Twitter

Follow palashbiswaskl on Twitter

Memories of Another day

Memories of Another day
While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Friday, February 3, 2012

वहां भारत का साहित्य कहां था

वहां भारत का साहित्य कहां था


Saturday, 04 February 2012 10:07

शरद यादव 
जनसत्ता 4 जनवरी, 2012: जयपुर में साहित्य उत्सव मनाया गया। उसे लेकर मीडिया में जबर्दस्त चर्चा हुई। चर्चा का कारण वह उत्सव नहीं था, बल्कि सलमान रुश्दी से जुड़ा विवाद था। उस विवाद के कारण उसका बहुत प्रचार हुआ। उस प्रचार का फायदा उस उत्सव को हुआ और जो उसके बारे में कुछ नहीं जानते थे, उन्हें भी पता चला कि जयपुर में साहित्य से संबंधित एक बड़ा उत्सव होता है, जिसमें विदेश से बहुत सारे लोग आते हैं। 
यह उत्सव जयपुर में हुआ और जयपुर भारत में है। जाहिर है, इससे उम्मीद की जाती है कि यह भारत के साहित्य को प्रतिबिंबित करेगा। लेकिन क्या ऐसा था? इस पूरे उत्सव के दौरान हिंदी साहित्य और अन्य भारतीय भाषाओं का साहित्य कहां था? भारत साहित्यिक और सांस्कृतिक रूप से बहुत संपन्न देश है। यहां सैकड़ों भाषाएं बोली जाती हैं और उन भाषाओं में यहां के लोगों का साहित्य बिखरा पड़ा है। लेकिन इस उत्सव के दौरान वह सारा साहित्य उपेक्षित रहा और उनके साहित्यकार भी उपेक्षित रहे। 
मध्यकाल में एक बहुत ही मजबूत भक्ति आंदोलन हुआ था। यह आंदोलन दक्षिण भारत से शुरू हुआ और बाद में पूरे देश में फैल गया था। इस आंदोलन के कारण देश की अनेक भाषाओं में भक्ति साहित्य का सृजन हुआ। यह कहना आसान नहीं है कि आंदोलन के कारण साहित्य का सृजन हुआ या साहित्य के कारण आंदोलन हुआ। बहरहाल, वह आंदोलन और साहित्य सृजन इसलिए हुआ कि भारत पर विदेशी संस्कृति का हमला हो रहा था। विदेशियों का आक्रमण हमारे ऊपर हुआ था। हम राजनीतिक रूप से गुलाम हो रहे थे। 
हमारे विदेशी शासक एक विदेशी मजहब को हमारे ऊपर थोप रहे थे। हमारी संस्कृति उस विदेशी संस्कृति से ज्यादा उन्नत थी। अपनी हथियारी ताकत के बल पर भले ही विदेशियों ने हमें पराजित कर दिया और गुलाम बना लिया, लेकिन वे हमारे ऊपर सांस्कृतिक विजय नहीं पा सके। इसका कारण हमारा साहित्य था। उस दौरान देश की सभी भाषाओं में भक्ति साहित्य का सृजन हुआ और उस भक्ति साहित्य ने विदेशी संस्कृति के आक्रमण से हमारी रक्षा की।
आज वैश्वीकरण के दौर में फिर हमारी संस्कृति पर हमले हो रहे हैं। ये हमले अपसंस्कृति के हैं। अगर मध्यकाल में हमला बर्बर लड़ाकों ने किया था, तो आज जो हमले कर रहे हैं, वे अपने को दुनिया में सबसे ज्यादा सभ्य और विकसित समझते हैं। लेकिन हमला तो हमला है और उन हमलों से हमें अपनी संस्कृति की रक्षा करनी है। संस्कृति की रक्षा के लिए साहित्य को हम ढाल के रूप में इस्तेमाल करते हैं। 
सवाल है कि क्या जयपुर में ऐसा कुछ हो रहा था? जयपुर का वह साहित्य उत्सव, भारतीय साहित्य को उस संस्कृति के हमले से बचाने का प्रयास था या कुछ और? इसका सही जबाब वे दे सकते हैं, जो उस उत्सव में भाग लेने या दर्शक के रूप में गए थे। 
मीडिया में छपी खबरों के अनुसार वहां चालीस हजार से ज्यादा दर्शक पहुंचे थे और उससे भी ज्यादा लोगों को उत्सव स्थल पर आने से रोकने के लिए होटल का गेट बंद करना पड़ा। साहित्य के उत्सव में इतनी बड़ी संख्या में लोगों का आना निश्चय ही बड़ी बात होती, लेकिन क्या वे लोग साहित्य के प्रेम से अभिभूत होकर वहां पहुंचे थे या मीडिया के प्रचार के प्रभाव में वहां ताक-झांक करने चले गए थे? वहां जाने वालों की जो भीड़ थी, वह सारी की सारी साहित्य प्रशंसकों की भीड़ तो हरगिज नहीं थी। तो फिर, एक अगंभीर भीड़ इकट््ठा कर किस तरह साहित्य का प्रचार-प्रसार किया जा सकता है? 
जाहिर है, वह तमाशा देखने वालों की भीड़ थी और तमाशा देखने वाले तो तमाशा ही देखने गए थे। वहां साहित्य के नाम पर तमाशा हो रहा था और सलमान रुश्दी के विवाद के कारण वहां अच्छा-खासा प्रचार हो गया था। 'द सैटेनिक वर्सेज' (शैतानी आयतें) नाम की किताब लिखने के कारण सलमान रुश्दी का मुसलमानों में बहुत विरोध रहा है। मुसलिम समुदाय के लोग उस किताब के साथ-साथ रुश्दी का भी विरोध करते हैं। 'द सैटेनिक वर्सेज' की चर्चा तो उस तमाशे में नहीं होनी थी, पर पता नहीं क्यों मुसलिम कट््टरपंथी उस उत्सव में रुश्दी के भाग लेने का ही विरोध कर रहे थे। शायद इसके पीछे भी आयोजकों की कोई चाल रही हो। मीडिया प्रसार के इस युग में यह फैशन हो गया है कि किसी फिल्म या तमाशे को सफल बनाने के लिए पहले उसका विरोध किया जाए। विज्ञापन एजेंसियां और उनके एजेंट बताते हैं कि किस तरह किसी तमाशे को प्रमोट किया जाए।
सलमान रुश्दी का वह विरोध प्रायोजित भी हो सकता है। जब आयोजन मेंकॉरपोरेट क्षेत्र के लोग मदद कर रहे हों और कॉरपोरेट जगत के लोगों ने उस


तमाशे में करोड़ों रुपए का निवेश कर रखा हो, तो फिर उस तमाशे को सफल बनाने के लिए वे कुछ भी कर सकते हैं। आखिर उनके हाथ बहुत लंबे होते हैं और उनके पैर चारों तरफ फैले हुए होते हैं। 
जयपुर के इस उत्सव के दौरान एक सौ पचीस साहित्यिक सत्र हुए और उनमें से सौ सत्र तो अंग्रेजी साहित्य को ही समर्पित थे। अंग्रेजी हमारे देश के नगण्य लोगों की मातृभाषा है। देश के एक फीसद लोग भी अंग्रेजी बोल नहीं पाते हैं। अंग्रेजी साहित्य को समझना तो बिरले लोगों के लिए भारत में संभव होता होगा। फिर भी इस भारतीय उत्सव में अंग्रेजी छाई रही। इसे अंग्रेजी उत्सव कहना सही होगा। पर अगर अंग्रेजी साहित्य का ही उत्सव होना था, तो इसके लिए जगह जयपुर को क्यों चुना गया? अंग्रेजों के देश ब्रिटेन में इसका आयोजन होना चाहिए था। 
जाहिर है, यह   साहित्यिक उत्सव भारतीय सहित्य का था ही नहीं। यह विदेशी साहित्य का उत्सव था। सलमान रुश्दी भी विदेशी साहित्य का ही सृजन करते हैं। वे भले भारत के हैं, लेकिन वे भारतीय भाषा के साहित्यकार नहीं हैं। वे अंग्रेजी में लिखते हैं और उनकी किताबें भी अंग्रेजों के लिए ही होती हैं, जिनमें वे वही लिखते हैं, जिसे अंग्रेज पसंद करते हैं। 
यही कारण है कि वे वैसी बातें भी लिख जाते हैं, जिनसे उनके अपने देश के लोगों को गुस्सा आता है और वे उनका चेहरा देखना भी पसंद नहीं करते। तो यह साहित्य उत्सव सलमान रुश्दी जैसे साहित्य सृजन करने वालों को समर्पित था। यही कारण है कि रुश्दी का इसमें भाग लेना या न लेना ज्यादा जरूरी था। पर सवाल उठता है कि अगर रुश्दी भारतीयों के लिए लिखते ही नहीं तो फिर वे भारत में आकर अपने साहित्य की चर्चा करने के लिए उतने व्यग्र क्यों थे?
जयपुर का साहित्य उत्सव साहित्य को बढ़ावा देने के लिए था ही नहीं। वह तो बाजार को बढ़ावा देने के लिए था। यह स्वाभाविक भी था, क्योंकि उसके आयोजक बाजार से जुडेÞ हुए लोग भी थे। अगर उसका उद्देश्य साहित्यिक पुस्तकों के बाजार को बढ़ाना होता, तब भी ठीक रहता, लेकिन वह उसके लिए भी नहीं था। बाजार के लिए कोई घटना चाहिए और साहित्य का उत्सव एक घटना से ज्यादा कुछ हो ही नहीं सका। 
हमारे देश की अधिकतर भाषाओं के साहित्य की समृद्धि का कोई जोड़ नहीं है, लेकिन वहां देशी साहित्य से जुडेÞ लोग शायद थे ही नहीं। भारतीय भाषाओं के नाम पर जो लोग थे, वे साहित्य के लिए कम और कुछ अन्य कामों के लिए ज्यादा जाने जाते हैं। कोई फिल्मी दुनिया के लिए गाने लिखता है, लेकिन वह जयपुर उत्सव में साहित्यकार के रूप में पेश किया गया। 
फिल्मों के गाने भी साहित्य का हिस्सा हो सकते हैं। ऐसे अनेक गाने हैं, जिनसे हमारे साहित्य का सम्मान बढ़ा है, लेकिन आजकल जो गाने लिखे जा रहे हैं, वे कवियों के दिल से नहीं, बल्कि संगीतकारों की धुन से निकलते हैं। पहले संगीत की धुन बता दी जाती है और उस धुन पर रचना करने को कहा जाता है। वैसा गाना लिखने के लिए कवि का दिल नहीं, बल्कि तुकबंदी का दिमाग चाहिए। फिल्मी गानों के लिए जो तुकबंदी करते हैं उन्हें साहित्यकार मानना भूल है, लेकिन हिंदी के साहित्यकार के नाम पर उनकी ही जयपुर के साहित्य उत्सव में तूती बोल रही थी। 
जब तुकबंदी करने में माहिर लोगों को ही साहित्यकार माना जाएगा, तो फिर असली साहित्यकारों को भुलाना ही पडेÞगा। यही जयपुर के साहित्य उत्सव में भी देखा गया। उस उत्सव में कबीरदास कहीं नहीं थे। उसमें तुलसीदास भी नहीं थे और सूरदास भी गायब थे। यानी इन सब की कोई स्मृति या चर्चा वहां नहीं थी। अन्य अनेक भाषाओं के युग प्रवर्तक साहित्यकार भी इस समारोह से गायब थे। 
पुराने जमाने के कवियों और लेखकों की चर्चा की तो बात ही क्या, वहां आधुनिक युग के साहित्यकारों की भी सुध नहीं ली गई। जयशंकर प्रसाद को वहां कोई जगह नहीं मिली थी। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला वहां से गायब थे। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त भी नहीं थे और राष्ट्रकवि दिनकर का भी कहीं अता-पता नहीं था। फणीश्वरनाथ रेणु के वहां होने का तो सवाल ही नहीं था। क्या इन सबको याद किए बगैर भारत में साहित्य का उत्सव सही मायने में मनाया जा सकता है?  
शरद यादव
सवाल उठता है कि आयोजक किस तरह के साहित्य को इस तरह के उत्सवों से बढ़ावा दे रहे हैं? वह साहित्य देश को कौन-सी दिशा देगा? वह साहित्य उत्सव किस काम का, जिसमें साहित्य ही न हो, सिर्फ उत्सव ही उत्सव हो। अगर उत्सव ही मनाना हो, तो फिर उसके और भी तरीके हो सकते हैं, उसमें साहित्य को घसीटने की कोई जरूरत नहीं।

 

No comments:

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...