एन.जी.ओ. से मुक्त होना चाहते हैं मनरेगाकर्मी
लेखक : नैनीताल समाचार :: अंक: 08 || 01 दिसंबर से 14 दिसंबर 2011:: वर्ष :: 35 :December 31, 2011 पर प्रकाशित
http://www.nainitalsamachar.in/mnarega-workers-and-ngo-problem/
एन.जी.ओ. से मुक्त होना चाहते हैं मनरेगाकर्मी
लेखक : नैनीताल समाचार :: अंक: 08 || 01 दिसंबर से 14 दिसंबर 2011:: वर्ष :: 35 :December 31, 2011 पर प्रकाशित
प्रवीन भट्ट
मनरेगा कर्मचारियों का आन्दोलन दो महीनों से जारी है। जब पूरे प्रदेश के लोग उल्लास से दीपावली मना रहे थे, उस समय भी मनरेगाकर्मी विधानसभा के सामने लगे टैंट के नीचे डटे हुए थे। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के नाम से चलाई जा रही इस योजना को देश की सबसे बड़ी रोजगार योजना बताया जाता है, लेकिन इस योजना के क्रियान्वयन की जिम्मेदारी उठाने वाले कर्मचारियों के रोजगार की ही कोई गारंटी नहीं है। सरकार ने उन्हें सीधे नियुक्ति देने के बजाय एनजीओ के जरिए नियुक्त किया है। इन बिचैलिओं के उत्पीड़न से परेशान मनरेगाकर्मी अब हर हाल में चाहते हैं कि सरकार उन्हें सीधे संविदा के आधार पर नियुक्त करे।
उत्तराखंड में मनरेगाकर्मियों के कुल 2641 पद सृजित हैं। इनमें से पचास प्रतिशत पदों पर भी कर्मचारी नियुक्त नहीं किए गए हैं। पूरी परियोजना केवल 1124 कर्मचारियों के सहारे ही चल रही है, जिनमें 800 रोजगार सेवक, 230 जूनियर इंजीनियर व 94 कम्प्यूटर आपरेटर हैं। इन नियुक्तियों के लिये सरकार ने छह एनजीओ से करार कर उन्हें जिम्मेदारी सौंपी थी। सरकार की गंभीरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि देहरादून जिले में एक भी रोजगार सेवक नियुक्त नहीं है। मनरेगा परियोजना के ड्राफ्ट में कर्मचारियों की नियुक्ति के संबंध में लिखा गया है कि राज्य सरकार संविदा में या सेवा प्रदाता संस्था के माध्यम से कर्मचारियों की नियुक्ति कर सकती है। मनरेगाकर्मी सवाल उठा रहे हैं कि जब अधिनियम के मुताबिक राज्य सरकार स्वयं नियुक्तियाँ कर सकती थी तो उसने एनजीओ का विकल्प क्यों चुना ? उनका आरोप है कि एनजीओ केवल कर्मचारियों की उपस्थिति का ब्यौरा सीडीओ और जिलाधिकारी तक पहुँचाते हैं, जिसके आधार पर उनका वेतन एनजीओ को दिया जाता है। सरकार एनजीओ को वेतन का पाँच से आठ प्रतिशत कमीशन देती है। इसके बावजूद ये छहों एनजीओ कर्मचारियों के शोषण में कोई कोरकसर नहीं छोड़ रहे हैं। सरकार से वेतन हर महीने जारी हो जाता है, लेकिन एनजीओ कर्मचारियों को कई-कई महीनों तक वेतन नहीं देते। उत्तराखंड मनरेगा कर्मचारी संगठन के कोषाध्यक्ष सुन्दरमणि सेमवाल का कहना है कि इस तरह वेतन रोककर वे अपने खातों में ब्याज बना लेते हैं। इन स्वयंसेवी संस्थाओं ने भविष्यनिधि खातों में भी गोलमाल किया है। पड़ताल करने पर पौड़ी, टिहरी, उत्तरकाशी, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़ सहित तमाम जिलों में सैकड़ों भविष्यनिधि खाते फर्जी पाए गये हैं। जो रकम जमा भी की गई है वह भविष्यनिधि के लिये निर्धारित वेतन के 12 प्रतिशत के हिसाब से बेहद कम है। कीर्तिनगर विकासखंड में ग्राम रोजगार सेवक के पद पर 2008 से काम कर रहे राजेश सिंह जयाड़ा के नाम से भविष्य निधि का खाता संख्या यूके 34109/438 खोला तो गया है, लेकिन उसमें कोई रकम जमा नहीं कराई गई। टिहरी के थौलधार विकासखंड में 2007 से काम कर रहे उत्तम सिंह भंडारी का खाता संख्या यूके/डीडीएन/34109/58 खोला तो गया, लेकिन कुछ समय बाद इसमें रकम जमा करना बंद कर दिया गया। उत्तरकाशी के मनरेगाकर्मियों के 86 खोले गये खातों में से केवल छह में ही पैसा ट्रांस्फर किया गया है। बाकी खातों को संस्था ने 4 साल बाद भी निल छोड़ दिया है। कई स्थानों पर चार साल पहले ही संस्थाओं ने भविष्य निधि के खाते खुलवा लिये मगर उनके खाते में कभी कोई रकम जमा नहीं करवाई। जब संस्थाओं का यह शोषण और विरोध करने पर कर्मचारियों को बाहर करने तक उत्पीड़न होने लगा, तब कर्मचारियों ने देहरादून में आंदोलन शुरू किया और अपने भविष्य निधि खातों का हिसाब-किताब भी निकाला। तब जाकर यह घोटाला सार्वजनिक हो पाया। संस्थाओं ने अपने खिलाफ बन रही हवा शांत करने के लिये उत्तरकाशी में 12 व रुद्रप्रयाग में 41 ग्राम सेवकों को हटा दिया, मगर आक्रोशित मनरेगाकर्मियों ने उल्टे विधानसभा के सामने आंदोलन शुरू कर दिया।
5 सितम्बर से धरने और 11 सितम्बर से भूख हड़ताल शुरू होने के बाद सरकार ने कई बार मनरेगाकर्मियों को आश्वासन पकड़ाये, लेकिन अब तक कोई ठोस बात नहीं बन पाई है। हफ्ता भर तक चली भूख हड़ताल के बाद राज्यसभा सांसद भगत सिंह कोश्यारी ने आंदोलन स्थल पर पहुँचकर तीन दिनों के भीतर शासकीय संविदा पर नियुक्ति की घोषणा कर आन्दोलनकारियों की भूख हड़ताल समाप्त करवाई। लेकिन इस घोषणा के छलावा साबित होने से मनरेगाकर्मियों का धीरज जवाब दे गया। 22 सितम्बर को तीन लोग, संदीप भंडारी, नवीन नेगी और बृजमोहन नेगी विधानसभा के निकट दूरदर्शन के टावर पर चढ़ गये और 24 सितम्बर की रात 9.30 बजे तब तक नहीं उतरे जब तक कि ग्राम्य विकास मंत्री विजया बड़थ्वाल ने आकर त्वरित कार्रवाही का लिखित आश्वासन नहीं दे दिया। अब मंत्री के लिखित आश्वासन को भी एक महीने से अधिक बीत गया है। इसी दौरान 21 सितम्बर को एक मनरेगाकर्मी की जौलीग्रांट के हिमालयन अस्पताल में मौत भी हो गई, जो कि आंदोलन के दौरान हुए सचिवालय कूच के बीमार होने के कारण वहाँ भर्ती था।
28 सितम्बर को मनरेगाकर्मियों ने मुख्यमंत्री और मुख्यसचिव से भी मुलाकात की। वहाँ से भी उन्हें कोरा आश्वासन ही मिला। 27 से 29 सितम्बर तक चले विधानसभा सत्र के दौरान भी इस मामले में कोई निर्णय नहीं लिया जा सका। 29 सितम्बर को विधानसभा सत्र के दौरान प्रदर्शन करने पर 114 मनरेगाकर्मियों को गिरफ्तार कर चार दिनों तक जेल में रखा गया। महात्मा गांधी के नाम से चल रही इस योजना को चलाने वाले कर्मचारियों ने राष्ट्रपिता की जयंती जेल में मनाई। 2 अक्टूबर की देर शाम उन्हें रिहा किया गया। 13 अक्टूबर को आन्दोलनकारियों ने फिर सचिवालय कूच किया। काग्रेस नेता व पूर्व मंत्री मंत्रीप्रसाद नैथानी व कांग्रेस विधायक दिनेश अग्रवाल ने प्रदर्शन में शामिल होकर सरकार को खूब खरी-खोटी सुनाई।
उत्तराखंड मनरेगा कर्मचारी संगठन के प्रदेश महामंत्री राजेन्द्र प्रसाद नौटियाल का कहना है कि 5 साल काम करने के बाद भी हमारा भविष्य असुरक्षित है। यूपी, राजस्थान, बिहार, पश्चिम बंगाल व हिमांचल में मनरेगाकर्मियों की संविदा के आधार पर नियुक्ति की जा चुकी है। उत्तराखंड में रोजगार सेवक को 4500, जेई को 9000 व कम्प्यूटर आपरेटर को 8000 वेतन ही मिल रहा है, जबकि अन्य राज्यों में इन्हीं पदो के लिए दस से पन्द्रह हजार वेतन दिया जा रहा है। यहाँ भारी धनराशि कमीशन के रूप में संस्थाओं की जेब में भी जा रही है। इन संस्थाओं ने नियुक्ति के समय 5,000 से 10,000 रुपये तक सिक्युरिटी के रूप में भी जमा करा रखे हैं।
उधर सचिव ग्राम्य विकास ओमप्रकाश का कहना है कि जल्दी ही मनरेगा कर्मचारियों को संविदा के आधार पर नियुक्त कर दिया जाएगा। सरकार इस दुविधा में है कि इन्हें डी.आर.डी.ए. के साथ जोड़ा जाये या जिला पंचायत के साथ। 2 नवम्बर को मनरेगा योजना पर होने वाली बैठक में इस बारे में विचार किया जाएगा।
इस आंदोलन का असर मनरेगा के क्रियान्वयन पर भी पड़ रहा है। कुल आबंटित 379.47 करोड़ में से इस वर्ष योजना के तहत केवल 106.09 करोड़ रुपये ही अब तक खर्च हो पाए हैं। इस बात की संभावना कम ही है कि वित्तीय वर्ष समाप्त होने तक इस बजट का पूरा उपयोग हो पाएगा। अकेले देहरादून जनपद की स्थिति यह है कि आबंटित कुल 30 करोड़ में से केवल 13 करोड़ ही योजना के तहत खर्च हो पाए हैं। राज्य में पाँच हजार से अधिक जाॅब कार्ड आवेदन के बाद भी नहीं बन पाए हैं। इनमें से 2,346 आवेदन अकेले देहरादून के हैं। जिन जिलों में रोजगार सेवकों की नियुक्ति नहीं हुई है, वहाँ आर्थिक अनिमितताएँ भी अधिक हो रही हैं और योजना लक्ष्य से पीछे भी चल रही है। देहरादून में योजना ग्राम विकास अधिकारियों के हवाले है और जेब भरने का साधन बनी हुई है।
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