पहले तय कर लिया जाये कि मोदी को रोकना है कि अरविंद केजरीवाल को
पलाश विश्वास
दोस्तों, पहले ही साफ कर दूं ,जैसा हमेशा मैं कहता आ रहा हूं कि आम आदमी पार्टी से मेरा कोई लेना देना नहीं है। न मैं उनका या किसी राजनीतिक दल का समर्थक हूं।
मौजूदा राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में आगामी लोकसभा चुनावों के लिए निर्मामाधीन जनादेश को लेकर भी हमारी चिंता नहीं है।इसे थोड़ी गहराई में जाकर समझें। हमें दरअसल चुनाव के बाद धर्मोन्मादी भारत में जो निरंकुश राज्यतंत्र का नरमेध अभियान जारी होना है विकास के नाम पर,उसकी चिंता है।उस आसन्न भविष्य की चिंता हैं।
हम अरविंदकेजरीवाल और उनकी राजनीतिक पार्टी के खिलाफ दागे जा रहे सवालों का जवाब नहीं देंगे। इनमें से अनेक सवाल हमारे भी हैं और अनिश्चित नमोमय भारत के माहौल में मैंने उनपर खुलकर लिखा भी है।कृपया मेरे ब्लाग देख लें और उन्हें खोलने में दिक्कत हो तो हस्तक्षेप पर लगे आप पर मेरे पुराने आलेख देख लें। मैं न अरविंद का और न आप का कोई प्रवक्ता हूं न टिकट पर मेरा कोई दावा है। शुरुआती आकलन के बाद लगातार तेज होती नमोसुनामी में हमें अपनी प्राथमिकता बदलनी पड़ी है। ऐसा सिर्फ मेरे लिए नहीं है,परिस्थितियों पर तीखी नजर रखने वाले अनेक जनप्रतिबद्ध साथियों का आकलन बदल गया है।
दिल्ली में एफडीआई रद्द होने से पहले खास आदमी की पार्टी आप के पीछे मजबूती से खड़ा था कारपोरेट इंडिया।उसके बाद कारपोरेट राज के खिलाफ जो अरविंद के धुंआधार प्रहार हो रहे हैं,उनके किसी भी सूरत में अब कारपोरेट विकल्प बनने के आसार नहीं हैं।बनेंगे तो उनकी साख जाती रहेगी।वे शेर पर सवार हो चुके हैं और शेर की पीठ से जिसदिन उतरेंगे,शेर उन्हें खा लेगा। होगा विश्व बैंक का प्रोजेक्ट, लेकिन बताइये कौन सी सरकार बनी है सन 1991 के बाद वह कौन सी सरकार बनी है,जो विश्वबैंक का प्रोजेक्ट नही है। रंग बिरंगी तमाम अल्पमत सरकारों के संचालक कारपोरेट असंवैधानिक तत्व ही हैं। यहां तक कि बंगाल में परिवर्तन के बाद मां माटी की सरकार आदिम कारपोरेट मसीहा सैम पित्रोदा हैं।मौजूदा प्रधानमंत्री से लेकर महामहिम राष्ट्रपति तक तमाम नीति निर्धारक,अर्थशास्त्री विश्व बैंक,आईएमएफ,यूनेस्को आदि घनघोर जायनवादी अमेरिकी संस्थानों के वेतनबोगी कारिंदे हैं।विनिवेश महायज्ञ केप्रथम पुरोहित अरुण शौरी भी विश्वबैंक से आये थे।
फोर्ड फाउंडेशन से पुरस्कृत राजनीति,साहित्य,कला क्षेत्र के तमाम महामहिम हैं।यहां तक कि राथचािल्डस और राकफेलर के कारिंदे भी खूब हैं।
फिर सीआईए के एजंट कौन है और कौन नहीं,भारतीय राजनीति में इसका कोई हिसाब उसतरह नहीं है जैसे कालाधन का लेखाजोखा। पूर्व प्रधानमंत्री से लेकर राजनेता,मजदूर नेता और तमाम भ्रांतियों के रथी महारथी सीआईए के एजंट रहे हैं।
मौजूदा राज्यतंत्र वर्ण वर्चस्वी,वर्ग वर्चस्वी नस्ल वर्चस्वी व्यवस्था है,उसमें बदलाव अनिवार्य है और उसके बिना कोई बदलाव संभव नहीं है।समता, सामाजिक न्याय और डायवर्सिटी के लक्ष्य भी राज्यतंत्र में बदलाव के बिना असंभव है।
हम अपने बहुजन मसीहों की तर्ज पर ग्लोबीकरण को स्वर्णकाल भी नहीं मानते।
हम यह भी मानते हैं कि यह पूंजीवादी तंत्र भी नहीं है। यह क्रोनी कैपिटेलिस्ट साम्राज्यवाद है और आवारा पूंजी अर्थ व्यवस्था, राजकाज, समाज, संस्कृति, साहित्य, पत्रकारिता, उत्पादन प्रणाली पर काबिज है।साम्राज्यवादी वैश्विक शैतानी व्यवस्था का यह उपनिवेश हैं जहां सत्ता वर्ग सिरे से सामंती है।भ्रष्ट भी।
इसके साथ ही यह भी समझना जरुरी है कि धर्मोन्माद उत्तर आधुनिक मुक्त बाजार का सबसे मजबूत हथियार है।इस सिलसिले में मैं हमेशा भारत में हरित क्रांति, भोपाल गैस त्रासदी, सिखों के जनसंहार, बाबरी विध्वंस और गुजरात नरसंहार जैसी घटनाों को निर्णायक मानता रहा हूं।
अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी की पूंजी धर्मोन्माद नहीं है फिलहाल,जबकि बाकी विकल्प नख से शिख तक धर्मोन्मादी है।
हम दरअसल न अरविंद को देख रहे हैं और न आप में शामिल तमाम खास चेहरों को। हमारी नजर सामाजिक शक्तियों,उत्पादक शक्तियों के तेज ध्रूवीकरण पर है,जो अस्मिता तिलिस्म में कैद भारतीय समाज और भारतीय राजनीति में बदलाव की आखिरी उम्मीद है। हमें यानि जनपक्षधर मोर्चा और लाल नील दोनों तबकों को समझ लेनाचाहिए कि परिवर्तन की हर घड़ी पर धर्मन्मादी तत्वों ने ही विजय पताका फहराया है।
मसलन सत्तर का दशक है। नक्सलवादी जनविद्रोह, तेलंगना,श्रीकाकुलम और ढिमरी ब्लाक ही नहीं,आजाद भारत में तेभागा और खाद्य आंदोलन जैसे जनांदोलनों से लेकर पराधीन भारत के तमाम आदिवासी किसान विद्रोह की विरासत की संपूर्ण भ्रांति में तिलांजलि हो गयी। अब जन युद्ध जंगल में सीमाबद्ध है।खेत खलिहान तबाह हैं।कृषि की हत्या हो गयी।जल जंगल जमीन से लेकर नागरिकता,पर्यावरण और मानवअधिकारों से बेदखली का पूरा कारोबार धर्मोन्मादी छाते के अंदर हो रहा है। सामाजिक और उत्पादक शक्तियां ,किसान और मजदूर केशरिया में सरोबार है। अंबेडकरी आंदोलन मलाईदार तबके के हितों के मुताबिक सत्ता की चाबी में तब्दील है और बहिस्कृत बहुसंख्य तमाम समुदाय धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद की पैदल सेनाएं हैं।तो वामपक्ष भी संसदीय राजनीति के तहत दक्षिणपंथ में एकाकार है,जिसकी वजह से बंगाल में वाम पतन हो गया और बाकी देश में वाम का नामोनिशान बचा है तो सिर्फ केरल और त्रिपुरा में।उत्तर भारत में,हिमालयी क्षेत्र और पूर्वोत्तर में,कश्मीर और तमिलनाडु में कहीं भी वाम नहीं है।
सामाजिक व उत्पादक शक्तियों के गठजोड़ से सन सैंतालीस से सन 1952 तक मुख्य विपक्षा बने रहे वाम दलों की इस दुर्गति के पीछे वर्ण वर्चस्वी वर्ग वर्चस्वी नस्ल वर्चस्वी वाम नेतृत्व है,जिसने उत्तर भारत में वाम नेतृत्व को कुचलकर रख दिया और सत्ता की राजनीति में हमेशा दलाली करते रह गये।जनाधार बनाने के लिए आंदोलन की बजाय सत्ता समीकरण साधने का लाल नील रिवाज सत्तर के दशक की ब्रांतियों की उपज है।
सही मायने में अब न लाल है और न नील।लाल नील सबकुछ अब केशरिया है।
जनादेश बनाने में कारपोरेट,मीडिया और सम्राज्यवादी अति सक्रियता के मुखातिब राष्ट्र और जन गण के सामने जो मुख्य चुनौती है,आप मानें या न माने वह यह सर्वव्यापी केशरिया है। अपढ़ लोगों की क्या कहें ,पढ़े लिखे तकनीक समृद्ध नवधनाढ्य उच्च मध्यवर्ग और मध्यवर्ग बाजार में अतिरिक्त क्रयशक्ति हासिल करने की अंधी दौड़ में इस केशरिया तूफान की बुनियाद बने हुए हैं। सूचना क्रांति के कारपोरेट चरित्र और मीडिया विस्फोट से दरअसल सूचना निषेध नहीं है,संपूर्ण भ्रांति में उलझे लाल नील पक्षों के आत्मघात से संघ परिवार के हिंदुत्व एजंडा मुताबिक भारतीय मीडिया अब सर्वत्र वर्ण वर्चस्वी,वर्ग वर्चस्वी और नस्ल वर्चस्वी है।सारस्वत मीडिया प्रमुखों की यह फौज तब जनतादल सरकार में पहली बार सूचना प्रसारण मंत्री बने लालकृष्ण आडवाणी ने तैयार की।कमंडल अभियान मंडल के बहाने जो जो शुरु हुआ ,उसमें भी इस केशरिया खेसड़िया जहरीले ब्रिगेड का बड़ा योगदान है। आडवाणी को रामरथी बतौर पहचाना जाता है, लेकिन हिंदू राष्ट्र के माफिक केशरिया आत्मघाती मीडिया दस्ते के वे जनक हैं और उनका यह योगदान सैम पित्रोदा से कहीं ज्यादा निर्णायक हैं। मीडिया के प्रबंधकों की क्या कहें,जो पैदल सेनाएं हैं,उन्हें भी अपने पांवों पर कुल्हाड़ी मारने से कोई परहेज नहीं है। अटल सरकार के जमाने में बछावत आयोग का महापाप ढोते हुए अधिकांश पत्रकार शार्टकाट से राजनीतिक अनुकंपा के मार्फत अपना वजूद बहाल रखने में मजबूर है।
बछावत मार्फत जो वेतनमान बना वह मानवाधिकार का सरासर हनन है।देश में जब केंद्र और राज्यों के वेतनमान समान हैं, सेना में जब एक रैंक के लिए समान वेतनमान है तो न्याय के किस सिद्धांत के तहत एक ही संस्थान के अलग अलग केंद्रों में एक ही पद पर अलग अलग वेतन मान है,बताइये। महज एक दफा सत्ता में आकर पत्रकारिता को कूकूर जमात में तब्दील करने वाले पेडन्यूज संस्कृति के लोग जब सत्ता में मुकम्मल तौर पर आयेगें,तो मीडिया और अभिव्यक्ति, सूचना के अधिकार का क्या होगा,इसका अंदाज हो या न हो,मीडिया के लोग देश को केशरिया बनाने में रात दिन सातों दिन बारह मास चौबीसों घंटे एढ़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं। और तो और,सोशल मीडिया भी पीछे नहीं है।
यह सब इसलिए हुआ कि समाजिक शक्तियों और उत्पादक शक्तियों को संबोधित करने में हमारी भारी चूक हो गयी। छात्रों युवाजनों और स्त्रियों का सत्तर दशक हमारे हाथों से फिसल गया और हम विचारधारा की जुगाली करते रहे। सामाजिक यथार्थ और वस्तुगत परिस्थितियों के मुताबिक नीतियं के साथ रणनीति बनाने औऱ अमल में लाने वाला कोई नेतृत्व जनपक्षधर मोर्चे में सिरे से अनुपस्थित रहा।
आज हम आप के बहाने मौजूदा तंत्र से बुरी तरह नाराज आम लोगों की गोलबंदी को देख नहीं रहे हैं।देख रहे हैं तो अरविंद केजरीवाल और आप में शामिल तमाम खास चेहरों को।
माफ कीजियेगा,हम तो अरविंद के सवालों के बजाय देख रहे थे कि पूरे गुजरात में हाशिये पर खड़े तमाम लोग कैसे भय को तोड़कर सड़कों पर उतर आये। कच्छ में अनुसूचित जनजातियों को असंवैधानिक तरीके से पिछड़ी जातियों में बदलकर अनुसूचित क्षेत्र का दायरा तोड़कर जिस निरंकुश तरीके से भूम अधिग्रहण हुआ और गुजरात के बाकी हिस्सों में सरकार प्रापर्टी डीलर में तब्दील हो गयी,उसका नजारा हमने भी कच्छ के रण में नमकीन हवाओं की सुगंध में महसूस किया है। इसके विरुद्ध जो जनाक्रोश की आंच है,उसको महसूसने की जरुरत है।
हम उत्तराखंड से हैं और उत्तर भारत के किसान समाज में हमारी जड़ें हैं, जहां कभी अत्यंत शक्तिशाली किसानसभा जिसके नेता और ढिमरी ब्लाक किसान विद्रोह के नेता भी मेरे दिवंगत पिता पुलिन बाबू थे और जिस किसान आंदोलन को हम चरण सिंह से लेकर महेंद्र सिंह टिकैत के हाथों सत्ता समीकरण के दक्षिणपंथ में बदलते देखा है, वहां भी किसानों में नयी हलचल महसूस की जा रही है।
बदलाव के ये तत्व ही निर्णायक हैं न कि कारपोरट जनादेश और सत्ता समीकरण।
हम दरअसल आप के मंच को घेरे उमड़ती हुई भीड़ में अपने लोगों को देख रहे हैं,आंदोलनकारियों की फौज को देख रहे हैं,जनिसे नरंतर संवाद की जरुरत महसूस कर रहे हैं।
संघी हिदू राष्ट्र का एजंडा कोई गोपनीय नहीं है, वह अब मुकम्मल खतरा है और उसका ही निरंकुश चेहरा संघ भाजपी व्यापी नरेंद्र मोदी हैं।सबसे खतरनाक बात तो यह है कि संघ ने अपने लोकतांत्रिक उदार मुखौटों का भी परित्याग कर दिया है। अटल बिहारी वाजपेयी भाजपा के ऐसे प्रधानमंत्री हैं जो राजनीति और राजनय में अविराम कुशल संवाद के पैमाना भी है।भाजपा और संघ तमाम हिंदुत्व नेताओं औरयहां तक कि सरदार पटेल की हिंदुत्व वादी मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा को तत्पर है।
कोई भी कहीं भी वाजपेयी का भूलकर उल्लेख नहीं कर रहा है।
संसद में सबसे अच्छी वक्ता सुषमा स्वराज,कुशल प्रवक्ता अरुणजेटली, कट्टर संघी मुरली मनोहर जोशी से लेकर रामरथी कमंडलधारी लाल कृष्ण आडवाणी तक नरेंद्र मोदी के आगे म्लान हैं।हाशिये पर हैं।
इसे संघ और भाजपा का संकट समझने की भूल कतई न करें.यह अनागत केशरिया भविष्य का अशनिसंकेत है।
नरेंद्र मोदी सुनामी का सबसे बड़ा खतरा लोकतंत्र और उदारता का,मानवता और नागरिकता, संविधान,कानून का राज,देश के संघीय ढांचे का अवसान है।
हम मामूली किसान शरणार्थी परिवार के बेटे हैं। हमारी तुलना में आपकी शिक्षा दीक्षा बेहद उच्च कोटि का है।
आपसे विनम्र निवेदन किंतु यही है कि आसन्न केशरिया कयामत की तेज दस्तक को सुनने में भूल न करें, नमोसुनामी कोई परिकल्पना मात्र है तो उसके कार्यान्वयन के आसार भी पूरे हैं।
चूहो की दौड़ भागते जहाजों से हैं और न उन्हें देश की परवाह है और न देसवासियों की। उनकी दृष्टि और हमारी दृष्टि में कोई फर्क नही होना चाहिए।
आज मैने लाल पर लिखा है तो समय समय पर नील पर भी खूब लिखा है। जिस बहुजन अस्मिता की नींव पर केशरिया तिलिस्म तामीर हो रही हैं, संगमरमरी उस इतिहास के तमाम नीले कारगरों के हाथ भी ताजनिर्मातओं की तरह काट दिये गये हैं या काट दिये जायेंगे।
इसी लिए हमने उनसे सवाल भी किया है कि जाति अस्मिता क्या चीज है कि धोकर पीन से सामाजिक न्याय का लक्ष्य हासिल हो जायेगा।
कृपया उसे भी पढ़े लें।और इस मंतव्य के साथ जोड़कर पढ़ लें।
साथी अशोक कुमार पांडेय ने फेसबुक वाल पर लिखा हैः
पहले कांग्रेस वाले दुखी थे "आप" से, अब निक्करधारी संघी तो जैसे पगला गये हैं. उनका चले तो केजरीवाल के चड्ढी का ब्रांड भी पता करके उसकी आलोचना कर दें. पागलपन की हद यह कि आरोप लगाए जा रहे हैं कि वह यह सब नाम कमाने के लिए और चुनाव जीतने के लिए कर रहे हैं. तो भैया ये साहेब चाय क्या देश का कुपोषण दूर करने के लिए पी/पिला रहे हैं? उन्होंने सवाल किये हैं और सवाल करना हर नागरिक का हक है, जवाब नहीं है तो गाली गलौज से जनता बेवकूफ नहीं बनेगी.
"आप" को लेकर मेरी असहमतियां तीख़ी हैं लेकिन कोई दुश्मनी नहीं. वाम के जो साथी भी आपा खोये दे रहे हैं उन्हें थोड़ा नियंत्रण रख के मुद्दों पर आलोचना और असहमति दर्ज करानी चाहिए. याद रखें "असहमति के साहस के साथ सहमती का विवेक ज़रूरी है"
लाइक किया हैः
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You, Faisal Anurag, Girijesh Tiwari, Bharat Singh and 54 others like this.
अशोक कुमार पांडेय ने टिप्पणियों के जवाब में लिखा है
हिमांशु सोनी
Achutanandsharma Sharma Nice! Fascism is the most primary inherent characteristic of RSS-BJP wandwagon.
Abhishek Goswami सटीक विश्लेषण ।
Palash Biswas अशोकजी, मेरी समझ में तो यह नहीं आ रहा है कि नमोमयभारत निर्माण सुनामी के खिलाफ तिनकों का जो प्रतिरोध आप खड़ा कर रहा है,उसको भी तहस नहस करने की यह पुरजोर कोशिश किसके काम आयेगी।पहले आप तय कर लें कि आपको हिंदू राष्ट्र चाहिए या नहीं और उसके मुताबिक मोदी का विरोध जरुरी है पहले कि अरविंद कीखिंचाई।
मैं आपसे सौ फीसद सहमत हूं।मुझे मालूम है कि पहले से ही संघ परिवार आप से किस बुरी तरह परेशान है।पगलाये हुए सांढड के आगे लाल झंडा हिलाने का माहौल है वहां।
जो मुद्दे वाम को उटाने चाहिए थे,वे मुद्दे अरविंद केजरीवाल उठा रहे हैं।इसमे बुराई क्या है।उन मुद्दों पर बहस केंद्रित करने के बजाये बेमतलब आप पर निशाना साध कर हम संघियों की मुश्किल आसान कर रहे हैं।
नरेंद्र मोदी के हक में तो भाजपाई भी नहीं हैं।न अटल,न आडवाणी,न जोशी,न सुषमा,न जेटली।
हम लोग संघी सिपाहसालार बनने को रामविलासी उदितराजी जयी ममताई मायामय मुलायम भूमिका निभाने को इतने बेताब है।
Palash Biswas फेसबुक पर जो लोग सिरे से हैं,उन्होंने हमारे,जगदीश्वर जी,सुरेंद्र ग्रोवर,राजीव नयन,उदय प्रकाश,मोहन क्षोत्रियजी जैसे अनेक साथियों के आप के बारे में बदलते आकलन को देख रहे होंगे।हम आप को भाव इतने दे रहे हैं क्योंकि हमारे पास दूसरा चारा है ही नहीं।जिनके भरोसे वाम हैं,वे भीतरी केशरिया हैं और उनका केशरिया या तो निखर चुका है या पिघलकर बाहर आने को है।
Palash Biswas एकदम अकेले वाम है और अब तो नीला भी केशरिया हुआ जाये है।
Palash Biswas बंगाल में हम वाम दुर्गति देख रहे हैं।गुरुदास दासगुप्त का विकल्प तैयार नहीं हो पाया।कामरेड ज्योति बसु और प्रमोद दासगुप्त की छोड़िये। वासुदेव आचार्य जैसे नौ बार के संसदीय चेहरे के मुकाबले पिटे हुए ग्लिमर के मुनमुन मजबूत है,इससे ज्यादा फजीहत क्या हो सकती है।
Palash Biswas सुभाषिणी अली को,और वृंदा कारत को भी नारी दिवस पर हजारो टन कागद कारे करने वालों को पार्टी पोलित ब्यूरो में कब के शामिल कर लेना चाहिए था। करते तो उत्तर भारत में लाल झंडा सिरे से गायब न हुआ होता।
Palash Biswas वृंदा के लिए लोकसभा की कोई सीट नहीं मिली कि अफसोस कि सुभाषिनी को भी बैरकपुर से जिता लेने की कोई हालत नहीं है।
Palash Biswas बीस सीटें तक जीतने की हालत नहीं है और बीसियों मीटर छलांग कर मौकापरस्तों के भरोसे तीसरे मोर्चे से क्या खाक रोकेंगे नमोमय भारत को।
Palash Biswas धर्मोन्मादी देश में धर्मनिरपे&ता का कोई मोर्चा बना ही नहीं है।
Palash Biswas बेहतर हो कि साफ साफ तय यह कर ले कि हमें आखिर मोदी को रोकना है या केजरीवाल को
प्रतिक्रिया में पामबर्ड मोटघरे ने लिखा है |
मोदी गुजरात की कुछ अनकही बातें
1.एक ऐसा राज्य है जिसके दो मिनिस्टर जेल में है और दो बैल पे बहार घूम रहे है उसमे से जो गृहमंत्री था ओ कुछ दिनों के लिए गुजरात से तडीपार किया गया था
ये सब मिनिस्टर संगीन जुर्म के अपराधी है
2.गुजरात एक ऐसा राज्य है जहा विधानसभा और कैबिनेट ऑफ़ मिनिस्टर नाम के लिए है वहा कभी विधानसभा नाम के लिए दो तिन दिन चलाई जाती है और कभी भी कैबिनेट क बैठक नहीं होती
3.गुजरात राज्य के 45%बच्चे कुपोषित है जो भारत देश में सबसे जादा है
4.गुजरात राज्य की51%महिलाये औसत वजन से कम वजन की है
5.गुजरात राज्य का शिक्षा क्षेत्र में18 क्रमांक है जो दस साल पहले 9वा क्रमांक था
6.गुजरात राज्य भारत का सबसे ज्यादा कर्जबाजारी राज्य है जो 175000करोड़ है
इसका मतलब गुजरात में हर एक आदमी पर 24हजार कर्ज है जो भारत में सबसे ज्यादा है
7.भारत में सबसे ज्यादा टैक्स वसूलने वाला राज्य गुजरात है
8.भारत मै सबसे कम पढ़ा लिखा मुख्यमंत्री (less educated) गुजरात का है
9.भारत में सबसे ज्यादा खुदपे खर्च करने वाला cm गुजरात का है
10.भारत मैं सबसे ज्यादा बेरोजगारी गुजरात में है l
यह है मोदी के गुजरात की हकीकत
जाति कौन सी चीज है,जिसे धोकर पी जायेंगे तो सामाजिक न्याय और समता का लक्ष्य हासिल हो जायेगा?
माननीय एचएल दुसाध जी के फेसबुक वाल से
ढसाल में 99% कमियां:एक मार्क्सवादी सह आंबेडकरवादी
एच एल दुसाध
मित्रों कुछ देर पहले(9-9.40pm) मोबाइल पर एक ऐसी शख्सियत से लम्बे वार्तालाप में मशगूल था जिन्हें मार्क्सवादी अर्थात सवर्ण एकमात्र दलित चिन्तक मानते हैं.सवर्ण मार्क्सवादियों में उनकी लोकप्रियता का यह आलम है कि पिछले वर्ल्ड बुक फेयर में मेरे जिले का एक मार्क्सवादी,जो शायद अपना जनपदवासी होने के ना...See More
इस पोस्ट में उन्होंने हमारे आदरणीय मित्र आनंद तेलतुंबड़े के धसाल को महाकवि न मानने पर अपना उद्गार व्यक्त करते हुए मेरा उल्लेख भी कर दिया है।इस संबंध में दोनों मित्रों के बीच हुए संवाद में मैं बीच में फंस गया हूं।
आनंद जी ने धसाल जी के उद्गार पर जो विनम्रता पूर्वक निवेदन किया,उसके जवाब में उन्होंने आनंद जी को जो जवाब दिया,उसका लब्वोलुआब यही हैः
सर शाम को आपने वार्तालाप के दौरान ढसाल के विषय में जो राय दी वह स्तंभित करनेवाली रही.बातों-बातों में मैंने यह भी उपलब्धि किया कि डाइवर्सिटी के प्रति भी आप में सम्मान का भाव नहीं है.हम व्यक्ति के रूप में तो परस्पर के प्रति आदर रख सकते हैं ,पर वैचारिक रूप से नदी के ऐसे दो किनारे हैं जिनका मिलना मुमकिन नहीं दीखता.आप बेसिकली मार्क्सवादी हैं,यह यकीं आज और पुख्ता हुआ.
इल बारे में दुसाध जी से और आनंद जी से मेरी सविस्तार बात हुई है।
इस गर्मागर्म बहसबाजी से सविता सख्त नाराज हो गयी है और मुझे जिम्मेदार ठहरा रही हैं कि क्यों मेंने दुसाध जी से आनंद की बात करायी।
गौरतलब है कि जब अरविंद केजरीवाल की सरकार दिल्ली में बनी तब एनजीओ सरकार के प्रतिरोध की गरज से नया राजनीतिक दल खड़ा करने के कार्यभार के साथ नईदिल्ली से दुसाध जी का प्रस्थान हुआ,पटना में उन्होंने एक कामयाब सम्मेलन भी किया और दिल्ली से चलने से पहले उन्होंने हमें जो सूचना दी,उसके मुताबिक वे हमारे यहां आ पधारे।
उन्होंने सीधे कहा कि आपको इस राजनीतिक दल का चेहरा बनना है।
जाहिर है कि जैसा भी है,मेरा चेहरा मेरा है और वह कम से कम राजनीति का चेहरा हो,ऐसा तो मैं मान ही नहीं सकता।बेहतर होता कि दुसाध जी कोई फिल्म निर्माता निर्देशक होते और हमें अपनी फिल्म का चेहरा बनाने का प्रस्ताव देते तो मुझे खुशी खुशी रजामंद होने में कोई दिक्कत नहीं थी।
चूंकि दुसाध जी बेहद ईमानदारी से लिखते हैं और बहुत अच्छा लिखते हैं तो उस दिन से लगातार हम उनसे निवेदन कर रहे हैं कि हम तो चाहते हैं कि वे महाबलि हनुमान हों ,लेकिन हम नहीं चाहते कि वे रामभक्त हनुमान बनें।
उनके साथ भाजपा नेता लल्लन सिंह आये थे।
दुसाध जी के डायवर्सिटी विचारों पर हम सहमति जता चुके हैं।समता और सामाजिक न्याय की बत करने वाले किसी भी शख्स को सैद्धांतिक तौर पर इससे कोई ऐतराज नहीं है।हमारे अन्य मित्र भी उनसे सहमति जता चुके हैं ।
सविता की चेतावनी के बावजूद कि सत्ता की राजनीति में हमारी कोई दिलचस्पी नहीं है और हमारे पूरे परिवार की तरफ से अपना वीटो भी तलाक की धमकी के साथ उन्होंने लगा दिया,हम राजनीतिक परिदृश्य पर लंबी बहस में उलझते रहे और इस पर सहमति हुई कि सत्ता की राजनीति से हमारा कोई लेना देना नहीं है।इसी के मध्य आनंद तेलतुंबड़े का फोन आ गया,जिनसे बात करने की इच्छा दुसाध जी जता चुके थे।
हमने दुसाध जी को आनंद का फोन थमा दिया और उन्होंने भी सामाजिक बदलाव के मद्देनजर राजनीतिक सत्ता समीकरण को गैर प्रासंगिक बता दिया।
उस दिन भी नामदेव धसाल पर दुसाध जी से हमारी बात हुई थी। बार बार होती रही है। हमारा साफ साफ कहना है कि नामदेव दलित अस्मिता के कवि रहे हैं और उनकी कविता से बड़ा योगदान उनका दलित पैंथर आंदोलन है। हम न तो नामदेव धसाल को मुक्तिबोध या निराला से बड़ा कवि मानेंगे,न सुकांत भट्टाचार्य या पाश से बड़ा कवि।लेकिन हम उनकी कविताओं के प्रशंसक रहे हैं।न हम ओम प्रकाश बाल्मीकि को प्रेमचंद से बड़ा कथाकार मानेंगे और न कंवल भारती को रामविलास शर्मा और विजयदान सिंह चौहान से बड़ा आलोचक। यह हमारा मूल्याकंन है।
किसी के कहने से हमारे विचार नहीं बदलेंगे,हमारी दृष्टि,सामाजिक यथार्थ के बदलते संदर्भ ,हमारे इतिहास बोध,वैज्ञानिक दृष्टिकोण,सौंदर्यबोध और अवधारणाओं और विचारों को जोड़ने तोड़ने की हमारी क्षमता के मुताबिक ही विचार बनेंगे बिगड़ेंगे।
कम से कम विचारों के मामले में हम मौकापरस्त नहीं है।सत्ता समीकऱण और निजी लाभ हानि की वजह से लोगों के विचार और जीवन बदले जाते हैं,पक्ष पक्षातंरित हो जाते हैं,हम फिलहाल अपने को इस विपर्यय से बचाने की कोशिश कर रहे हैं।चारों तरफ से अभिमन्यु की तरह घिर जाने के बाद हमारा क्या हश्र होगा हम भी नहीं जानते।
इस बारे में हमने विस्तार से लिखा भी है कि दलित पैंथर आंदोलन का विचलन कोई अलग घटना नहीं है।यह समूचे अंबेडकरी आंदोलन की तार्किक परिणति है.जो अपने बुनियादी जाति उन्मूलन के एजंडे से ही भटक गया।
अगर भारत में सही मायने में दलित साहित्य की बात की जाये तो शैलेश मटियानी का लिखा से बेहतर कोई दलित साहित्य हमारी जानकारी में नहीं है।लेकिन आजीवन कसाई परिवार में जनमने के बावजूद एकदम शास्त्रीय लेखन क्षमता वाले शैलेश जी ने अपने को कभी दलित नहीं माना।वे प्रगतिशील थे।एक निजी हादसे की वजह से नितांत अकेलेपन और टूटन में उन्होंने भी संघ परिवार की शरण ली धसाल की तरह।
निजी तौर पर इसके लिए हम न नामदेव धसाल और न शैलेश मटियानी को इसका जिम्मेदार मानते हैं। हम लोगों ने धूमिल का अंत देखा है।पाश की शहादत देखी है और गोरख पांडेय की खुदकशी से भी वास्ता पड़ा हमें।
इन तमाम लोगों के लिए जो हालात बने,उनसे उन्हें बचाने लायक कोई शरण स्तल हम नहीं बना सकें तो जहां उन्हें शरण मिल सकती थी वे वहां गये,या बेमौत मारे गये पाश की तरह या गोरख ने आत्महत्या कर ली। आज वरवरा राव और गद्दर के अवस्थान में फर्क आया है। लेकिन चेरावंडा राजू की जमात में वे दोनों हैं और रहेंगे।
किसी प्रतिबद्ध कार्यकर्ता और संस्कृति कर्मी की रचनाधर्मिता उसकी सामाजिक सक्रियता से बनती बिगड़ती है।विचारधारा ,आंदोलन और संगठन के विचलित होने की हालत में अकेले व्यक्ति पर तमाम लांछन लगाना शायद न्याय भी नहीं है।
जो लोग रास्ता भटक गये, जो लोग अलग थलग हो गये, उनके लिए कारंवा की भी बड़ी जिम्मेदारी है,हमारा ऐसा मानना है।
हमें व्यक्तियों को अपनी अपनी फतवेबाजी से ईश्वर बनाने की वर्चस्ववादी प्रवृत्तियों से बचना चाहिए कम से कम कला और साहित्य के मामले में।
कल ही हमारे फिल्मकार मित्र जोशी जोसफ,जिनकी पूर्वोत्तर बनायी बेहतर फिल्मों के जरिये हमारी यात्रा मणिपुर के इमा खैथलों से लेकर इरोम शर्मिला के आफसा विरोधी आंदोलन में भागेदारी तक चल रही है, उनसे लंबी बातचीत हुई।
प्रतिरोध के सिनेमा के दिल्ली आयोजन के मौके पर हमने खुद अपनी गैरहाजिरी के एवज में एक नोट लिखकर भारतीय उपमहाद्वीप के एक तिहाी लोगों के अपढ़ और नब्वे फीसद लोगों के बाजारु अर्धपढ़ होने के मद्देनजर तेजी से गैरप्रासंगिक होते जा रहे प्रिटं के विकल्प बतौर विजुअल मीडिया को पेश करने की दलीलें दी थीं।
चूंकि न हम फिल्मकार हैं और न इस माध्यम के विशेषज्ञ,हमने आनंद पटवर्द्धन के अति प्रसंगिक फिल्मों के हवाला देते हुए यही लिखा था कि निःसंदेह जय भीम कामरेड जैसी उनकी फिल्म जमीन तोड़डती है,लेकिन उनकी शास्त्रीयता को भी तोड़ना जरुरी है।
जैसे हम बार बार कहते रहे हैं कि आनंद तेलतुंबड़े या अरुंदति राय,गौतम नवलखा या सुभाष गाताडे जैसे अनेक लोग सामाजिक यथार्थ को बड़ी शिद्दत और काबिलियत से संबोधित करते हैं,लेकिन उनके पाठक हमेशा सत्ता वर्ग के होते हैं।जिन वंचितों के हालात बदलने के लिए वे लिखते हैं,उनतक उनकी बात पहुंच ही नहीं पाती।
आम लोगों को सत्ता,राजनीति,राष्ट्र,समाज और अर्थव्यव्स्था में हो रहे बदलाव के बारे में सही सही सूचना ही नहीं हो पाती।इसलिए वे भाव वादी तरीके से सोच रहे होते हैं।
जैसे अभिनव सिन्हा की टीम ने एक बड़ी पहल की जाति विमर्श को फोकस करने के सिलसिले में। लेकिन जिस तबके को संबोधित किया जाना है,उनकी मानसिक तैयारी के बारे में उन्होंने सोचा ही नहीं।
यह ऐसा ही है कि जैसे किसी सर्जन ने मरीज को आपरेशन थियेटर में ले जाकर जीवनदायी प्रणालियों को एक्टिवेट किये बिना ,एनेस्थेशिया दिये बिना सीधे दिमाग की चीरफाड़ शुरु कर दी हो।
ऐसे चिकित्सकों की इन दिनों बेहद भरमार है।
जोशी आनंद पटवर्द्धन के बारे में हमारी टिप्पणी से खासे नाराज हैं। वे पटवर्द्धन के उतने ही दोस्त हैं जितने हमारे।
कल हमसे बोले,तुम छोटी फिल्मों की बात करते हो,हमने अभी दो घंटे की फिल्म बनायी है।तुम्हारे लिए अलग स्क्रीनिंग करेंगे।आओ देखो.फिर बात करो माध्यम पर।
जाहिर सी बात है कि कोई भी बढ़िया निर्देशक अपने माध्यम में बाहरी हस्तक्षेप बर्दाशत नहीं करता।
जोशी ने आगे जो कहा, वह बेहद महत्वपूर्ण है। उसके मुताबिक साहित्य और कलामाध्यमों के दो अनिवार्य तत्व है,पालिटिक्स और पोयेटिक्स।इन पर बात करने के लिए दोनों दुरुस्त होने चाहिए।
राज्यतंत्र की समझ के बिना सामाजिक यथार्थ की दृष्टि से रचनाक्रम करना असंभव है तो इतिहासबोध से लैस वैज्ञानिक दृष्टिकोण आधारित सौंदर्यबोध के बिना किसी भी तरह का मूल्याकन नाजायज है।
हम चाहते हैं कि दुसाध जी इस वक्तव्य के तात्पर्य को समझें।
हम इस व्यक्तिगत संवाद को सार्वजनिक नहीं बनाते अगर इसका सार्वजनिक महत्व नहीं होता।दुसाध जी ने पहले ही अपना उद्गार फेसबुक वाल पर डालकर निजी संवाद को सार्वजनिक बना चुके हैं।
क्योंकि मैं बीच में फंसा हुआ हूं तो मुझे भी अपनी सफाई देने का हक है। इसीसिलसिले में आनंद ने दुसाध जी की सहमति से अपना जो जवाब मेरे साथ साझा किया,उसे मैं ानंद की सहमति से आप सबके साथ साझा कर रहा हूं।
दुसाध जी अगर डायवर्सिटी के अपने सिद्धांतों को लेकर गंभीर हैं तो उन्हें फतवेबाजी से बाज आना होगा।और बहुजन अंबेडकरी राजनीति के माफिक टैग लगाने से परहेज करना होगा।हमने उनसे इस सिलसिले में बात भी की है।
अगर हम निराला या टैगोर को ब्राह्मण कवि नहीं कहते, प्रेमचंद को लाला कथाकार नहीं कहते, फिल्मों को जाति पहचान के हिसाब से नहीं देखते,बाजार,उत्पादन प्रणाली और श्रमसंबंधों में जाति वरीयता नहीं देखते,तो साहित्यऔर कला में विचारधारा और पहचान के आधार पर इस किनारे उस किनारे की बात करके डायवर्सिटी के सिद्धांत का मखौल क्यों उड़ा रहे हैं।
सांप्रतिक इतिहास में बाबा साहेब अंबेडकर और महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरु और नेताजी सुभाष चंद्र बोस से लेकर इंदिरागांधी और कामरेड ज्योति बसु में भयंकर वैचारिक मतभेद के बावजूद संवाद का सिलसिला हमेशा कायम रहा है।
अटल बिहारी वाजपेयी की राजनीति और राजनय संवाद की हालिया बेहतरीन मिसाल है।वाजपेयी की वजह से ही केंद्र में भाजपी की सरकार बनी,यह बात संघ परिवार मान लें तो यह राष्ट्र और यह समाज बेवजह रक्त नदियों के डूब में समाहित होने से बचेगा और भाजपा के लिए सत्ता समीकऱण धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के खूनी खेल के बजाय स्वस्थ लोकतांत्रिक विकल्प बतौर बनना ज्यादा व्यवहारिक होगा।
इस सत्य को नजरअंदाज करके लौह पुरुष लाल कृष्ण आडवाणी मुंह की का चुके हैं और धर्मोन्मादी सुनामी के जरिये भाजपा चेहरा बनकर देश का प्रधानमंत्री बनने के लिए रोजाना जो भयंकर गलतियां नरेंद्र मोदी कर रहे हैं,वह देश के लिए जितना खतरनाक है उससे कम खतरनाक न शंघ परिवार के लिए है और न नरेंद्र मोदी स्वयं के लिए।
हमने दैत्य,राक्षस, दानव,यक्ष,असुर, किन्नर जैसे पौराणिक टैगो का हवाला देते हुए कहा था कि ये सारे टैग नस्ली नरसंहारक टुल हैं।अस्मिता ऐसा ब्रह्मास्त्र है,जिसका परिणाम हमेशा आत्मघाती होता है।
वीटी राजशेखर की बड़ी भूमिका रही है,लेकिन उनकी परिणति जाति अंधता में हुई।हमारे ज्यादातर कामरेड विचारअंध हैं। मायावती की जाति अंधता बहुसंख्य आम जनता की नियति सी बन गयी है।
जाति पहचान के जरिये सशक्तीकरण के फायदे पाने वाली जातियों के नाम गिना दीजिये तो बाकी छह हजार जातियों की जाति अंधता का औचित्य पानी की कतरह सरल हो जायेगा।
हमारे हिसाब से तो भ्रष्टाचार की जड़ है यह जाति व्यवस्था और उसकी विशुद्धता का सिद्धांत।वर्णवर्चस्वी इंतजामात में भ्रष्टाचार का कारखाना है और ऴंशवादी वायरल से बचता वनहीं कोई छोटा या बड़ा। जाति और विवाह के जटिल प्रबंधकीय खर्च के लिए ही बेहिसाब अकूत संपत्ति अर्जित करने की जरुरत होती है।
बंगाल में 35 साल के वाम शासन से और जो हुआ हो,उससे इतना तो जरुर हुआ है कि वैवाहिक संबंधों में जाति धर्म या भाषा का टंटा खत्म है और दहेज न होने की वजह से सार्वजनिक जीवन में तमाम समस्याओं और आर्थिक बदहाली के बावजूद लोग तनावरहित आनंद में हैं।
जहां जाति का बवंडर ज्यादा है,वहां अंधाधुंध कमाने की गरज बाकायदा कन्यादायी पिता की असहाय मजबूरी है।उत्तर भारतीय परिवार और समाज में ज्यादा घना इस जाति घनघटाों की वजह से ही हैं।
और समझ लीजिये कि आपकी पहचान का फायदा उठाकर कैसे कैसे लोग आपके मत्थे पर बैछकर हग मूत रहे हैं और आप तनिक चूम करें कि चूतड़ पर डंडे बरसने लगे।
जाति राजनीति की वजह से आप प्लेटो में परोसे जाने वाले मुर्ग मुसल्लम को रहमोकरम पर हैं।
आप जाति उन्मूलन कर दीजिये।विवाह संबंधों को खुल्ला कर दीजिये,भ्रष्टाचार की सामाजिक जड़ें खत्म हो जायेंगी।
हम वीटीआर की नाराजगी का शिकार हुए हैं।
हम कोई चुनाव लड़ नहीं रहे हैं कि बहुमत का समर्थन हमारे लिए अनिवार्य है।
दुसाध जी,आप इसे समझ लें कि हम आपके इन विचारों को भावनाों के विस्पोट के अलावा कुछ नहीं समझते।हम आपके लिखे और आपके विचारों का समर्थन करते हैं।
लेकिन यह तो आप हैं जो अपने विचारों और सिद्धांतों के विपरीत आचरण कर रहे हैं।
कृपया मोदियाइये नहीं।
जाते जाते हम आनंद के नीचे दिये गये पत्र के मुताबिक वंचितों को न्याय दिलाने और सामाजिक न्याय और समता के लक्ष्य के लिए वंचित समुदायों को चिन्हित करने की हद तक,उनके समान अवसर और संसाधनों में हिस्सेदारी सुनिश्चित करने की हद तक अस्मिताओं का उल्लेख कर सकते हैं,लेकिन राजनीतिक या वैचारित टुल की तरह कदापि नहीं।
फिर हम मानते हैं कि नदियों के किनारे भी मिलल जाते हैं कभी कभार तो सामाजिक अंतर्विरोधों को सही तरीके से संबोधित करके हम सभी नयी दिसा भी बना ही सकते हैं।
और इसीलिए किसी भी तरह के मतभेद के बावजूद इस वक्त संवाद बेहद जरुरी है।
जिन भगवा महानों से हम सिरे से असहमत हैं,उनसे भी संवाद की संबावना से हम इंकार नहीं करते।
आप तो खैर मित्र हैं।जो रूठते रहेंगे और मनाये भी जाते रहेंगे।
लेकिन बेहतर होगा कि रूठने का बचपना से हम बचें और वस्तुपरक सोच अपनाकर बालिग जरुर बनें।
| 9:40 AM (4 hours ago) | * | ||
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Dear Dusad ji,
I am sorry if I hurt your feelings because my opinions did not concur with yours. But to say that we constitute two banks of river that would never meet is a hasty conclusion. Because the sincerity that you have been reflecting in your writings and reflected during our meeting and most opinions you express and on the contemporary issues gave me an impression that we could carry on our discussions. Our opinions etc. are not cast in stone; they are the products of our reflection of our social experience, which in a dynamic world should be subject to change. So long as we reflect it with objectivity within the confines of our commitment to the cause of downtrodden (emancipation of humanity, rather), there is absolutely no issue. There will always be meeting point.
Your labeling me as Marxist is again pasting some identity on me. I have a serious problem with these labels. I do not consider myself as any 'ist or ite'. This kind of labeling also is identitarian fixation. I do not really know what Marxism is and least its utility because in my observation these identities have only done damage in dividing people with identitarian intoxication that prevented them seeing other's viewpoint objectively in the attempt of working together. (as you did yourself) Palash and I always thought you are a valuable resource in the battle for emancipation of our people. [I take liberty to mark this mail to Palash as I referred to his opinion. I trust, you will not mind.]
Anyways. you are respected for what you think but we would continue viewing you as our friend.
Regards
Anand
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