सिविल सोसायटी ही समस्या है
इधर के दिनों में देश में कुछ सरगर्मी नजर आई है। संभवत: पहली बार ज्यादातर शहरों में रहने वाले 'पढ़े-लिखे' वर्ग को व्यवस्था की सड़ांध और बीमारियों का अहसास हो रहा है। वह तबका जो अपने तक सीमित रहने का आदी रहा है, उसकी चेतना ने अंगड़ाई लेनी शुरू की है। उसे तकलीफ हो रही है। तकलीफ में तो शेष भारत इनसे कहीं ज्यादा है, पर वह अभी तक अपने को सशक्त और सामूहिक तौर पर व्यक्त करने में असमर्थ है। मुख्यधारा का राजनीतिक नेतृत्व इतना थका-हारा, सुविधाओं का आदी और खुदगर्ज हो गया है कि उससे यह उम्मीद करना कि वह इस भारत की तकलीफ को मुखरित करेगा, नादानी होगी। ऐसे में आम आदमी पार्टी के रूप में जो नया नेतृत्व उभर कर आया है उसको समझने की जरूरत है जिसका सरोकार फिलहाल शहरी पढ़े-लिखों तक सीमित है।
और यह जो पढ़े लिखे लोगों का शहरी तबका है वह फिलहाल विकास की दौड़ में लगा हुआ है। ये (संयुक्त) परिवार और समाज से विलग हुए लोग हैं-ज्यादातर आधुनिकता के मारे। हम सब पढ़े-लिखे, शहरी किस्म के लोगों की एक जैसी हालत है। इसलिए यह कोई आलोचना नहीं, वस्तुस्थिति का मूल्यांकन है। समाज का अर्थ इस वर्ग के लिए 'सिविल सोसाइटी' है। पर समाज तो सभ्य ही हुआ करते हैं। जहां सभ्यता नहीं, वहां समाज कहां? वह तो झुंड या भीड़ हुआ करती है। टूटे हुए, जड़ों से उखड़े हुए, समाज से कटे हुए लोगों को ही 'सभ्य' समाज (सिविल सोसाइटी) की कल्पना करनी पड़ती है, वरना समाज तो वैसे ही होते हैं। इस तबके को पीड़ा तो है, पर इतनी कुव्वत नहीं कि पीड़ा के कारणों तक जा सके। यह उस इंसान की तरह है जो अपने दर्द का इलाज हमेशा दर्द निवारक गोलियों में ढूंढ़ता है। इससे पीड़ा के कारण से मुक्ति नहीं मिलती, सिर्फ कुछ समय के लिए दर्द का अहसास होना बंद हो जाता है। और एक हद के बाद यह दवा खुद लंबी बीमारी का कारण बन जाती है। फिर उसका इलाज और महंगा, जटिल और लंबा हो जाता है।
आधुनिक सोच और आधुनिक व्यवस्थाएं इसी प्रकार की हैं। एक समस्या का समाधान, कुछ समय बाद उससे बड़ी समस्या को जन्म देता है। हथियार का व्यापार इसी सूत्र पर चलता है। हथियारों की तकनीक में लगातार विकास और प्रगति इसी से जुड़े हैं। विभिन्न देश और आतंकवादी गिरोह ज्यादा से ज्यादा विकसित तकनीक के जरिए दूसरे पर हावी होना चाहते हैं। इतना ही नहीं, हथियार की शक्ति से, शांति की चाहत रखते हैं! पाठक अवगत होंगे, हमारे पूर्व राष्ट्रपति कलाम साहब विगत में इस सूत्र की पैरवी कर चुके हैं। जुए में हारा हुआ जुआरी जैसे नशे में और खेलता चला जाता है और हारता जाता है, यह स्थिति कुछ वैसी ही है।
पढ़े-लिखे वर्ग ने आधुनिकता के सिवाय न कुछ देखा है न समझा है। एलोपैथी के उस डॉक्टर की तरह, जिसने आयुर्वेद या प्राकृतिक चिकित्सा (नेचुरोपैथी) का नाम तो सुन रखा है पर इनकी कोई समझ रखे बिना इन्हें नकार दिया हो। इस वर्ग ने विगत को अगर देखा भी है तो पूर्वग्रह भरी नकारात्मक दृष्टि से। इसकी पढ़ाई-लिखाई ही इस प्रकार हुई है कि यह भ्रम में रहता है; इसे मूल्यांकन करना नहीं आता। यह विगत को या तो बढ़ा-चढ़ा कर महिमामंडित करता है या पहले से आलोचना भरी दृष्टि से देखता है। साथ ही आधुनिकता, विज्ञान और आधुनिक तकनीक के प्रति पहले से सकारात्मक दृष्टि रहती है। दोनों हालात में यह तटस्थ नहीं हो पाता।
यह तबका हर सामाजिक बीमारी को सिर्फ कानून और व्यवस्था से ठीक करना चाहता है। इसका सोच सीमित हो गया है। इसकी जिंदगी ऐसी बन गई है जहां परस्परता नाम की चीज नहीं बची है। इस तबके का सरोकार अपनी रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने में या तो अनजान लोगों से है या मशीनों से, जिनसे कोई रिश्ता नहीं। मोहल्ले की दुकान- जहां से सौदा आता था- की जगह वालमार्ट जैसी दुकानें। दर्जी नहीं, रेडीमेड कपड़े के डिपार्टमेंटल स्टोर। मोहल्ले का नाई, जिससे दो-चार इधर-उधर की बातें हो जाया करती थीं और अगर आप ऊलजलूल मांग करते थे तो वह टोक भी देता था, उसकी जगह सैलून। मोची नहीं, जूते की बाटा जैसी दुकानें। धोबी नहीं, लांड्री या कपड़े धोने की मशीन। आदि। कहने का अर्थ है कि आदमी का सरोकार जान-पहचान के लोगों से सीमित हो गया है, सिर्फ कामकाजी या मौज मस्ती वाला। स्वायत्तता की जगह सब नौकर हो गए हैं। इस व्यवस्था में कोई टोका-टाकी नहीं चलती। टोका-टाकी तो सशक्त समाजों में होती है। यहां गलत करने पर दूसरा टोक नहीं सकता। होता कौन है, वह रोकने वाला? अगर रोकेगा तो कानून रोकेगा। और कानून जिस व्यवस्था का हिस्सा है, उससे हम त्रस्त हैं! वह बेजान है। उसकी ताकत आम आदमी को धमकाने और कोई साधारण आदमी चंगुल में फंस जाए तो उसकी ऐसी की तैसी करने में दिखती है।
यह आधुनिकता विरोधाभासों से भरी है। दो-चार करोड़ सरकारी कर्मचारी इस देश को चला रहे हैं। उन्हीं के लिए सुविधाएं मुहैया कराई जाती हैं। शेष को अपने हाल पर छोड़ दिया गया है। जिनके पास धन-बल है और जो सत्ता के गिर्द हैं उन्हें छोड़ दें, तो शेष की परवाह यह व्यवस्था नहीं करती। सरकारी कर्मचारियों का, बड़े अफसर से लेकर छोटे सिपाही तक, अपने समाज से कोई रिश्ता रह नहीं गया है। उनके लिए लोग भीड़ के अलावा कुछ नहीं। इनकी आंखों से शर्म गायब है। अगर कुछ बचा है तो कानून से अपने को बचाने की जुगत, जिसमें वे लगे रहते हैं।
यह टूटा हुआ समाज, जो सभ्य (सिविल) समाज की बात करता है, सख्त कानून बनाने की मांग करता है। कानून सबके लिए एक जैसा हो, इसकी मांग नहीं करता, क्योंकि आधुनिक कानून-व्यवस्था में वह तो निहित ही है, ऐसा मान लिया गया है। पर क्या वास्तविकता ऐसी है? वास्तविकता ऐसी होती, तो हमारी संसद और विधानसभाओं और अफसरशाही की रंगत कुछ और होती। कानून और न्याय में फर्क है, यह हमारे पढ़े-लिखे लोगों की समझ में अभी नहीं बैठा है। उन्होंने एक दूसरे को पर्याय मान लिया है। बार-बार कानून की बे-इंसाफी देखने के बावजूद उन्हें समझ नहीं आता। हर गलती को कड़े कानून से रोकने की चेष्टा की जाती है और कानून शासक वर्ग के आगे अपनी धार खो देता है। अंतत: कानून की मार साधारण व्यक्ति को झेलनी पड़ती है जो हमेशा डरा-सहमा रहता है। सबके लिए समान कानून के बजाय सख्त कानून की पैरवी करने वाले अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने का काम कर जाते हैं। हल कानून में नहीं, एक स्वस्थ समाज को फिर से खड़ा करने में है, भले ही यह मुश्किल रास्ता क्यों न हो।
जब भी कोई इकाई (जैसे शहर और संस्थाएं) एक हद से ज्यादा बड़ी हो जाती है, तो उसमें राक्षसी तत्त्व आने लगता है। बड़ी इकाइयों में रिश्ते परस्परता की जगह व्यापार वाले हो जाते हैं। वस्तु (यानी असली) का अवमूल्यन और पैसे (यानी प्रतीक) का अधिमूल्यन होने लगता है। आंख की शर्म, तहजीब, लिहाज गायब होने लगते हैं। असलियत के स्थान पर दिखावा, प्रतीक, औपचारिकताएं ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो जाती हैं। आम आदमी पार्टी को इन उखड़े हुए लोगों से उनकी जुबान और उनके मुहावरों में बात करने की बाध्यता है। इस बाध्यता से वे ऊपर उठ पाते हैं या नहीं, या इसकी कोशिश करते हैं, यह तो समय बताएगा।
(पवन गुप्ता शिक्षा पर काम करनेवाली सिद्ध संस्था के निदेशक हैं।)
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