लोकतंत्र किस चिड़िया का नाम है: अरुंधति रॉय
Posted by Reyaz-ul-haque on 3/27/2014 02:04:00 AMइन दिनों, जब देश को उस इंसान को अपने प्रधानमंत्री के रूप में चुने जाने के लिए तैयार किया जा रहा है, जिसकी निगरानी में गुजरात में दो हजार से ज्यादा मुसलमानों का जनसंहार किया गया, सैकड़ों महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया, बच्चों को मारा गया और मुसलमानों की संपत्ति को लूट कर उनकी आजीविका को तबाह किया गया, उन्हें विस्थापित और बेदखल कर दिया गया, तो हमें भारत के इस संसदीय लोकतंत्र के बारे में सोचने और विचार करने की जरूरत है, जिसके जरिए फासिस्ट हत्यारे सत्ता में आते रहे हैं. यह भी देखने की जरूरत है कि क्या फासीवाद भारत में किसी एक पार्टी तक सीमित है, या यह सत्ता और शासक वर्ग का बुनियादी चरित्र है. इसी से यह सवाल भी पैदा होता है कि क्या इस देश में संसदीय लोकतंत्र की मौजूदा व्यवस्था किसी भी रूप में फासीवाद से लड़ने, उसे सत्ता से बेदखल करने और दूर रखने में सक्षम है? हाशिया पर इस सिलसिले में लेखों का एक सिलसिला शुरू किया जा रहा है, जिसमें हम इन सभी सवालों पर गौर करेंगे. इस सिलसिले में सबसे पहले हम 2002 में गुजरात में हुए जनसंहार और उसके अनेक पहलुओं के बारे में पढ़ते हैं. अरुंधति रॉय का यह लेख पहले पहल 6 मई 2002 को आउटलुक में छपा था. यह उनकी किताब लिसनिंग टू ग्रासहूपर्स में संकलित है. इसका हिंदी अनुवाद जितेंद्र कुमार ने किया है और संपादन नीलाभ का है.
पिछली रात वडोदरा से एक मित्र ने फोन किया. रोते हुए. उसे मुझको यह बताने में पन्द्रह मिनट लगे कि बात क्या है. बात कोई पेचीदा नहीं थी. बस इतनी कि उसकी एक सहेली सईदा को भीड़ ने पकड़ लिया था. और यही कि उसके पेट को फाड़ कर उसमें जलते हुए चीथड़े भर दिये गये थे. और यही कि मरने के बाद उसके माथे पर किसी ने 'ओम' गोद दिया था.[1]
आखिर कौन-सा हिन्दू धर्म-ग्रन्थ ऐसा करने का उपदेश देता है?
प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी ने गुजरात की बर्बरता को यह कह कर न्यायोचित ठहराया है कि यह गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस के 58 हिन्दू यात्रियों को जिंदा जला देने वाले मुस्लिम 'आतंकवादियों' के खिलाफ भड़के हिन्दुओं के बदले की कार्रवाई का हिस्सा था.[2] जो लोग इस तरह की भयावह मौत मरे उनमें से हरेक किसी का भाई, किसी की माँ, किसी का बच्चा था. वे यकीनन थे. कुरान की किस आयत में लिखा है कि उन्हें जिंदा भून दिया जाना चाहिए था?
दोनों पक्ष एक-दूसरे का कत्ल करके जितना अधिक अपने धार्मिक मतभेदों की ओर ध्यान आकर्षित करने की कोशिश करते हैं, उतना ही उनके बीच अन्तर करना मुश्किल होता जाता है. वे एक ही वेदी की पूजा करते हैं. दोनों एक ही हत्यारे देवता के उपासक हैं, वह चाहे जो भी हो . जो माहौल इतना जहरीला बना दिया गया हो, उसमें किसी भी व्यक्ति के लिए, खासकर प्रधानमन्त्री के लिए, मनमाने ढंग से यह घोषणा करना कि यह कुचक्र ठीक-ठीक कहाँ से शुरू हुआ, दुर्भावनापूर्ण और गैर-जिम्मेदाराना है.
इस वक्त हम एक जहर-घुला प्याला पी रहे हैं-एक खोटा लोकतंत्र जिसमें धार्मिक फासीवाद मिला है. खालिस जहर!
हम क्या करें? हम कर क्या सकते हैं?
हमारी सत्ताधारी पार्टी रक्तस्राव से पीड़ित है. आतंकवाद के खिलाफ उसकी रटंत, पोटा पास कराना, पाकिस्तान के खिलाफ हुंकारे भरना (जिनमें परमाणु हथियार इस्तेमाल करने की धमकी छिपी है), सीमा पर इशारे के इंतजार में खड़ी दस लाख की फौज और सबसे खतरनाक—स्कूली पाठ्यक्रम में इतिहास की किताबों को साम्प्रदायिक रंग देने और झूठ से भर देने की कोशिश—इनमें कोई भी जुगत उसे एक के बाद दूसरे चुनाव में मात खाने से नहीं बचा सकी है.[3] यहाँ तक कि उसकी पुरानी चाल—अयोध्या में राम मन्दिर योजना को नये सिरे से शुरू करना—भी किसी काम नहीं आयी है. हर तरफ से हताश पार्टी ने इस गाढ़े समय में गुजरात का रुख किया है.
गुजरात देश का अकेला बड़ा राज्य है, जहाँ भाजपा की सरकार है और जो पिछले कुछ वर्षों से ऐसी पैट्री डिश (बैक्टीरिया सम्बन्धी प्रयोग के लिए काम आने वाली आधी ढँकी तश्तरी) बन गया है, जिसमें हिन्दू फासीवाद व्यापक राजनैतिक बीजाणु पैदा करने का प्रयोग साधने में जुटा हुआ है. मार्च 2002 में प्रारम्भिक नतीजों का सार्वजनिक प्रदर्शन किया गया.
गोधरा की हिंसा के कुछ ही घण्टों के भीतर मुस्लिम समुदाय के खिलाफ बहुत सावधानी से नियोजित सफाया-अभियान (पोग्रोम) शुरू किया गया. इसकी अगुवाई हिन्दू राष्ट्रवादी विश्व हिन्दू परिषद और बजरंग दल कर रहा था. सरकारी तौर पर मृतकों की संख्या 800 है, लेकिन निष्पक्ष रिपोर्टों के मुताबिक, यह संख्या 2000 से ज्यादा हो सकती है.[4]
घरों से खदेड़ दिये गये डेढ़ लाख से ज्यादा लोग अब शरणार्थी शिविरों में रह रहे हैं. औरतों को नंगा करके उनके साथ सामूहिक बलात्कार किया गया, बच्चों के सामने उनके माँ-बाप को पीट-पीट कर मार डाला गया. 240 दरगाहें और 180 मस्जिदें तबाह कर दी गयीं. अहमदाबाद में आधुनिक उर्दू शायरी के संस्थापक वली दकनी के मकबरे को ध्वस्त करके रातों-रात पाट दिया गया. मशहूर संगीतकार उस्ताद फैयाज अली खां के मकबरे को अपवित्र कर उस पर जलते हुए टायर टाँग दिये गये.[10] दंगाइयों ने मुसलमानों की दुकानों, घरों, होटलों, कपड़ा-मिलों, बसों और निजी कारों को लूटा और उनमें आग लगा दी. लाखों लोग बेरोजगार हो गये हैं.[5]
अहमदाबाद में भीड़ ने कांग्रेस के पूर्व सांसद एहसान जाफरी का घर घेर लिया. पुलिस महानिदेशक, पुलिस आयुक्त, मुख्य सचिव और अतिरिक्त मुख्य सचिव (गृह) को किये गये उनके फोन अनसुने कर दिये गये. उनके घर के गिर्द पुलिस की गश्ती गाड़ियों ने कोई हस्तक्षेप नहीं किया. भीड़ ने एहसान जाफरी को उनके घर से बाहर घसीट कर उनके टुकड़े-टुकड़े कर दिये.[6]
अलबत्ता, यह महज इत्तफाक है कि फरवरी में हुए राजकोट विधानसभा उपचुनाव में एहसान जाफरी प्रचार अभियान के दौरान मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की तीखी आलोचना करते रहे थे.
पूरे गुजरात में हजारों लोग इन दंगाइयों में शामिल थे. वे पेट्रोल बमों, बन्दूकों, चाकुओं, तलवारों और त्रिशूलों से लैस थे.[7] विहिप और बजरंग दल के आम लम्पटों के अलावा लूट-मार में दलित और आदिवासी भी शामिल थे जो बसों और ट्रकों में भर-भर कर लाये गये थे. लूट-पाट में मध्यम वर्ग के लोग भी शरीक हुए.[8] (एक स्मरणीय मौके पर एक परिवार मित्सुबिशी लांसर पर चढ़ कर पहुँचा था.[9]) मुस्लिम समुदाय के आर्थिक आधार को नष्ट करने की सोची-समझी, योजनाबद्ध कोशिश की गयी. दंगाइयों के सरगनाओं के पास कम्प्यूटर से तैयार की गयीं ब्योरेवार सूचियाँ थीं, जिनमें मुस्लिम घरों, दुकानों, कारोबारों, यहाँ तक कि उनकी साझेदारियों तक को चिह्नित किया हुआ था. अपनी कार्रवाई में ताल-मेल बैठाने के लिए उनके पास मोबाइल फोन थे. उनके पास ट्रकों में लदे हजारों गैस सिलेण्डर थे, जिन्हें हफ्तों पहले जमा कर लिया गया था और जिन्हें उन्होंने मुस्लिम व्यापारिक प्रतिष्ठानों को उड़ाने में इस्तेमाल किया. उन्हें न सिर्फ पुलिस की सुरक्षा हासिल थी, बल्कि उनके साथ पुलिस की मिली-भगत भी थी, जो गोलियों की आड़ में उन्हें आगे बढ़ने मे मदद कर रही थी.[10]
एक ओर गुजरात जल रहा था, दूसरी ओर हमारे प्रधानमंत्री एमटीवी पर अपनी नयी कविताओं का प्रचार कर रहे थे.[11] (खबरों के मुताबिक उनकी कविताओं के एक लाख कैसेट बिक गये हैं.) उन्हें गुजरात का दौरा करने में एक महीना लग गया—जिस बीच वे तफरीह के लिए दो बार पहाड़ भी गये.[12] आखिरकार जब वे वहाँ पहुँचे तो नरेन्द्र मोदी के दिल दहलाने वाले साये में उन्होंने शाह आलम राहत शिविर में भाषण भी दिया.[13] उनके होंट हिले, उन्होंने चिन्ता प्रकट करने का प्रयास भी किया, लेकिन उस जली-झुलसी, खून-सनी और चकनाचूर दुनिया से हो कर गुजरती हवा की उपहास-भरी साँय-साँय के सिवा कुछ नहीं सुनाई दिया. अगले दृश्य में हमने देखा, वे सिंगापुर में गोल्फ की छोटी-सी गाड़ी में घूमते, वाणिज्य-व्यापार सम्बन्धी करार कर रहे थे.[14]
हत्यारे आज भी गुजरात की सड़कों पर मँडरा रहे हैं. हफ्तों तक दंगाई रोजमर्रा की जिंदगी के निर्णायक बने रहे. कौन क्या कह सकता है, कौन किससे मिल सकता है और कब और कहाँ ? उनकी सत्ता तेजी से फैली और उसने धार्मिक मामलों से आगे बढ़ कर जमीन-जायदाद सम्बन्धी विवादों, पारिवारिक झगड़ों और जल संसाधनों की योजना और आबण्टन को भी अपने चंगुलों में ले लिया है. (यही कारण है कि नर्मदा बचाओ आन्दोलन की मेधा पाटकर पर हमला किया गया).[15] मुसलमानों के कारोबार बन्द करा दिये गये हैं. रेस्तरांओं में मुसलमानों को कुछ नहीं परोसा जाता. स्कूलों में मुसलमान बच्चों को पसन्द नहीं किया जाता. मुस्लिम छात्र इतने डरे हुए हैं कि इम्तहान नहीं दे सकते.[16] मुस्लिम माता-पिता लगातार इस खौफ में जीते हैं कि उनके बच्चे, उनकी नसीहत भूल कर लोगों के बीच 'अम्मी' या 'अब्बा' कह बैठेंगे और कहर-भरी मौत को अचानक न्योता दे डालेंगे.
ऐलान हो चुका है: यह तो महज शुरुआत है.
क्या यही वह हिन्दू राष्ट्र है, जिसके सपने हम सब को दिखाये गये हैं? एक बार मुसलमानों को 'उनकी औकात बता दिये जाने' के बाद क्या देश भर में दूध और कोका-कोला की नदियाँ बहने लगेंगी? क्या राम मन्दिर बन जाने के बाद हर आदमी के बदन पर कमीज होगी और पेट में रोटी?[17] क्या हर आँख का हर आँसू पोछ दिया जायेगा? क्या हम अगले साल इसकी वर्षगाँठ मनाने की उम्मीद करें? या फिर तब तक नफरत का कोई और निशाना ढूँढ लिया जायेगा? अकारादि क्रम में आदिवासी, ईसाई, दलित, पारसी, सिख—इनमें से कौन होगा अगला निशाना? जो लोग जीन्स पहनते हैं या अंग्रेजी बोलते हैं, या जिनके होंट मोटे हैं और बाल घुँघराले हैं? हमें ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ेगा. यह शुरू हो चुका है. क्या तयशुदा रस्में जारी रहेंगी? क्या लोगों के सिर कलम होंगे, उनके जिस्म के टुकड़े-टुकड़े करके उन पर मूता जायेगा? भ्रूणों को उनकी माँओं की कोख से फाड़ निकाला जायेगा?[18]
कितना खोट होगा उस आँख में जो इस विविध-रूपी, खूबसूरत और दर्शनीय अराजकतावाली संस्कृति के बिना भारत की कल्पना करेगी? इसके बगैर तो भारत मकबरा बन जायेगा और उससे श्मशान की-सी चिरायँध आने लगेगी.
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे कौन थे और किस तरह मारे गये, गुजरात में पिछले हफ्तों के दौरान मारा गया हर आदमी मातम का हकदार है. पत्र-पत्रिकाओं में सैकड़ों नाराजगी-भरी चिट्ठियों में पूछा गया है कि 'छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी' गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस को जलाने की घटना की निन्दा उतने ही रोष के साथ क्यों नहीं करते, जितना आक्रोश वे बाकी गुजरात में हुई हत्याओं की भर्त्सना करते हुए जाहिर करते हैं. जो बात ये पत्र लेखक नहीं समझ पाते वह यह कि फिलहाल गुजरात में जिस तरह का सरकार-समर्थित सफाया-अभियान जारी है, उसमें और गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस को जलाने की घटना के बीच एक बुनियादी फर्क है. हमें अब भी पक्का पता नहीं है कि गोधरा जनसंहार के लिए वास्तव में कौन जिम्मेदार था. गृह मंत्री लाल कृष्ण आडवाणी ने एक सार्वजनिक बयान में दावा किया कि ट्रेन का अग्नि-काण्ड पाकिस्तान की खुफिया एजेन्सी आई.एस.आई. की साजिश थी.[19] महीनों बाद भी पुलिस को इस दावे की पुष्टि में सबूत का एक रेशा तक हासिल नहीं हुआ है. गुजरात सरकार की फोरेन्सिक रिपोर्ट के अनुसार डिब्बे के फर्श पर किसी ने, जो डिब्बे के भीतर ही था, 60 लीटर पेट्रोल उँडेल दिया था. दरवाजे बन्द थे सम्भवतः अन्दर से. सवारियों के जले हुए शव डिब्बे के बीचों-बीच ढेरी की शक्ल में पाये गये. अभी तक किसी को वाकई पता नहीं है कि आग किसने लगायी थी.
हर तरह के राजनैतिक नजरिये और पहलू को जँचने वाले अटकल-अनुमान हैं: यह पाकिस्तानी साजिश थी; यह मुस्लिम आतंकवादियों की करतूत थी, जो गाड़ी के भीतर पहुँचने में कामयाब हो गये थे; यह गुस्साई भीड़ का कारनामा था; यह विहिप/बजरंग दल की सोची-समझी चाल थी ताकि बाद के हौलनाक मंजर के लिए मैदान तैयार किया जा सके. सच किसी को पता नहीं.[20]
जिन्होंने भी किया—उनकी राजनैतिक प्रतिबद्धता चाहे जो भी हो—उन्होंने भयंकर अपराध किया. लेकिन प्रत्येक स्वतंत्र रिपोर्ट में कहा गया है कि गुजरात में मुस्लिम समुदाय का सुनियोजित जनसंहार—जिसे सरकार ने स्वतः स्फूर्त 'प्रतिक्रिया' करार दिया है—अगर कम करके कहा जाये तो राज्य की कृपालु छत्रछाया में अंजाम दिया गया, और अगर बढ़ा-चढ़ा कर कहा जाये तो इसके पीछे राज्य सरकार की सक्रिय हिस्सेदारी थी.[21] जिस पहलू से देखें, राज्य इस अपराध का दोषी है. और राज्य अपने नागरिकों के नाम पर कार्रवाई करता है. इसलिए, नागरिकों के नाते हमें यह मानना पड़ेगा कि गुजरात के इस सफाया अभियान में हमें भी किसी-न-किसी रूप में साझीदार बनाया जा रहा है. यही बात दोनों जनसंहारों को एक-दूसरे से बिलकुल अलग रंग में रँग देती है.
गुजरात जनसंहार के बाद, भाजपा की नैतिक और सांस्कृतिक बिरादरी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर.एस.एस.) ने, जिसके सदस्य खुद प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और मोदी हैं, अपने बंगलूर सम्मेलन में मुसलमानों से आह्वान किया कि वे बहुसंख्यक समुदाय की 'सदाशयता' हासिल करें.[22]
गोआ में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में नरेन्द्र मोदी का स्वागत नायक के रूप में किया गया. खीसें निपोर कर की गयी मुख्यमंत्री पद से इस्तीफे की उनकी बनावटी पेशकश को आम सहमति से ठुकरा दिया गया.[23] हाल के एक सार्वजनिक भाषण में मोदी ने गुजरात की पिछले कुछ हफ्तों की घटनाओं की गांधीजी की दाँडी यात्रा से तुलना की है — उनके मुताबिक दोनों घटनाएँ 'स्वाधीनता के लिए संघर्ष' के महत्वपूर्ण पल हैं.
हालाँकि मौजूदा भारत और युद्धपूर्व जर्मनी के बीच समानताएँ रोंगटे खड़े करने वाली हैं, वे हैरत नहीं पैदा करतीं. (आर.एस.एस. के संस्थापकों ने अपने लेखों में हिटलर और उसके तरीकों को खुल कर सराहा है.[24]) बस, एक अन्तर है कि यहाँ हिन्दुस्तान में हमारे पास कोई हिटलर नहीं है. उसके बजाय, हमारे यहाँ एक शोभायात्रा है, एक सचल वाद्य-वृन्द. अनेक फनों, अनेक भुजाओं वाला संघ परिवार—हिन्दू राजनैतिक और सांस्कृतिक संगठनों का 'सम्मिलित कुनबा'—जिसमें भाजपा, आर.एस.एस., विहिप और बजरंग दल, सब अलग-अलग साज बजाते हैं. इसकी बेजोड़ प्रतिभा बस इस बात में निहित है कि यह जाहिरा तौर पर हर आदमी के लिए, हर समय, हर मर्ज की दवा है.
संघ परिवार के लिए हर मौके के लिए एक उपयुक्त चेहरा है. हर मौसम के लिए मुनासिब लफ्फाजी से लैस, पुराने तुकबन्दी करने वाले अटल बिहारी वाजपेयी; गृह मन्त्रालय में भड़काऊ कट्टरपन्थी लाल कृष्ण आडवाणी; विदेशी मामलों के लिए एक तहजीबदार शख्सियत जसवन्त सिंह; टी.वी.पर बहस करने के लिए एक चिकने-चुपड़े, अंग्रेजी भाषी वकील अरुण जेटली; मुख्यमंत्री पद के लिए निर्मम, हृदयहीन नरेन्द्र मोदी; और जनसंहार के धन्धे के लिए जरूरी शारीरिक मशक्कत के लिए बजरंग दल और विहिप के जमीनी कार्यकर्ता. और अन्त में, अनेक सिरों वाली शोभायात्रा के पास एक छिपकली की पूँछ भी है जो संकट के वक्त कट कर गिर पड़ती है और उसके गुजर जाने के बाद फिर उग आती है—रक्षामंत्री का जामा पहने सजावटी समाजवादी जॉर्ज फर्नांडीज—जिन्हें यह शोभायात्रा अपने नुकसान को काबू में करने के मिशन—युद्ध, तूफान, जनसंहार—पर भेजती रहती है. उन्हें भरोसा है कि वे सही बटन दबायेंगे और सही सुर निकालेंगे.
संघ परिवार उतनी जबानों में बात करता है जितनी त्रिशूलों के एक गट्ठर में नोकें होती हैं. वह एक साथ कई परस्पर विरोधी बातें कह सकता है. एक ओर जहाँ उसका एक सरदार (विहिप) अपने लाखों सिपाहियों को 'अन्तिम समाधान' की तैयारी के लिए खुले आम उकसाता है, वहीं उसका प्रतीकात्मक प्रमुख (प्रधानमंत्री) राष्ट्र को आश्वस्त करता है कि सभी नागरिकों के साथ, चाहे उनका कोई भी धर्म हो, समानता का व्यवहार किया जायेगा. यह किताबों और फिल्मों पर प्रतिबन्ध लगा सकता है, भारतीय संस्कृति को 'अपमानित करने के लिए' चित्र जला सकता है. साथ ही, वह पूरे देश के ग्रामीण विकास के बजट का 60 फीसदी हिस्सा एनरॉन के हाथ उस कम्पनी के लाभ के तौर पर गिरवी रख सकता है.[25] उसके भीतर राजनैतिक मान्यताओं की इन्द्रधनुषी छटा है, लिहाजा जो अमूमन दो विरोधी राजनैतिक पार्टियों के बीच की खुल्लम-खुल्ला लड़ाई होती, वह अब महज परिवार का अन्दरूनी मामला बन जाता है. तकरार चाहे जितनी कटु हो, हमेशा खुले-आम होती है, हमेशा सौहार्द के साथ सुलझा ली जाती है, और दर्शक हमेशा सन्तुष्ट हो कर जाते हैं कि गुस्सा, एक्शन, बदला, साजिश, पश्चाताप, गीत-गाने, और ढेर सारा खून-खराबा—सब कुछ देखने के बाद उनका पैसा वसूल हो गया. यह 'फुल स्पेक्ट्रम डॉमिनेंस' का हमारा अपना देसी संस्करण है.
लेकिन जब सिर-धड़ की बाजी लगती है, तो झगड़े-टण्टे करने वाले सरदार खामोश हो जाते हैं और यह भयावह तरीके से जाहिर हो जाता है कि तमाम ऊपरी कोलाहल और चीख-पुकार के नीचे दिल तो एक ही धड़कता है. और केसरिया में रचा-बसा, सिर्फ मछली की आँख पर नजर गड़ाये, क्षमा से रहित एक दिमाग दिन-रात काम करता है.
भारत में पहले भी सफाया अभियान हुए हैं, हर तरह के सफाया अभियान—जिनका निशाना जातियाँ, कबीले और धार्मिक मतावलम्बी बने हैं. 1984 में इन्दिरा गाँधी की हत्या के बाद दिल्ली में कांग्रेस पार्टी की निगरानी में तीन हजार से ज्यादा सिखों का कत्लेआम हुआ, जो हर तरह से गुजरात के जनसंहार जितना ही वीभत्स था.[26] उस समय राजीव गांधी ने कहा था, 'जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो जमीन हिलती है.'32 1985 के चुनावों में कांग्रेस ने सूपड़ा साफ कर दिया. सहानुभूति की लहर का फायदा उठा कर. अट्ठारह साल बीत चुके हैं और लगभग किसी को सजा नहीं मिली है.
राजनैतिक दृष्टि से संवेदनशील किसी भी मुद्दे को लीजिए — परमाणु परीक्षण, बाबरी मस्जिद, तहलका घोटाला, चुनावी फायदे के लिए फिरकापरस्ती के पिटारे खोलना — और आप पायेंगे कि कांग्रेस पार्टी वहाँ पहले से ही मौजूद है. हर मामले में बीज कांग्रेस ने बोये हैं और भाजपा ने झपट्टा मार कर वह घिनौनी फसल काटी है. लिहाजा जब हमारे सामने वोट डालने का सवाल उठता है तो क्या इन दोनों में कोई अन्तर रह जाता है? इसका जवाब कुछ हिचकिचाहट के बावजूद साफ-साफ 'हाँ' में है. सुनिए क्यों: यह सही है कि कांग्रेस पार्टी दशकों से पाप करती रही है, गम्भीर पाप, लेकिन उसने रात में वह किया है जिसे भाजपा दिन-दहाड़े करती है. कांग्रेस ने वह काम पोशीदा तरीके से, गुप-चुप, पाखण्डीपन के साथ और शर्म से आँखें चुराते हुए किया, जिसे भाजपा गर्व के साथ करती है. और यह अन्तर बेहद महत्वपूर्ण है.
साम्प्रदायिक घृणा को हवा देना संघ परिवार के फरमान का एक हिस्सा है. उसकी योजना वर्षों से बनती रही है. वह सभ्य समाज की धमनियों में धीरे-धीरे घुलने वाले जहर की सूई सीधे लगा रहा है. देश भर में आर.एस.एस. की सैकड़ों शाखाएँ और शिशु मन्दिर लाखों बच्चों और युवा लोगों को दीक्षित-प्रशिक्षित करके धार्मिक घृणा और झूठे इतिहास से उनके दिमागों को कुन्द करने में जुटे हुए हैं. इसमें अंग्रेजी राज से पहले के काल में मुसलमान शासकों द्वारा हिन्दू महिलाओं की इज्जत लूटने और हिन्दू मन्दिरों को ध्वस्त करने के अतिरेजित विवरण शामिल हैं. वे पाकिस्तान और अफगानिस्तान में फैले उन मदरसों से किसी तरह भिन्न और कम खतरनाक नहीं हैं जिन्होंने तालिबान को जन्म दिया. गुजरात जैसे राज्यों में पुलिस प्रशासन और हर स्तर के राजनैतिक कार्यकर्ताओं को योजनाबद्ध तरीके से चपेट में ले लिया गया है.[27]
इस सारे उपक्रम में प्रचण्ड लोकप्रियता है जिसे कम करके आँकना या जिसके बारे में कोई मुगालता रखना मूर्खता होगी. इसका भारी धार्मिक, राजनैतिक, वैचारिक और प्रशासनिक आधार है. इस प्रकार की शक्ति, इस प्रकार की पहुँच, केवल राज्यतंत्र के समर्थन से ही हासिल की जा सकती है.
कुछ मदरसे, धार्मिक घृणा फैलाने की मुस्लिम नर्सरियाँ, राज्य के समर्थन के अभाव में जो हासिल नहीं कर पाते, उसे अपनी पगलाई उग्रता और विदेशी चन्दों से पूरा करने की कोशिश करते हैं . वे हिन्दू साम्प्रदायिकतावादियो को अपने सामूहिक उन्माद और नफरत का नंगा नाच करने के लिए माकूल आधार मुहैया करा देते हैं. (दरअसल, वे इस उद्देश्य को इस खूबी से पूरा करते हैं मानो वे एक ही टीम का हिस्सा हों.)
इस सतत दबाव से इस बात की बहुत सम्भावना है कि अधिसंख्य मुस्लिम समुदाय अपने निजी हवाबन्द टोलों में दोयम दर्जे के नागरिक की हैसियत में, लगातार डरा हुआ और किसी किस्म के नागरिक अधिकार और इन्साफ की उम्मीद के बिना जीने को मजबूर हो जायेगा. इनकी रोजमर्रा की जिंदगी कैसी होगी? हर छोटी-मोटी झड़प, चाहे वह सिनेमा के कतार में हुई तू-तू, मैं-मैं हो या चौराहे की लाइट पर कोई विवाद, घातक रूप ले सकता है. लिहाजा, वे खामोश रहना, अपने हालात को स्वीकार करके, जिस समाज में वे रहते हैं, उसके हाशिये में ही रेंगते हुए जीना सीख जायेंगे. उनका खौफ दूसरे अल्पसंख्यकों तक सम्प्रेषित हो जायेगा, उनमें से कई, खासकर नवयुवक शायद दहशतगर्दी का रास्ता पकड़ेंगे. वे कई भयावह काण्ड कर डालेंगे. सभ्य समाज को उनकी निन्दा करने को कहा जायेगा. तब राष्ट्रपति बुश का आप्त वाक्य—'आप या तो हमारे साथ हैं या आतंकवादियों के साथ' हमारे सामने आ खड़ा होगा.
ये शब्द बर्फ की तरह समय में जम कर ठहर गये हैं. भविष्य में वर्षों तक हत्यारे और जनसंहारी अपने हत्याकाण्डों का जायज ठहराने के लिए, अपने घिनौने होंटों को इन शब्दों के साथ-साथ हिलायेंगे (फिल्मकार इसे 'लिप-सिंक' कहते हैं.)
शिवसेना के बाल ठाकरे के पास, जो इधर महसूस कर रहे हैं कि मोदी ने उन्हें कुछ पीछे छोड़ दिया है, इसका स्थायी समाधान है. उन्होंने गृहयुद्ध का आह्वान किया है. क्या यह बिलकुल बेजोड़ नहीं है? तब पाकिस्तान को हम पर बमबारी नहीं करनी पड़ेगी, हम खुद ही अपने ऊपर बमबारी करेंगे. आइए, पूरे हिन्दुस्तान को ही कश्मीर या बोस्निया या फिलिस्तीन या रवाण्डा में तब्दील कर लें. हम सब सदा यातना झेलते रहें. एक-दूसरे की हत्या करने के लिए महँगी बन्दूकें ओर विस्फोटक खरीदें. असलहों के अंग्रेज सौदागर और हथियारों के अमरीकी निर्माता हमारे खून पर फलें-फूलें.[28] हम कार्लाइल समूह से—दोनों बुश और बिन लादेन परिवार जिसके शेयर होल्डर हैं—थोक छूट की माँग कर सकते हैं.[29]
अगर सब कुछ ठीक-ठाक चले तो हो सकता है हम अफगानिस्तान जैसे बन जायें. (और यह तो देखिए कि उन्होंने कितना नाम कमाया है.) जब हमारे सभी खेतों में सुरंगें बिछ जायेंगी, हमारे मकान ढह जायेंगे, हमारी सारी व्यवस्था मलबे में तब्दील हो जायेगी, हमारे बच्चे शरीर से अपंग और दिमागी खँडहर हो जायेंगे, जब हम खुद को अपनी बनायी घृणा से लगभग बर्बाद कर चुके होंगे, तब हम चाहें तो अमेरिकियों से मदद की अपील कर सकते हैं. चाहिए किसी को हवाई जहाज से गिराया हुआ एयर लाइन्स वाला खाना?[30]
हम आत्म-विनाश के कितना करीब पहुँच गये हैं. एक कदम और, फिर हमें नष्ट होने से कोई रोक नहीं सकता. इसके बावजूद सरकार अड़ी हुई है. गोआ में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में धर्मनिरपेक्ष, लोकतान्त्रिक भारत के प्रधानमंत्री वाजपेयी ने इतिहास रच दिया. वे भारत के पहले प्रधानमंत्री बन गये हैं जिसने मर्यादाओं को तोड़ कर सार्वजनिक तौर पर मुसलमानों के खिलाफ ऐसी धर्मान्धता का प्रदर्शन किया जिससे जॉर्ज बुश और डॉनल्ड रम्सफेल्ड भी शर्मायें. उन्होंने कहा, 'मुसलमान जहाँ कहीं भी हों, वे शान्ति से नहीं रहना चाहते.'[31]
गुजरात के जनसंहार के बाद, अपने 'प्रयोग' की कामयाबी से आश्वस्त भाजपा तत्काल चुनाव कराना चाहती है. वडोदरा से मेरी मित्र ने कहा, 'निहायत ही शरीफ लोग, निहायत ही शाइस्तगी के साथ कहते हैं, ''मोदी हमारे हीरो हैं''.'
हममें से कुछ लोग इस मुगालते में थे कि पिछले कुछ हफ्तों की भयावह घटनाओं से सेकुलर पार्टियाँ, चाहे जितनी स्वार्थी हों, गुस्से में एकजुट हो जायेंगी. अकेले भाजपा को भारत के लोगों ने बहुमत नहीं दिया है. उसके पास हिन्दुत्व को लागू करने का जनादेश नहीं है. हमें उम्मीद थी कि केन्द्र में भाजपा के नेतृत्व वाले गठबन्धन के 27 साझीदार अपना समर्थन वापस ले लेंगे. मूर्ख थे हम कि हमने सोचा वे देखेंगे उनकी नैतिक दृढ़ता, धर्म-निरपेक्षता के सिद्धान्तों के प्रति उनकी घोषित प्रतिबद्धता की इससे बड़ी परीक्षा नहीं हो सकती.
यह युग का लक्षण है कि भाजपा के एक भी सहयोगी दल ने समर्थन वापस नहीं लिया. काँइयेपन से भरी हर आँख में आप दूर देखने वाली नजर को दिमागी गणित बैठाते देखेंगे कि समर्थन वापस लेने पर कौन-कौन-सा चुनाव-क्षेत्र और कौन-कौन-सा मन्त्रालय बचा रहेगा और कौन-कौन-सा वे गँवा बैठेंगे. भारत के वाणिज्य-व्यापार जगत के दीपक पारिख अकेले मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं जिन्होंने घटनाओं की निन्दा की है.[32] जम्मू और कश्मीर के मुख्यमंत्री और भारत के अब इकलौते प्रमुख मुस्लिम राजनीतिज्ञ फारुख अब्दुल्ला मोदी का समर्थन करके सरकार की कृपा हासिल करने में लगे हैं, क्योंकि उन्हें धुँधली-सी आशा है कि वे जल्दी ही भारत के उपराष्ट्रपति बन जायेंगे.[33] और सबसे खराब यह है कि दलितों की महान उम्मीद, बसपा नेता मायावती ने उत्तर प्रदेश में भाजपा से गँठजोड़ कर लिया है.[34] कांग्रेस और वामपन्थी दलों ने मोदी के इस्तीफे की माँग करते हुए जनान्दोलन छेड़ा है.[35]
इस्तीफा? क्या हम अपना विवेक खो चुके हैं? अपराधियों से इस्तीफा माँगने का कोई मतलब नहीं होता. उन पर आरोप लगा कर मुकदमा चलाया जाता है और सजा दी जाती है. जिस तरह से गोधरा में ट्रेन जलाने वालों के साथ होना चाहिए. जिस तरह से भीड़ और पुलिस और प्रशासन के उन लोगों के साथ होना चाहिए जिन्होंने बाकी गुजरात में सुनियोजित जनसंहार किया. जिस तरह से उन्माद को चरम पर पहुँचाने वालों के साथ होना चाहिए. सर्वोच्च न्यायालय के पास मोदी और बजरंग दल तथा विहिप के विरुद्ध 'सुओ मोटू'—अपने संज्ञान पर—कार्रवाई का विकल्प है.[36] सैकड़ों गवाहियाँ हैं. ढेर सारे सबूत हैं.
लेकिन भारत में अगर आप ऐसे हत्यारे या जनसंहारी हैं, जो संयोग से राजनैतिक है तो आपके लिए आशावादी होने की तमाम वजहें हैं. कोई अपेक्षा तक नहीं करता कि राजनैतिकों पर मुकदमा चलाया जायेगा. मोदी और उनके सहयोगियों के खिलाफ आरोप लगा कर उन्हें बन्द करने की माँग से दूसरे राजनैतिकों की अपनी पोलें, उनके अपने घिनौने अतीत की सच्चाइयाँ खुलने लगेंगी. लिहाजा इसके बजाय वे संसद की कार्रवाई ठप कर देते हैं, चीखते-चिल्लाते हैं. आखिरकार जो सत्ता में होते हैं वे जाँच के आयोग गठित करते हैं, उनके नतीजों की अनदेखी कर देते हैं और आपस में यह सुनिश्चित कर लेते हैं कि तंत्र का बुलडोजर चलता रहे.
अभी से इस मुद्दे ने रूप बदलना शुरू कर दिया है. क्या चुनाव की इजाजत दी जाय या नहीं? क्या यह फैसला चुनाव आयोग को करना चाहिए? या सुप्रीम कोर्ट को? दोनों हालात में—चुनाव कराये जायें या टाल दिये जायें—मोदी को छुट्टा निकल जाने दे कर, उन्हें अपना राजनैतिक कैरियर जारी रखने दे कर, लोकतंत्र के आधारभूत, निदेशक सिद्धान्तों को न केवल कमजोर किया जा रहा है, बल्कि उनके साथ जान-बूझ कर भीतरघात किया जा रहा है. इस तरह का लोकतंत्र समाधान नहीं, समस्या है. हमारे समाज की सबसे बड़ी ताकत को उसी के सबसे घातक दुश्मन के रूप में तैयार किया जा रहा है. 'लोकतंत्र को और गहरा' करने की हमारी तमाम बातों का क्या मतलब है जब उसे यों तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है कि वह पहचान ही में न आये.
अगर भाजपा चुनाव जीत गयी तो क्या होगा? आखिरकार, जॉर्ज बुश को आतंक के खिलाफ अपने युद्ध में 60 फीसदी जनसमर्थन हासिल था, और एरिएल शेरॉन को फिलिस्तान पर अपने पाशविक हमले के लिए इससे भी अधिक जनादेश हासिल है.[37] क्या इसी से सब कुछ जायज हो जाता है? कानून-व्यवस्था, संविधान, प्रेस—सारे ताम-झाम—को तिलांजलि क्यों नहीं दे दी जाती, और नैतिकता को भी कूड़ेदान में फेंक कर हर चीज को मतदान के हवाले क्यों नहीं कर दिया जाता? जनसंहार जनमत संग्रह का विषय बन सकता है और कत्ले-आम के लिए मार्केटिंग अभियान छेड़े जा सकते हैं.
भारत में फासीवाद के मजबूत कदम साफ-साफ दिखने लगे हैं. इसकी तारीख भी नोट कर लें: 2002 का वसन्त. भले ही हम अमरीकी राष्ट्रपति और 'आतंक के खिलाफ गठबन्धन' को इसकी भयावह शुरुआत के लिए दुनिया भर में माकूल माहौल बनाने के लिए धन्यवाद दे सकते हैं, पर वर्षों से हमारे सार्वजनिक और निजी जीवन में पनप रहे फासीवाद का श्रेय उन्हें नहीं दिया जा सकता.
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इसका झोंका 1998 में पोखरण में परमाणु विस्फोट के समय आया था.[38] तब से खूंखार देश-भक्ति खुले-आम राजनैतिक चलन में आ गयी. 'शान्ति के हथियारों' ने भारत और पाकिस्तान को युद्ध के कगार पर ला खड़ा किया है—धमकी और जवाबी धमकी, तंज और जवाबी तंज.[39] और अब, एक युद्ध और सैकड़ों लोगों के मौत के बाद, दोनों देशों के दस लाख से अधिक फौजी एक-दूसरे के आमने-सामने सीमा पर तैनात हैं, आँख से आँख मिलाये, एक निरर्थक परमाणु साँप-छछूँदर की हालत में.[40]
पाकिस्तान के खिलाफ बढ़ती आक्रामकता सीमा से टप्पा खा कर कर हमारी राजनीति में इस तरह से घुस गयी है जैसे किसी तेज नश्तर ने हिन्दू और मुस्लिम समुदायों के बीच साम्प्रदायिक सौहार्द और सहिष्णुता के अवशेष को काट कर अलग कर दिया हो. देखते-ही-देखते जहर उगलने वाले नारकीय भगवद्भक्तों की भीड़ ने लोगों की कल्पना पर कब्जा कर लिया है. और हमने ऐसा होने दिया है. पाकिस्तान के खिलाफ जंग के हर नारे के साथ हम खुद पर, अपनी जीवन-शैली पर, अपनी अद्भुत विविधता-सम्पन्न और प्राचीन सभ्यता, उन सारी चीजों पर चोट करते हैं जो हिन्दुस्तान को पाकिस्तान से भिन्न बनाती है.
भारतीय राष्ट्रवाद का मतलब उत्तरोत्तर बढ़ती हुई मात्रा में हिन्दू राष्ट्रवाद बनता चला गया है, जो खुद को अपने सम्मान और अपनी कदर से परिभाषित नहीं करता, बल्कि 'दूसरे' के प्रति घृणा से. और फिलहाल 'दूसरा' मुसलमान हैं, महज पाकिस्तान नहीं. राष्ट्रवाद किस तरह फासीवाद के साथ घी-शक्कर हो जाता है इसे देख कर मन विचलित होता है. हमें फासीवादियों को यह छूट नहीं देनी चाहिए कि वे यह परिभाषित करें कि राष्ट्र क्या है और किसका है. यह याद रखना जरूरी है कि राष्ट्रवाद, अपने सभी अवतारों—साम्यवाद, पूँजीवाद या फिर फासीवाद—में बीसवीं सदी के लगभग सभी जनसंहारों की जड़ रहा है. राष्ट्रवाद के मुद्दे पर फूँक-फूँक कर कदम रखने में ही समझदारी है.
क्या हमारे अन्दर सिर्फ हाल में बना राष्ट्र होने के बजाय एक पुरातन सभ्यता का हिस्सा होने का माद्दा नहीं है? सिर्फ इलाके की पहरेदारी करने के बजाय देश से मोहब्बत करने का? सभ्यता का अर्थ क्या होता है, यह संघ परिवार को रत्ती भर नहीं मालूम. हम कौन थे, इसकी स्मृति, हम कौन हैं, इसकी समझ और हम क्या बनना चाहते हैं, इसक सपनों को वे सीमित करके, घटा कर, परिभाषित करके खण्डित और अपवित्र करना चाहते हैं. उन्हें कैसा भारत चाहिए? हाथ-पैर-सिर और आत्माविहीन एक धड़, जिसके घायल हृदय में झण्डा भोंक कर कसाई के चापड़ के नीचे रिसते हुए खून के साथ छोड़ दिया गया हो. क्या हम ऐसा होने दे सकते हैं? क्या हमने ऐसा होने दिया है?
पिछले कुछ वर्ष से आहिस्ता-आहिस्ता पाँव पसारते फासीवाद को हमारी कई 'लोकतान्त्रिक' संस्थाओं ने तैयार किया है. सबने—संसद, अदालत, प्रेस, पुलिस, प्रशासन, जनता ने—इसके साथ प्यार जताया है. यहाँ तक कि 'सेकुलरिस्ट' भी इसके लिए सही माहौल बनाने में मदद देने के दोषी हैं. जब भी आप किसी संस्था, (सुप्रीम कोर्ट समेत) किसी भी संस्था के सिलसिले में ऐसे अधिकारों की वकालत करते हैं जिनके बल पर वह निरंकुश ताकत से काम ले सकती है, जिसके लिए उसका कोई जवाबदेही नहीं है और जिसे कभी चुनौती नहीं दी जानी चाहिए, तब आप फासीवाद की तरफ कदम बढ़ा रहे होते हैं.
राष्ट्रीय प्रेस ने पिछले कुछ हफ्तों की घटनाओं की भर्त्सना करके आश्चर्यजनक साहस दिखाया है. भाजपा के बहुत-से हमराही, जो उसके साथ सफर करके कगार तक पहुँचे हैं, अब नीचे गर्त में झाँक कर उस नरक को देख रहे हैं जो कभी गुजरात था, और सच्ची हताशा से मुख मोड़ रहे हैं. लेकिन कितनी कड़ी और कितनी लम्बी लड़ाई वे लड़ेंगे? यह किसी नये क्रिकेट के दौर के लिए किये गये प्रचार-अभियान की तरह नहीं होगा. और रिपोर्ट करने के लिए हमेशा कोई चौंकाने वाला कत्ले-आम नहीं होगा. फासीवाद में राज्य की सत्ता के सभी अंगों में धीरे-धीरे घुसपैठ करना भी शामिल है. इसका ताल्लुक धीरे-धीरे क्षरित होती नागरिक स्वतंत्रताओं से भी है; रोजमर्रा की मामूली, नाइन्साफियों से, जो दर्शनीय नहीं होतीं. इससे लड़ने का मतलब है लोगों के दिलों और दिमागों को फिर से जीतना. इससे लड़ने का मतलब यह नहीं है कि आर.एस.एस. की शाखाओं और खुल्लम-खुल्ला फिरकापरस्त मदरसों पर पबन्दी लगाने की माँग की जाए. इसका मतलब है उस दिन तक पहुँचने के लिए काम करना जब उन्हें खराब विचार मान कर स्वेच्छा से त्याग दिया जाये. इसका मतलब सार्वजनिक संस्थाओं पर कड़ी नजर रखना और उनसे जवाबदेही की माँग करना है. इसका मतलब है जमीन से कान लगा कर सचमुच शक्तिहीन लोगों की दबी-दबी आवाजों को सुनना. इसका मतलब है देश भर के सैकड़ों प्रतिरोध-आन्दोलनों से उठने वाली उन अनगिनत आवाजों को मंच प्रदान करना जो असली चीजों के बारे में बात कर रही हैं—बँधुआ मजदूरी, वैवाहिक बलात्कार, यौन रुचियाँ, महिलाओं का मेहनताना, यूरेनियम डंपिंग, हानिकारक खनन, बुनकरों के दुखड़ों, किसानों की आत्म-हत्याएँ. इसका मतलब है विस्थापन और बेदखली और रोज-रोज की घोर निर्धनताजनित निष्करुण हिंसा से लड़ना.
इससे लड़ने का यह भी मतलब है कि अपने अखबार के स्तम्भों और टीवी के प्राइम-टाइम कार्यक्रमों पर उनके झूठे जज्बों और नाटकीय स्वाँगों को काबिज न होने देना जिन्हें वे बाकी हर चीज से ध्यान बँटाने के लिए तैयार करते हैं.
देश में ज्यादातर लोग गुजरात की घटनाओं से भले ही सहम गये हों, पर लाखों मतान्ध लोग, पट्टी पढ़ाये जाने के बाद, उसी आतंक के हृदय में और गहरे उतरने की तैयारी कर रहे हैं. अपने इर्द-गिर्द देखिए और आप पायेंगे कि छोटे-छोटे पार्कों, खाली पड़ी जगहों, गाँवों के मैदानों में आर.एस.एस. अपना केसरिया झण्डा फहरा कर मार्च कर रहा है. अचानक वे चारों ओर छा गये हैं—खाकी निक्करें पहने बड़े-बालिग लोग मार्च कर रहे हैं, लगातार, लगातार मार्च कर रहे हैं. किधर जा रहे हैं वे? किस चीज के लिए?
इतिहास के प्रति अपनी उपेक्षा के कारण वे इस ज्ञान से वंचित रह जाते हैं कि फासीवाद कुछ ही समय तक फलता-फूलता है और फिर अपने ही हाथें अपने को नष्ट कर लेता है. लेकिन दुर्भाग्यवश, किसी परमाणु हमले के परिणामस्वरूप उठने वाले विकिरण की तरह उसकी भी आधी जिंदगी होती है जो आने वाली नस्लों को बर्बाद कर देगी. यह उम्मीद रखना बेकार है कि इस दर्जा गुस्से और नफरत को सार्वजनिक निन्दा-भर्त्सना से रोका या दबाया जा सकेगा. भाई-चारे और प्यार के भजन अच्छे होते हैं, पर इतना पर्याप्त नहीं है.
ऐतिहासिक तौर पर फासीवादी आन्दोलन राष्ट्रीय मोहभंग की भावना से तेज हुए हैं. भारत में फासीवाद तब आया जब आजादी के संघर्ष को एड़ लगाने वाले सपने रेजगारी की तरह बिखर गये.
खुद आजादी, जैसा कि गाँधी ने कहा था, 'लकड़ी की रोटी' की तरह हमें मिली—एक काल्पनिक स्वतंत्रता—बँटवारे के दौरान मारे गये लाखों लोगों के खून से सनी.[41]
आधी सदी से ज्यादा समय तक राजनैतिकों ने, इन्दिरा गाँधी की अगुआई में उस नफरत और परस्पर अविश्वास को और भड़काया है, उसके साथ खिलवाड़ किया है, और उस घाव को कभी भरने नहीं दिया. सभी राजनैतिक पाटियों ने अपने-अपने चुनावी फायदों के लिए हमारे धर्मनिरपेक्ष संसदीय लोकतंत्र की मज्जा का उत्खनन किया है. मिट्टी के ढेर को खोदने वाले दीमकों की तरह उन्होंने 'धर्मनिरपेक्षता' के अर्थ का लगातार अवमूल्यन करते हुए, अन्दर-ही-अन्दर रास्ते और सुरंगें बना ली हैं और नौबत यहाँ तक आ गयी कि वह एक खोखला ढाँचा बन कर रह गया है जो किसी भी समय धँस सकता है. उनके उत्खनन ने उस ढाँचे की बुनियाद को कमजोर कर दिया है जो संविधान, संसद और अदालतों को एक-दूसरे से जोड़ता है—पाबन्दियों और सन्तुलन का वह हिसाब जो किसी भी लोकतंत्र की रीढ़ होता है. ऐसी परिस्थिति में राजनैतिकों पर दोष मढ़ना और उनसे उस नैतिकता की माँग करना बेकार है जिसे वे देने के काबिल नहीं हैं. वह जनता कुछ दयनीय-सी जान पड़ती है जो निरन्तर अपने नेताओं का रोना रोती रहती है. अगर नेता हमारी अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरे तो इसीलिए कि हमने उन्हें इसकी इजाजत दी है. यह दलील भी दी जा सकती है कि जिस हद तक नेता जनता की उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे, उसी हद तक समाज भी अपने नेताओं की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरी है. हमें यह मानना होगा कि हमारे संसदीय लोकतंत्र में व्यवस्था सम्बन्धी खतरनाक गड़बड़ी है जिसका दुरुपयोग राजनेता करेंगे ही. और इसी का नतीजा है वह दावानल जिसे हमने गुजरात में भड़कते देखा है. इस लोकतंत्र की नाड़ियों में ही आग है. हमें इस मुद्दे को हाथ में लेना होगा और व्यवस्था के स्तर पर इसका समाधान तैयार करना होगा.
लेकिन ऐसा नहीं है कि महज राजनैतिकों द्वारा साम्प्रदायिक अलगाव का फायदा उठाने की वजह से ही फासीवाद हमारी दहलीज पर आ खड़ा हुआ है. पिछले पचास वर्षों से आम नागरिकों के मन में सम्मान और सुरक्षा के साथ जीने, और घोर निर्धनता से राहत के छोटे-छोटे सपने योजनाबद्ध तरीके से चूर-चूर कर दिये गये हैं. इस देश की सभी 'लोकतान्त्रिक' संस्थाएँ जवाबदेही से परे और आम आदमी की पहुँच से दूर रही हैं, और सच्चे सामाजिक न्याय के हित में काम करने की अनिच्छा या अक्षमता दिखाती रही हैं. भूमि सुधार, शिक्षा, सार्वजनिक स्वास्थ्य, प्राकृतिक संसाधनों का बराबर बँटवारा, सकारात्मक भेदभाव लागू करना—असली सामाजिक परिवर्तन की सारी रणनीति को उन जातियों और वर्गों के लोग बड़ी चतुराई, काँइयेपन और नियमित ढंग से हथिया कर निष्फल करते रहे हैं, राजनैतिक प्रक्रिया पर जिनकी जबरदस्त पकड़ है. और अब एक मूलतः सामन्तवादी समाज के जटिल, श्रेणीबद्ध, सामाजिक ताने-बाने को चीरते हुए, उसे सांस्कृतिक और आर्थिक रूप से बाँटते हुए, उस पर लगातार और मनमाने ढंग से कॉर्पोरेट वैश्वीकरण थोपा जा रहा है.
ये शिकायतें असली और जायज हैं. और फासीवाद इन शिकायतों का सबब नहीं है. लेकिन उसने इन पर कब्जा करके इन्हें पलट दिया है और इनसे एक वीभत्स और झूठे गौरव की भावना पैदा कर दी है. फासीवाद ने न्यूनतम समान विशेषता—धर्म—का इस्तेमाल कर लोगों को एकजुट कर लिया है. ऐसे लोग जिनका अपने जीवन पर कोई बस नहीं रह गया है, ऐसे लोग जिन्हें अपने घरों और बिरादरियों से उजाड़ दिया गया है, जिन्होंने अपनी संस्कृति और भाषा गँवा दी है, उन्हें किसी चीज पर गर्व कराया जा रहा है. वह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे उन्होंने मेहनत-मशक्श्कत के बाद हासिल किया हो, या जिसे वे अपनी निजी उपलब्धि मान सकते हैं, बल्कि ऐसी है जो संयोग से वे खुद हैं. बल्कि ज्यादा सही तौर पर ऐसी है जो वे संयोग से नहीं हैं. और यह झूठ, यह खोखलापन उस लड़ाकू गुस्से को भड़का रहा है जिसे फिर एक कल्पित निशाने की ओर मोड़ दिया जाता है जो अखाड़े में ले आया गया है.
देश के निर्धनतम लोगों को पैदल सैनिकों के रूप में इस्तेमाल करके, दूसरे सबसे गरीब समुदाय से उसके वोट के अधिकार छीनने, उसे मार भगाने या खत्म करने की परियोजना को और भला कैसे जायज ठहराया जा सकता है? आखिर इसे और कैसे समझा या समझाया जा सकता है कि गुजरात में जिन दलितों और आदिवासियों को हजारों वर्षों से ऊँची जातियाँ तुच्छ समझती रही हैं, उनका दमन-शोषण करती रही हैं और उनके साथ कचरे से भी बदतर व्यवहार करती रही हैं, उन्होंने अपने से कुछ ही कम दुर्भाग्यशाली लोगों के खिलाफ अपने ही शोषकों के साथ कैसे हाथ मिला लिया? क्या वे महज दिहाड़ी के गुलाम हैं, भाड़े के सिपाही? क्या उनकी सरपरस्ती करना और उनकी करतूतों की जिम्मेदारी से उन्हें बरी कर देना सही है? या क्या मैं मोटी बुद्धि से काम ले रही हूँ?
बदनसीबों के लिए अपने से कम बदनसीब लोगों पर अपना गुस्सा और घृणा निकालना शायद आम चलन है, क्योंकि उनके असली दुश्मन पहुंच से बाहर, दुर्जेय जान पड़ने वाले और मार करने की हद से पूरी तरह बाहर होते हैं. क्योंकि उनके अपने नेता उनसे कट कर, उन्हें वीराने में बेसहारा भटकने के लिए छोड़ कर, ऊँचे लोगों के साथ दावत उड़ाते हुए, हिन्दू धर्म में वापसी की बेतुकी लफ्फाजी कर रहे हैं. (यह सम्भवतः एक विश्वव्यापी हिन्दू साम्राज्य बनाने की दिशा में पहला कदम है—उतना ही यथार्थवादी लक्ष्य जितना अतीत में विफल हुई फासीवादी योजनाएँ जैसे रोम की शानो-शौकत की बहाली, जर्मन नस्ल का शुद्धीकरण या इस्लामी सल्तनत की स्थापना.)
भारत में 15 करोड़ मुसलमान रहते हैं.47 हिन्दू फासीवादी उन्हें जायज शिकार मानते हैं. क्या मोदी और बाल ठाकरे जैसे लोग सोचते हैं कि एक 'गृह युद्ध' में उनका सफाया कर दिया जायेगा और दुनिया खड़ी देखती रहेगी? अखबारों की खबरों के मुताबिक यूरोपीय संघ और दूसरे कई देशों ने गुजरात में जो हुआ उसकी भर्त्सना करते हुए उसकी तुलना नाजियों के शासन से की है.[42] भारत सरकार की अनिष्टसूचक प्रतिक्रिया है कि जो एक 'अन्दरूनी मामला' है उस पर टीका-टिप्पणी करने के लिए विदेशियों को भारतीय मीडिया का प्रयोग नहीं करना चाहिए.[43] (मसलन, कश्मीर में चल रहा दिल दहलानेवाला मामला?)
अब आगे क्या होगा? सेंशरशिप? इण्टरनेट पर प्रतिबन्ध? अन्तरराष्ट्रीय फोनकॉल पर पाबन्दी? गलत 'आतंकवादियों' को मारना और डीएनए के झूठे नमूने तैयार करना?[44] कोई आतंकवाद सरकारी आतंकवाद की बराबरी नहीं कर सकता.
लेकिन उनसे दो-दो हाथ कौन करेगा? उनके फासीवादी शब्दाडम्बर पर शायद विपक्ष की ओर से कोई घन-गरज ही चोट कर सकती है. अभी तक सिर्फ राष्ट्रीय जनता दल के लालू प्रसाद यादव ने ही इस मामले पर अपनी भावना और गुस्सा जाहिर किया है: 'कौन माई का लाल कहता है कि यह हिन्दू राष्ट्र है? उसको यहाँ भेज दो, छाती फाड़ दूँगा.'[45]
दुर्भाग्यवश, इस मामले में कोई फौरी समाधान नहीं है. फासीवाद को तभी रोका जा सकता है जब उससे विचलित होने वाले लोग सामाजिक न्याय को ले कर उतनी ही दृढ़ प्रतिबद्धता दिखायें, जो साम्प्रदायिकता के प्रति उनके आक्रोश के बराबर हो.
क्या हम इस दौड़ पर चल पड़ने के लिए तैयार हैं? क्या हममें से कई लाख लोग न सिर्फ सड़कों पर प्रदर्शनों में, बल्कि अपने-अपने काम की जगहों पर, दफ्तरों में, स्कूलों में, घरों में, अपने हर निर्णय और चुनाव में एकजुट होने को तैयार हैं?
या अभी नहीं...?
अगर नहीं तो अब से वर्षों बाद जब सारी दुनिया हमसे कन्नी काट लेगी (जो उसे करना ही चाहिए), तब हम भी अपने साथी मनुष्यों की आँखों से झलकती नफरत पहचानना सीखेंगे, जैसे हिटलर की जर्मनी के आम नागरिकों ने सीखा था. हम भी अपने किये (और अनकिये) पर, जो हमने होने दिया उस पर, शर्मिंदगी के चलते अपने बच्चों की नजरों से नजरें नहीं मिला पायेंगे.
यही हैं हम. भारत में. ऊपरवाला हमें इस काली रात से उबरने में मदद करे.
संदर्भ और टिप्पणियां
1. 'सईदा' एक बदला हुआ नाम है. गुजरात में हिंसा का निशाना खास तौर पर औरतें थीं. मिसाल के लिए, यह देखिए: 'वडोदरा के ग्रामीण इलाके में एक डॉक्टर ने कहा कि 28 फरवरी से जो घायल झुण्डों में वहाँ आने लगे उन्हें ऐसे घाव लगे थे जैसे साम्प्रदायिक हिंसा में पहले कभी नहीं देखे गये थे. हिपोक्रैटिक शपथ का घेर उल्लंघन करते हुए, डॉक्टरों को मुस्लिम मरीजों का इलाज करने पर धमकियाँ दी गयी हैं और उन पर दबाव डाला गया है कि वे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के स्वयं सेवकों द्वारा किये गये रक्तदान को केवल हिन्दू मरीजों के काम में लायें. तलवार से लगे घाव,कटी हुई छातियाँ और विविध तीव्रता से जले लोग कत्ले-आम के आरम्भिक दिनों के लक्षण थे. डॉक्टरों ने कई औरतों के शव-परीक्षण किये जिनके साथ सामूहिक बलात्कार हुआ था और जिनमें से बहुत-सी औरतों को इसके बाद जला दिया गया था. खेड़ा जिले की एक औरत के सामूहिक बलात्कार के बाद बलात्कारियों ने उसका सिर मूँड़ कर उस पर चाकू से ओम् गोद दिया था. कुछ दिन बाद हस्पताल में उसकी मौत हो गयी. औरतों की पीठ और नितम्बों पर ओम् गोदने के और भी मामले सामने आये.' —लक्ष्मीमूर्थी, 'इन द नेम ऑफ ऑनर,' कॉर्पवाच इंडिया, 23 अप्रैल 2002. http ://www.indiaresource.org/issues/globalization/2003/inthenameofhonor.htmlपर उपलब्ध. (29 मार्च 2009 को देखा गया).2. 'स्ट्रे इन्सिडेंट्स टेक गुजरात टोल टू 554,' टाइम्स ऑफ इंडिया, 5 मार्च 2002. घटनाओं की विस्तृत जानकारी के लिए देखें, सिद्धार्थ वरदराजन, एडिटेड, गुजरात: द मेकिंग ऑफ ए ट्रैजेडी, (नई दिल्ली: पेंगुइन बुक्स इंडिया, 2002), डियोन बुंशा, स्केयर्ड: एक्सपरिमेन्ट्स विद वायलेंस इन गुजरात, (नई दिल्ली: पेंगुइन बुक्स इंडिया, 2008), और विशेषतः कम्यूनलिज्म कॉम्बैट का मार्च-अप्रैल 2002 अंक, इण्टरनेट पर उपलब्धःhttp://www.sabrang.com/cc/archive/2002/marapril/index.html और राकेश शर्मा की डॉक्यूमेंट्री फिल्म फाइनल सॉल्यूशन (मुम्बई, 2004), फिल्म के बारे में जानकारीhttp://rakeshfilm.com पर उपलब्ध है.
3. एडना फर्नांडिस, 'इंडिया पुशेज थ्रू ऐण्टी-टेरर लॉ,' फाइनैन्शियल टाइम्स (लन्दन), 27 मार्च 2002, पृ. 11; 'टेरर लॉ गेट्स प्रसिडेंट्स नोड,' टाइम्स ऑफ इंडिया, 3 अप्रैल 2002; स्कॉट बलडॉफ, 'ऐज स्प्रिंग अराइव्ज, कश्मीर ब्रेसस फॉर फ्रेश फाइटिंग,' क्रिश्चन साइंस मॉनीटर, 9 अप्रैल 2002, पृ. 7; हॉवर्ड डब्ल्यू, फ्रेंच और रेमण्ड बोनर, 'एट टेन्स टाइम, पाकिस्तान स्टाट्र्स टू टेस्ट मिसाइल्स,; न्यूयॉर्क टाइम्स, 25 मई 2002, पृ.1; एडवर्ड ल्यूस, 'द सैफ्रन रिवोल्यूशन,'फाइनैन्शियल टाइम्स (लन्दन), 4 मई 2002, पृ. 1, मार्टिन रेग कॉन, 'इंडियाज ''सैफ्रन'' करिकुलम, टोरंटो स्टार, 14 अप्रैल 2002, पृ. बी4; पंकज मिश्रा, 'होली लाइज' द गार्डियन(लन्दन), 6 अप्रैल 2002, पृ. 24, एडवर्ड ल्यूस, 'बैटल ऑवर अयोध्या टेंपल लूम्स,'फाइनैन्शियल टाइम्स (लन्दन), 2 फरवरी 2002, पृ. 7.
4. 'गुजरात्स टेल ऑफ सॉरो: 846 डेड,' इकोनॉमिक टाइम्स ऑफ इंडिया, 18 अप्रैल 2002. हाल तक ये आँकड़े 1180 तक बढ़ गये थे. देखें, प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया, 2002 'गुजरात रायट्स: मिसिंग परसन्स टू बी डिक्लेयर्ड डेड,' इंडियन एक्सप्रेस, 1 मार्च 2009. सिलिया डबल्यू, डुगर, 'रिलिजियस रायट्स लूम ओवर इंडियन पोलिटिक्स,' न्यूयॉर्क टाइम्स, 27 जुलाई 2002, पृ.1. एडना फर्नांडिस, 'गुजरात वायलेंस बैक्ड बाइ स्टेट, सेज ईयू रिपोर्ट,' फाइनैन्शियल टाइम्स (लन्दन), 30 अप्रैल 2002, पृ. 12; ह्यूमन राइट्स वॉच, '''वी हैव नो आर्डर टू सेव यू'': स्टेट पार्टिसिपेशन ऐण्ड काम्प्लिसिटी इन कम्यूनल वायलेंस इन गुजरात,' भाग 14, नं. 3 (सी) अप्रैल 2002 (यहाँ के बाद इसे एचआरडब्ल्यू रिपोर्ट लिखा गया है) भी देखें. इण्टरनेट पर उपलब्धःhttp://www.hrw.org/legacy/reports/2002/india/gujrat.pdg (29 मार्च 2009 को देखा गया). ह्यूमन राइट वाच प्रेस विज्ञप्ति भी देखें, 'इंडिया: गुजरात ऑफिशियल टूक पार्ट इन ऐण्टी-मुस्लिम वायलेंस,' न्यूयॉर्क, 30 अप्रैल 2002.
5. देखें, 'ऐ टेन्टेड इलेक्शन,' इंडियन एक्सप्रेस, 17 अप्रैल 2002; मीना मेनन, 'अ डिवाइडेड गुजरात नॉट रेडी फॉर स्नैप पोल,' इण्टर प्रेस सर्विस, 21 जुलाई 2002; एचआरडब्ल्यू रिपोर्ट, पृ. 7, 15-16, 27-31, 458' डुगर 'रिलिजियस रायट लूम्स ओवर इंडियन पॉलिटिक्स,' पृ. 11; 'विमेन रीलिव दी हॉरर्स ऑफ गुजरात,' द हिन्दू, 18 मई 2002; हरप्रकाश सिंह नन्दा, 'मुस्लिम्स सर्वाइवर्स स्पीक इन इंडिया,' युनाइटेड प्रेस इण्टरनेशनल, 27 अप्रैल 2002; 'गुजरात कारनेज: दी आफ्टरमाथ: इम्पैक्ट ऑफ वायलेंस ऑन विमेन,' ऑनलाइन वॉलण्टियर्स डॉट ओआरजी, 2002. इण्टरनेट पर उपलब्धःhttp://www.onlinevolunteers.org/gujrat/women/index.htm (29 मार्च 2009 को देखा गया.); जस्टिस ए.पी.रावनी, सबमिशन टू द नैशनल ह्यूमन राइट्स कमीशन, न्यू डेल्ही, 21 मार्च 2002, अपेण्डिक्स 4. इण्टरनेट पर उपलब्ध:http://el.eoccentre,info/eldoc/153a/GujCarnage.htm (29 मार्च 2009 को देखा गया). 'आर्टिस्ट्स प्रोटेस्ट टू डिस्ट्रक्शन ऑफ कल्चरल लैण्डमार्क्स,' प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया, 13 अप्रैल 2002, और रामा लक्ष्मी, 'सेक्टेरियन वायलेंस हॉन्ट्स इंडियन सिटी: हिन्दू मिलिटेंट्स बार मुस्लिम्स फ्रॉम वर्क,' वॉशिंगटन पोस्ट, 8 अप्रैल 2002, पृ. 12 भी देखें.
6. कम्युनलिज्म कॉम्बैट (मार्च-अप्रैल 2002) ने जाफरी के अन्तिम क्षणों को लिखा है:
एहसान जाफरी को उनके घर से बाहर खींच निकाला जाता है, 45 मिनट तक उनके साथ पाशविक व्यवहार होता है, उनके कपड़े उतार कर नंगा घुमाया जाता है और उनसे कहा जाता है कि वे 'वन्दे मातरम!' और 'जय श्री राम!' कहें. वे इन्कार कर देते हैं. उनकी उँगलियाँ काट दी जाती हैं और उन्हें बुरी तरह जख्मी हालत में मुहल्ले भर में घुमाया जाता है. फिर उनके हाथ और पैर काट दिये जाते हैं. इसके बाद सँड़सी जैसी किसी चीज से उनकी गर्दन को पकड़ कर उन्हें सड़क पर घसीट कर आग में फेंक दिया जाता है.
यह भी देखें: '50 किल्ड इन कम्यूनल वायलेंस इन गुजरात, 30 ऑफ देम बर्न्ट,' प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया, 28 फरवरी 2002.
7. एच.आर.डबल्यू. रिपोर्ट, पृ. 5. डुगर, 'रिलिजस रायट्स लूम ओवर इंडियन पॉलिटिक्स,' पृ. .1.
8. 'गुजरात कारनेज,' ऑनलाइन वॉलण्टियर्स डॉट ओआरजी, 2002. 'वर्डिक्ट ऑन गुजरात डेथ्सः इट्स प्रीमेडिटेटेड मर्डर,' स्ट्रेट्स टाइम्स (सिंगापुर), 7 जून 2002 भी देखें.
9. 'एमएल लौंचेज फ्रण्टल अटैक ऑन संघ परिवार,' टाइम्स ऑफ इंडिया, 8 मई 2002.
10. एच.आर.डब्ल्यू, रिपोर्ट, पृ. 21-27. जे.एन.यू. के प्रोफेसर कमल मित्र चिनॉय की टिप्पणी भी देखें, उन्होंने गुजरात में एक स्वतंत्र तथ्यान्वेषी दल का नेतृत्व किया था, 'कैन इंडिया एण्ड रिलिजस रिवेंज?' सीएनएन इण्टरनैशनल, 'क्वेश्चन ऐण्ड आन्सर विद जैन वर्जी,' 4 अप्रैल 2002.
11. तवलीन सिंह, 'ऑउट ऑफ ट्यून,' इंडिया टुडे, 15 अप्रैल 2002, पृ. 21. शरद गुप्ता, 'बीजेपी: हिज एक्सीलेंसी,' इंडिया टुडे, 28 जनवरी 2002, पृ. 18 भी देखें.
12. खोजेम मर्चेंट, 'वाजपेयी विजिट्स सीन ऑफ कम्यूनल क्लैशेज,' फाइनैन्शियल टाइम्स (लन्दन), 5 अप्रैल 2002, पृ. 10. पुष्पेश पन्त, 'अटल ऐट दी हेल्म, ऑर रनिंग ऑन ऑटो?' टाइम्स ऑफ इंडिया, 8 अप्रैल 2002.
13. भरत देसाई, 'विल वाजपेयी सी थ्रू ऑल द विण्डो ड्रेसिंग? दि इकोनॉमिक टाइम्स, 5 अप्रैल 2002.
14. एजेंस फ्रांस-प्रेस, 'सिंगापुर, इंडिया टू एक्सप्लोर क्लोजर इकोनॉमिक टाइज,' 8 अप्रैल 2002.
15. 'मेधा (पाटकर) फाइल्स चार्जेज अगेंस्ट बीजेपी लीडर्स,' दि इकोनॉमिक टाइम्स, 13 अप्रैल 2002.
16. एचआरडब्ल्यू रिपोर्ट, पृ. 30. बुरहान वजीर, 'मिलिटेंट्स सीक मुस्लिम फ्री इंडिया,' दि ऑब्जर्वर (लन्दन), 21 जुलाई 2002 पृ. 20 भी देखें.
17. मिश्रा, 'होली लाइज,' पृ. 24.
18. महिलाओं पर हुए हमलों के सन्दर्भ में देखें, 'सेवन मोर हेल्ड फॉर असॉल्टिंग विमेन,' एक्सप्रेस बज (चेन्नई), 25 जनवरी 2009. ईसाइयों पर हुए हमलों के सन्दर्भ में देखें, अंगना चटर्जी, 'हिन्दुत्व'ज वायलेंट हिस्ट्री,' तहलका, 13 सितम्बर 2008, और हर्ष मन्दर, 'क्राई, द बिलवेड कण्ट्री: रिफ्श्लेक्शन ऑन दी गुजरात मैसेकर,' 13 मार्च 2002. इण्टरनेट पर उपलब्ध:www.sacw.net/Gujrat2002/Harshmandar2002.html (29 मार्च 2009 को देखा गया). चटर्जी, वायलेंट गॉड्स भी देखें.
19. देखें कम्यूनलिज्म कॉम्बैट, 'गोधरा' (नवम्बर-दिसम्बर 2002). इण्टरनेट पर उपलब्ध:http://www.sabrang.com/cc/archive/2002/novdec02/godhara.html (29 मार्च 2009 को देखा). वरदराजन द्वारा सम्पादित गुजरात में ज्योति पुनवानी, 'द कारनेज एट गोधरा' भी देखें.
20. एचआरडब्ल्यू रिपोर्ट, पृ. 13-14. सिद्धार्थ श्रीवास्तव, 'नो प्रूफ येट ऑन आईएसआई लिंक विद साबरमती अटैक: ऑफिशियल्स,' टाइम्स ऑफ इंडिया, 9 मार्च 2002, 'आईएसआई बिहाइण्ड गोधरा किलिंग्स, सेज बीजेपी,' टाइम्स ऑफ इंडिया, 18 मार्च 2002. उदय मधुरकर, 'गुजरात फ्यूएलिंग दी फायर,' इंडिया टुडे, 22 जुलाई 2002, पृ. 38. 'ब्लडस्टेण्ड मेमोरीज,' इंडियन एक्सप्रेस, 12 अप्रैल 2002. सिलिया डबल्यू. डुगर, 'आफ्टर डेडली फायरस्टॉर्म, इंडियन ऑफिशियल्स आस्क वाई,' न्यूयॉर्क टाइम्स, 6 मार्च 2002, पृ.3.
21. 'ब्लेम इट ऑन न्यूटन्स लॉ: मोदी,' टाइम्स ऑफ इंडिया, 3 मार्च 2002. फर्नांडेस, 'गुजरात वायलेंस बैक्ड बाई स्टेट,' पृ. 3 भी देखें.
22. 'आरएसएस कॉशन्स मुस्लिम्स,' प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया, 17 मार्च 2002. संघमित्र चक्रवती, 'माइनॉरिटी गाइड टू गुड बिहेवियर,' टाइम्स ऑफ इंडिया, 25 मार्च 2002.
23. 'मोदी आफर्स टू क्विट ऐज गुजरात सीएम,' दि इकोनॉमिक टाइम्स, 13 अप्रैल 2002. 'मोदी आस्क्ड टू सीक मैण्डेट,' द स्टेट्समैन (इंडिया), 13 अप्रैल 2002.
24. एम.एस गोलवलकर, वी, ऑर, आवर नेशनहुड डिफाइन्ड, (नागपुर: भारत पब्लिकेशन्स, 1939) और विनायक दामोदर सावरकर, हिन्दुत्व (नई दिल्ली: भारत सदन, 1989). 'सैफ्रन इज थिकर दैन...,' द हिन्दू, 22 अक्टूबर 2000. डेविड गार्डनर, 'हिन्दू रिवाइवलिस्ट्स रेज द क्वेशचन ऑफ हू गर्वन्स इंडिया,' फाइनैन्शियल टाइम्स (लन्दन) 13 जुलाई 2000, पृ. 12.
25. देखें, अरुंधति रॉय, पॉवर पॉलिटिक्स में 'पॉवर पॉलिटिक्स,' द्वितीय संस्करण, (कैम्ब्रिज: साउथ एण्ड प्रेस, 2002), पृ. 57.
26. मनोज मित्ता और एच.एस. फूल्का, वेन ए ट्री शुक डेल्ही: दी 1984 कारनेज, (नई दिल्ली: लोटस बुक्स, 2008).
27. एचआरडब्ल्यू रिपोर्ट, 39-44.
28. जॉन पिल्जर, 'पाकिस्तान ऐण्ड इंडिया ऑन ब्रिंक,' द मिरर (लन्दन), 27 मई 2002 पृ. 4.
29. ऐलिसन ले कोवॉन, कर्ट आइखेनवॉल्ड और माइकेल मॉस, 'बिन लादेन फैमिली, विद डीप वेस्टर्न टाइज, स्ट्राइव्ज टू री-इस्टैब्लिश ए नेम,' न्यूयॉर्क टाइम्स, 28 अक्टूबर 2001, पृ. 19.
30. देखें स्टीवन मफसन, 'पेंटागन चेंजिंग कलर ऑफ एयरड्रॉप्ड मील्स: येलो फूड पैक्स, क्लस्टर बॉम्ब्लेट्स ऑन ग्राउण्ड मे कन्फ्श्यूज अफगशन्ज,' वॉशिंगटन पोस्ट, 2 नवम्बर 2001, पृ. ए21.
31. संजीव मिगलानी, 'अपोजिशन कीप्स अप हीट ऑन गवर्नमेण्ट ओवर रायट्स,' रॉयटर्स, 16 अप्रैल 2002.
32. सुचेता दलाल, 'आइदर गवर्न ऑर गो,' इंडियन एक्सप्रेस, 1 अप्रैल 2001.
33. 'इट्स वॉर इन ड्रॉइंग रूम्स,' इंडियन एक्सप्रेस, 19 मई 2002.
34. रणजीत देवराज, 'प्रो-हिन्दू रुलिंग पार्टी बैक टू हार्डलाइन पॉलिटिक्स,' इंटर प्रेस सर्विस, 1 जुलाई 2002. 'ऐन अनहोली अलायंस,' इंडियन एक्सप्रेस, 6 मई 2002.
35. निलांजना भादुरी झा, 'कांग्रेस (पार्टी) बिगिन्स आउस्ट-मोदी केप्नेन' दि इकोनॉमिक टाइम्स, 12 अप्रैल 2002.
36. 8 जून 2006 को पूर्व सांसद एहसान जाफरी की विधवा, जकिया जाफरी ने मुख्य मंत्री नरेन्द्र मोदी और मन्त्रियों, वरिष्ठ अफसरों और पुलिसकर्मियों समेत 62 अन्य लोगों के खिलाफ फौजदारी कानून की धारा 154 के तहत एफ.आई.आर. दर्ज कराने का प्रयास किया था. देखें, कम्यूनलिज्म कॉम्बैट, 'द चार्ज शीट' (जून 2007). इण्टरनेट पर उपलब्ध:http://www.sabrang.com/cc/archive/2007/june07/crime.html (29 मार्च 2009 को देखा गया).
37. देखें, रिचर्ड बेनेडेट्टो, 'कॉन्फिडेंस इन वॉर ऑन टेरर वेन्स,' यूएसए टुडे, 25 जून 2002, पृ. 19 . और डेविड लैम्ब, 'इजराइल्स इन्वेजंस, 20 इयर्स अपार्ट, लुक ईरिली अलाइक,' लॉस ऐंजेलिस टाइम्स, 20 अप्रैल 2002, पृ.ए5.
38. रॉय, द कॉस्ट ऑफ लिविंग में 'दि एण्ड ऑफ इमैजिनेशन'.
39. 'मैं इसे शान्ति की गारण्टी का एक हथियार, शान्ति का एक जामिन कहूँगा,' पाकिस्तान के परमाणु बम निर्माता अब्दुल कदिर खान ने कहा. इम्तियाज गुल, 'फादर ऑफ पाकिस्तानी बॉम्ब सेज न्यूक्लियर वेपन्स गैरण्टी पीस,' डायचे प्रेस-एजेन्तुर 29 मई 1998. राज चेंगप्पा, वेपन्स ऑफ पीसः द सीक्रेट स्टोरी ऑफ इंडियाज क्वेस्ट, टू बी अ न्यूक्लियर पॉवर (नई दिल्ली: हार्पर कॉलिंस, 2000).
40. एडवर्ड ल्यूस, 'फर्नांडीज हिट बाइ इंडियाज कॉफिन स्कैण्डल,' फाइनैन्शियल टाइम्स (लन्दन), 13 दिसम्बर 2001, पृ. 12.
41. 'अरेस्टेड ग्रोथ' टाइम्स ऑफ इंडिया, 2 फरवरी 2000.
42. एडना फर्नांडीज, 'ई यू टेल्स इंडिया ऑफ कंसर्न ओवर वायलेंस इन गुजरात,' फाइनैन्शियल टाइम्स (लन्दन), 3 मई 2002, पृ. 02; ऐलेक्स स्पिलियस, 'प्लीज डोण्ट से दिस वॉज ए रायट. दिस वॉज ए जेनोसाइड, प्योर ऐण्ड सिम्पल,' डेली टेलिग्राफ (लन्दन), 18 जून 2002, पृ. 13.
43. 'गुजरात एक अन्दरूनी मामला है और स्थिति नियन्त्रण में है,' भारत के विदेश मंत्री जसवन्त सिंह ने कहा. देखें, शिशिर गुप्ता, 'द फॉरेन हैण्ड,' इंडिया टुडे, 6 मई 2002, पृ. 42 और हाशिया.
44. हिना कौसर आलम और पी. बालू, 'जे ऐण्ड के (जम्मू ऐण्ड कश्मीर) फजेज डीएनए सैम्पल्स टू कवर अप किलिंग्स,' टाइम्स ऑफ इंडिया, 7 मार्च 2002.
45. 'लालू वॉण्ट्स यूज ऑफ पोटा (प्रिवेंशन ऑफ टेररिज्म ऐक्ट) अगेंस्ट वीएचपी, आरएसएस,' टाइम्स ऑफ इंडिया, 7 मार्च 2002.
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