैसले लेते हैं। तो खेल कुछ ऐसा है : दो खिलाड़ी हैं। उन्होंने ये खेल पहले कभी साथ में नहीं खेला है। वो दुबारा भी साथ कभी नहीं खेलेंगे। वो एक दूसरे को जानते भी नहीं हैं। और असल में, वो अलग अलग कमरों में बैठे हैं। पहले खिलाड़ी को सौ रुपये दिये जाते हैं और उन्हें दो हिस्सों में बांटने को कहा जाता है : 50-50, या फिर 90-10, या जो भी वो खिलाड़ी करना चाहे। दूसरा खिलाड़ी या तो उस विभाजन को स्वीकार करता है, दोनों खिलाड़ियों को पैसा मिलता है, खेल खत्म हो जाता है – या फिर वो अस्वीकार कर सकता है – किसी को कुछ नहीं मिलता है और खेल खत्म हो जाता है।

आधुनिक अर्थशास्त्र का मौलिक सिद्धांत आपको बताएगा कि आता हुआ एक रुपया सिर्फ इसलिए अस्वीकार करना गलत है क्योंकि किसी दूसरे अनजान आदमी को तो 99 रुपये मिल रहे हैं। लेकिन हजारों अमरीकी, यूरोपीय और जापानी विद्यार्थियों के साथ प्रयोगों में एक बड़ी संख्या में वो सारे विभाजन निरस्त हो गये, जो 50-50 के आसपास नहीं थे। और उन्हें इस बारे में कुछ नहीं बताया गया था और उन्हें छांट कर भी नहीं लाया गया था और वो पहली बार ये खेल खेल रहे थे। विभाजनकर्ताओं को भी स्वाभाविक रूप से ये पता था क्योंकि औसत विभाजन आश्चर्यजनक रूप से 50-50 के करीब ही थे।

सबसे रोचक बात तो तब पता चली, जब मानव-विज्ञानी इस खेल को दूसरी संस्कृतियों में ले गये, और उन्हें अचरज हुआ कि अमेजन के काटो-जलाओ खेतिहर और मध्य एशिया के खानाबदोश चरवाहे और दर्जनों और संस्कृतियों में – सही बंटवारे के अपने अलग ही मापदंड थे। जिससे ये पता लगा कि किसी स्वाभाविक न्याय के मत के बजाय, जो मूल हो हमारे रुपये-पैसे के आदान-प्रदान का, हम अपने सामाजिक पालन-पोषण से प्रभावित हैं, चाहे हमें ये पता हो या न हो।

सामाजिक कश्मकश का एक और उदाहरण है सामूहिक त्रासदी। गैरेट हार्डिन ने साठ के दशक के दूसरे भाग में जनसंख्या विस्फोट पर इसके जरिये बात की। उन्होंने उदाहरण दिया एक सामूहिक चारागाह का, जिसे हर व्यक्ति ने अपने-अपने जानवर बढ़ा कर अत्यधिक इस्तेमाल के चलते नष्ट कर दिया हो। उनका थोड़ा दुःख भरा निष्कर्ष था कि मानव निश्चित रूप से उन सभी सामूहिक संसाधनों को नष्‍ट कर देगा, जिसके इस्तेमाल की उसे खुली छूट मिलेगी।

एलिनर ओस्ट्रोम, एक राजनीति विज्ञानी ने, 1990 में वो रोचक सवाल उठाया, जो किसी भी अच्‍छे साइंसदां को पूछ्ना चाहिए, जो कि ये है : क्या ये सच है कि इंसान सामूहिक संसाधनों को नष्ट कर देगा? तो वो गयीं और उन्होंने जानकारी एकत्र की। उन्होंने हजारों ऐसे उदाहरण देखे, जहां साझे जल-स्रोत, वनस्पति संसाधन, मछली के स्रोत आदि थे, और पाया कि हां, हर जगह, इंसानों ने उन्‍हीं साझे संसाधनों को नष्ट किया जिन पर वो आश्रित थे। मगर उन्हें ऐसे भी उदाहरण मिले जहां लोग कैदी की कश्मकश में नहीं फंसे : असल में, सामूहिक त्रासदी कैदी की कश्मकश का ही बड़ा स्वरूप है। और उन्होंने कहा कि लोग तब तक कैदी ही रहेंगे, जब तक वो खुद को कैदी मानते रहेंगे। इस से बचने के लिए वो सामूहिक कार्यों के ढांचे बना सकते हैं। और उन्होंने पाया, और मुझे बहुत रोचक लगा, कि उन सभी संरचनाओं में, जो कि सफल थीं, बहुत सारे ऐसे सिद्धांत थे जो सामूहिकता पर आधारित थे, और ये सिद्धांत उन जगहों पर गायब थे जो असफल थीं।

मैं तेजी से गुजर रहा हूं कई सारे क्षेत्रों से। जीव-विज्ञान में, बहुत सारे उदाहरण हैं परस्पर निर्भरता (symbiosis) के, सामूहिक निर्णय के, निश्चय ही पारंपरिक मनोविज्ञान को खारिज करते हुए। मगर आज इस तथ्य पर कोई खास संदेह नहीं रह गया है कि सामूहिक व्यवस्थाएं सतही भूमिका से केंद्रीय भूमिका की ओर बढ़ रही हैं जीव-विज्ञान में, सेल के स्तर से पर्यावरण के स्तर की ओर। और हमारा व्यक्तियों को आर्थिक इकाइयों की तरह देखने का नजरिया खारिज हो चुका है। तर्कसंगत, अक्लमंदी भरा स्वार्थ हमेशा हमारे फैसलों को आधार नहीं होता है। असलियत है कि लोग धोखेबाज को सजा देते हैं, भले ही खुद भी उसकी कीमत चुकानी पड़े।

और हाल ही में, तंत्रिका-विज्ञान के आंकड़़ों ने दिखाया है कि जो लोग लेन-देन वाले खेलों में धोखेबाजों को सजा देते हैं, उनके दिमाग का इनाम वाला भाग सक्रिय हो जाता है, जिसके आधार पर एक वैज्ञानिक ने तो ये कह दिया कि परहितवादी सजा ही शायद समाज को बांध कर रखने वाली कड़ी है।

मैं भी इस पर बात करता रहा हूं कि कैसे नये संचार-माध्यम और नये मीडिया ने इतिहास में नयी अर्थ-व्यवस्थाओं को जन्म दिया है। व्यापार तो पुरातन है। बाजार भी बहुत पुराने हैं। पूंजीवाद बहुत नया है; समाजवाद उसकी प्रतिक्रिया में जन्मा है। और अब भी हम नयी उभरती अर्थ-व्यवस्था पर बहुत कम विमर्श होता हुआ देखते हैं। जिम सुरोवेकी ने संक्षिप्त में योचायी बेन्कलर के ओपन-सोर्स पर लिखे पेपर का उल्लेख किया, एक नये प्रकार की रचना प्रणाली – पियर टू पियर – की ओर इशारा करते हुए। मैं बस इतना चाहता हूं कि आप ये देखें कि यदि इतिहास में, नये प्रकार की कार्य-प्रणालियों और नयी तकनीकों ने नये प्रकार के धन-वैभव को जन्म दिया है, तो हम शायद बढ़ रहे हैं एक ऐसी नयी अर्थ-व्यवस्था की ओर जो पहले की सभी व्यवस्थाओं से पूर्णत: भिन्न होगी।

एकदम संक्षिप्त में, कुछ कंपनियों को देखें, आईबीएम, जैसा कि आप जानते हैं, एचपी, सन – आईटी के क्षेत्र के सबसे घातक प्रतिद्वंद्वी ओपन-सोर्स, मुक्त रचना विधान अपने सॉफ्ट्वेयर पर लगा रहे हैं, और समूह को पेटेंट दे रहे हैं। एली लिली ने – जबरदस्त प्रतिद्वंद्विता वाले औषधि क्षेत्र में – औषधि क्षेत्र में निदान निकालने का नया बाजार खड़ा किया है। टोयोटा, अपने आपूर्तिकर्ताओं को बाजार की तरह देखने के बजाय, एक तंत्र की तरह देखती है, और उन्हें बेहतर उत्पादों के लिए प्रशिक्षित करती है, जबकि इससे टोयोटा के प्रतिद्वंद्वियों का भी फायदा हो रहा है। देखिए ये कंपनियां परमार्थ के लिए ऐसा नहीं कर रही हैं : ये ऐसा कर रही हैं क्योंकि वो सीख रही हैं कि एक खास तरह का सहयोग उनके फायदे में है।

ओपन सोर्स रचना प्रणाली ने दिखाया है कि विश्व-स्तरीय सॉफ्टवेयर जैसे लिनक्स और मोजिला, न तो कंपनियों के नौकरशाही ढांचों से बनाये जा सकते हैं, न ही पारंपरिक लाभों से, जो बाजारों ने हमें अब तक दिये हैं। गूगल खुद को बढ़ावा देता है, हजारों ब्लागरों को एड-सेंस के जरिये बढ़ावा दे कर। अमेजन ने अपना प्रोग्राम लिखने का इंटरफेस मुक्त कर दिया है करीब 60,000 प्रोग्रामरों के लिए, और अनगिनत अमेजन दुकानों के लिए। वो दूसरों को सिर्फ परमार्थ के लिए बढ़ावा नहीं देते, बल्कि खुद को आगे बढ़ाने के तरीके पाते हैं। ई-बेय ने कैदियों की कश्मकश में पहला कदम उठा कर एक पूर नया बाजार खड़ा कर दिया, पुराने ग्राहकों के अनुभव को साझा करने का तरीका निकाल कर – कमेंट, जिसने कैदियों की कश्मकश को आश्वासन के खेल में तब्दील कर दिया।

बजाय इसके कि "हम परस्पर विश्वास नहीं रखते, इसलिए हम दोनों को नुकसान होगा", बात ये है कि "आप दिखाइए कि आप विश्वास योग्य हैं, और मैं सहयोग करूंगा।" विकीपीडिया ने हजारों स्वेच्छा-कर्मियों के जरिये एक मुफ्त विश्वकोष बना डाला जिसमें 15 लाख लेख हैं, 200 भाषाओं में, महज कुछ ही सालों में।

हमने देखा है कि थिंक-साइकिल ने विकासशील देशों की गैर-सरकारी संस्थाओं को संबल दिया है विश्व भर के डिजाइन विद्यार्थियों के समक्ष गहन समस्याओं को रखने में, जिनमें से कुछ तो सूनामी राहत कार्य के लिए आज भी इस्तेमाल हो रही हैं : ये एक तरीका है कोलरा के रोगियों को फिर से पानी देने का, जो कि आसानी से इस्तेमाल होता है, अनपढ़ लोग भी इसे इस्तेमाल कर सकते हैं। बिट-टोरेंट हर उतारू (डाउनलोडर) को चढ़ाऊ (अपलोडर) में बदल देता है, और पूरी प्रणाली को ज्यादा प्रभावशाली बनाता है।

दसियों लाख लोगों ने अपने डेस्कटॉप कंप्यूटरों को सम्मिलित किया है, जब वो उसे इस्तेमाल नहीं कर रहे होते, इंटरनेट से जोड़ कर एक सुपर-कंप्यूटर सघन बनाने के लिए जो कि मेडिकल शोधकर्ताओं को प्रोटीन के सिमटने की प्रक्रिया समझने में मदद कर रहा है – जिसे स्टेनफोर्ड के फोल्डिंग@होम नाम से जानते हैं – जटिल कोड को तोड़ने, और दूसरे ग्रहों पर जीवन खोजने के लिए।

मुझे लगता है कि अभी तो हम नुक्ता भर भी नहीं जानते हैं। अभी तो, मुझे लगता है कि हमने कुछ मौलिक सिद्धांत तक नहीं ढूंढे हैं, मगर मैं मानता हूं कि हम इस दिशा में सोचना प्रारंभ कर सकते हैं। मुझे इतना समय नहीं दिया गया है कि मैं सब बात कर सकूं मगर अपने फायदे के बारे में सोचिए। ये स्वार्थी सोच ही है जो इतना सब बना रही है। एल सालवाडोर में, जिन दोनों पक्षों ने सिविल-युद्ध से वापसी ली, उन्होंने वही काम किये जो कैदियों की कश्मकश के निदान हैं।

अमरीका में, फिलिपींस में, कीन्या में, सारे विश्व में नागरिक राजनीतिक विरोधों में शामिल हुए और मोबाइल और एसएमएस इस्तेमाल कर के वोट के लिए प्रचार किया। क्या सहयोग की अपोलोनुमा योजना संभव है? सहयोग पर एक अंतरविधा शोध? मुझे विश्वास है कि इससे मोटा फायदा होगा। मैं मानता हूं कि हमें इस क्षेत्र के नये नक्शे तैयार करने होंगे, जिससे कि हम विधाओं के आरपार बतिया सकें। और मेरा ऐसा कोई दावा नहीं है कि सहयोग की समझ हमें बेहतर मनुष्य बनाएगी – और कई बार लोग बुरे काम के लिए भी सहयोग करते हैं – मगर मैं आपको याद दिलाना चाहूंगा कि कुछ सौ साल पहले, लोग अपने सगे-संबंधियों को उन बीमारियों से मरते देखते थे, जो उन्हें लगता है कि पाप से या फिर विदेशियों से, या बुरी आत्माओं से आती हैं।

डेस्कार्टेस ने कहा था कि हमें एक पूरी तरह से नयी सोच की आवश्यकता है। जब विज्ञान ने और जीव-विज्ञान ने दिखाया कि कीटाणुओं से बीमारी आती है, कई सारी तकलीफें दूर हुईं। किन तकलीफों को दूर किया जा सकता है, धन-वैभव-रईसी के नये रूप क्या हो सकते हैं, यदि हम सहयोग के बारे में कुछ और जान जाएं? मुझे नहीं लगता कि ये बहस-विमर्श अपने आप हो जाएगा : इसके लिए प्रयत्न करना होगा। तो आज मैं आपको अपने सहयोग कार्यक्रम में भरती करता हूं। धन्यवाद।

अनुवाद : स्‍वप्निल कांत दीक्षितसंपादन : वत्‍सला श्रीवास्‍तव

(अनुवादक के बारे में : स्वप्निल कांत दीक्षित। आईआईटी से स्नातक होने के बाद, कोर्पोरेट सेक्टर में दो साल काम किया। फिर साथियों के साथ जागृति यात्रा की शुरुआत की। यह एक वार्षिक रेल यात्रा है, और 400 युवाओं को देश में होने वाले बेहतरीन सामाजिक एवं व्यावसायिक उद्यमों से अवगत कराती है। इसका उद्देश्य युवाओं में उद्यमिता की भावना को जगाना, और उद्यम-जनित-विकास की एक लहर को भारत में चालू करना है। इस यात्रा में ये युवक जगह-जगह से नये सृजन के लिए उत्‍साह बटोरते चलते हैं। स्वप्निल उन युवकों में से हैं, जो बनी-बनायी लीक पर चलने में यकीन नहीं रखते। यात्रा की एक झलक यहां देखें।)

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