मातृभाषा के लिए क्या हम आधी रात में जग सकते हैं?
मातृभाषा के लिए क्या हम आधी रात में जग सकते हैं?
♦ आनंद पांडेय
पूंजीवाद का अंतर्राष्ट्रीय वर्चस्व भाषाई भी है। आज भूमंडलीकरण के नाम पर दुनिया को अमेरिका-यूरो केंद्रित बनाने के प्रयास में दुनिया भर में मातृभाषाओं का वध किया जा रहा है। कई छोटी-बड़ी मातृभाषाएं बेमौत मर रही हैं। कइयों का अस्तित्व संकट में है। ऐसे में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 21 फरवरी को अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के रूप में मनाना कई दृष्टियों से विडंबना का सूचक भी है और महत्वपूर्ण भी। उल्लेखनीय है कि बंगलादेश के भाषाई आंदोलन के शहीदों की याद में संयुक्त राष्ट्र संघ ने नवंबर 1999 में 21 फरवरी को अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के रूम में मनाने की घोषणा की। तब से यह दिन दुनिया भर में मातृभाषा दिवस के रूप में मनाया जाता है लेकिन इस दिन को लेकर जैसा उत्साह और उत्सवधर्मिता तथा जागरूकता एवं आम जनता की भागीदारी बांग्लादेश में दिखाई देती है, वैसी अन्यत्र दुर्लभ है। भारत में तो इस दिवस को शायद लोग जानते भी नहीं है।
भारतीय जनता के लिए यह दिवस वैसे ही लगभग अनजाना है, जैसे अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस (2 अक्टूबर)। हो सकता है कि बौद्धिक और शासक वर्ग इन 'दिवसों' से परिचित हो लेकिन आम जनता को बिल्कुल इनसे कोई सरोकार नहीं दिखाई देता। उत्सवधर्मिता और उत्साह तो दूर की बातें हैं। ऐसा भी नहीं है कि भारतीय मातृभाषाओं के सामने कोई खतरा मौजूद नहीं है इसलिए भारतवासी इन 'दिवसों' की औपचारिकता को अपने लिए निरर्थक मानते हों। और आयोजनों और उत्सवों से दूर रहते हों।
लेकिन, बांग्लादेश में 21 फरवरी का दिन राष्ट्रीय उत्सव की तरह से मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 21 फरवरी को अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के रूप में घोषित करने की पृष्ठभूमि में बांग्लादेश है और इसके पीछे बांग्लादेश का 1952 का मातृभाषा आंदोलन है। पाकिस्तान की राजभाषा उर्दू हो, ऐसा पूरा पश्चिमी पाकिस्तान और कायदे आजम मानते थे। लेकिन पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) की जनता के लिए उर्दू अजनबी भाषा थी। अपनी भाषा और संस्कृति में रचे-बसे गर्वीले बंगालियों ने इस बात को स्वीकार नहीं किया। संयुक्त पाकिस्तान में बंगाली आबादी का अनुपात अधिक था। इसलिए बंगाली चाहते थे कि बंगला को भी उर्दू के साथ-साथ राजभाषा बनाया जाए। लेकिन उर्दू उनके ऊपर थोप दी गयी। 21 फरवरी, 1948 को मोहम्मद अली जिन्नाह ने उर्दू को पश्चिमी और पूरी दोनों पाकिस्तानों के लिए एकमात्र राजभाषा घोषित कर दिया। प्रतिरोध स्वरूप पूर्वी पाकिस्तान में बांग्ला को लेकर आंदोलन तेज हो गया। 21 फरवरी, 1952 को ढाका विश्वविद्यालय के छात्रों ने प्रांतीय (पूरा पूर्वी पाकिस्तान) हड़ताल का आह्वान किया। इसे रोकने के लिए सरकार ने धारा 144 के तहत कर्फ्यू लगा दिया। लेकिन, छात्रों का मनोबल नहीं टूटा। उनके शांतिपूर्ण प्रदर्शन पर पाकिस्तानी सरकार ने गोलियां चलवायीं, जिससे कई छात्र मारे गये। इनमें से चार छात्रों (अब्दुस सलाम, रफीकुद्दीन अहमद, अब्दुल बरकत और अब्दुल जब्बर) का नाम विशेष सम्मान के साथ लिया जाता है। इस दिन को 'अमर इकुस' (अमर इक्कीस) के नाम से जाना जाता है और प्रतिवर्ष लोग शहीद मीनार पर लाखों की संख्या में पहुंच कर भाषा आंदोलन के नायकों और शहीदों को श्रद्धाजंलि देते हैं। प्रतिरोध स्वरूप काले और सफेद कपड़े पहनते हैं। बांग्ला भाषा की वर्णमाला के अक्षरों को दुकानों और बाजारों से लेकर घरों और संस्थाओं में सजाया जाता है। यह दिन बांग्लादेश में राष्ट्रीय पर्व के रूप में मनाया जाता है। यह ऐसा दिन है, जब बंगाली समाज अपनी सांस्कृतिक अस्मिता के लिए अपनी प्रतिबद्धता को प्रदर्शित करता है। भारतीय बंगाली भी इसे गौरव से याद करते हैं।
12.01 मिनट पर शहीद मीनार पर राष्ट्रपति जिल्लुर रहमान ने श्रद्धांजलि दी। उसके बाद प्रधानमंत्री शेख हसीना वाजेद से लेकर साधारण जनता तक ने पूरे दिन उत्साह से अपनी भावना प्रकट की। समय का चुनाव ही इस दिन के उत्साह को जाहिर कर देता है। रात के 12 बजे सारा देश इसमें शामिल हो जाता है। राष्ट्राध्यक्ष इस समय सार्वजनिक कार्यक्रम में शामिल होते हैं। उनके साथ ही पूरा शासक वर्ग और समाज। भारत में कोई राष्ट्रीय पर्व रात में मनाया जाता हो, ऐसा नहीं देखा गया।
बांग्लादेश से हम भारतीय क्या सीख सकते हैं? अपनी मातृभाषा और संस्कृति को लेकर जितना सम्मान का भाव उनमें दिखाई देता है, उतना भारतीयों में नहीं। बांग्लादेश भारत की तरह भाषाई विविधता वाला देश नहीं। इसलिए इसे भारत की तरह कई भाषाई समूहों के बीच तालमेल बनाये के लिए संघर्ष नहीं करना पड़ता और अंग्रेजी को बीच में घुसने का मौका नहीं मिलता है। लेकिन सांस्कृतिक उपनिवेशवाद से अपने को बचाये रखने में उसने भारत से अधिक दृढ़ता का परिचय दिया है। यह सायास दृढ़ता यहां की सड़कों पर उतरते ही पता चल जाती है। भारतीय समाज क्या मातृभाषा दिवस को एक अवसर के रूप में लेते हुए अपनी भाषाई विविधता और मातृभाषाओं के विकास के लिए आगे आएगा और औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति का रास्ता चुनेगा?
(आनंद पांडेय। एनएसयूआई के पूर्व राष्ट्रीय महासचिव एनएसयूआई। जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा। उनसे anandpandeymail@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं।)
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