जो बहुजनों का कारपोरेट वधस्थल पर वध का एकमुश्त सुपारी ले चुके हैं, क्या बाबासाहेब की विरासत सिर्फ उन्हीं की है?
पलाश विश्वास
जो बहुजनों का कारपोरेट वधस्थल पर वध का एकमुश्त सुपारी ले चुके हैं, क्या बाबासाहेब की विरासत सिर्फ उन्हीं की है?
अनिता भारती जी हमारी अत्यंत आदरणीया लेखिका हैं,जातिभेद के उच्छेद विषय पर अरुंधति के लिखने पर उन्हें सख्त एतराज है।अनिता जी का सवाल है कि सवाल यह नही कि अरुंधति क्यों लिख रही है, और अभी ही क्यों लिख रही है जबकि जातिभेद के उच्छेद पर दिया गया भाषण जो की बाद में एक पुस्तक के रुप में बहुत पहले आ चुका है. इस पर वर्षों से चर्चा होती रही है. तमाम साथी जो बाबासाहेब को पढना शुरु करते है, सबसे पहले यही किताब पढते है. अरुंधति के इस पुस्तक को कोट करने या इस पर लिखने से यह किताब ज्यादा महत्वपूर्ण नही हो गई है. यहां यह सवाल बहुत महत्वपूर्ण है कि क्या जैसे कि अधिकांश अति प्रगतिशील बुद्धिजीवी अम्बेडकर के बरक्स गांधी और मार्क्स को, और उनकी विचाधारा को कहीं अधिक व्यावहारिक, लोकप्रिय, प्रभावशाली, निष्पक्ष, सैद्धांतिक, उपचारपरक, ममाधान करने वाली सिद्ध करते रहे है, क्या अरुंधति ने भी वैसा ही दिखाया है या साबित किया है. क्योंकि दलित, भारतीय बुद्धिजीवियों द्वारा दूध के जले है इसलिए छाछ को भी फुंक फूंक कर पीते है. आशीष नंदी और योगेन्द्र यादव इसके ताजा तरीन उदाहरण है. वैसे मेरा भी एक सवाल है अरुंधति से. जब तब इस देश में दलितों पर जुल्मोसितम की बाढ़ आई रहती है, वे इस पर कब-कब बोली है या उन्होने कितनी बार दलितो की बस्ती का दौरा किया है?
इस पर मेरा यह जवाब हैः
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अनिता जी ,मालूम नहीं,अरुंधति इस पर क्या जवाब देंगी।लेकिन दलित बस्तियों में नीला झंडा उठाये लोगों ने बाबासाहेब का एजंडा का जो हश्र किया और जाति व्यवस्था बहाल रखने वाली मुक्त बाजारी धर्मोन्मादी हिंदुत्व में जो ब्रांडेड फौज समाहित हो गयी है,तो राज्यतंत्र को समझ लेने में कोई हर्ज नहीं है।फिलहाल राज्यतंत्र को विश्लेषित करने में अरुंधति का कोई जवाब नहीं है।फिर मुक्त बाजारी जायनवादी उत्तरआधुनिक मनुव्यवस्था की बहाली के लिए जब शासक वरणवर्चस्वी तबका अस्पृश्यों को अपना सिपाहसालार बनाने को तत्पर है,तो अरुंधति जैसी सक्षम विश्लेषक को सिरे से खारिज करके हम कोई बुद्धिमत्ता नहीं दिखायेंगे।हमारे जो मलाईदार लोग हैं,आरक्षण समृद्ध नवधनाढ्य वे कितनी बार सत्ता हैसियत छोड़कर अपने लोगों के बीच जाते रहे हैं,इसका भी हिसाब होना चाहिए।
आपके इस मंतव्य से मैं सिरे से असहमत हूं क्योंकि हम मौजूदा तंत्र को तोड़ने के लिए धर्मोन्मादी सत्ता के समरस समागम के प्रतिरोध के लिए समावेशी बहुसंख्य गठजोड़ का पक्षधर हूं।
अस्मिता राजनीति के लोग तो अब सुपारी किलर हो गये हैं जो रपोरेटवधस्थल में बहुसंख्यआबादी जिनमें बहिष्कृत मूक जनगण ही हैं,के नरसंहार हेतु पुरोहिती सुपारी किलर बन गये।मसीहों और दूल्हों की सवारी से अब कोई उम्मीद किये बिना इस पूरे तंत्र को नये सिरे से समझने की जरुरत है।अंबेडकर को तो मूर्ति बना दिया गया है,उनमें नये सिरे से प्राण प्रतिष्ठा की जरुरत है।
अनिता जी मैं आपके इस मंतव्य पर एक संवाद चाहता हूं ताकि हम लोग इस बारे में सिलसिलेवार बतिया लें।उम्मीद हैं कि न सिर्फ आप अपना पक्ष और खुलकर लिखेंगी बल्कि दूसरों के मतामत पर लोकतांत्रिक तरीके से गौर करेंगी।
अरुंधति की बात क्या करें,हमारे लोग तो बाबासाहेब के परिजनों में से एक अंबेडकरी आंदोलन के वस्तुवादी अध्येता और चिंतक आनंद तेलतुंबड़े को भी कम्युनिस्ट कहकर गरियाते हैं।क्योंकि वे अंबेडकर की प्रासंगिकता बनाये रखने की कोशिस कर रहे हैं और दुकानदार प्रजाति के लोग तो अंबेडकरी आंदोलन का बतौर एटीएम इस्तेमाल जो कर रहे हैं सो कर रहे हैं,अंबेडकरी साहित्यको भी मरी हुई मछलियों की तरह हिमघर में बंद कर देना चाहते हैं।लोग कुछ अपढ़,अधपढ़ लोग,जिनकी एकमात्र पहचान जाति है और खास विशेषता पुरखों के नाम का अखंड जाप,ऐसे लोगों के बाजारु फतवेबाज टार्च की रोशनी में अंबेडकर का अध्ययन हो,तो हो गयी क्रांति।
अगर मार्क्सवाद के सिद्धांतकार कार्ल मार्क्स,रूसी क्रांति के महानायकों लेनिन स्तालिन,चीनी जनक्रांति के नेता माओ या फ्रांसीसी क्रांति के सिद्धांतकार हाब्स लाक रुसो,अश्वेत क्रांति के नायकों के साहित्य और उनपर आधारित आंदोलनों पर ऐसा फतवा लागू होता तो पूरी दुनिया पर तो क्या,उनके अपने देश में भी कोई असर नहीं होता।
सम्राट अशोक ने अपने पुत्र और पुत्री को गौतम बुद्ध के विचारों के प्रचारक बतौर विश्वयात्रा पर भेजा था,इसीलिए प्रतिक्रांति के जरिये बौद्धमय भारतवर्ष के अवसान के बाद भी दुनियाभर में गौतम बुद्ध के विचारों की विजयपताका लहरा रही है आज भी।
गौतम बुद्ध की रक्तहीन क्रांति में कौन सी अस्मिता काम कर रही थी और उसकी क्या वर्गचेतना रही है,इसपर विद्वतजन शोध करके हमें आलोकित करें तो बेहतर।
विचार हमेशा संक्रामक होते हैं। अगर अंबेडकर विचारधारा में आस्था है तो अंबेडकर विचारधारा और उनके साहित्य पर सभी समुदायों ,सभी देशों में विमर्श चलें तो अनिता जी जैसी सक्षम लेखिका को ऐतराज क्यों होना चाहिए।
देश में जो लोग कारपोरेट राज चला रहे हैं,उनके सिद्धांतकारों के खिलाफ क्यों नहीं हमारे लोग फतवा जारी करते कि अमर्त्यसेन भुखमरी पर शोध कैसे कर सकते हैं या मोंटेक सिंह आहलूवालिया या तेंदुलकर गरीबी रेखा कैसे परिभाषित कर सकते हैं।
बहुजन साहित्य और बहुजन आंदोलन के तौर तरीके ब्राह्मणवादी होते गये हैं,क्योंकि हम भी शुद्ध अशुद्ध जिसपर सारी नस्ली बंदोब्सत तय है,उसीको उन्हींकी शैली अपनाकर खुद को शुद्ध साबित करके नव पुरोहित बनते जा रहे हैं।
बहुजनों में विमर्श अनुपस्थित है और कोई संवाद नहीं है क्योंकि पहले से ही आप तय कर लेते हैं कि कौन दलित हैं ,कौन दलित नहीं है,कौन ओबीसी है कौन ओबीसी नहीं है।फिर त्थ्य विश्लेषण करने से पहले आप सीधे किसी को भी ब्राह्मण या ब्राह्मण का दलाल याफिरक कम्युनिस्ट,वामपंथी या माओवादी डिक्लेअर कर देते हैं।
सत्तावर्ग के लोग ऐसी गलती हरगिज नहीं करते हैं और हर पक्ष को आत्मसात करके ही उनकी सत्ता चलती है।
देख लीजिये, हिंदू साम्राज्य के राजप्रासाद की ईंटों की शक्लों की कृपया शिनाख्त कर लें।
हमारे लोग दूसरे पक्ष को सुनेंगे नहीं,पढ़ेंगे नहीं,तो बहुजन साहित्य के नाम पर कोई भी अपने अपने प्रवचन को पुस्तकाकार छाप बांटकर जो मसीहागिरि का कारोबार खोल रखा है,उसकी असलियत का पता भी नहीं चलेगा।अंबेडकरी विचारधारा और आंदोलन पर सही संवाद में सबसे बड़ी बाधा यही है कि हर ब्रांड के हर दुकानदार ने अपना अपना अंबेडकर छाप दिया है।हर ब्रांड का अंबेडकर बिकाऊ है।और असली अंबेडकर बाकायदा निषिद्ध धर्मस्थल है और अंबेडकर विमर्श गुप्त तांत्रिक क्रिया है और इस विद्या के अधिकारी बहुजन भी नहीं है।संस्कृत मंत्र की तरह है अंबेडकर साहित्य,जिसका उच्चारण जनेऊधारी द्विज ही कर सकते हैं।
वैदिकी पवित्र ग्रंथ पढ़ने पर शूद्रों के कानों में शीशा तोप देने का वैदिकी रिवाज रहा है तो क्यागैरबहुजन अबेडकर विमर्श में सामिल होने की जुर्रत करें तो उनके खिलाफ भी हिंदुत्ववादियों के राम मंदिर आंदोलन की तर्ज पर इतिहास का बदला ले लिया जाये।
मैंने अंबेडकरी आंदोलन पर अरुंधति का लिखा पढ़ा है और उसे बेहद विचारोत्तेजक माना है।लेकिन उस पर जो सवाल जवाब हो रहे हैं,वे अरुंधति की पहचान पर केंद्रित हैं,न मुद्दोंपर,न देश काल परिस्थिति पर और न ही अंबेडकरी विचार और आंदोलन पर।यह अत्यंत दुर्भाग्यजनक है।
वाम आंदोलन में भले ही नेतृत्व शासक जातियों का है,लेकिन वहां भी पैदल सेना हमारे लोग ही जैसे भगवा वाहिनी की बनावट है,वैसी ही लालसेना है। नीले रंग की मिलावट की जांच भी तो होनी चाहिए।वरना बार बार बहुजन हाथी गणेश बनता रहेगा और आपके महाजन हिंदुत्व के खंभे बनते चले जायेंगे।
जाति उन्मूलन के एजंडे पर बहस चलने की बात करती हैं आप।तो बहस होने क्यों नहीं देती
बहस होचुकी है तो जाति उन्मूलन एजंडा का ताजा स्टेटस क्या है
अगर बहुजन राजनीति जाति उन्मूलन के एजंडे को ही लागू कर रही है तो जाति अस्मिता को केंद्रित क्यों हैं वह
तो क्या जाति उन्मूलन के एजंडे पर बहस हो ही नहीं सकती
अंततः अंबेडकर साहित्य भारतीय जनगण की अमूल्य धरोहर है क्योंकि इस लोक गणराज्य के संविधान के निर्माता भी बाबा साहेब हैं।इस हिसाब से तो देखें तो अंबेडकर साहित्य पर बारत के हर नागरिक का समान अधिकार है।
अगर कोई भी वामपंथ और संघ परिवार की विचारधारा और दुनियाभर के दर्शन, गांधीवाद, समाजवाद, लोहियावाद पर विचार कर सकता है,मंतव्य कर सकता है और उनको ऐतराज भी नहीं होता तो बाबासाहेब के आंदोलन और उनके साहित्य का ठेका तय करके निषिद्ध धर्मस्थल में बाबा साहेब की मूर्ति की रस्मी पूजा से हमारे लोग आखिरकार केसके हित साध रहें हैं,इसपर आत्मालोचना बेहद जरुरी है।
बहुजन राजनीति कुल मिलाकर आरक्षण बचाओं राजनीति रही है अबतक।
वह आरक्षण जो अबाध आर्थिक जनसंहार की नीतियों, निरंकुश कारपोरेट राज,निजीकरण,ग्लोबीकरण और विनिवेश,ठेके पर नौकरी की वजह से अब सिरे से गैरप्रासंगिक है।
आरक्षण की यह राजनीति जो खुद मौकापरस्त और वर्चस्ववादी है और बहुजनों में जाति व्यवस्था को बहाल रखने में सबसे कामयाब औजार भी है,अंबेडकर के जाति उन्मूलन के एजंडे को हाशिये पर रखकर सत्ता नीति अपनी अपनी जाति को मजबूत बनाने लगी है।
अनुसूचित जनजातियों में एक दो आदिवासी समुदायों के अलावा समूचे आदिवासी समूह को कोई फायदा हुआ हो,ऐसा कोई दावा नहीं कर सकता।संथाल औऱ भील जैसे अति परिचित आदिवासी जातियों को देशभर में सर्वत्र आरक्षण नहीं मिलता।
अनेक आदिवासी जातियों को आदिवासी राज्यों झारखंड और छत्तीसगढ़ में ही आरक्षण नहीं मिला है।
इसी तरह अनेक दलित और पिछड़ी जातियां आरक्षण से बाहर हैं।
जिस नमोशूद्र जाति को अंबेडकर को संविधान सभा में चुनने के लिए भारत विभाजन का दंश सबसे ज्यादा झेलना पड़ा और उनकी राजनीतिक शक्ति खत्म करने के लिए बतौर शरणार्थी पूरे देश में छिड़क दिया गया,उन्हें बंगाल और उड़ीशा के अलावा कहीं आरक्षण नहीं मिला।
मुलायम ने उन्हें उत्तरप्रदेश में आरक्षण दिलाने का प्रस्ताव किया तो बहन मायावती ने वह प्रस्ताव वापस ले लिया और अखिलेश ने नया प्रस्ताव ही नहीं भेजा।उत्तराखंड में उन्हें शैक्षणिक आरक्षण मिला तो नौकरी में नहीं और न ही उन्हें वहां राजनीति आरक्षण मिला है।
जिन जातियों की सामाजिक राजनीतिक आर्थिक स्थिति आरक्षण से समृद्ध हुई वे दूसरी वंचित जाति को आरक्षण का फायदा देना ही नहीं चाहतीं।
मजबूत जातियों की आरक्षण की यह राजनीति यथास्थिति को बनाये रखने की राजनीति है,जो आजादी की लड़ाई में तब्दील हो भी नहीं सकती।
इसलिए बुनियादी मुद्दं पर वंचितों को संबोधित करने के रास्ते पर सबसे बड़ी बाधा बहुजन राजनीति के झंडेवरदार,ब्रांडेड ग्लोबीकरण समर्थक बुद्धिजीवी और आरक्षणसमृद्ध पढ़े लिखे लोग हैं।लेकिन बहुजन समाज उन्हीके नेतृत्व में चल रहा है।
हमने निजी तौर पर देश भर में बहुजन समाज के अलग अलग समुदायों के बीच जाकर उनको उनके मुहावरे में संबोधित करने का निरंतर प्रयास किया है और ज्यादातर आर्थिक मुद्दों पर ही उनसे संवाद किया है,लेकिन हमें हमेशा इस सीमा का ख्याल रखना पड़ा है।
वैसे ही मुख्यधारा के समाज और राजनीति ने भी आरक्षण से इतर बाकी मुद्दों पर उन्हें अबतक किसी ने संबोधित ही नहीं किया है।
जाहिर है कि जानकारी के हर माध्यम से वंचित बाकी मुद्दों पर बहुजनों की दिलचस्पी है नहीं, न उसको समझने की शिक्षा उन्हें है और बहुजन बुद्धिजीवी,उनके मसीहा और बहुजन राजनीति के तमाम दूल्हे मुक्त बाजार के कारपोरेट जायनवादी धर्मोन्मादी महाविनाश को ही स्वर्णयुग मानते हैं और इस सिलसिले में उन्होंने वंचितों का ब्रेनवाश किया हुआ है।
बाकी मुद्दों पर बात करें तो वे सीधे आपको ब्राह्मण या ब्राह्मण का दलाल और यहां तक कि कारपोरेटएजेंट तक कहकर आपका सामाजिक बहिस्कार कर देंगे।
अरुंधति का लिखा समझने की तकलीफ उठाने को भी तैयार नहीं हो सकते बहुजन पढ़े लिखे लोग।
बहुजनों की हालत देशभर में समान भी नहीं है।
मसलन अस्पृश्यता का रुप देशभर में समान है नहीं।जैसे बंगाल में अस्पृश्यता उस रुप में कभी नहीं रही है जैसे उत्तरभारत,महाराष्ट्र,मध्यभारत और दक्षिण भारत में।
इसके अलावा बंगाल और पूर्वी भारत में आदिवासी,दलित,पिछड़े और अल्पसंख्यकों के सारे किसान समुदाय बदलते उत्पादन संबंधों के मद्देनजर जल जंगल जमीन और आजीविका की लड़ाई में सदियों से साथ साथ लड़ते रहे हैं।
मूल में है नस्ली भेदभाव,जिसकी वजह से भौगोलिक अस्पृश्यता भी है।महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश की तरह बाकी देश में जाति पहचान सीमाबद्ध मुद्दों पर बहुजनों को संबोधित किया ही नहीं जा सकता।
आदिवासी जाति से बाहर हैं तो मध्यभारत,हिमालय और पूर्वोत्तर में जातिव्यवस्था के बावजूद अस्पृश्यता के बजाय नस्ली भेदभाव के तहत दमन और उत्पीड़न है।
उत्पादन प्रणाली को ध्वस्त करने,कृषि को खत्म करने की जो कारपोरेट जायनवादी धर्मोन्मादी राष्ट्रव्यवस्था है,उसे महज अंबेडकरी आंदोलन और अंबेडकर के विचारों के तहत संबोधित करना एकदम असंभव है।फिर भारतीय यथार्थ को संबोधित किये बिना साम्यवादी आंदोलन के जरिये भी सामाजिक शक्तियों की राज्यतंत्र को बदलने के लिए गोलबंद करना भी असंभव है।
यह बात आनंद तेलतुंबड़े जी भी अक्षरशः मानते हैं।
ध्यान देने की बात है कि अंबेडकर को महाराष्ट्र और बंगाल के अलावा कहीं कोई उल्लेखनीय समर्थन नहीं मिला।
लंदन में गोलमेज सम्मेलन के वक्त पंजाब में जो बाल्मीकियों ने उनका समर्थन किया,वे लोग भी कांग्रेस के साथ चले गये।
बंगाल से अंबेडकर को समर्थन के पीछे बंगाल में तब दलित मुस्लिम गठबंधन की राजनीति रही है,भारत विभाजन के साथ जिसका पटाक्षेप हो गया।
अब बंगाल में विभाजनपूर्व दलित आंदोलन का कोई चिन्ह नहीं है।बल्कि अंबेडकरी आंदोलन का बंगाल में कोई असर ही नहीं हुआ है।
अब अंबेडकर आंदोलन जो है ,वह आरक्षण बचाओ आंदोलन के सिवाय कुछ है नहीं।
बंगाल में नस्ली वर्चस्व का वैज्ञानिक रुप अति निर्मम है,जो अस्पृश्यता के किसी भी रुप को लज्जित कर दें।यहां शासक जातियों के अलावा जीवन के किसी भी प्रारुप में अन्य सवर्ण असवर्ण दोनों ही वर्ग की जातियों का कोई प्रतिनिधित्व है ही नहीं।
अब बंगाल के जो दलित और मुसलमान हैं,वे शासक जातियों की राजनीति करते हैं और किन्हीं किन्हीं घरों में अंबेडकर की तस्वीर टांग लेते हैं।
अंबेडकर को जिताने वाले जोगेंद्रनाथ मंडल या मुकुंद बिहारी मल्लिक की याद भी उन्हें नही है।
इसी वस्तु स्थिति के मुखातिब हमारे लिए अस्पृश्यता के बजाय नस्ली भेदभाव बड़ा मुद्दा है जिसके तहत हिमालयऔर पूर्वोत्तर तबाह है तो मध्य भारत में युद्ध परिस्थितियां हैं।
जन्मजात हिमालयी समाज से जुड़े होने के कारण हम ऴहां की समस्याओं से अपने को किसी कीमत पर अलग रख नहीं सकते और वे समस्याएं अंबेडकरी आंदोलन के मौजूदा प्रारुप में किसी भी स्तर पर संबोधित की ही नहीं जा सकती जैसे आदिवासियों की जल जंगल जमीन और आजीविका से बेदखली के मुद्दे बहुजन आंदोलन के दायरे से बाहर रहे हैं शुरु से।
ऐसे में अंबेडकर का मूल्यांकन नये संदर्भों में किया जाना जरुरी ही नहीं,मुक्तिकामी जनता के स्वतंत्रता संग्राम के लिए अनिवार्य है।आप यह काम कर रहे हैं तो मौजूदा हालात के मद्देनजर आपको और ज्यादा जिम्मेदारी उठानी होगी।
गैरबहुजन साम्यवादी लोग इस सिलसिले में जो प्रयोग कर रहे हैं,उसकी एक भौगोलिक सीमा है।वे जिन लोगों से संवाद कर रहे हैं,वे आंदोलन के साथी बहुजन हैं।वंचित समुदायों के होने के बावजूद उत्पादन प्रणाली में अपना अस्तित्व बनाये रखने की लड़ाई में वे आम बहुजन मानसिकता को तोड़ पाने में कामयाब हैं।इसलिए उन्हें विमर्श की भाषा समझने में कोई दिक्कत होगी नहीं।
फिर जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय,मुंबई विश्वविद्यालय या कोई भी विश्वविद्यालय परिसर मूक अपढ़ हमेशा दिग्भ्रमित कर दिया जाने वाला सूचना तकनीक वंचित भारतीय समाज का प्रतिनिधित्व नहीं करता।
यह सामाजिक संरचना बेहद जटिल है और इसके भीतर घुसकर उन्हें आप अंबेडकर के मूल्यांकन के लिए राजी करें और अंबेडकर के प्रासंगिक विचारों के साथ बुनियादी परिवर्तन के लिए राजी करें,इसके लिए आपकी भाषा भी आपकी रणनीति का हिस्सा होना चाहिए।ऐसा मेरा मानना है।
हम तो आपको सही मायने में जनप्रतिबद्ध कार्यकर्ता के रुप में सबसे ज्यादा कुशल व प्रतिभासंपन्न तब मानेंगे जब वैज्ञानिक विश्लेषण आप बहुजनों के मूक जुबान से करवाने में कमायाब है।खुद काम करना बहुत कठिन भी नहीं है,लेकिन विकलांग लोगों से काम करवा लेने की कला भी हमें आनी चाहिए,खासकर तब जबकि वह काम किसी विकलांग समाज के वजूद के लिए बेहद जरुरी है।
चुनौती यह है कि हम अंबेडकर का पूनर्मूल्यांकन कर सकते हैं, लेकिन इसका असर इतना नहीं होगा ,जितना कि खुद बहुजनों को हम अंबेडकर के पुनर्मूल्यांकन के लिए तैयार कर दें,एसी स्थिति बना देने का।दरअसल हमारा असली कार्यभार यही है।
हमारी पूरी चिंता उन वंचितों को संबोधित करने की है,जिनके बिना इस मृत्युउपत्यका के हालात बदले नहीं जा सकते।
किसी खास भूगोल या खास समुदाय की बात हम नहीं कर रहे हैं,पूरे देश को जोड़ने की वैचारिक हथियार से देशवासियों के बदलाव के लिए राजनीतिक तौर पर गोलबंद करने की चुनौती हमारे समाने हैं।
क्योंकि बदलाव के तमाम भ्रामक सब्जबाग सन सैंतालीस से आम जनता के सामने पेश होते रहे हैं और उन सुनामियों ने विध्वंस के नये नये आयाम ही खोले हैं।
आप का उत्थान कारपोरेट राजनीति का कायकल्प है जो समामाजिक शक्तियों की गोलबंदी और असमिताओं की टूटन का भ्रम तैयार करने का ही पूंजी का तकनीक समृद्ध प्रायोजिक आयोजन है।
इसका मकसद जनसंहार अश्वमेध को और ज्यादा अबाध बनाने के लिए है। लेकिन वे संवाद और लोकतंत्र का एक विराट भ्रम पैदा कर रहे हैं और नये तिलिस्म गढ़ रहे हैं।उस तिलिस्म कोढहाना भी मुक्तिकामी जनता के हित में अनिवार्य है,जो आप बखूब गढ़ रहे हैं।
जहां तक तेलतुंबड़े का सवाल है,अगर बहुजन राजनीति का अभिमुख बदलने की मंशा हमारी है तो महज आनंद तेलतुंबड़े नहीं, कांचा इलेय्या, एचएल दुसाध, उर्मिलेश, गद्दर, आनंद स्वरुप वर्मा जैसे तमाम चिंतकों और सामाजिक तौर पर प्रतिबद्ध तमाम लोगों से हमें संवाद की स्थिति बनानी पड़ेगी।ये लोग बहुजन राजनीति नहीं कर रहे हैं।
हमें आनंद पटवर्द्धन और अरुंधति राय की दलीलों पर भी गौर करना होगा।
तभी मौजूदा मुक्त बाजार में हम अंबेडकरी आंदोलन और स्वयं अंबेडकर को मुक्तिकामी जनपक्षधर ब्रह्ामास्त्र में तब्दील कर सकते हैं।
अंबेडकर के पुनर्मूल्यांकन अगर होना है तो संवाद और विमर्श से ऐसे लोगों के बहिस्कार से हम बहुजन मसीहा और दूल्हा संप्रदायों के लिए खुल्ला मैदान छोड़ देंगे।जो बहुजनों का कारपोरेट वधस्थल पर वध का एकमुश्त सुपारी ले चुके हैं।
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