Saturday, 04 February 2012 10:07 |
शरद यादव जयपुर के इस उत्सव के दौरान एक सौ पचीस साहित्यिक सत्र हुए और उनमें से सौ सत्र तो अंग्रेजी साहित्य को ही समर्पित थे। अंग्रेजी हमारे देश के नगण्य लोगों की मातृभाषा है। देश के एक फीसद लोग भी अंग्रेजी बोल नहीं पाते हैं। अंग्रेजी साहित्य को समझना तो बिरले लोगों के लिए भारत में संभव होता होगा। फिर भी इस भारतीय उत्सव में अंग्रेजी छाई रही। इसे अंग्रेजी उत्सव कहना सही होगा। पर अगर अंग्रेजी साहित्य का ही उत्सव होना था, तो इसके लिए जगह जयपुर को क्यों चुना गया? अंग्रेजों के देश ब्रिटेन में इसका आयोजन होना चाहिए था। जाहिर है, यह साहित्यिक उत्सव भारतीय सहित्य का था ही नहीं। यह विदेशी साहित्य का उत्सव था। सलमान रुश्दी भी विदेशी साहित्य का ही सृजन करते हैं। वे भले भारत के हैं, लेकिन वे भारतीय भाषा के साहित्यकार नहीं हैं। वे अंग्रेजी में लिखते हैं और उनकी किताबें भी अंग्रेजों के लिए ही होती हैं, जिनमें वे वही लिखते हैं, जिसे अंग्रेज पसंद करते हैं। यही कारण है कि वे वैसी बातें भी लिख जाते हैं, जिनसे उनके अपने देश के लोगों को गुस्सा आता है और वे उनका चेहरा देखना भी पसंद नहीं करते। तो यह साहित्य उत्सव सलमान रुश्दी जैसे साहित्य सृजन करने वालों को समर्पित था। यही कारण है कि रुश्दी का इसमें भाग लेना या न लेना ज्यादा जरूरी था। पर सवाल उठता है कि अगर रुश्दी भारतीयों के लिए लिखते ही नहीं तो फिर वे भारत में आकर अपने साहित्य की चर्चा करने के लिए उतने व्यग्र क्यों थे? जयपुर का साहित्य उत्सव साहित्य को बढ़ावा देने के लिए था ही नहीं। वह तो बाजार को बढ़ावा देने के लिए था। यह स्वाभाविक भी था, क्योंकि उसके आयोजक बाजार से जुडेÞ हुए लोग भी थे। अगर उसका उद्देश्य साहित्यिक पुस्तकों के बाजार को बढ़ाना होता, तब भी ठीक रहता, लेकिन वह उसके लिए भी नहीं था। बाजार के लिए कोई घटना चाहिए और साहित्य का उत्सव एक घटना से ज्यादा कुछ हो ही नहीं सका। हमारे देश की अधिकतर भाषाओं के साहित्य की समृद्धि का कोई जोड़ नहीं है, लेकिन वहां देशी साहित्य से जुडेÞ लोग शायद थे ही नहीं। भारतीय भाषाओं के नाम पर जो लोग थे, वे साहित्य के लिए कम और कुछ अन्य कामों के लिए ज्यादा जाने जाते हैं। कोई फिल्मी दुनिया के लिए गाने लिखता है, लेकिन वह जयपुर उत्सव में साहित्यकार के रूप में पेश किया गया। फिल्मों के गाने भी साहित्य का हिस्सा हो सकते हैं। ऐसे अनेक गाने हैं, जिनसे हमारे साहित्य का सम्मान बढ़ा है, लेकिन आजकल जो गाने लिखे जा रहे हैं, वे कवियों के दिल से नहीं, बल्कि संगीतकारों की धुन से निकलते हैं। पहले संगीत की धुन बता दी जाती है और उस धुन पर रचना करने को कहा जाता है। वैसा गाना लिखने के लिए कवि का दिल नहीं, बल्कि तुकबंदी का दिमाग चाहिए। फिल्मी गानों के लिए जो तुकबंदी करते हैं उन्हें साहित्यकार मानना भूल है, लेकिन हिंदी के साहित्यकार के नाम पर उनकी ही जयपुर के साहित्य उत्सव में तूती बोल रही थी। जब तुकबंदी करने में माहिर लोगों को ही साहित्यकार माना जाएगा, तो फिर असली साहित्यकारों को भुलाना ही पडेÞगा। यही जयपुर के साहित्य उत्सव में भी देखा गया। उस उत्सव में कबीरदास कहीं नहीं थे। उसमें तुलसीदास भी नहीं थे और सूरदास भी गायब थे। यानी इन सब की कोई स्मृति या चर्चा वहां नहीं थी। अन्य अनेक भाषाओं के युग प्रवर्तक साहित्यकार भी इस समारोह से गायब थे। पुराने जमाने के कवियों और लेखकों की चर्चा की तो बात ही क्या, वहां आधुनिक युग के साहित्यकारों की भी सुध नहीं ली गई। जयशंकर प्रसाद को वहां कोई जगह नहीं मिली थी। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला वहां से गायब थे। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त भी नहीं थे और राष्ट्रकवि दिनकर का भी कहीं अता-पता नहीं था। फणीश्वरनाथ रेणु के वहां होने का तो सवाल ही नहीं था। क्या इन सबको याद किए बगैर भारत में साहित्य का उत्सव सही मायने में मनाया जा सकता है? शरद यादव सवाल उठता है कि आयोजक किस तरह के साहित्य को इस तरह के उत्सवों से बढ़ावा दे रहे हैं? वह साहित्य देश को कौन-सी दिशा देगा? वह साहित्य उत्सव किस काम का, जिसमें साहित्य ही न हो, सिर्फ उत्सव ही उत्सव हो। अगर उत्सव ही मनाना हो, तो फिर उसके और भी तरीके हो सकते हैं, उसमें साहित्य को घसीटने की कोई जरूरत नहीं।
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Friday, February 3, 2012
वहां भारत का साहित्य कहां था
वहां भारत का साहित्य कहां था
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