खुदा खैर करे इन चुनावों से
लेखक : शंम्भू राणा :: :: वर्ष :: :February 22, 2012 पर प्रकाशित
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खुदा खैर करे इन चुनावों से
लेखक : शंम्भू राणा :: :: वर्ष :: :February 22, 2012 पर प्रकाशित
लीजिए साहब विधानसभा चुनाव निपट गए। बला टली। सरदर्द दूर हुआ। आदमी का घर में रहना मुश्किल हो रखा था महीने भर से। दो घड़ी चैन से बिताना कठिन हो गया था। दिन भर भावी विधायकों, उनके समर्थकों को सहयोग और आशीर्वाद देते-देते आदमी शाम होते-होते थकान महसूस करने लगा था। चुनाव-चिन्ह सपनों में आने लगे थे।
शनिदान लेने वाले के खप्पर में तेल डालकर आदमी ज्यों ही अन्दर पहुँचा तो पता चला कि दरवाजे पर वोट माँगने वाले आ पहुँचे हैं। वह झुँझलाता है, मगर चेहरे पर नकली हँसी चिपकाए बाहर निकलता है- अरे भाई साहब ये भी कोई कहने की बात है भला! मतलब आपको हम पर विश्वास नहीं। हें-हें… हम तो आपके खानदानी वोटर हैं। आपको इधर आने की फॉरमेलिटी करने की क्या जरूरत थी। हाँ, आप भी ठीक ही कह रहे हैं। सबकी जमानत जब्त करवा देनी है इस बार आपने। मेरी ओर से तो आप एडवांस में बधाई स्वीकार कीजिए। मेरी मानिए मिठाई का ऑर्डर दे दीजिए……बैठिए चाय….जी…..जी…. हाँ, मैं आता हूँ…. कभी कार्यालय में…..। कुछ इस तरह उम्मीदवार को उल्लू बनाकर अंदर आता है तो पाता है कि चूल्हे में रखा दूध आधे से ज्यादा उबाल जा चुका है। अब आदमी गुस्से में सच बोलता है- दूँगा कुत्ते वोट रुक! दो-चार और कटवाउँगा। इस साले के कारण नुकसान हो गया। होली के दिन देवर आसानी से टल जाता है, मगर चौखट पर खड़ा उम्मीदवार भाभीजी का आशीर्वाद लिए बिना क्या मजाल कि टल जाए। इस दौरान भाभीजी की सब्जी तले लग जाती है या ऐसा ही कुछ और हो जाता है। पोस्टर-पैम्फलेटों की दो-चार किलो रद्दी हर घर में जमा हो गई है। चुनाव निपट गए। लोग राहत महसूस कर रहे हैं। मगर यह राहत 'आरजी' है। असली आफत आने वाली है जो जनता की छाती में पाँच साल मूँग दलेगी।
वोटिंग तो हो गई। नतीजा आना बाकी है। जो कि इस बार जरा देर से आएगा। दसवीं-बारहवीं के इम्तहानों के नतीजों की तरह। इस बीच उम्मीदवार पर्चे से अपने जवाब मिला रहे हैं- अरे यार धत्तेरे की, फलाँ को तो बोतल भिजवाना ही भूल गए! एक नम्बर कटा। खैर चलो, दीर्घ उत्तरीय प्रश्न सही हुआ। उधर पूरे गाँव को छः पेटी शराब और दस हजार रुपये भिजवा दिए थे। दस में से आठ नम्बर तो तब भी मिलेंगे। और निबन्धात्मक सवाल तो सभी ठीक रहे- वह पूरा इलाका ही अपना है। ज्यादातर अपनी ही जाति के लोग। पन्द्रह जगहों में बकरे कटे। पैसा पहुँचा ही दिया था। लोग खाली बोतलों को गिन कर कह रहे थे कि इन्हें बेच कर एक पेटी दारू की आ सकती है। सारी वोटें अपनी हैं।
हमें यह तो पता है कि दूसरे विश्व युद्ध में कितनी जानें गईं। मगर इस बात का आँकड़ा किसी के भी पास नहीं कि हर चुनाव में कितने बकरे शहीद होते हैं और कितने मुर्गे (परोसते समय मुर्गियाँ भी मुर्गा ही कही जाती हैं) अपने प्राण न्यौछावर कर देते हैं। इनका जिक्र कभी कोई नहीं करता। ये बुनियाद के पत्थर हैं। लोग सिर्फ टाइल्स देखते हैं। हर बार इलेक्शन के बाद इस बात पर यमराज कार्यालय में गोदाम इंचार्ज की नौकरी पर बन आती है। उसे जवाब देते नहीं बनता, जब ऑडिटर कहता है कि इतना बड़ा घपला! आपके पास इतने लाख प्राणियों का हिसाब ही नहीं है ? कहाँ और कैसे एडजस्ट करूँ इस फिगर को ?
अपने चुनाव कार्यालय में हवाली-मवालियों से घिरा हर उम्मीदवार फिलहाल विधायक है। बाहर से दिखने में फूल के कुप्पा है पर भीतर से सूख के छुआरा। न जाने क्या होने वाला है ? ठीक-ठीक किसी को पता नहीं। सभी के सर पर तलवार लटक रही है। लेकिन दिखावा करना भी लाजमी है। सभी ने शपथ ग्रहण समारोह के लिए सूट का नाप दे दिया होगा। और सोच रहे होंगे कि शपथ किसकी लें। ईश्वर की ? सत्यनिष्ठा की या कि शुद्ध अन्तःकरण की ? तीनों लापता हैं। कोई इनकी गुमशुदगी की रिपोर्ट नहीं लिखवाता, ताकि इनके नाम पर हलफ उठाते समय आवाज न थर्राए….नजरें न झुकें।
'बशर राजे-दिल कह कर जलील-ओ-खार होता है, निकल जाती है जब खुशबू तो गुल बेकार होता है।' मेरा अनुमान है कि शायर ने यह शेर वोट देने के बाद मतदान केन्द्र से बाहर निकलते हुए कहा होगा। वोट देने के बाद मतदाता रक्तदान के बाद की सी थकावट महसूस करता है। लगता है जैसे अपनी गाँठ से कुछ खो गया। मतदाता मधुमक्खी की तरह होता है। वह पाँच साल वोट रूपी शहद बनाता है। उम्मीदवार दारू, कुछ पैसों और झूठे आश्वासनों का धुँआ लगा कर शहद का छत्ता ले भागता है।
वोटरों के पेट इन दिनों मिलावटी शराब पीने से खराब चल रहे हैं। कुछों को हाथ-पाँव में टूटन की शिकायत है। महीना भर मटन-चिकन छकने के बाद कइयों को रोटी-सब्जी निगलने में दिक्कत महसूस हो रही है। कइयों का मन काम पर जाने का नहीं हो रहा। घर में दाना नहीं। इस बीच मुफ्तखोरी की लत लग गई है। मिलावटी शराब से बदन में जान नहीं रही। चहल-पहल खत्म। एकदम वीरानी-सी छा गई है। जैसे अभी-अभी लड़की विदा हुई हो।
उधर ठेकेदार लॉबी अलग परेशान है कि इसके इलेक्शन में पैसा तो हमने इतना लगा दिया पर रिपोर्टें कुछ अच्छी नहीं आ रहीं। क्या होगा अगर ये हार गया तो ? हम तो रातों-रात ठेकेदार से किटकनदार हो जाएंगे। घर चलाने लायक काम तो मिल जाएगा पर अय्याशियों का क्या होगा ?
उधर शराब व्यवसायी प्रत्याशियों द्वारा दी गई पर्चियाँ छाँटकर अलग- अलग चट्टा बनाने में व्यस्त हैं। सबको बिल देना है। करोड़ों का हिसाब है। हर उम्मीदवार के नाम लाखों का बिल बनना है। नतीजा आने से पहले वसूली कर लेना ठीक रहेगा। हारे उम्मीदवारों से वसूली में दिक्कत आ सकती है। चुनाव के दौरान वाइन शॉप एटीएम मशीन की तरह भी काम करती है।प्रत्याशी द्वारा दी गई पर्ची खिड़की के अन्दर डालिए, बोतल बाहर आ जाती है। गुप्त कोड नम्बर, खाते का प्रकार इत्यादि सब पर्ची में दर्ज होता है। चुनाव आयोग के छापामार दस्ते आती-जाती गाडि़यों की तलाशी लेते फिर रहे हैं कि कहीं वोटरों के लिए शराब तो नहीं ले जाई जा रही। आप भी कमाल करते हैं। आपने नेताजी को निरा बेवकूफ समझ लिया कि वो मुफ्त शराब की पेटियाँ गाड़ी में ढोएँगे। आपने इस देश के मतदाता को आखिर समझ क्या रखा है ? वह अपने हिस्से की शराब खुद ढोने में सक्षम है।
इस बार का जाड़ा कुछ विशेष था। इस बात से सभी सहमत हैं। ठीक इसी तरह इस बात से भी सब सहमत होंगे कि ऐसा घटिया, घिनौना और भविष्य की डरावनी तस्वीर खींचने वाला चुनाव प्रचार इससे पहले देखने-सुनने में नहीं आया। मतदाताओं को रिझाने के लिए ऐसे-ऐसे तौर तरीके ईजाद और इस्तेमाल किए गए कि कल्पना से बाहर। पैसा इस कदर खर्च किया गया कि अनुमान लगाना मुश्किल। शराब इतली बही कि पीने वाला संयमी न हुआ तो जरा देर में चौपाया बन जाए। बल्कि बनते हुए देखे भी। कितनी शराब इस इलेक्शन में बही होगी इस बात का अंदाज इस बात से लगाइए। पिछले कई सालों से मेरा नाम मतदाता सूची में नहीं है। मेरा वोटर पहचान-पत्र भी कभी नहीं बना। किसी सांसद-विधायक को व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता। किसी राजनैतिक पार्टी से कभी नाता नहीं रहा। सामाजिक दायरा बेहद सीमित। अपने ही खोल में सिमटा रहने वाला। शकल-सूरत से अकसर बिहारी समझ लिया जाता हूँ तो कभी-कभी बंगाली भी जो कि उत्तराखंड में वोट नहीं दे सकते। बावजूद इतनी अयोग्यताओं के, एक बोतल भटकती हुई मुझ तक भी पहुँच गई। जैसे कटी पतंग टप से आँगन में आ गिरे। किस दल या प्रत्याशी की पतंग हवा मुझ तक ले आई, ये बता के कोई फायदा नहीं। इससे हवा की किरकिरी होगी। वो वफा करें, मैं बदले में जफा करूँ, कतई नहीं। इतना बेवकूफ और नाशुक्रा नहीं हूँ। लोकसभा चुनाव आने वाले हैं। तब पतंगें नहीं उड़ेंगी? वोटर को प्रभावित करने के तौर-तरीके सभी के एक जैसे होते हैं। दल या प्रत्याशी चाहे जो हों। बागी हों या निर्दलीय। जो उम्मीदवार दारू नहीं पिलाएगा, नोट खर्च नहीं करेगा, महिलाओं को शॉल-साड़ी नहीं बाँटेगा, उसकी जमानत जब्त हो जाएगी। ऐसा उम्मीदवार अपनी अच्छाइयों, खूबियों, योग्यता और ईमानदारी का मिक्स अचार डाल ले! अच्छा होता है।
चुनाव जीतने या ढंग से लड़ने के लिए अकूत दौलत चाहिए जो कि ईमानदारी से शर्तिया नहीं कमाई जा सकती है। सिर्फ दौलत भी काफी नहीं, छल-प्रपंच की कला भी जानना जरूरी है। जाति-धर्म के नाम पर भी वोटरों को तोड़ना-जोड़ना आना लाजमी है। और सबसे बड़ी बात कि आपको हृदयहीन होना पड़ेगा।
लोग अपने बाप के वार्षिक श्राद्ध में शराब पिलाने लगे हैं। चुनाव तो फिर चुनाव हैं। यह कोई नई बात नहीं। लेकिन जितनी शराब इस बार खपी वह बहुत ज्यादा थी। पैसा भी खूब बँटा जैसे पुराने राजे-रजवाड़े किसी खास मौके पर प्रजा के बीच अशर्फियाँ लुटा देते थे। खुल कर जातिवाद चला। ठाकुरवादियों का नारा था- सिंग इज किंग। ब्राह्मणवादियों या और कोई वादियों का नारा सुनने से कान महरूम रह गए। उनका भी कोई नारा होगा ही। पहली बार सुनने में आया कि वोट पाने के लिए सैक्स का सहारा लिया गया। पहाड़ के लिए तो यह बिल्कुल नई बात है। कुछों ने कहा- नहीं, खाली अफवाह है। दुआ कीजिए यह वाकई अफवाह हो। वर्ना आने वाले समय में सरकार को विश्व बैंक से कर्ज लेकर शरीफों के लिए पिंजड़े बनाने पड़ेंगे। लोग टिकट लेकर उन्हें देखने जाया करेंगे। उन्हें केले-मूँगफली डालेंगे।
वोटरों को पाँच सौ-हजार रुपये देकर कहा गया कि अपने बच्चे के सर पर हाथ रख कर कसम खाओ कि वोट हमें दोगे। आने वाले समय में यह भी हो सकता है कि वोटर की गोद से उसका बच्चा ले लिया जाए और कहा जाए- जाओ बेटा हमको वोट देकर आओ, तब बच्चा वापस ले जाओ। या आपके घर में बम फिट कर दिया जाए, जिसका रिमोट नेताजी के पालतू गुण्डे के पास होगा। आखिर राजनीति में ऐसा कौन सा शहद लगा है कि आदमी चुनाव जीतने के लिए किसी भी हद तक जाने को खुशी से तैयार है ? यह सब ताकत और पैसे के लिए ही तो होता है न! इतने पैसे का कोई आखिर करेगा क्या ? शायद मुझ जैसों की सोच में ही कुछ खोट है।
इस बक-बक का कुल मिला कर कोई मतलब नहीं। दुर्भाग्यवश चुनाव इन्हीं तौर तरीकों से लड़े जाते हैं। यकीनन आने वाले समय में चुनाव लड़ने-जीतने के ये औजार ज्यादा पैने और घिनौने होते चले जाएँगे। परिस्थितियों के सामने आदमी असहाय-सा हो कर रह गया है। मौजूदा व्यवस्था में हम अभिशप्त हैं चरित्रहीनों से करेक्टर सर्टिफिकेट माँगने के लिए।
चुनाव का नतीजा जानने के लिए इस बार प्रत्याशियों को लंबा इन्तजार करना है। इन्तजार की ताब न लाकर कोई उम्मीदवार बौरा जाए, बहकी- बहकी बातें करने लगे तो बुरा मत मानिएगा। सभी प्रत्याशी फिलहाल काबिले- रहम हैं।
मतदाता अपना राजे-दिल कह चुका। यानी उसने वोट दे दिया है। खुशबू निकल गई, अब गुल बेकार है। उसकी हैसियत दारू की खाली बोतल जितनी भी नहीं रही। मटन-चिकन, पाँच सौ-हजार रुपया, दारू और साड़ी-शॉल वाली दुकानें बंद हो गई हैं। मतदाता के पास इन दिनों चुभलाने के लिए चुनाव-चर्चा रूपी च्यूइंगम है, जिसे वह घंटा-दो घंटा चुभलाने के बाद यह कह कर थूक देता है कि इस बार इलेक्शन का कुच्छ अंदाज नहीं आ रहा! हवा गुम है। जबकि चर्चा के दौरान वह मंत्रिमडल का गठन कर चुका होता है। मंत्रियों को पोर्टफोलियो बँट जाते हैं। मुख्यमंत्री तक तय हो चुका होता है। आदमी जहाज का पंछी होकर रह गया है। हर बात की शुरूआत चुनावी चर्चा से करता है और उसी में लाकर खत्म करता है। अनजान आदमी से भी पूछ लिया जाता है- तो भाई साहब, क्या लग रहा है इस बार आपको……मेरे विचार से तो….
चुनाव के नतीजे होली के दरमियान आएँगे। देखें इस बार सत्ता की गुझिया कौन खाता है और किस-किस के हिस्से भाँग के पकौड़े आते हैं! बसन्त किसको मुबारक होता है। कौन इस बार फाग खेलेगा और कौन व्हिस्की की बोतल लेकर गम गलत करने कोप भवन में जाता है। देखें। लेकिन अन्दाज कुछ नहीं आ रहा। हवा गुम है…
कार्टून : श्री कांत, अभिषेक
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