सर्वस्वहारा तबके के वर्गहितों के मुताबिक कोई राजकरण का कहीं कोई वजूद ही नहीं है।जाहिर है कि अंबेडकरी झंडेवरदार अपने वर्गहितों के खिलाफ स्थाई बंदोबस्त के तहत जमीदारों के कारिंदे और लठैत ही बन सकते हैं,नेता नहीं।
पलाश विश्वास
सच लेकिन यही है।
सर्वस्वहारा तबके के वर्गहितों के मुताबिक कोई राजकरण का कहीं कोई वजूद ही नहीं है।जाहिर है कि अंबेडकरी झंडेवरदार अपने वर्गहितों के खिलाफ स्थाई बंदोबस्त के तहत जमीदारों के कारिंदे और लठैत ही बन सकते हैं,नेता नहीं।
अभी अभी हमारे डीेसबी के छात्रनेता काशीसिंह ऐरी का फोन आया था।अरसे बाद काशी की आवाज को छू सका।मुलाकात तो नैनीताल छोड़ने के बाद कभी हुई नहीं।फोन पर ही काशी और पीसी वगैरह से बातें होती रही हैं।चंद्रशेखर करगेती की ओर से सूचना मिली थी कि काशी नैनीताल संसदीय सीट से चुनाव लड़नेवाला है। मैंने छूटते ही कहा कि नैनीताल से लड़ने पर इज्जत नहीं बचेगी और कोई जरुरी नहीं है कि संसदीय चुनाव लड़ा जाये। हमारे मित्र मोहन कपिलेश भोज छात्रजीवन में सूत्र में कहा करता था कि राजनेता वही अच्छा होता है जो दार्शनिक मित्रों की बात मानता है।जाहिर है,हम दार्शनिक नहीं है।लेकिन उम्मीद है कि काशी हमारी सलाह पर गौर करेंगे।इसे सार्वजनिक करने का मकसद यह है कि बाकी मित्रों को भी मालूम रहे।
हमने भाई पद्दोलोचन और परिवार के लोगों से वादा किया था कि मार्च में घर आयेंगे।दरअसल दिल्ली में एक कार्यक्रम करना है।तिथि तय नहीं हो पा रही है।घर जाने का ख्रच बहुत है तो एलटीए का भरोसा है।उसके लिए महीनेभर पहले आवेदन करना होता है।फिर घर जाने का मतलब हुआ कि कम से कम एक पखवाड़ा।दफ्तर से छुट्टी भी चाहिए।जाहिर है कि इस मार्च में भी घर जाना न होगा।
2006 में मां के निधन के बाद सविता की मां को उनकी मृत्युशय्या पर देखने एक बार यूपी उत्तराखंड गया था। वह भी छह सात साल हो गये। तब भी पहाड़ नहीं गया।पिता के निधन के बाद आखिरीबार 2001 में पहाड़ गया था।
तबसे उत्तराखंड में चीजें तेजी से बदल रही है।
चुनावी मौसम में इसलिए भी जाना नहीं चाहता क्योंकि बसंतीपुर की नई पीढ़ी अब केसरिया है।फिर नैनीताल से हमारे प्रियकवि बल्ली लड़ रहे हैं।जाहिर है कि नैनीताल में होता तो उसे वोट भी देता। यह लिखा भी है मैंने लेकिन इसपर उमेश तिवारी ने जो लिखा है,छुट्टी लेकर चले आओ,वह संभव नहीं है। क्योंकि इस राजनीति में हमारी भूमिका नहीं है।मित्रों को समर्थन जताना अलग बात है और राजनीतिक दल के हक में मैदान में उतरना एकदम अलग।
मेरे पिता पुलिनबाबू की आखिरी ख्वाहिश थी कि दिनेशपुर में बड़ा कोई अस्पताल बने।नारायणदत्त तिवारी से मरने से पहले उन्होंने कहा था।तिवारी जी बाद में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री भी बने।लेकिन उन्हें वह वादा याद नहीं रहा जो उन्होंने अपने मित्र से किया था।
हमारा सपना था कि बसंतीपुर में एक अस्पताल बने।
आज भाई पद्दो ने फोन पर बताया कि चार बेडो वाला अस्पताल हमारे घर के पीछे बन गया है।वहां डाक्टर भी आने लगा है।सरकारी अस्पताल है।
बोला,अब तो घर चले आओ।
उत्तराखंड सरकार का आभारी हूं।मेरे गांव के लोगों को मामूली बीमारियों के लिए शायद अब इधर उधर भागना न पड़े।
आज पंतनगर रेडियो स्टेशन का लाइव कार्यक्रम चल रहा था बसंतीपुर से।रेडियोवालों का फोन भी आया ,तब मैं सियालदह स्टेशन के मध्यथा और कुछ सुनायी नहीं पड़ा।
बसंतीपुर मेरा वजूद है।उस गांव की माटी में रचा बसा हूं।वहां के आंदोलनकारी वाशिंदों, जो मतुआ थे,तेभागा में जो लहूलिुहान हुए,ढिमरी ब्लाक आंदोलन में जो शरीक हुए,जो रुद्रपुर के 1956 के पुनर्वास आंदोलन में ही नहीं, बंगाल और ओड़ीशा के शरणार्थी आंदोलनों में भी साथ साथ थे,के अभिभावकत्व की छांव में बीता मेरा बचपन,कैशोर्य। उनमें से अब कोई नहीं है।और उनकी नई पीढ़ी अब केसरिया है।
वसंतीपुर की केसरिया बयार बाकी देश की सुनामी है।गांव तो न जाऊं तो चलेगा लेकिन देश में तो रहना ही है।
पद्दो ने बताया कि बसंतीपुर में एक नई समस्या उठ खड़ी हुई है।सात आठ लोगों पर मां काली आयी हुई है। स्कूल,अस्पताल,चारों दिसाों में पक्की सड़कें,रोजगार, इंटरनेट,फोर व्हीलर और उच्चशिक्षा की आधुनिकता के मध्य हमारे लोग अब भी अपनी आंदोलनकारी विरासत भूलकर सत्रहवीं अठारवीं सदी के अंध विश्वास में जी रहे हैं।
उन्हें पुरखों की विरासत का तनिक ख्याल भी नहीं है।
यह संवेदना नहीं वेदना का समय है।
वक्त ताश के पत्तो पर खड़े महल की तरह बिखर रहा है।
आज निनानब्वे साल की उम्र में लेखक पत्रकार खुशवंत सिंह चले गये,जिन्हें बचपन से पढ़ता रहा हूं।जिन्होंने विबाजन की त्रासदी देखी और 1984 में जिन्हें फिर शरणार्थी बनकर अपने ही पिता के हाथों बनायी दिल्ली में दंगाइयों से बचने के लिए अपनी जान माल बचाने के लिए दूसरे के यहां शरण लेनी पड़ी।मेरठ में हमने शायर बशीर बद्र का घर जलते देखा है।जलते हुए दिल्ली में झुलसते हुए खुशवंत को अंत तक देखते रहे।
शोक नहीं।
विषाद नहीं।
गुस्सा नहीं।
अजीब थेथरपन का अहसास हो रहा है।
कितना आत्मध्वंस का समय है यह।
कितने आत्मघात के साक्षी हैं हम।
और बामुलाहिजा होशियार कि ये हमारी संघर्षशील जुझारु और बहादुर हिरोइन हैं...
खनन क्षेत्र की जानी मानी कंपनी वेदांता को अपने इलाके में रोकने के लिए ये उनसे जा भिड़ीं...
इनका ताल्लुक ओडिशा के नियामगिरि पहाड़ियों पर रहने वाली डोंगरिया कोंध जनजाति से है...
ये हमारी आदिवासी हिरोइन हैं...
खनन क्षेत्र की जानी मानी कंपनी वेदांता को अपने इलाके में रोकने के लिए ये उनसे जा भिड़ीं...
इनका ताल्लुक ओडिशा के नियामगिरि पहाड़ियों पर रहने वाली डोंगरिया कोंध जनजाति से है...
You must destroy the religion of the Shrutis and the Smritis. Nothing else will avail.
-B.R. Ambedkar
बाबासाहेब जो कह गये, वे हम सिरे सेभूल चुके हैं।जबकि लगाता हम बाबा साहेब को रट्टा लगा रहे हैं।दिमाग और दिल के दरवाजे खोले बिना।
हम बहुजनों की बात तो करते हैं।एक सांस में अनुसूचित जनजाति,अनुसूचित जाति,पिछड़े और अल्पसंख्यक का समीकरण को बताकर बोल पचासी का नारा भी बखूब भीम उद्घोष के साथ बुलंद करते हैं,लेकिन गोल बंदी अपनी अपनी जात की करते हैं।आदिवासियों की कोई जाति पहचान नहीं है।इसलिए आदिवासी हमारे जाति बीज गणित के हिसाब से बाहर हैं।
हकीकत तो यह है कि इस देश में सर्वस्वहारा लोगों का कोई राजकरण है,तो अविराम सामंतवाद और साम्राज्यवाद के विरुद्ध अपने महासंग्राम के जरिये सिर्फ आदिवासी और सिर्फ आदिवासी ही उसका प्रतिनिधित्व करते हैं,हमने सत्ता का साथ देते हुए उन्हें अलगाव में रखा हुआ है।जिसदिन उनका अलगाव खत्म होगा और जिसदिन वे हमारे हीरावल दस्ते बन जायेंगे,उसी दिन शुरु होगी हमारी राजनीति।वरना हम तो सत्ता की वर्णवर्चस्वी नस्ली राजनीति में ही निष्मात हैं।
चुआड़ विद्रोह के इतिहास पर चर्चा न होने की वजह से हम इस तथ्य को नजरअंदाज कर जाते हैं कि पेशवा राज को छोड़ जादव साम्राज्य से लेकर शिवशाही और साहूजी महाराज तक के समय के महाराष्ट्र,राजस्थान,गुजरात से लेकर मैसूर,आंध्र,समूचे मध्य भारत,गोंडवाना,दंडकारण्य,ओड़ीशा,बंगाल, बिहार,सुंदरवन,झारखंड,असम से लेकर पूर्वी बंगाल और पूर्वोत्तर तक में ईस्ट इंडिया राज के शुरुआती दौर में आदिवासियों, शूद्रों,दलितों,मुसलमानों और पिछड़ों का राज्य था।
गौर तलब है कि चुआड़ विद्रोह के दमन के बाद स्थाई बंदोबस्त के तहत इस देश में सवर्ण वर्णव्यवस्था की नींव डाली गयी।
जिसकी प्रतिक्रिया में संथाल,मुंडा,गोंड,भील जैसे असंख्य विद्रोह होते रहे।सन्यासी और नील विद्रोह से लेकर तेभागा और खाद्य आंदोलन का सिलसिला चला।
वर्णवर्चस्वी साम्राज्यवाद और सामान्तवाद के खिलाफ आदिवासियों की अविराम बलिदानी संघर्ष दरअसल भारतीय कृषि समाज की गौरवसाली विरासत है,जिसकी अभिव्यक्ति नक्सलबाड़ी जनविद्रोह में हुई और जो अब जंगल के जनयुद्ध में तब्दील है।
इस इतिहास को समझे बिना हम इस देश में राजनीतिक आर्थिक सामाजिक व्यवस्था में बुनियादी परिवर्तन कर नहीं सकते।
राजनीतिक मसीहों,दूल्हों और चूहों की मौकापरस्त जमात से भावात्मक तौर पर जुड़े हमारे पढ़े अधपढ़े लोगों को इस इतिहास के बारे में कितना मालूम है ,यह हमें नहीं मालूम है।
लेकिन राजनीति तो दरअसल वर्गीय हितों के मुताबिक है।
सवर्ण राजनीति इसी वर्गीय हितों के तहत अलग अलग नजर आने के बावजूद चट्टानी एकता में देश के बहुसंख्य जनता, आदिवासी, शूद्र, दलितों, पिछड़ों, मुसलमानों और अल्पसंख्यकों के विरुद्ध दरअसल स्थाई बंदोबस्त की एकाधिकारी व्यवस्था है।
विचारधारा की राजनीति भी वहीं सवर्ण जमींदारी है।
चाहे वह अंबेडकरी विचारधारा हो,या वाम,या गांधीवादी या समाजवादी या अंबेडकरी।
राजनीति,अर्थव्यवस्था और समाज में स्थाई बंदोबस्त की निरंतरता के लिए भूमि सुधार अनिवार्य है।
इसके लिए राज्यतंत्र के बारे में समझ साफ होनी चाहिए,वह दृष्टि हमें बाबा साहेब अंबेडकर से ही मिल सकती है क्योंकि उनकी प्रतिबद्धता सर्वस्वहारा वर्ग के प्रति है।
सर्वहारा की बात जो करते हैं वे भी दरअसल इस अस्थाई बंदोबस्त को जारी रखने की रणनीति के तहत ही सर्वदलीय संसदीय सहमति के तहत नरसंहार अभियान में शामिल है।
सर्वस्वहारा तबके के वर्गहितों के मुताबिक कोई राजकरण का कहीं कोई वजूद ही नहीं है।
जाहिर है कि अंबेडकरी झंडेवरदार अपने वर्गहितों के खिलाफ स्थाई बंदोबस्त के तहत जमीदारों के कारिंदे और लठैत ही बन सकते हैं,नेता नहीं।
मुक्त बाजार में सत्तावर्ग के हितों के मुताबिक उनकी राजनीति में शामिल होने वाले सर्वस्वहाराओं के नरसंहार आयोजन में मौसम बेमौसम शामिल होने वालों को सुपारी किलर कहने पर अगर आप मुझे फांसी पर चढ़ाना चाहते हैं तो चढ़ा दें।सच वही है।
चुआड़ विद्रोह शामिल लोग सभी जातियों और धर्मों के भारतीयराजे रजवाड़े महाराष्ट्र से लेकर पूर्वी बंगाल,असम, मध्यभारत, आंध्र बिहार,झारखंड और ओड़ीशा तक ईस्टइंडिया कंपनी के खिलाफ लड़ रहे थे।
खासकर बंगाल,ओड़ीशा,झारखंड और बिहार में तो चुआड़ विद्रोह ने ईस्टइंडिया कंपनी की नाक में दम कर दिया था।
इन बागियों को चोर चूहाड़ अपराधी बताकर और उनके विद्रोह को चुआड़ यानी चूहाड़ विद्रोह बताकर बेररहमी से दबाया गया।बागियों के थोक दरों पर सूली पर चढ़ा दिया गया।फांसी पर लटकाया गया। लेकिन भारतीय इतिहास में इस विद्रोह की कोई चर्चा ही नहीं है।
Warren Hastings failed to quell the Chuar uprisings. The district administrator to Bankura wrote in his diary in 1787 that the Chuar revolt was so widespread and fierce that temporarily, the Company's rule had vanished from the district of Bankura. Finally in 1799 the Governor General, Wellesley crushed these uprisings by a pincer attack. An area near Salboni in Midnapore district, in whose mango grove many rebels were hung from trees by the British, is still known by local villagers as "the heath of the hanging upland", Phansi Dangar Math. Some years later under the leadership of Jagabandhu the paymaster or Bakshi (of the infantry of the Puri Raja), there was the well-known widespread Paik or retainer uprising in Orissa. In 1793 the Governor General Cornwallis initiated in the entire Presidency of Bengal a new form of Permanent Settlement of revenue to loyal landlords. This led to misfortunes for the toiling peasantry: in time they would protest against this as well.
आदिवासी विद्रोहों को आदरणीया महाश्वेता देवी ने कथा साहित्य का विषय बना दिया।उनका अरण्येर अधिकार उपन्यास कम दस्तावेज ज्यादा है। वरना हिंदी और बांग्ला और दूसरी भारतीय भाषाओं के लोग वीरसा मुंडा के बारे में वैसे ही अनजान होते जितने सिधो कान्हों, टांट्या भील,तीतूमीर के बारे में।
हिमांशु जी की इन पंक्तियों पर गौर जरुर करें।
आज जो नक्सली हैं वो एक दिन मर जायेंगे . आज जो पुलिस हैं वो भी मर जायेंगे .
आज जो अमीर हैं वो भी मर जायेंगे . आज जो गरीब हैं वो भी मर जायेंगे .
फिर से नए बच्चे जन्म लेंगे . उनमे से फिर कुछ बच्चे जन्म से ही गरीब होंगे . उनमे से कुछ बच्चे जन्म से ही अमीर होंगे . उनमे से कुछ बच्चे नक्सली बनेंगे . कुछ बच्चे पुलिस बनेंगे .
और ये हिंसा इसी तरह चलती रहेगी .
क्या आप इस हिंसा को समाप्त करना चाहते हैं ?
तो क्या आपने एक वैज्ञानिक की तरह इन हिंसा के कारणों की खोज करने की कोशिश करी है ?
क्योंकि अगर आप हिंसा के कारणों को ही नहीं जानते तो उसका इलाज कैसे जानेंगे ?
हो सकता है हिंसा के कारणों के विश्लेषण के परिणाम आपकी पसंद के ना हों .
लेकिन वैज्ञानिक तो ये नहीं सोचता कि मैं अपनी शोध के किसी निष्कर्ष को तब स्वीकार करूँगा जब वो मेरी पसंद का होगा .
इसी तरह सच खोजते समय आपकी पसंद और नापसंद का कोई महत्व ही नहीं है .
जैसे अगर आप बड़ी जात के हैं, पैसे वाले हैं और शहर में रहते हैं तो आप पुलिस के पक्ष में ही बात सुनना चाहते हैं .
लेकिन अगर आपका जनम बस्तर के एक गाँव में हुआ है और आपका घर जला दिया गया है आपकी बहन से बलात्कार हुआ है आपके भाई को पुलिस ने मार दिया है तो आप पुलिस के खिलाफ ही सोचेंने को मजबूर होंगे .
आपका जन्म हिंदू के घर में होगा तो आप मुसलमान को नापसंद करेंगे .
आपका जन्म मुसलमान के घर में होगा तो आप हिंदू को नापसंद करेंगे .
ध्यान से देखिये हमारी सोच हमारी परिस्थिति में से निकल रही है .
इसलिए आप भी अब ध्यान दीजिए कि कहीं आप की भी सोच पर भी तो आपकी जाति सम्प्रदाय और आर्थिक वर्ग का प्रभाव तो नहीं है ?
क्योंकि इन सब से से आज़ाद होकर एक वैज्ञानिक की तरह सोचना ही आपको सच्चा चिंतक और विश्लेषक बना सकता है .
सच को भी आप तभी समझ सकेंगे .
इसलिए अगर आप को हिंसा की समस्या का समाधान करना है
तो अपनी जाति, सम्प्रदाय और आर्थिक वर्ग के खोल से बाहर आकर सोचना शुरू कीजिये .
हिंसा की समस्या की सच्ची समझ ही हमें सच्चे समाधान तक पहुंचा सकती है .
नेताओं के पिछलग्गू मत बनिए , उनके विश्लेषण स्वीकार मत कीजिये. अपनी बुद्धी का इस्तेमाल कीजिये . जागरूक नागरिक बनिए . समाज को हिंसा मुक्त बनाइये .
आने वाली पीढ़ियों को एक अच्छी दुनिया देकर जाइए .
हिमांशु जी ने आगे लिखा है
नाहीद वर्मा ने लिखा है कि मीनाक्षी लेखी कल टाइम्स नाऊ पर बोल रही थी कि सोनी सोरी एक आतंकवादी है और बता रही थी कि सोनी सोरी के सर पर तो पांच लाख का इनाम घोषित है .
सुन कर मज़ा आ गया कसम से .
सोनी से अब पूरी भाजपा घबराने लगी है और झूठ बोलने पर उतर आयी है .
उधर छत्तीसगढ़ से मुझे रोज़ सैंकडों फोन और सन्देश आ रहे हैं कि सोनी सोरी भारी बहुमत से जीतेंगी .
कांग्रेस और सीपीआई के हजारों समर्थक भी खुल कर सोनी सोरी के समर्थन में उतर आये हैं .
सोनी का जीतना छत्तीसगढ़ में आदिवासी दमन के खिलाफ आदिवासियों का उत्तर होगा .
Ajay Kumar सोनी सोरी को राजनीतिक संरक्षण देने को कहीं न कहीं अरविन्द केजरीवाल को आदिवासिओं के प्रति उदार सोच के रूप में लेना चाहिए ।
10 hours ago · Like · 3
Bishwanath Tirkey मैडम सोनी सोरी की जीत मानवता और सच्चाई की जीत होगी ....
8 hours ago · Like · 5
Harnam Singh Verma Main tab tak jeena chahta hoon
8 hours ago · Like · 1
Shabbir Husain Qureshi ...और मेरा मानना हे की सोनी सोरी की जीत रमनसिंह के मुंह पर एक झन्नाटेदार तमाचा होगा !
Shrawan Kumar Paswan महान लेखक ,मानवर,पलास बिस्वास को -सैंकड़ो वार,सलाम --जय भीम।
श्रवण जी, मैं कोई लेखक वेखक हूं नहीं।होता तो प्रकाशित भी हुआ करता।मेरा तो नेट रोजनामचा है।जिसकी खूबी सिऱ्प इतनी है कि लोगों को गाली गलौच के लिए उकसाता हूं।अपनी तो महान परंपरा है कि हम गालियों में ही दिल हल्का कर लेते हैं ।बाकी इस नरकयंत्रणा से मुक्ति की कोई राह हम देखते नहीं है।बाबासाहेब ईश्वर हो गये हैं।फुरसत में उन्हें जब तब प्रणाम ठोंक देते हैं।जयभीम खूब कहते हैं लेकिन हम अपने अपन हिस्से के अंबेडकर के लिए मारामारी में लगे हैं और मूर्ति कब निष्प्राण हो गयी,खबर भी नहीं है।आप सारे लोग,जो मुझे दलाल वगैरह वगैरह कहने से नहीं चूकते,बेरोजगार भी बता देते हैं,उन सारे लोगों से निवेदन है कि इस नाचीज को सुपरी किलर की हैसियत न बख्शें।संभव हुआ कि अगर मेरी तरफ से कोई मुद्दा उठा हुआ लगता है,तो उसपर मंतव्य जरुर करें।मैं प्रशंसा से शर्मिंदा होता हूं क्योंकि मैं एक दलित शरणार्थी किसान का बेटा हूं और किसी की प्रशंसा और मान्यता की हैसियत मेरी नहीं है।मुझे अपनी औकात से ज्यादा कोई चीज बदहजम हो जाती है।वैसे आप मेरी नोटिस ले रहे हैं,जो कि बहुत कम ही लोग लेते हैं,इसके लिए आभारी हूं।आपको सलाम भी।लेकिन सलाम उस बाबा साहेब को करें तो ज्यादा बढिया है,जिनकी राह पर ही चलकर हम भारत लोकगणराज्य ही नहीं,शैतानी शिकंजे में फंसी यह कायनात को हम बचाने में कामयाब हो सकते हैं।
इस देश में राजचिन्ह सत्यमेव जयते है।सत्ता की भाषा सच की भाषा नहीं है।हम लोग जानते हैं।लेकिन विडंबना यही है कि जनता के बीच भी सच बोलना मना है।बहुत पहले जैसा कि बाबा नागार्जुन लिख गये हैं।
सच न बोलना ......
मलाबार के खेतिहरों को अन्न चाहिए खाने को,
डंडपाणि को लठ्ठ चाहिए बिगड़ी बात बनाने को !
जंगल में जाकर देखा, नहीं एक भी बांस दिखा !
सभी कट गए सुना, देश को पुलिस रही सबक सिखा !
जन-गण-मन अधिनायक जय हो, प्रजा विचित्र तुम्हारी है
भूख-भूख चिल्लाने वाली अशुभ अमंगलकारी है !
बंद सेल, बेगूसराय में नौजवान दो भले मरे
जगह नहीं है जेलों में, यमराज तुम्हारी मदद करे ।
ख्याल करो मत जनसाधारण की रोज़ी का, रोटी का,
फाड़-फाड़ कर गला, न कब से मना कर रहा अमरीका !
बापू की प्रतिमा के आगे शंख और घड़ियाल बजे !
भुखमरों के कंकालों पर रंग-बिरंगी साज़ सजे !
ज़मींदार है, साहुकार है, बनिया है, व्योपारी है,
अंदर-अंदर विकट कसाई, बाहर खद्दरधारी है !
सब घुस आए भरा पड़ा है, भारतमाता का मंदिर
एक बार जो फिसले अगुआ, फिसल रहे हैं फिर-फिर-फिर !
छुट्टा घूमें डाकू गुंडे, छुट्टा घूमें हत्यारे,
देखो, हंटर भांज रहे हैं जस के तस ज़ालिम सारे !
जो कोई इनके खिलाफ़ अंगुली उठाएगा बोलेगा,
काल कोठरी में ही जाकर फिर वह सत्तू घोलेगा !
माताओं पर, बहिनों पर, घोड़े दौड़ाए जाते हैं !
बच्चे, बूढ़े-बाप तक न छूटते, सताए जाते हैं !
मार-पीट है, लूट-पाट है, तहस-नहस बरबादी है,
ज़ोर-जुलम है, जेल-सेल है। वाह खूब आज़ादी है !
रोज़ी-रोटी, हक की बातें जो भी मुंह पर लाएगा,
कोई भी हो, निश्चय ही वह कम्युनिस्ट कहलाएगा !
नेहरू चाहे जिन्ना, उसको माफ़ करेंगे कभी नहीं,
जेलों में ही जगह मिलेगी, जाएगा वह जहां कहीं !
सपने में भी सच न बोलना, वर्ना पकड़े जाओगे,
भैया, लखनऊ-दिल्ली पहुंचो, मेवा-मिसरी पाओगे !
माल मिलेगा रेत सको यदि गला मजूर-किसानों का,
हम मर-भुक्खों से क्या होगा, चरण गहो श्रीमानों का !
साभार : बाबा नागार्जुन
अंबेडकरी आन्दोलन के महिमामण्डन के वामपंथी अभ्यास से बचें
सच यह है कि इस वक्त भारत को बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर की सख्त जरूरत है। संवाद का फोकस भी यही होना चाहिए।
अंबेडकरी आन्दोलन के महिमामण्डन के वामपंथी अभ्यास से बचें
BR Ambedkar, Arundhati Roy, and the politics of appropriation
http://breakingnewsstream.blogspot.in/2014/03/br-ambedkar-arundhati-roy-and-politics_19.html
लेकिन दलित लेखक और चिंतक यह सवाल उठा रहे हैं कि उन्होंने अपने कार्यकर्म में किसी दलित लेखक को शामिल क्यों नहीं किया? इस सवाल पर क्यों अरुंधति के समर्थक बिदक रहे हैं. भागीदारी का सवाल उठाने पर क्यों किसी को मुश्किल पेश आ रही है?
अभी बाबा साहेब आंबेडकर की किताब 'जाति का उच्छेद' अंग्रेजी में आ रही है जिसकी बहुत लम्बी भूमिका उन्होंने लिखी है. क्या लिखा है, यह एक पाठक के तौर पर मैं पढ़ने को उत्सुक हूँ. उसपर कोई सवाल नहीं उठा रहा हूँ. लेकिन दलित लेखक और चिंतक यह सवाल उठा रहे हैं कि उन्होंने अपने कार्यकर्म में किसी दलित लेखक को शामिल क्यों नहीं किया? इस सवाल पर क्यों अरुंधति के समर्थक बिदक रहे हैं. भागीदारी का सवाल उठाने पर क्यों किसी को मुश्किल पेश आ रही है?
अरुंधति हिंदी मीडिया से बात क्यों नहीं करती हैं
अरुंधति रॉय को पढ़ना बहुत स्तरों पर अच्छा लगता है. वे जब भी प्रकट होती हैं तो कुछ न कुछ हिलता सा दीखता है. वे अपनी लेखनी में भाषा के रोमांच के साथ नए- नए तथ्यों के साथ हर बार प्रकट होती हैं. अभी बाबा साहेब आंबेडकर की किताब 'जाति का उच्छेद' अंग्रेजी में आ रही है जिसकी बहुत लम्बी भूमिका उन्होंने लिखी है. क्या लिखा है, यह एक पाठक के तौर पर मैं पढ़ने को उत्सुक हूँ. उसपर कोई सवाल नहीं उठा रहा हूँ. लेकिन दलित लेखक और चिंतक यह सवाल उठा रहे हैं कि उन्होंने अपने कार्यकर्म में किसी दलित लेखक को शामिल क्यों नहीं किया? इस सवाल पर क्यों अरुंधति के समर्थक बिदक रहे हैं. भागीदारी का सवाल उठाने पर क्यों किसी को मुश्किल पेश आ रही है?
अरुंधति को मैंने कई मुद्दे पर बातचीत करने के लिए फ़ोन किया। कई बार फ़ोन पर कुछ जानकारी लेने के बाद (अरुंधति) उधर से जवाब आता आप 15 मिनट बाद फ़ोन कीजियेगा। उसके बाद वह 15 मिनट कभी नहीं आया जब उन्होंने मेरा फ़ोन उठाया हो और बातचीत हुई हो. मैंने उनके कुछ करीबियों से जब पता किया तो उन्होंने बताया कि वे हिंदी मीडिया से बात नहीं करती हैं. आदिवासियों, गरीबों लोगों की चिंता में दिन-रात घुलने वाली अरुंधति हिंदी मीडिया से बात नहीं करती हैं, यह मुझे नहीं पचा. इसलिए मैंने प्रयोग के तौर पर कम-से-कम ५-६ मौकों पर पकड़ने की कोशिश की लेकिन उनके (अरुंधति) करीबी मित्र की बात ही सही निकली। एक प्रसंग याद आ रहा है, कभी बहुत पहले पढ़ा था. एक बहुत बड़े वैज्ञानिक शायद आइंस्टीन एक क्रन्तिकारी पार्टी के मेंबर थे. वे जब भी पार्टी की बैठक में जाते तो वे पीछे बैठते थे. उनसे आग्रह किया जाता पर वे मना करते। वे कहते- मैं विज्ञान की दुनिया का उस्ताद हो सकता हूँ लेकिन यहाँ जो लोग राजनीतिक तौर पर ज्यादा सक्रिय हैं, जो लोग जमीन पर काम कर रहे हैं वही मेरे नेता हैं, मैं उनका follower हूँ.
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Nivedita Shakeel अरुंधति रॉय ने इतनी सुन्दर भूमिका लिखी है कि उसे जरुर पढ़ा जाना चाहिए। मुझे लगता है तुम्हारी ये बात सही नहीं है कि वे हिन्दी मीडिया से बात नहीं करती। मैंने खुद उनसे बात कि है. काफी संवेदनशील महिला है। इस तरह कि टिप्पणी से बचना चाहिए। हर लिखने वाला आंदोलन करे ये जरुरी नहीं। वह अगर लिख कर अपना काम कर रहा है तो उसे भी आंदोलन का ही हिस्सा मन जाना चाहिए
about an hour ago · Like · 1
सुपारी किलर हो गये हैं अस्मिता राजनीति के लोग
संस्कृत मंत्र की तरह है अंबेडकर साहित्य, जिसका उच्चारण जनेऊधारी द्विज ही कर सकते हैं
क्या बाबासाहेब की विरासत सिर्फ उन्हीं की है जो बहुजनों का कॉरपोरेट वधस्थल पर वध का एकमुश्त सुपारी ले चुके हैं ?
बहुजन साहित्य और बहुजन आंदोलन के तौर तरीके ब्राह्मणवादी होते गये हैं
Virendra Yadav
यह भी अजीबोगरीब है कि भारत का जो मध्यवर्ग मिज़ाज से अराजनीतिक था वोट देने से भी गुरेज करता था .वह राजनीतिक हो गया है .यहाँ तक कि कमोबेश उसकी अपनी पोलिटिकल पार्टी भी बन गयी है और उसका नेता प्रधानमंत्री पद के एक दावेदार को चुनौती देने की भी मुद्रा में है ..लेकिन हमारे राष्ट्रीय राजनीतिक दल अराजनीतिक आचरण क्यों कर रहे हैं ? अब देखिये कल तक जो जगदम्बिका पाल कांग्रेस के प्रवक्ता थे अब वे भाजपा का पटका ओढ़ कर डुमरियागंज से टिकट झटक रहे हैं. राजू श्रीवास्तव अभी तक सपा के कानपुर लोकसभा सीट के उम्मीदवार थे अब वे भाजपा का चारणगान कर रहे हैं. उदितराज कमल खिला ही रहे हैं.पासवान अपना चिराग लेकर नरेन्द्र मोदी का जाप कर रहे हैं तो रामकृपाल यादव भाजपा के पाटलीपुत्र के द्वारपाल बनने की मुद्रा में है . शिवसेना का प्रवक्ता रातोरात एनसीपी का प्रवक्ता बन जाता है . मुद्दा यहाँ व्यक्तिगत अवसरवाद का न होकर राजनीतिक दलों के अवसरवादी अराजनीतिक आचरण का है .आखिर राजनीतिक दल इन अवसरवादियों को पनाह क्यों दे रहे हैं ?
मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी का मलयाली समाचार साप्ताहिक मोदी का चित्र सहित पूरे पृष्ठ का विज्ञापन छापता है और तर्क यह कि यह तो गुजरात सरकार का विज्ञापन है .हम ख़बरों और लेखों में तो विरोध करते ही हैं ...भाकपा के मेरे मित्र अतुल अनजान का आज एक फोटो दिखा जिसमें वे राम -सीता की सार्वजानिक रूप से आरती उतार रहे हैं .शायद इसलिए कि वे घोसी लोकसभा सीट से उम्मीदवार हैं ...यानि उसूलों और सिधान्तों की राजनीति हर कहीं धूल चाट रही है .....तो फिर साम्प्रदायिक फासीवाद का रथ किसके रोके रुकेगा ???
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You, Mohan Shrotriya, Chaman Lal Jnu, Jayantibhai Manani and 60 otherslike this.
Upendra Prasad साम्प्रदायिकता और फासीवाद की समस्या हमारे सामने इस समय है ही नहीं. लोकतंत्र के सामने असली चुनौती जाति व्यवस्था है और इसे हमारा लोकतंत्र प्रत्येक चुनाव में थोड़ा कमजोर कर देता है. मोदी के पीएम बनने के बाद जाति व्यवस्था अपने आपको और भी कमजोर पाएगी. इसलिए मोदी के पीएम बनने पर प्रगतिशील और जाति विरोधी लोगों को खुश होना चाहिए.
5 hours ago · Like · 3
Sujit Ghosh वामपंथिओं की दिक्कत है कि वे जातप्रथा से कैसे निपटे समझ ही नही पाये । फिर डा अम्बेडकर का क्या करे समझ नही पाये । Upendra Prasad विना अम्बेडकरवादी समानता और संघर्ष के जात ब्यवस्था कमजोर नही होगी । अगर मोदी में जातवाद कमजोर करनें की ताकत होती तो गुजरात का हाल यह न होता
5 hours ago · Like · 2
Inder Belag narak hai sir..
3 hours ago · Like · 1
Vir Vinod Chhabra चिंता का विषय है. त्रासदी ये है कि बुद्धिजीवी इतनी बड़ी क्लास नहीं है कि पासा पलट सकें. यों भी जनता का ये कर्तव्य है कि कम से कम दल बदलुओं को तो सबक सिखाये। मगर ये एक अलग त्रासदी है कि जनता मूढ़ किस्म की है जिसे समझाना और समझाना बेहद मुश्किल है. और फिर एक त्रासदी है कि जनता के फैसले को मानना और उसका सम्मान करना हम सबका कर्तव्य है.
Jagadishwar Chaturvedi
एक औरत की आज म.प्र. में नंगी परेड करायी गयी है। पहले उसके साथ बलात्कार हुआ।
समाज को शर्म क्यों नहीं आती ?
Like · · Share · 7 hours ago · Edited ·
Sameer Baran Nandi, दुर्गाप्रसाद अग्रवाल, Ashutosh Singh and 20 others like this.
Alok Sahay जब बुध्हिजिवी इतने अंधे हैं हमारे देश में तो समाज से क्या अपेक्षा की जाये !!!!
Bhaskar Rao Joshi समाज में दिन ब दिन कामान्धता बढती जा रही है । निकृष्ट लोग यहाँ तक कि पागल व अर्धविक्षिप्त को भी नहीं बख्शते ।
Ajay Rohilla dukhad aur sharmnaak.................sorry cant like it...............
Upendra Kumar Satyarthi शर्म क्यों आएगी इन्हें। शर्म आती तो परेड कराते दरिन्दे।
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