Friday, 01 February 2013 10:58 |
मिहिर पंड्या अगर आप नंदी के अतार्किक विरोध को कुछ समय के लिए अलग रख देंं तो नजर आता है कि आज उनकी विचार पद्धति के विरोध में एक ओर दलित अस्मिता से जुड़ा वैचारिक समुदाय खड़ा है और दूसरी ओर उनके विचार प्रगट करने के अधिकार का समर्थन करते हुए भी कई साथी विद्वान, जिन्हें हम मोटे तौर पर आधुनिक-प्रगतिशील-वाम खेमे से जुड़ा कह सकते हैं, भी उनकी विचारसरणि से असहमति जताते हैं। योगेंद्र यादव ने इंडियन एक्सप्रेस में अपने लेख में लिखा है कि नंदी की तर्कपद्धति उनका तरीका नहीं है और वे उस तर्कपद्धति को समझने में मुश्किल महसूस करते हैं। अपूर्वानंद ने भी 'जनसत्ता' में अपने लेख के अंतिम हिस्से में 'बहु-निंदित' और 'तिरस्कृत' आधुनिकता के महत्त्व का उल्लेख करते हुए लिखा है कि 'शायद समय आ गया है कि हम सब, नंदी समेत, सामुदायिक अस्मिताओं के प्रतिपक्ष को भी देखें और उनके बरक्स बौद्धिक रूप से कुछ दशकों से फैशन से बाहर चली गई (पाश्चात्य आधुनिकता की संतान) व्यक्ति की बुद्धि और विवेक को फिर से बहाल करने का प्रयत्न करें।' लेकिन यहां इन दो खेमों का एक साथ नंदी के विचार से असहमति जताना महज संयोग नहीं है। और यही उनके विचार को समझने का सबसे महत्त्वपूर्ण सूत्र है। नंदी उस 'आधुनिकता' के विचार की आलोचना अपने लेखन और विचारों में निरंतर प्रस्तुत करते रहे हैं, जिससे ये दोनों खेमे कहीं न कहीं उम्मीद और जुड़ाव महसूस करते हैं। जहां आज का दलित अस्मिता विमर्श के लिए तैयार नहीं है कि उसे आधुनिकता के दायरे से बाहर रख कर देखा जाए, वहीं प्रगतिशील-वाम शायद आज भी हमारी आधुनिकता की ध्वस्त परियोजना को ही वर्तमान 'ह्रास' का कारण देखता है और उपाय के रूप में आज भी उस आधुनिकता की किसी रूप में वापसी की उम्मीद करता है। निस्संदेह नंदी इन दोनों से अलग हैं। उन्होंने इन विपरीत लगते विचारों में आधुनिकता के प्रति जो समान ललक दिखाई देती है उसे इतिहास में बहुत पहले पहचान लिया था। उनके उल्लिखित लेख की एक पूर्ववर्ती पंक्ति है, 'जवाहरलाल नेहरू, वल्लभभाई पटेल, बाबा साहब आंबेडकर में कितने ही विचारधारात्मक मतभेद रहे हों, लेकिन वे तीनों एक ऐसे राज्य की स्थापना पर एकमत थे, जो सत्रहवीं शताब्दी के बाद यूरोप में पनपी राष्ट्र-राज्य की अवधारणा से थोड़ा ही अलग था। स्वाधीनता के बाद उभरे अभिजात वर्ग की राज्य संबंधी अवधारणा राजनीतिक रूप से 'विकसित' समाजों में प्रचलित अवधारणा से उधार ली गई थी।' यहां आंबेडकर और नेहरू का उल्लेख है। लेकिन जो नाम यहां नहीं है, और जो उस वक्त भी इस सर्वस्वीकार्य लगते राज्य की अवधारणा संबंधी विचार के विरोध में अकेला ही खड़ा था, उसे कभी भूलना नहीं चाहिए। तर्कवादी आधुनिक जवाहरलाल नेहरू और बाबासाहेब आंबेडकर के होते भी अपनी नितांत अतार्किक लगती धारणाओं और अविश्वसनीयता, अव्यावहारिकता या सनक की हद तक जाते लगते अद्वितीय विचारों और निदानों के साथ जैसे गांधी का होना अत्यंत जरूरी था, ठीक वैसे ही हमारे समय और समाज को समझने के लिए प्रगतिशील वाम और दलित अस्मिता के बीच आशीष नंदी का होना भी बेहद जरूरी है। क्या है जो नंदी को खुद अपने अकादमिक विचारक समाज में नायाब बनाता है? विचार की दुनिया में अपने विश्वास के अनुरूप उछाल लेने (लीप आॅफ फेद) का उनका अनोखा साहस। जैसे वीरेंद्र सहवाग खेल में जोखिम उठा कर अपनी टीम को असंभव लगती जीतों तक पहुंचाते रहे हैं, वैसे ही नंदी वह वैचारिक 'रिस्क' लेते हैं, जिसे धारण करने की हिम्मत और कुव्वत शायद और किसी में नहीं, लेकिन इसी वजह से उनके पाठक उस असंभव लगते समझ के बिंदु तक पहुंच पाते हैं, जहां से अपने समय और समाज को देखने का एक नितांत भिन्न, लेकिन बहुत साफ नजरिया मिलता है। वे अपनी दुर्लभ कल्पनाशीलता से विचार की नई जमीन तोड़ते हैं। वे अपने अध्ययनों में तथ्यों के साथ मान्यताओं, लोक विश्वासों, सामुदायिक प्रतीकों और लोकप्रिय अफवाहों तक को शामिल करते हैं और हम आधुनिक शिक्षा पाए शोधकर्ताओं को अपनी असहमति में खड़ा कर लेते हैं। लेकिन मानना होगा कि इसी वजह से वे कई बार समाज की उन बंद गिरहों को खोल पाते हैं जिन तक अकादमिक अध्ययन के सख्त अनुशासन में बंध कर पहुंच पाना शायद संभव नहीं होता। डीआर नागराज ने उनके बारे में कभी कहा था, 'नंदी के बारे में अंतिम रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। वे अनुमान से पूरी तरह परे हैं।' निश्चितताओं के काल में एक अनिश्चित विचार का होना जरूरी है। उनका होना, उनसे कहीं ज्यादा हमारे इस 'सर्वज्ञाता' समय के लिए, हमारे लिए जरूरी है। |
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Friday, February 1, 2013
जहां वे सेतु बनते हैं
जहां वे सेतु बनते हैं
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