ये तमाम गैर सरकारी संस्थायें कर क्या रही हैं ?
ये तमाम गैर सरकारी संस्थायें कर क्या रही हैं ?
लेखक : हरीश जोशी :: अंक: 08 || 01 दिसंबर से 14 दिसंबर 2009:: वर्ष :: 33 :December 9, 2009 पर प्रकाशित
जनता को लूट खाने के लिये माफियाओं, राजनेताओं, नौकरशाहों और मीडिया से भी अधिक कारगर एक और अघोषित क्षेत्र है, गैर सरकारी संगठनों का, जो इस नवोदित राज्य की अर्थव्यवस्था को दीमक की तरह चट कर रहा है और समाज सुधार की मूल स्वयंसेवी भावना के उलट भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे रहा है। एक मोटे अनुमान के अनुसार उत्तराखण्ड में प्रत्यक्षतः सरकारी, देशी व विदेशी अनुदान से काम करने वाले एन.जी.ओ. की संख्या 15 हजार से अधिक है। फिलहाल हम उन्हीं का जिक्र कर रहे हैं, जो समाज सेवा के नाम पर दान-अनुदान लेकर कॉरपोरेट व्यवसायियों जैसे बन बैठे हैं।
स्वैच्छिक संगठनों की आवश्यकता द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान और इसके बाद उपजी अमानवीय परिस्थितियों के बीच परस्पर सुरक्षा की भावना का संदेश संचारित करने के लिए पड़ी थी, जिसके परिणामस्वरूप यू.एन.ओ. और यूनिसेफ जैसे संगठन अस्तित्व में आये। विश्व युद्ध के बाद अमन-चैन बनाने में इन संगठनों की खासी भूमिका रही। भारत की आजादी के तीन दशक बाद तक भी स्वैच्छिक सेवा का यह क्षेत्र वास्तव में जन कल्याण के लिए समर्पित बना रहा, परन्तु पर्याप्त साधन संसाधनों की उपलब्धता के बाद वी.ओ. (वॉलेन्ट्री ऑर्गनाइजेशन्स) का स्थान एन.जी.ओ. (नॉन गवर्नमेंटल आर्गनाइजेशंस) ने ले लिया। अब वी.ओ. दौर के झोला लटका कर चना-मिश्री चबाते हुए गाँव-गाँव जाने वाले कार्यकर्ताओं की बजाय एक्जेक्यूटिव क्लास किस्म के अधिकारी नजर आने लगे। वर्तमान में तो एन.जी.ओ. एक तरह का कॉरपोरेट उद्योग बन गया है।
कुछ समय पूर्व तक एन.जीओ. के भीतर भ्रष्टाचार के लिए बिहार का उदाहरण दिया जाता था, परन्तु अब उत्तराखण्ड में इन संस्थाओं ने सभी सीमाओं को पार कर दिया है। सामान्यतया एनजीओ से अपेक्षा की जाती है कि वह वंचित समुदाय और विकास प्रदाता संस्थानों के बीच संवाद सेतु बनने का काम करे। परन्तु उत्तराखण्ड में ऐसा नहीं हो रहा है। यहाँ एनजीओ का मतलब है, तथाकथित विकास की धनराशि में अपना हिस्सा निकाल कर गाड़ी-बंगले के साथ ऐशोआराम की जिन्दगी बसर करो। जन समुदाय है कि वह विकास के नाम पर ठगा जाता रहेगा, कभी सरकारी विभागों के द्वारा तो कभी एनजीओज के द्वारा। सिर्फ और सिर्फ पैसा कमाने के लिए गठित इन संस्थाओं से जनता की एडवोकेसी और उसके मुद्दों पर लॉबिंग की क्या उम्मीद की जा सकती है जिन्हें अपने गठन और पंजीयन के दौर से ही सरकारी भ्रष्टाचार की घुट्टी पिलाई जा रही है ?
उत्तराखण्ड बनने से पूर्व यहां संस्थाओं के पंजीकरण हेतु मात्र दो कार्यालय उप निबंधक स्तर के देहरादून और हल्द्वानी में काम करते थे, जिनमें पंजीकरण के नाम पर भ्रष्टाचार की यदाकदा चर्चाएं होती थीं। राज्य बनने के बाद यह ग्राफ बहुत बड़ा हो गया है। उसने तथाकथित सुविधा के नाम पर संस्थाओं के पंजीकरण का जिम्मा जिलों में स्थापित कोषागार कार्यालयों को दे दिया। कोषागार, अर्थात् जहाँ पूरे समय बातचीत कोष और वित्त की होती है। वहाँ संस्थाओं के पंजीकरण के लिए वित्त (वैध और अवैध) को कैसे अलग करके देखा जा सकता है। परन्तु लानत है कि समाज बदल देने का झूठा दम्भ भरने वाली संस्थाओं के बीच से कभी भी इस बुनियादी भ्रष्टाचार के विरोध में कोई आवाज नहीं आई। एक संस्था के पंजीकरण कराने में रुपया पाँच हजार की राजकोषीय (वैध) शुल्क के अतिरिक्त लगभग दस हजार का (अवैध) खर्च हो रहा है, जिसे संस्थाएँ खुशी-खुशी उठा रही हैं। पंजीकरण के साथ ही लेन-देन की इतिश्री नहीं हो जाती। संस्थाओं के लिए बाध्यता है कि वह अपने ऑडिट व कार्यवाहियों का विवरण इन कोषागारों में मुहैया करायेंगी। पता चला है कि बिना गैर सरकारी भेंट के ये कार्यालय कोई भी कागज नहीं लेते हैं। ऐसे में विकास की क्या उम्मीद की जा सकती है ? शर्म की बात तो यह है कि दशकों पुरानी गांधी दर्शन की संस्थायें भी भ्रष्टाचार की इस गंगा में गोते लगाते दिखाई देती हैं। इस एन.जी.ओ. जगत ने यदि राज्य के हितचिन्तको की पेशानी पर बल डाल दिये हैं, तो इसके कोई दूरगामी मायने हैं।
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