सच्चर आयोग की तरह एक और आयोग का गठन करके क्यों नहीं बताते कि आखिर बंगाल में विकास किसका हुआ और किसका नहीं!
पलाश विश्वास
आप जरा सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश की अध्यक्षता में सच्चर आयोग की तरह एक और आयोग गढ़ दें जो पता करें कि बंगाल में किसकिसका कितना विकास हुआ और किस किस का नहीं हुआ।ऐसे सर्वे से बंगाल में जंगल महल और पहाड़ की असली समस्या के बारे में खुलासा हो जायेगा और हम जैसे लोग मिथ्या भ्रम नहीं फैला पायेंगे। आयोग यह जांच करे कि बंगाल में ओबीसी जातियां कौन कौन सी हैं और उनका कितना विकास हुआ। अनुसूचितों और अल्पसंख्यकों का कितना विकास हुआ और बंगाल में बड़ी संख्या में रह रहे गैर बंगालियों का कितना विकास हुआ। सांच को आंच नहीं। हम सच उजागर होने पर अपना तमाम लिखा वापस ले लेंगे।
जगतविख्यात समाजशास्त्री आशीष नंदी ने जो कहा कि भारत में ओबीसी, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के सशक्तीकरण से ही भ्रष्टाचार बढ़ा, उसे लेकर विवाद अभी थमा नहीं। राजनीतिक आरक्षण से सत्ता की मलाई चाट रहे लोग सबसे ज्यादा विरोध कर रहे हैं तो कारपोरेट भ्रष्टाचार और अबाध पूंजी प्रवाह, बायोमेट्रिक नागरिकता और गैरकानूनी डिजिटल आधार ककार्ड योजना के जरिये जल जंगल जमीन से इन लोगों की बोदखली के खिलाफ राजनीतिक संरक्षण के मसीहा खामोश हैं तो सिविल सोसाइटी का आंदोलन सिर्फ इसलिए है कि अश्वमेध की नरसंहार संस्कृति के लिए सर्वदलीय सहमति से संविधान, कानून और लोकतंत्र की हत्या के दरम्यान मुद्दों को भटकाने का काम हो। सिविल सोसाइटी का आंदोलन आरक्षण विरोधी है तो कारपोरेट जयपुर साहित्य उत्सव को ही आरक्षण विरोधी मंच में तब्दील कर दिया आशीष बाबू ने और इसे वाक् स्वतंत्रता बताकर सिविल सोसाइटी उनके मलाईदार विरोधियों की तरह ही मैदान में जम गये हैं। राजनीति को सत्ता समीकरण ही नजर आता है और अपने अपने समीकरण के मुताबिक लोग बोल रहे हैं। वाक् स्वतंत्रता तो समर्थ शासक वर्ग को ही है, बाकी लोगों की स्वतंत्रता का नजारा या तो कश्मीर है या फिर मणिपुर और समूचा उत्तर पूर्व भारत , या फिर सलवा जुड़ुम की तरह रंग बिरंगे अभियानों के तहत राष्ट्र के घोषित युद्ध में मारे जा रहे लोगों का युद्धस्थल दंडकारण्य या देश का कोई भी आदिवासी इलाका। वाक् स्वाधीनता का मतलब तो बारह साल से सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून के विरोध में आमरण अनशन पर बैठी इरोम शर्मिला या पुलिसियाजुल्म के खिलाफ एकदम अकेली लड़ रही सोनी सोरी से पूछा जाना चाहिए।
बहरहाल, इस विवाद से परे आशीष बाबू ने हमारा बड़ा उपकार किया है , जैसा कि आनंदबाजार के विस्तृत रपट के मुताबिक उन्होंने जयपुर के उस उत्सव में अपने विवादित वक्तव्य के समर्थन में कह दिया कह दिया कि बंगाल में भ्रष्टाचार नाममात्र है क्योंकि बंगाल में पिछले सौ साल से ओबीसी, अनुसूचित जनजतियों और अनुसूचित जातियों को सत्ता में हिस्सेदारी मिली ही नहीं। आजकल मुझे बांग्ला में नियमित लिखना होता है। उनके इस मंतव्य पर जब हमने लिखा कि यह तो हम बार बार कहते हैं। इसपर हमें तो जातिवादी कह दिया जाता है , पर बंगाल के ब्राह्मणतंत्र को जारी रखने के इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र और राजनीति के बारे में क्या कहेंगे इसजातिवादी आधिपात्यवाद और वर्चस्व का विरोध करना ही क्या जातिवाद है?
सत्तावर्ग के किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति ने अपनी अवधारणा के सबूत बतौर यह सच पहली बार कबूल किया वरना बंगाल में तो जाति उन्मूलन का दावा करने से लोग अघाते ही नहीं है। गायपट्टी अभी मध्ययुग के सामंती व्यवस्था में जी रहा है और वहीं जात पाँत की राजनीति होती है, यही कहा जाता है। राजनीति में सत्ता में हिस्से दारी में जो मुखर हैं, उनके अलावा ओबीसी और अनुसूचित जातियों की बहुसंख्य जनता इस मुद्दे पर खामोश हैं क्योंकि हजारों साल से अस्पृश्यता का दंश झेलने के बाद इस तरह के लांछन से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता और न ही वे किसीतरह के भ्रष्टाचार में लिप्त हैं ज उन्हें अपनी ओर से मलाईदार लोगों की तरह सफाई देने की जरुरत है। वे तो मारे जाने के लिए चुने हुए लोग हैं और उत्तर आधुनिक तकनीकें उनका बखूब सफाया कर रहे हैं। इन समुदायों में देश की ज्यादातर किसान जातियां हैं , जिनकी नैसर्गिक आजीविका खेती का सत्यानाश कर दिया गया, ऊपर से जल जंगल जमीन , नागरिकता और मानवाधिकार से उन्हें वंचित, बेदखल कर दिया जा रहा है। उनके सामने तीन ही विकल्प हैं: या तो निहत्था इस महाभारत में मारे जायें, अश्वमेध यज्ञ में परम भक्ति भाव से अपनी बलि चढ़ा दें, या आत्महत्या कर लें या अंततः प्रतिरोध करें। ऐसा ही हो रहा है। बंगाल में हमारे लिखे की कड़ी प्रतिक्रिया है रही है। कहा जा रहा है कि बंगाल में ओबीसी और अनुसूचित बाकी देश से आर्थिक रुप से ज्यादा संपन्न हैं तो उन्हें जात पाँत की राजनीति करके सत्ता में हिस्सेदारी क्यों चाहिए। कहा जा रहा है कि भारत भर में बंगाली शरणार्थी महज पांच लाख हैं और उनमें से भी साठ फीसद सवर्ण। माध्यमों और आंकड़ों पर उन्हीका वर्चस्व है और कुछ भी कह सकते हैं। पर दबे हुए लोग भी बगावत करते हैं। परिवर्तन के बाद पहाड़ और जंगलमहल में अमन चैन लौटने के बड़े बड़े दावा किये जाते रहे हैं। कल दार्जिलिंग में यह गुब्बारा मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के सामने ही फूट गया और लोग गोरखालैंड के नारे लगाने लगे। खतरा तो यह है कि जंगल महल में भी कभी भी ऐसा ही विस्फोट हो सकता है। राजनीतिक शतरंज बिछाकर अपने चहेते चेहरे नेतृत्व में लाकर समस्याओं का निदान नहीं होता।समस्याओं से नजर भले हट जाये, समस्याएं जस की तस बनी रहती हैं।गौरतलब है कि जिन समुदायों के आर्थिक सशक्तीकरण का दावा किया जाता है, समस्याग्रस्त इलाकों में उन्हीकी आबादी ज्यादा है। यह सर्वविदित है कि देशभर में आदिवासियों के पांचवीं अनुसूची और छठीं अनुसूची के तहत दिये जाने वाले अधिकारों से कैसे वंचित किया जाता है।
इस सिलसिले में हमारा विनम्र निवेदन है कि जैसे सच्चर कमिटी की रपट से बंगाल में सत्ताइस फीसदी मुसलमानों की दुर्गति का खुलासा हुआ और जनांदोलन में चाहे जिनका हाथ हो या चाहे जिनका नेतृत्व हो, इस वोट बैंक के बगावती तेवर के बिना बंगाल में परिवर्तन असंभव था। पहाड़ और जंगल महल में आक्रोश के बिना भी बंगाल में न परिवर्तन होता और न मां माटी मानुष की सरकार बनतीष हम मान लेते हैं कि बंगाल में जाति उन्मूलन हो गया। यह भी मान लेते हैं कि मध्ययुग में जी रहे गायपट्टी की तरह बंगाल में किसी सामाजिक बदलाव की जरुरत ही नहीं रह गयी।सत्ता में भागेदारी के बिना सबका समान विकास हो गया और बाकी देश के मुकाबले बंगाल दूध का धुला है।
आप जरा सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश की अध्यक्षता में सच्चर आयोग की तरह एक और आयोग गढ़ दें जो पता करें कि बंगाल में किसकिसका कितना विकास हुआ और किस किस का नहीं हुआ।ऐसे सर्वे से बंगाल में जंगल महल और पहाड़ की असली समस्या के बारे में खुलासा हो जायेगा और हम जैसे लोग मिथ्या भ्रम नहीं फैला पायेंगे। आयोग यह जांच करे कि बंगाल में ओबीसी जातियां कौन कौन सी हैं और उनका कितना विकास हुआ। अनुसूचितों और अल्पसंख्यकों का कितना विकास हुआ और बंगाल में बड़ी संख्या में रह रहे गैर बंगालियों का कितना विकास हुआ। सांच को आंच नहीं। हम सच उजागर होने पर अपना तमाम लिखा वापस ले लेंगे।
कांग्रेस राज्य में १९७७ से सत्ता से बाहर है और उसके सत्ता से बाहर होने के बाद पहाड़ और जंगल महल में समस्याएं भड़क उठीं। बंगाल के सबसे बुजुर्ग कांग्रेस नेता देश के राष्ट्रपति हैं।कांग्रेस केंद्र में सत्ता में है। पहाड़ और जंगल महल की समस्याएं निपटाने में मुख्य दायित्व भी कांग्रेस का ही बनता है। तो बंगाल से कांग्रेस केंद्रीय मंत्री अधीर चौधरी और श्रीमती दीपा दासमुंशी, बंगाल कांग्रेस के नेता प्रदीप भट्टाचार्य और मानस भुइयां इसके लिए प्रयास तो कर ही सकते हैं। इससे कांग्रेस के भी हित सधेंगे।
जयपुर साहित्य महोत्सव के दौरान विवादित बयान देने वाले समाजशास्त्री आशीष नंदी से पूछताछ हो सकती है। जयपुर पुलिस की एक टीम पूछताछ के लिए दिल्ली पहुंच चुकी है। इस बीच राजस्थान हाईकोर्ट ने मंगलवार को साहित्य महोत्सव के आयोजक संजय रॉय की तुरंत गिरफ्तारी पर रोक लगा दी है। कोर्ट ने रॉय को जयपुर से जाने की भी इजाजत दे दी है। लेकिन कोर्ट ने यह भी कहा है कि जब पुलिस बुलाए तब रॉय हाजिर हों।
जयपुर पुलिस ने सोमवार को आशीष नंदी और संजय रॉय को नोटिस भेजे थे। दोनों के खिलाफ जयपुर के अशोक नगर थाने में एससी/एसटी एक्ट के तहत केस दर्ज किया गया है। अगर नंदी दोषी पाए जाते हैं तो उन्हें 10 साल तक की सजा हो सकती है।
डीसीपी प्रहलाद कृष्नैया के नेतृत्व में जयपुर पुलिस की टीम नंदी और अन्य के बयान दर्ज करेगी। नंदी ने साहित्य महोत्सव में रिपब्लिक ऑफ आइडियाज सेशन के दौरान दलितों को लेकर विवादित बयान दिया था। कृष्नैया ने बताया कि हम यह समझने की कोशिश करेंगे कि नंदी ने किस संदर्भ में बयान दिया है। पुलिस ने सोमवार को नंदी के दिल्ली स्थित आवास पर नोटिस भेजा था जिसमें उन्हें जांच में सहयोग करने के लिए कहा गया था। जबकि नंदी ने मंगलवार को कहा था कि उन्हें कोई नोटिस नहीं मिला है। वह अपने बयान पर कायम हैं और इसके लिए जेल जाने को भी तैयार हैं।
इधर, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा है कि दार्जिलिंग पर्वतीय क्षेत्र राज्य का हिस्सा बना रहेगा। दूसरी ओर, गोरखा जनमुक्ति मोर्चा समर्थकों ने उत्तर बंगाल उत्सव के उद्घाटन के दौरान अलग राज्य की मांग के पक्ष में नारे लगाए, जिससे ममता बिफर पड़ीं।ममता ने कहा कि दार्जिलिंग बंगाल का एक हिस्सा है और हम एक साथ रहेंगे। अब और कोई अशांति नहीं होनी चाहिए क्योंकि यह फिर विकास को बाधित करेगी। इस कार्यक्रम में जीजेएम अध्यक्ष और गोरखालैंड क्षेत्रीय प्राधिकरण के मुख्य कार्यकारी बिमल गुरूंग भी मौजूद थे। उनकी मौजूदगी में उनके समर्थकों के इस हरकत से ममता नाराज दिखीं। उन्होंने प्रदर्शनकारियों को चेताया कि इस तरह के राजनीतिक नारे नहीं लगाएं। उन्होंने कहा कि वे अपने पार्टी मंचों पर ये नारे लगाएं।ममता ने सुंदर मॉल में एक रंगारंग कार्यक्रम में कहा, 'आए हम मिल जुल कर रहें। दार्जिलिंग बंगाल का एक हिस्सा है और हम एक साथ रहेंगे।' इस कार्यक्रम में जीजेएम अध्यक्ष एवं गोरखालैंड क्षेत्रीय प्राधिकरण (जीटीए) मुख्य कार्यकारी विमल गुरुंग भी उपस्थित थे। ममता ने लोगों को संबोधित करते हुए कहा, 'अब और कोई अशांति नहीं होनी चाहिए क्योंकि यह फिर विकास को बाधित करेगी।'लेकिन मुख्यमंत्री के संक्षिप्त संबोधन के अंतिम चरण में जीजेएम समर्थकों के एक हिस्से ने नारे लगाए और गोरखालैंड के निर्माण की मांग करने वाले पोस्टर प्रदर्शित किए। इन से ममता नाराज दिखीं। वह उठ खड़ी हुईं और प्रदर्शनकारियों को चेताया कि वे इस कार्यक्रम में इस तरह के राजनीतिक नारे नहीं लगाएं। उन्होंने कहा कि वे अपने पार्टी मंचों पर ए नारे लगाएं। ममता ने कहा, 'कृपया याद रखें कि यह कोई पार्टी कार्यक्रम नहीं है। यह सरकारी कार्यक्रम है। मैं ऐसे मुद्दों पर बहुत सख्त हूं।' मुख्यमंत्री ने कहा, 'कृपया गलत संदेश नहीं दें ताकि लोग समझे कि दार्जिलिंग फिर परेशानी में जाने वाला है।' ममता जब ये बातें कह रही थी, गुरूंग मंच पर उनके बगल में बैठे थे। इसके बाद मुख्यमंत्री मंच से उतर गईं और दर्शकों के साथ बैठने गई जबकि जीजेएम समर्थक अपने हरे, सफेद और पीले रंग के पार्टी झंडा लहराते रहे।
इस बीच तेलंगाना राज्य के लिए केंद्र सरकार और आंध्र प्रदेश के क्षेत्रीय नेताओं के बीच चल रही रस्साकशी के बीच गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (जीजेएम) ने पश्चिम बंगाल से अलग गोरखालैंड राज्य की मांग को लेकर सोमवार को दिल्ली के जंतर मंतर पर प्रदर्शन किया। सैकड़ों जीजेएम कार्यकर्ता तख्तियां और बैनर लिए हुए सुबह से ही प्रदर्शन कर रहे हैं।प्रदर्शन में पश्चिम बंगाल विधानसभा के तीन जीजेएम सदस्यों के अलावा संगठन की महिला, छात्र व युवा इकाइयों के सदस्य भी शामिल हैं। गोरखालैंड राज्य की मांग को दशकों पुरानी मांग बताते हुए जीजेएम के महासचिव रोशन गिरि ने कहा कि केंद्र सरकार को तेलंगाना के साथ गोरखालैंड के मुद्दे पर भी विचार करना चाहिए। गिरि ने कहा, "गोरखालैंड की मांग पहली बार आजादी से 40 साल पहले 1907 में उठाई गई थी। लेकिन केंद्र सरकार हमारी मांग पर विचार करने को तैयार नहीं है। वह केवल तेलंगाना पर विचार कर रही है। हमारी मांग है कि गोरखालैंड पर भी विचार किया जाए।" उन्होंने कहा, "हम निष्क्रिय होकर नहीं बैठेंगे। हम पर्वतीय अंचलों और दार्जिलिंग के तराई इलाकों में बड़े पैमाने पर आंदोलन शुरू करेंगे।" ज्ञात हो कि उत्तरी पश्चिम बंगाल के पर्वतीय क्षेत्र को अलग राज्य के लिए किए गए आंदोलनों में पिछले दो दशकों के दौरान कई लोग जान गंवा चुके हैं और क्षेत्र में आय के प्रमुख साधन चाय व लड़की उद्योग तथा पर्यटन पर इसका बुरा असर पड़ा है। पिछले वर्ष त्रिपक्षीय समझौते के बाद गठित गोरखालैंड क्षेत्रीय प्रशासन (जीटीए) पर जीजेएम का कब्जा है। पिछले वर्ष जुलाई में हुए जीटीए के चुनाव में इस संगठन को एकतरफा जीत मिली थी। गिरि ने कहा कि जीटीए समझौते पर हस्ताक्षर के समय भी जीजेएम ने गोरखालैंड राज्य की मांग नहीं छोड़ी थी। उल्लेखनीय है कि जीजेएम के नेताओं ने इससे पहले 11 जनवरी को केंद्रीय गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे से मुलाकात की थी और मांग पर जोर दिया था।
अखिल भारतीय गोरखालीग के सचिव प्रताप खाती ने मंगलवार को कहा कि हमें तेलंगाना से कोई मतलब नहीं है, गोरखाओं को गोरखालैंड चाहिए। हमें अलग राज्य का विकल्प मंजूर नहीं है। यह स्वाभिमान व संस्कृति से जुड़ा मुद्दा है। इसे छोड़ा नहीं जा सकता। उन्होंने आरोप लगाया कि गोरखालैंड के नाम पर चुनाव जीतने वाले ही इस मुद्दे को भूल बैठे। विधायक व सांसद ने गोरखालैंड के लिए कुछ नहीं किया। जीटीए को राज्य का समतुल्य मानकर लोगों को गुमराह किया जा रहा है। हालत यह है कि जीटीए के नाम पर अभी तक खाता तक नहीं खुला है। डीएम के खाते के सहारे हीं सारे कार्य हो रहे हैं। जीटीए ही गोरखालैंड के लिए वास्तविक बाधा है।
गोजमुमो पर आरोप लगाया कि जीटीए में अभी तक अलग राज्य के लिए प्रस्ताव तक पारित नहीं हुआ है। इससे गोजमुमो की वास्तविकता का पता चलता है। यहां की जनता को गुमराह किया जा रहा है। गोजमुमो के आंदोलन को दिखावा बताया। इसे लालबत्ती कायम रखने के लिए राजनीतिक नौटंकी करार दिया। उन्होंने गोजमुमो को जीटीए खारिज करने की चुनौती दे डाली। सभी प्रतिनिधि अपने पद से शीघ्र इस्तीफा देकर सड़क पर आएं। कहा कि सुविधा और आंदोलन साथ-साथ नहीं हो सकते। अलग राज्य आसानी से मिलने वाला नहीं है। यहां के बुद्धिजीवियों से आगे आने का आह्वान किया। कहा कि वे हीं आंदोलन को सही दिशा दे सकते हैं। आरोप लगाया कि यहां का वास्तविक इतिहास व भूगोल से देश को अवगत नहीं कराया गया है। मुख्य राजनीतिक दल का कर्तव्य का निर्वाह करने में गोजमुमो असफल रहा है। यहां के दस्तावेज को सही तरीके से प्रस्तुत करना होगा। यहां के राजीनीतिक दलों के दो चेहरे हैं।
107 वर्षो से गोरखालैंड की मांग की जा रही है। गोरखा जनमुक्ति मोर्चा तथ्यों व व्यवहारिक आधार पर गोरखालैंड की मांग कर रही है। यह समय व परिस्थिति की मांग है। कर्सियांग में उक्त बातें स्टडी फोरम के सदस्य पी अर्जुन ने कही। उन्होंने मोटर स्टैंड में महकमा समिति द्वारा आयोजित जनसभा को संबोधित करते हुए कहा कि विरोधी गोजमुमो पर आधारहीन व निराधार आरोप लगाते रहे हैं। गोजमुमो ने गोरखालैंड की मांग को बिना त्याग किए जीटीए स्वीकार किया था। यह एक क्षेत्रीय व्यवस्था है। इसके जरिए स्थानीय समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। गोरखालैंड एक राष्ट्रीय विषय है। यह गोरखाओं के अस्तित्व व पहचान जुड़ा मसला है। पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा गोरखालैंड के विरोध पर हम सतर्क हैं। जीटीए समझौता में रोशन गिरि ने हस्ताक्षर किया। जीटीए संविधान के तहत नहीं है। इसे किसी भी समय विमल गुरुंग के आदेश से खारिज किया जा सकता है। जीटीए सूबे के मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की सक्रियता से मिला है। जनता के अनुरोध पर जीटीए प्रमुख का दायित्व विमल गुरुंग ने संभाला है। गोजमुमो का लक्ष्य गोरखालैंड है। राजनीति में समय के अनुकूल परिवर्तन होना चाहिए। अभागोली व क्रामाकपा का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि 1943 में गठित अभागोली ने पर्वतीय क्षेत्र के लिए आज तक कुछ नहीं किया। यह सभी मोर्चे पर असफल रहा है। क्रामाकपा के अध्यक्ष आरबी राई के निर्णय उनके प्रतिष्ठा के अनुरूप नहीं होते। कहा कि गोरखालैंड का लक्ष्य हासिल करने का गुर विपक्ष हमें सिखाए। इसके लिए हम तैयार है। गोरखालैंड के लिए विपक्ष एकजुट होकर गोजमुमो का समर्थन करें। गोरखाओं के राष्ट्रीय पहचान के लिए सभी को एकजुट होना आवश्यक है। तेलंगाना से गोरखालैंड की तुलना नहीं की जा सकती। तराई व डुवार्स को गोजमुमो ने नहीं छोड़ा है। गोरखालैंड के गठन में गोरखा बहुल क्षेत्र को शामिल किया जाएगा। उन्होंने आरोप लगाया कि गोरामुमो सुप्रीमो सुभाष घीसिंग ने गोरखालैंड की मांग को छोड़ दिया था। यहां की समस्या निराकरण का एक ही उपाय गोरखालैंड का गठन है। बंगाल विभाजन विषय नहीं है। क्योंकि यह भूभाग बंगाल का है ही नहीं, तो बंगाल विजाभन का प्रश्न ही कहां उठता।
नारी मार्चा अध्यक्ष आशा गुरुंग ने कहा कि तेलंगना से पूर्व गोरखालैंड की मांग है। इसका गठन होना आवश्यक है। गोरखाओं के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है। जान की बाजी लगाकर देश की रक्षा करते रहे हैं। लेकिन सरकार से समुदाय के साथ अन्याय किया है। विमल गुरुंग ने जीटीए समझौते में हस्ताक्षर नहीं किया है वे हस्ताक्षर सिर्फ गोरखालैंड के लिए ही करेंगे। जनता के हित के लिए प्राण न्यौछावर को भी तैयार हैं। जनता को डराकर आंदोलन नहीं करेंगे। गरीब जनता के लिए ही गोरखालैंड है।
कर्सियांग के विधायक डॉ रोहित शर्मा ने कहा कि पोस्टरबाजी से अलग राज्य हासिल नहीं किया जा सकता। हमारा अंतिम व पहला लक्ष्य गोरखालैंड है। गोजमुमो कई बार केंद्र को ऐतिहासिक दस्तावेज सौंप चुका है।
जीटीए चेरमैन प्रदीप प्रधान ने कहा कि हमारी संवैधानिक मांगों को मानना ही होगा। यह अस्तित्व से जुड़ा हैं। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। गोजमुमो ही राज्य का गठन कर सकता है। सभा को सांगठनिक सचिव रतन थापा, फूबी राई, पेमेंद्र गुरुंग, सावित्री क्षेत्री, प्रणाम रसाईली व नवराज गोपाल क्षेत्री ने भी संबोधित किया। कार्यक्रम की अध्यक्षता तिलक गुरुंग ने व संचालन युवा नेता व वार्ड आयुक्त सुभाष प्रधान ने किया।
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Wednesday, January 30, 2013
सच्चर आयोग की तरह एक और आयोग का गठन करके क्यों नहीं बताते कि आखिर बंगाल में विकास किसका हुआ और किसका नहीं!
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