दलितों का मुद्दा उन्माद और पागलपन का मुद्दा बन गया है!
दलितों का मुद्दा उन्माद और पागलपन का मुद्दा बन गया है!
दलित विमर्श का दोहरा चरित्र और फासिस्ट चेहरा
♦ राकेश कुशवाहा
राकेश कुशवाहा नाम के सज्जन ने मोहल्ला के लिए यह क्रांतिकारी लेख भेजा है। क्रांतिकारी लेख – यह टर्म उन्हीं के मेल की भाषा से चुराया गया है। इसमें दलित अधिकारों और मुद्दों से जुड़ी मौजूदा बहस पर गुस्सा दिखाया गया है : मॉडरेटर
दलित विमर्श आजकल न्यूटन का सिद्धांत हो गया है जो हर चीज पर लागू किया जाने लगा है। सवर्ण जाति – दलित जाति, सवर्ण मीडिया – दलित मीडिया, सवर्ण देवता – दलित देवता, सवर्ण सब्जी – दलित सब्जी, सवर्ण टीवी – दलित फेसबुक … आगे नव दलित बुद्धिजीवी इस लिस्ट में और इजाफा करेंगे। दरअसल दलित विमर्श क्षेत्र ही ऐसा है। अठारह बीस साल घिस कर भी दूसरे क्षेत्रों में जिन्हें हजार लोग नहीं जानते, दलित विमर्श कर के दो साल के भीतर ही वे बुद्धिजीवी का तमगा पा जाते हैं, प्रतिष्ठा, सुविधा और पत्रं पुष्पं की तो खैर बात ही और है। इस दलित विमर्श ने अपना नये नये क्षेत्रों में विस्तार किया है। ओबीसीवाद इसका नया प्रोडक्ट है, जो बाजार में खूब चल रहा है। इतना कि एससी-एसटी राजनीति भी मंदी पड़ गयी है।
दोस्तों, अब समस्या ये है कि इस विमर्श ने हर किसी को उन्मादी होने का मौका दे दिया है। हिंदी वालों की तो खैर ये प्रवृत्तिगत विशेषता ही है। उन्हें बस मुद्दा मिलना चाहिए, बाकी चिल्लाने और शोर मचाने में उनका कोई सानी नहीं है। जिस तरह मार्क्सवाद उनके हाथ पड़ कर नमक की खान हो गया, वही हाल स्त्री और दलित प्रश्नों का भी हुआ है।
दलित विमर्श के नाम पर मुख्य रूप से ब्राह्मणों तथा अन्य सवर्ण जातियों को गाली देना, अपनी भड़ास निकालना और उन्माद का माहौल पैदा करना, यही सब हो रहा है। दलित चाहते हैं कि जातिवाद न हो, सवर्ण भी यही चाहते हैं। हर कोई कहता है कि जाति कोई मुद्दा ही न हो, इसे समाज के अवचेतन से मिटा दिया जाए। अगर ऐसा हो गया तो नौकरी से लेकर शिक्षा तक जो सुविधा की मलाई है, उससे दलितों का बड़ा वर्ग वंचित रह जाएगा। इसलिए ये लोग एक तरफ तो ये भी चाहते हैं कि जाति किसी की अस्मिता का आधार न बने, वहीं दूसरी ओर यह भी चाहते हैं कि जातीय अस्मिता के आधार पर इन्हें आरक्षण की सुविधा मिलती रहे। यह बड़ी अंतर्विरोधी स्थिति है। यह समाज में यह दिखाना चाहते हैं कि हम पिछड़े नहीं है, हम किसी से कम नहीं हैं। बहुत अच्छे, ऐसा होना भी चाहिए और ऐसा होना सराहनीय है। पर यही लोग फिर शिक्षा और नौकरी के समय पिछड़ेपन का मुलम्मा चढ़ा लेते हैं। इसे दोगलापन नहीं तो क्या कहा जाए।
दोस्तो याद कीजिए, पहले कितने ही क्षेत्र ऐसे थे, जहां आप जाति को नहीं गिनते थे, वहां जाति मायने नहीं रखती थी पर अब इस गलीज दलित उन्मादवाद ने हर जगह जाति को ला खड़ा किया है। कल को ये कहेंगे कि क्रिकेट टीम में इतने ही फीसदी दलित खिलाड़ी हैं, बीसीसीआई ब्राह्मणवादी और सवर्ण चरित्र की है। दलितों के शेयर गिरेंगे तो यह स्टॉक एक्सचेंज को गाली देंगे। फिल्मों को लेकर यह विश्लेषण तो फेसबुकिया दलित बुद्धिजीवियों ने पहले ही कर दिया था। (संदर्भ : आरक्षण)
असल में यह एक तरह का पैकेज बना कर करने वाला विमर्श हो गया है। जो मुद्दा फायदेमंद लगे उसे उठाओ, जो नहीं लगे उसे हटाओ। गौर कीजियेगा, पिछले एक साल में अनुसूचित जनजातियों की समस्याओं को लेकर कोई खबर, कोई मुद्दा, कोई फेसबुक कैम्पेन हुआ? नहीं। अनुसूचित जातियों के साथ भी यही स्थिति है। मुद्दा उठा सिर्फ ओबीसी का। बात यह है साथियों कि दलितों के बीच भी अलग वर्ण भेद कायम है। ओबीसी बुद्धिजीवी क्यों पिछड़ों के लिए लड़े? एक ऐसा सीमित क्षेत्र बन गया है, जहां से सचमुच पिछड़े लोगों को निकाल दिया गया है, शहरी मध्यवर्गीय सुविधाजीवी ओबीसी और दलितों के फायदे के लिए। उनकी सुविधाओं को बनाये रखने के लिए आंदोलन हो रहे हैं, विमर्श हो रहा है। ये वही लोग हैं, जो सरकारी नौकरियां पा गये हैं, संपन्न हैं और अब अपने बच्चों के लिए भी वही सुविधाएं चाहते हैं। यह वो लोग नहीं हैं, जो मेहनत करते हैं, पिछड़े इलाकों में रहते हैं। दलितों की लड़ाई दिल्ली में बैठे प्रोफेसरों, लेखकों, पत्रकारों, अफसरों, नेताओं की लड़ाई है। ये लोग आदिवासी, पिछड़े, दलित का नारा लगते हैं और खुद सवर्ण गठजोड़ से सत्ता हथियाने कि फिराक में रहते हैं।
मायावती की सोशल इंजीनियरिंग पर कोई दलित विमर्शकार बात नहीं करता। ब्रह्मण-दलित गठजोड़ करने का कौन सा आधार है, यह मायावती और बसपा समर्थक बुद्धिजीवी जरा बताएं? ये वही बुद्धिजीवी हैं, जो खुद को प्रगतिशील कहते हैं और ब्राह्मणों सवर्णों के खिलाफ आग उगलते हैं। वे वर्ण व्यवस्था को गाली नहीं देते, सीधे उस जाति के व्यक्ति को गाली देते हैं। यह कौन सी प्रगतिशीलता है? यह तो वही बर्बर तरीका है कि तुम्हारे पुरखों ने हमें सताया तो अब हम तुम्हें उतना ही सताएंगे। इसमें संघियों की उस विचारधारा से अंतर कहां हैं, जिसके तहत वो मुसलमानों को भारतीय संस्कृति का नाशक मानते हैं और उनसे आज भी बदला ले रहे हैं। दलित विमर्श भी नये तरह के फासीवाद को जन्म दे रहा है। यह जोर जबरदस्ती पर उतारू मानसिकता है, जहां किसी का सवर्ण उपनाम ही उसे कुटिल, जातिवादी साबित करने के लिए काफी है। यह ऐसा समय है कि कोई सवर्ण अपना कलेजा भी काट दे, तो इन्हें विश्वास नहीं होगा कि वो जातिवादी नहीं है।
हमारे प्रमुख दलित विमर्शकार और फेसबुक आंदोलनकर्ता दिलीप मंडल जो कि हमेशा इस बात का रोना रोते हैं कि मीडिया में सवर्ण वर्चस्व है तो भाई आप उस मीडिया में कैसे आ गये? आपको किसने मौका दे दिया? और आने के बाद आपने कितने दलितों का उद्धार कर दिया? उस पर से एक ब्रह्मण स्त्री से आपने विवाह भी किया और वह स्त्री अब आपका उपनाम भी जोड़ती है। यह कैसी प्रगतिशीलता है, जहां दलित अस्मिता की रक्षा हो और स्त्री अस्मिता का हनन। खैर यह तो एक व्यक्तिगत बात है, जो यहां सिर्फ नव दलित विमर्शकारों के भीतर का विरोधाभास दिखाने के लिए की गयी है।
दलित हो या सवर्ण, मीडिया एक बाजार है और वहां जाति कुछ नहीं कर सकती। बहुत सारे दलित तो हैं मीडिया में, क्यों नहीं उठाते मुद्दा दलितों का? आदरणीय मायावती जी का अखबार है जनसंदेश आइम्स, क्यों उन्होंने सवर्णों को उसमें रखा है? उसमें क्यों नहीं दलित प्रश्न उठाया जाता? यह सब परदे में ढंक कर रखा जाता है।
जेएनयू में हिंदी के अध्यापक गंगा सहाय मीणा पर यौन शोषण का आरोप है, लेकिन इस मुद्दे को दबा दिया गया। यही आरोप किसी दलित लड़की ने किसी सवर्ण पर लगाया होता, तो जेएनयू में आग लगा देते ये लोग। मीडिया में प्रचार किया जाता, मगर इस मुद्दे दलित बुद्धिजीवी चुप हैं।
जहां तक मायावती राज की बात है, वो बाकी लोगों से क्या अलग है। इन्होंने भी जम कर पैसा खाया, बाकियों ने भी खाया था।
दलित बार-बार सामाजिक न्याय की बात करते हैं। आरक्षण सामाजिक न्याय पर पहला प्रहार है। समाज में जाति के आधार पर सबको बराबर समझा जाए, जाति कोई आधार ही न हो, यह वे चाहते ही नहीं। यह कड़वा सच है कि आरक्षण की वजह से कम योग्यता वाले लोग भी शिक्षा और नौकरी पा रहे हैं, पर दिक्कत ये है कि ये सचमुच पिछड़े नहीं हैं। ये शहर में रह रहे हैं, किसी बड़े अफसर के बच्चे हैं। जो पिछड़े हैं, वो अभी भी पिछड़े ही हैं। क्योंकि पिछड़ी और अविकसित जगहों पर हर जाति की वही स्थिति है।
फिलहाल स्थिति यह है कि दलितों का मुद्दा उन्माद और पागलपन का मुद्दा बन गया है। दलितों पर बात करना किसी गैर दलित के लिए मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डालने जैसा हो गया है। दलितों द्वारा पिछड़ा आयोग में शिकायत का भय दिख कर शोषण किये जाने की बात किसी से छिपी नहीं है। इस पूरी दलित राजनीति का लब्बो लुआब सत्ता पाने तक सीमित है। दलित एक ऐसा ट्रंप कार्ड है, जो राजनीति में हर कीमत पर चलेगा और चल रहा है। ये गुंडागर्दी वाली राजनीति से ज्यादा सुरक्षित और आसान रास्ता है। निजी क्षेत्रों में आरक्षण की मांग से समझा जा सकता है कि इस विमर्श और आंदोलन का इरादा दूर दूर तक जातीय समानता लाने का नहीं है।
आज दलित प्रश्न उठ तो रहा है, पर वो प्रतिक्रियावादी होता जा रहा है, फासिस्ट होता जा रहा है। सच तो यह है कि हर जाति के भीतर वर्ण व्यवस्था कायम है। बढ़ई खुद को चमार से श्रेष्ठ समझता है और चमार डोम को अछूत मानता है। जय भीम का नारा, कबीरपंथ की जड़ता, बौद्ध लोगों का कर्मकांड, दलित भी तो आखिर उसी रास्ते पर चल रहे हैं। सिर्फ ब्राह्मन ठाकुरों को गालियां देकर भड़ास जितनी निकाली जाए, सामाजिक न्याय लाने के सपने देखना बेमानी है। उसके लिए इस व्यवस्था को खत्म करना होगा, जो कि दलित बुद्धिजीवी कभी होने नहीं देंगे। जातिवाद का जिंदा रहना ही उनकी दुकान भी खुली रखेगा। इसलिए दलितों को उदार और प्रगतिशील मानसिकता की सोच देने के बजाय वे संघियों जैसी एकतरफा और उन्मादी सोच दे रहे हैं।
पिछले कुछ समय के दलित विमर्श (खास कर वेब जैसे माध्यमों पर) ने एक नयी तरह कि मानसिकता को जन्म दिया है, जहां जातिवाद से नफरत करने के बदले जाति विशेष के लोगों से ही नफरत करना सिखाया जा रहा है। यह स्थिति जातियों के जिस संघर्ष को जन्म देगी, उसमें सवर्ण जातियां दोबारा अपनी श्रेष्ठता के बोध और सामाजिक-सांस्कृतिक पूंजी के साथ खड़ी होंगी और दलित जातियां उसे नकारते हुए, सुविधाओं के सहारे जंग जीत कर भी हार जाने वाली स्थिति का सामना करेंगी। यह नफरत के बीज जो अभी दोबारा बोये और उगाये जा रहे हैं, आगे चल कर कट्टर वर्णवादी समाज में हमें रहने को मजबूर करेंगे।
(राकेश कुशवाहा। जामिया मिल्लिया से मास कॉम की पढाई। फिलहाल स्वतंत्र लेखन और अनुवाद का काम। उनसे rakesh.kushwaha296@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)
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