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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Friday, February 1, 2013

सुनिया बाई की मौत

सुनिया बाई की मौत



किसानों के खिलाफ एके-47 का प्रयोग 

यह घटनाएं मध्य प्रदेश सरकार के कल्याणकारी होने के नाकाब को हटाने के लिए नाकाफी हैं. मध्य प्रदेश में जबरन भूमि अधिकग्रहण और उससे जुड़े दमन की दास्तां का मामला यहीं नहीं थमता...


वरुण शैलेश

सुनिया बाई की मौत खबर नहीं बनी. पिछले नवंबर में इस पीड़ादायक घटना के दौरान प्रत्यक्ष विदेश निवेश की सीमा बढ़ाने, विकास दर को मजबूत करने और कसाब को फांसी देने के इर्द गिर्द सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष की राजनीति, यहां तक कि अखबारों, समाचार चैनलों की खबरें भी यहीं केंद्रित रहीं.

farmers-agitationकिसी बात के खबर होने के जो पैमाने गढ़े गये हैं, उसमें सुनिया बाई का नाम क्या इसीलिए शामिल नहीं हो पाया कि वे नागरिकों की जमीन छीने जाने के खिलाफ थीं. या कि सरकार उन्हें विकास की राह में रोड़ा मानती थी.

सुनिया बाई मध्य प्रदेश में कटनी जिले के बुजबुजा और डोकरिया गांव के किसानों के लिए संघर्ष कर रही थीं. मध्य प्रदेश सरकार से 24 नवंबर, 2009 को हुए समझौते के आधार पर वेलस्पन नाम की कंपनी इन गांवों में 1980मेगावाट क्षमता की ग्रीनफील्ड ताप विद्युत परियोजना लगाना चाहती है. सरकार इसके लिए दो हजार एकड़ जमीन देने के लिए राजी थी. जिसमें 1400 एकड़ जमीन का बंदोबस्त हो पाया है. इसमें 800 एकड़ सरकारी जमीन शामिल है. बाकी 600 एकड़ जमीन किसानों से अधिग्रहीत की जा रही है, जिसका किसान विरोध कर रहे हैं.

जमीन अधिग्रहण का विरोध करने की वजह से वे प्रशासन के निशानें पर आ गयीं. प्रशासन की प्रताड़ना से आजिज आकर सुनिया बाई ने खुदकुशी का रास्ता चुना. लेकिन पुलिस को सुनिया बाई की मौत से उपजा असंतोष कानून व्यवस्था के लिए खतरा का भूत नजर आ रहा था. घटना से क्षुब्ध प्रदर्शन कर रहे किसानों से पुलिस ने सुनिया बाई के शव को जबरन छीनकर अंतिम संस्कार कर दिया. दरअसल, गांव वाले जमीन अधिग्रहण को लेकर चल रहे आंदोलन के दौरान सुनिया बाई को धमकी देने वाले अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की मांग कर रहे थे.

लोकतांत्रिक देश में नागरिक सर्वोच्च होता है. जबकि भारत को दुनिया का सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के रूप में स्थापित किया जाता रहा है. मगर नौकरशाही की हनक रखने वाले सवालों के घेरे से बाहर हैं. जिनके लिए महिला किसान के शव का सम्मान करना उनकी खोखली धौंस के खिलाफ है. देश में किसानों विशेष तौर पर आदिवासियों के प्रति केंद्र समेत राज्य सरकारों के रुख की कहानियां कुछ और ही बयां कर रही हैं. तंत्र दिन-ब-दिन दमनकारी रुख अख्तियार करता जा रहा है. इसकी बानगी मध्य प्रदेश मानवाधिकार आयोग की एक जांच रिपोर्ट भी पेश करती है.

रिपोर्ट बताती है कि राज्य के रायसेन जिले के बरेली में आंदोलन कर रहे किसानों के खिलाफ एके-47 और पिस्तौल का इस्तेमाल हुआ. साथ ही जरूरत से ज्यादा बल प्रयोग की बात भी सामने आई. पिछले वर्ष सात मई को बरेली में किसान बारदाना को लेकर प्रदर्शन कर रहे थे उसी दौरान हुई पुलिस की गोलीबारी का निशाना किसान हरि सिंह बने. आयोग ने इस मामले को लेकर जिला कलेक्टर मोहन लाल मीणा समेत विभिन्न अफसरों को तलब भी कर चुका है.

क्या यह घटनाएं मध्य प्रदेश सरकार के कल्याणकारी होने के नाकाब को हटाने के लिए नाकाफी हैं. मध्य प्रदेश में जबरन भूमि अधिकग्रहण और उससे जुड़े दमन की दास्तां का मामला यहीं नहीं थमता. राज्य के डिंडोरी जिले में भी तमाम सरकारी विभागों के लिए आदिवासी किसानों की जमीनें ली गईं. लेकिन उन्हें उचित मुआवजा तक नहीं मिला और वे अब पलायन को मजबूर हैं.

इसे लेकर राजनीतिक गलियारों में भी काफी असंतोष का माहौल रहा. हालांकि कानून कहता है कि आदिवासियों को जमीन के बदले जमीन मिलनी चाहिए, लेकिन सरकारी स्तर पर इन शर्तों की अनदेखी की जा रही है. इन मामलों को लेकर राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग भी नाराजगी जाहिर कर चुका है. आयोग के अध्यक्ष रामेश्वर उरांव ने राज्य के अनूपपुर और सिंगरौली जिले में नियमों को ताक पर रखकर आदिवासी किसानों की जमीन लेने पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को चिट्ठी भी लिखी. उरांव ने पुर्नवास नीति 2002 का पालन न किए जाने और उचित मुआवजा नहीं दिए जाने पर नाराजगी जता चुके हैं.

सवालों के दायरे में सिर्फ मध्य प्रदेश ही क्यों, जबकि जबरन भूमि अधिग्रहण तो देश के दूसरे हिस्सों में भी चल रहे हैं. लेकिन बीते सात आठ महीनों में राज्य में किसानों के खिलाफ सरकारी रवैया जिस तरह से उभरकर सामने आया है वह इस सवाल के जवाब में काफी है.

कुछ महीने पहले ग्वालियर से दिल्ली के लिए कूच करने वाले सत्याग्रहियों में से एक आदिवासी किसान का कहना था कि 1947 में मिली यह आजादी उन्हें अपनी नहीं लगती. यह तकलीफ देशभर के आदिवासियों की अभिव्यक्ति है जो स्वतंत्रता के पहले और बाद में भी प्रायोजित सत्ता के निशाने पर हैं. इस स्थिति को समझने की जरूरत है. क्योंकि सुनिया बाई की मौत के बाद का पूरा घटनाक्रम कल्याणकारी राज्य का विज्ञापन करने वाली शासन प्रणाली की शुचिता पर सवाल खड़ा करता है.

लेकिन सवाल तो विकास दर की धीमी रफ्तार से चिंतित मीडिया के जनपक्षीय दावे पर भी उठाया जाना चाहिए जिसने सुनिया बाई की मौत को खबर के पैमाने से बाहर कर दिया.

varun-shaileshवरुण शैलेश युवा पत्रकार हैं.

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