'विस्थापित'
उदय प्रकाश
(एक)
वे बीच सड़क पर अपने पूरे कुनबे, कबीले और परिवार के साथ चुपचाप, उदास, यहां-वहां, जगह-जगह बैठे हुए दिखाई देते हैं।
लगभग डेढ़-दो सौ किलोमीटर तक जाती उस हाई-वे सड़क पर, जो किसी भी दूसरी अच्छी सड़क की तरह सरकार द्वारा 'टोल-रोड' बना दी गई है और जिस पर कोई भी 'दुपहिया' या 'चौपहिया' चलाने के लिए टैक्स चुकाना पड़ता है और जिसे किसी मलयेशियाई कांस्ट्रक्शन कंपनी ने शानदार ढंग से बनाया है, उसी सड़क पर, धीरे-धीरे उजाड़ में बदलते तितर-बितर सरई-महुआ-छुइला के जंगलों के आस-पास, वे झुंड के झुंड बैठे रहते हैं।
लगता है, जैसे वे कहीं जाने के लिए किसी बस का इंतज़ार कर रहे हों। सपरिवार। शायद तीर्थ यात्रा पर निकले हों या कोई देहाती-आदिवासी हाट-मेला, जहां जाने के लिए कई किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है और अगर कोई ट्रक वाला उन्हें पीछे बिठा ले, तो दूरियां कुछ कम हो जाती हैं। लेकिन उन्हें कोई नहीं बिठाता ।
कहीं वे भिखमंगे तो नहीं हैं ? या अकाल पीड़ित ? जो सड़क पर किसी की मदद से अपना पेट भरने के लिए, किसी दयालु से रोटी-भात पाने की उम्मीद में इस तरह बैठे हैं? तपती सुलगती मई-जून की कड़ी धूप या जुलाई-अगस्त की मानसून की बारिशों से बिल्कुल बे-परवाह ! धूप, बारिश, ठंड उनके ऊपर से यों ही गुज़र जाती है।
वे सड़क को घेर लेते हैं। कई-कई जगह तो वे पूरी सड़क पर छितर कर बैठ जाते हैं। अपने नन्हें-नन्हें बच्चों, बूढ़े हो चुके कुटुंबियों और परिजनों के साथ।
आप हार्न बजाते रहिये, वे वहां से नहीं हिलते। वे अपना सिर तक उस तरफ़ नहीं घुमाते, जहां से तेज़ हार्न की आवाज़ या उन्हें डांटने की तीखी कानफोड़ू चिल्लाहट आ रही है। वे ड्राइवरों की भद्दी-भद्दी गालियां सुनते हुए भी अपनी जगह से टस से मस नहीं होते।
लगता है उन्होंने कोई नशा कर लिया है और वे उसमें धुत्त हैं। बेहोश मदमत्त।
क्या जंगल में कहीं कोई नशीला कनेर या धतूर उन्हें मिल गया, जिसे उन्होंने अपनी भूख मिटाने के लिए खा लिया ? शायद गांजा, अफ़ीम या भांग के वनैले-जंगली पौधे इस इलाके में कहीं उगे हों, जिसकी लत उन्हें लग गयी है। वे नशेड़ी हो चुके हों ।
वे दिल्ली के लालकिले के मैदान, निगमबोध घाट, आई.एस.बी.टी. के आसपास, पुरानी दिल्ली या पहाड़गंज के रेल्वे स्टेशन या दरियागंज के ओवर ब्रिज के ऊपर या नीचे, मैले-फटे चिथड़ों में लिपटे अनगिनत ड्रग एडिक्ट्स की तरह लगते हैं।
वे गहरे अवसाद की सुन्न मानसिक अवस्था में हैं। उन्हें कुछ भी होश नहीं है, जैसे किसी सन्निपात या 'डिलीरियम' में हों ।
वे वक्त और भूगोल के अहसास से छिटक कर, उससे दूर हो चुके हैं। वे निर्विकार वीतराग हैं। या तो उन्होंने सब कुछ त्याग दिया है या सब कुछ उनसे छीन लिया गया है।
वे सन्यासी, अवधूत, योगी हैं या वंचित, लुटे-पिटे बे-घरबार, किसी हिंसा से उत्पीड़ित शरणार्थी समूह ?
कुछ समझ में नहीं आता।
लेकिन यह ज़रूर समझ में आता है कि वे मनुष्य नहीं हैं। वे लंगूर हैं। उस पूरे इलाके में उन्हें - 'करमुहां बंदरा' यानी 'काले मुंह वाला बंदर' कहा जाता है। वे आदिवासी या जन-जातीय समुदाय के मनुष्य नहीं हैं लेकिन आदिवासियों, जन-जातियों के साथ उनको जोड़ने वाली उनकी एक बहुत महत्वपूर्ण कड़ी ज़रूर ऐसी है, जिसकी ओर अक्सर समाजशास्त्रियों, एंथ्रोपोलाजिस्ट्स, एन.जी.ओ. या एक्टिविस्ट्स का ध्यान नहीं जाता।
वह कड़ी है -विस्थापन।
उनको उनकी जल, जंगल, ज़मीन से हटाया है –'विकास' ने । वे 'विस्थापित' हैं ।
'विकास' का जो माडल आज लगभग सारी तीसरी दुनिया में अपनाया जा रहा है, उसकी त्रासद परिणतियों के एक प्रमाण ये 'लंगूर' भी हैं। ये 'विकासवाद' के बढ़ते हुए मौज़ूदा उन्माद के मार्मिक शिकार हैं। ट्रैजिक विक्टिम्स आफ़ क्रेज़ी डवलपमेंटलिज़्म। जिसके बारे में कहा जाता है कि डार्विन का 'विकास का सिद्धांत' उन पर, या हम सब पर, ज्यों का त्यों लागू होता है, यानी जो सबसे 'फिट' होगा, वही ज़िंदा बचेगा। 'सरवाइवल आफ़ फिटेस्ट।'
कुछ साल पहले मिशेल फ़ुको की एक बहुचर्चित किताब का शीर्षक था -'मैड्नेस इन सिविलाइज़ेशन', जिसमें उसने सभ्यताओं के विकास की हर अवस्था में हमेशा मौज़ूद रहने वाले किसी 'उन्माद' या 'पागलपन' की चर्चा की थी और जिसे उसने पंद्रहवीं-सोलहवीं सदी के यूरोप के इतिहास से उठाये गये तथ्यों से प्रमाणित भी किया था। फ़ुको ने पिछली सभ्यताओं के ऐसे उन्माद को इतिहास के विकास का एक नियामक कारक माना था। यह 'उन्माद' या 'सनक' ही उन कारकों में से एक मुख्य कारक है, जो समाज को आगे बढ़ाता है । हम इस समय फिर से ऐसे उन्माद की चपेट में हैं । फ़िलहाल, इस छोटे से आलेख में इसके बारे में अधिक चर्चा करने की जगह नहीं, इसलिए हम वापस 'लंगूरो' या 'करमुहां बंदरा' की ओर लौट चलते हैं। इस वक्त वही हमारा विषय है।
रीवा से शहडोल और अनूपपुर-अमरकंटक तक जाने वाले नेशनल हाई वे में, ब्यौहारी के आसपास से वे सड़क पर दिखना शुरू हो जाते हैं। कई जगह उनके शव भी सड़क पर कुचले हुए दिखते हैं। किसी तेज़ रफ़्तार से आने वाली बस या ट्रक के पहियों के नीचे आ कर वे हर रोज़ दुर्घटनाओं में मारे जाते हैं। शायद मध्य प्रदेश का फ़ारेस्ट डिपार्टमेंट उनकी आबादी की गणना का रिकार्ड कभी रखता हो कि उनकी संख्या पहले के मुकाबले कितनी घट या बढ़ रही है, लेकिन इसका अंदाज़ा मुझे नहीं है।
उनका विस्थापन हुआ है 'वाण सागर परियोजना' के तहत बने एक बहुत बड़ी बांध की वजह से। १९७०-८० के दशक से निर्मित होने वाला यह विशाल जल-भराव टिहरी या भरूच के बांधों की तरह बहु-विख्यात और चर्चित तो नहीं है, लेकिन इसके कारण पड़ने वाले प्रभाव किसी भी दूसरी बड़ी बांध और उससे पैदा की जा रही जल-विद्युत ऊर्जा परियोजनाओं से भिन्न नहीं है। विंध्याचल शृंखला की दो पहाड़ियों के बीच से बहते सोन नदी को उस जगह रोक दिया गया है और एक छोटा-मोटा समुद्र जो किसी विशाल समुद्री बैक वाटर की तरह लगता है, उसमें बहुत से आदिवासी बस्तियां, वन्य प्राणी और वहां के घने जंगलों के बहुमूल्य तथा विरल पेड़-पौधे और अन्य वनस्पतियां डूब गयी हैं। इस डूब में आने वाले किसानों को सरकार ने मुआवज़ा भी दिया है लेकिन आदिवासियों में से कितने ऐसे होंगे जिन्हें यह मुआवज़ा मिला होगा, इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है।
लेकिन लंगूरों को सरकारी मुआवज़ा कैसे मिलता ? उनके पुनर्वास के लिए कोई सरकारी लैंड एलोकेशन कैसे होता। उनके पास न तो किसी पेड़ का पट्टा था, न वे लगान भरते थे, न उनके राशन कार्ड-आधार कार्ड थे, न वो मतदाता सूची में कहीं दर्ज थे.
'करमुहां बंदरों' या लंगूरों के पास अपनी नागरिकता का कोई भी 'प्रमाणपत्र' नहीं था। वे बी.पी.एल. कार्डधारी भी नहीं थे।
लंगूर की भला कौन-सी 'आइडेंटिटी' हो सकती है, खासकर उस व्यवस्था में, जिसमें लाखों-करोड़ों लोगों के पास भी अपनी नागरिकता को प्रमाणित करने के लिए कोई 'आइडेंटिटी कार्ड' नहीं है।
आपको याद होगा, कुख्यात 'निठारी कांड' का मामला, जिसमें एक अमीर की कोठी में रहने वाला मालिक पंढेर और उसका नौकर कोली, स्लम में रहने वाले मासूम बच्चे-बच्चियों का यौन शोषण करने के बाद उनकी हत्याएं कर दिया करता था और बाद में उसके फ़्रिज से उन्हीं गुमशुदा बच्चों के मीट से बनाये गये कबाब पुलिस ने बरामद किये थे। उन गुमशुदा बच्चों के अधिकतर माता-पिताओं की एफ़.आई.आर. किसी पुलिस थाने में इसलिए नहीं दर्ज हो सकी थी क्योंकि उनके पास कोई राशन कार्ड, बिजली का बिल भरने की रशीद, मकान का प्रापर्टी या मतदाता प्रमाणपत्र वगैरह नहीं था. वे तो शहर में रहने वाले 'अ-नागरिक' थे, जो दिल्ली और नोएडा में बनने वाली बिल्डिंगों में कांस्ट्रक्शन लेबर के रूप में दिहाड़ी मजूरी करते थे। आज भी दिल्ली-मुंबई जैसे 'विकसित' महानगरों में ऐसी 'अनागरिक' आबादी खासी बड़ी संख्या में है।
(ज़ारी.....)
(दो)
तो यह बात साफ़ है कि ये लंगूर अपने विस्थापन का एफ़.आई.आर. किस पुलिस थाने में लिखाएं ?
हमारे गांव में, जो मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की सीमा पर है, एक किसान के घर ऐसा ही एक विस्थापित लंगूर आ कर रहने लगा था। वह रोटी या भात खाता था। बीड़ी पीना सीख गया था और महुए की शराब को चुक्कड़ या प्याले से अपने मालिक के साथ बैठ कर पीता था। वह जंगल में उस आदिवासी किसान के साथ बकरियां चराने भी जाता था।
ऐसे बहुत से लोग आसपास के गांवों में हैं, जिनके घर में कोई विस्थापित लंगूर रहने लगा है। वह पालतू या 'पेट' हो चुका है। ठीक उसी तरह, जिस तरह बहुत से छत्तीसगढ़ के आदिवासी मज़दूर या उनकी लड़कियां शहरी इलाकों में रहने वाले, अपने से बिल्कुल दूसरी नस्ल के बिल्डर्स, ठेकेदार या अमीर कोठियों के साहबों की सेवा में 'डोमिस्टिकेट' हो चुके हैं। यानी 'पालतू' बन गये हैं, बस उनके गले में कोई 'पट्टा' नहीं बंधा है।
दो साल पहले मैं अपने गांव में, घर के पिछवाड़े वाले कमरे में दोपहर की नींद ले रहा था और जब अचानक आंख खुली तो खाट के बिल्कुल बगल में, फ़र्श पर, एक बड़ा-सा, मोटा, अधेड़ लंगूर बैठा हुआ था। मुझे हिलने-डुलने में भी डर लग रहा था। कहीं वह हमला न कर दे। इतने बड़े आकार का डरावना 'करमुहां बंदर' इतनी नज़दीक से, इसके पहले मैंने कभी नहीं देखा था। वह मेरी ओर देख रहा था। लेकिन उसकी आंखों में कोई हिंसा नहीं, कोई लाचारी झलक रही थी। शायद उसे उसके गुट ने अपने समुदाय से बाहर निकाल दिया था, या शायद वह खुद ही उन सबसे अलग हो गया था। मेरी हिम्मत बढ़ी और मैं खाट से उतर कर रसोई की तरफ़ गया और वहां जो भी उसके खाने लायक था, उसे थमाया। वह पिछवाड़े के जंगल की ओर चला गया, जहां अब बस सिर्फ़ कुछ गिने-चुने साल-महुए के पेड़ बचे थे। वहां ऐसा कुछ भी नहीं बचा था, जो उसके खाने लायक हो.
कौन चुरा ले गया लंगूरों, चिड़ियों, बंदरों, आदिवासियों का खाना ?
आदिवासी और लंगूर या अन्य वन्य-प्राणी जंगलों पर ही निर्भर होते हैं। वनोपज से ही उनकी आजीविका चला करती थी। अब वह उनसे छिन गया है। जैसे कोई मछली या कछुए से उसका पानी ...नदी, तालाब, समुद्र छीन ले।
लेकिन 'लंगूरों' के इस विस्थापन की कहानी सिर्फ़ भावनात्मक या रोमेंटिक भर नहीं है। इसके बहुत व्यापक, महत्वपूर्ण और गहरे प्रभाव उस समूचे क्षेत्र की सामाजिक - आर्थिक बनावट पर पड़े हैं।
इस विस्थापन ने कई तरह के पारंपरिक और लाभकारी कृषि-पद्धतियों को बदल डाला है, इस इलाके के ग्रामीण मकानों के समूचे स्थापत्य और उनकी निर्माण-सामग्री को बदला है और इसने कुछ समुदायों की आजीविका के पारंपरिक पेशे को छीन कर उन्हें बेरोज़गार कर दिया है।
लंगूरों का यह विस्थापन सिर्फ़ पर्यावरण का या सिर्फ़ भावनात्मकता का मसला नहीं है, यह एक आर्थिक-सामाजिक प्रक्रिया भी है, जिसे समझने की ज़रूरत है।
पिछले कुछ साल से इन दर-ब-दर भटकते, भूख और प्यास में व्याकुल विस्थापित लंगूरों ने उस इलाके के एक बहुत बड़े हिस्से के गांव-देहातों में धावा बोल दिया है। वे घरों के छप्पर पर चढ़ जाते हैं और मिट्टी के खपड़ैलों को तोड़ डालते हैं। इससे गर्मी के तीन महीनों , अप्रैल, मई और जून के खाली दिनों में कुम्हारों की आजीविका छिन गयी है। खेती के बाद, यही वह समय होता था जब वे मिट्टी के घड़े, बरतन और बड़ी तादाद में खपड़े ( पके हुए मड टाइल्स) बनाया करते थे। यह उनका पीढ़ियों से चला आता सामुदायिक पेशा था। वे माटी के दस्तकार होते थे। लेकिन अब वहां के गांवों में लोग टाटा के टिन-शीट्स या कारखानों में उत्पादित एस्बस्टस चादरों का इस्तेमाल करने लगे हैं। घर बनाने की पुरानी सामग्री बदलने से उस पिछड़े क्षेत्र का पारंपरिक स्थापत्य बदल गया है। मिट्टी के खपड़े ताप प्रतिरोधी होते थे। गर्मी की जलती हुई धूप के बावज़ूद, मिट्टी के बने घर ठंडे और रहने लायक होते थे। खपड़ैलों पर कुम्हड़े, लौकी, करेले की बेलें चढ़ जाती थीं। लगता था, वे घर धरती से ही उगे हैं। वे प्राकृतिक हैं।
अब वहां टाटा या किसी और कंपनी की टिन की चादरें हैं। गर्मी की दोपहर घर तंदूर बन जाता है।
अब वे घर 'नैसर्गिक' या प्रकृति के हिस्से नहीं, धरती के ऊपर फेंके गये 'कूड़ा-कचरा' हैं।
दूसरा असर बागवानी या फलदार वृक्षों (हार्टिकल्चर) पर निर्भर रहने वाले लोगों की आय पर पड़ा है। हमलावर लंगूरों के झुंड के झुंड आम, अमरूद, सहजन और अन्य फलों के बगीचों पर टूट पड़ते हैं। पटाखे फोड़ कर या एयरगन के छर्रों से उन्हें भगा पाना दिनों-दिन मुश्किल हो रहा है क्योंकि अपने अनुभवों से इन लंगूरों ने चतुराई सीख ली है। वे आसपास तक ही भागते हैं और मौका पाते ही फलों को चट कर जाते हैं। कमज़ोर पेड़ों को उजाड़ जाते हैं। लंबे समय से चली आती खेती की फ़सल-परिपाटी (क्राप-पैटर्न) पर गहरा प्रभाव हुआ है। किसान अब अधिक आय देनेवाली दलहनों की खेती लगभग बंद कर चुके हैं। अरहर, चना, मसूर, उड़द, मूंग की नगदी खेती (कैश क्रापिंग) बंद हो चुकी है। यानी अगर गहराई से देखें तो इन विस्थापित 'करमुहां बंदरों' ने पूरी तरह से ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था को उलट-पुलट डाला है। बेरोज़गारी और पेशागत कामकाज बंद होने से बहुतेरे आत्मनिर्भर लोग अब मज़दूरी या कोई दूसरा काम करने लगे हैं।
सब्जियां उगाने वाले किसानों से पूछिये कि उन्हें क्या-क्या मुश्किलें आती हैं !
लोग कहते हैं कि जो सड़क पर अपने कुटुंब-कबीले के साथ विस्थापन के शिकार 'लंगूर' बैठे हैं और हर रोज़ दुर्घटनाओं के शिकार होते हैं, वे 'गांधीवादी' हैं, अहिंसा, अनशन और सत्याग्रह के अनुयायी।
और जो गावों पर आक्रमण करने वाले लंगूर हैं, वे 'माओवादी' या 'नक्लासइट' हैं।
यह तो पता नहीं कि उन्हें ये 'विचारधाराएं किसने सिखाई ? किसने उन्हें खास तरह का प्रशिक्षण दे कर, उनके दिमाग को इस तरह ढाल दिया कि वे 'उप-मानव' या 'साकार सिद्धांत' बन गये !
लेकिन सोचने पर एक बात ज़रूर समझ में आती है कि अन्याय और उत्पीड़न के प्रतिरोध के सभी रूप, उपकरण या तरीके किसी एक ही संकट के गर्भ से जन्म लेते हैं।
मेरी इच्छा इन अनोखे-अनदेखे विस्थापितों पर एक गंभीर 'डाक्युमेंटरी' बनाने की ज़रूर है। इसलिए भी क्योंकि 'विकासवादी उन्माद' के हाथों विस्थापित होने वाले इन शरणार्थियों का अपना कोई संगठन या राजनीतिक पार्टी नहीं है, जो उनकी आवाज़ उन तक पहुंचाये जो सब कुछ का 'विकास' कर डालने और देश का जी.डी.पी. बढ़ाने की योजनाएं हर रोज़ किसी उसी 'उन्माद' में बनाते हैं, जो हर सभ्यता में बार-बार देखा गया है।
...और एक बात यह भी कि मेरे जैसे लोग, इस विकासवादी उन्माद के दौर में खुद को इन विस्थापित 'लंगूरों' के साथ ही आइडेंटिफ़ाइ कर पाते हैं...!
विकासवाद के किसी 'लौह-मर्द' या 'आयरन-मैन' के साथ तो बिल्कुल नहीं !!
(Friends, this is the first time ever when I tagged one half-baked article, which really perturbed me. Is there any 'political power system' having an eye to see onslaughts we all are subjected to face. Why, after all, we are compelled to identify ourselves with wild, non-civilian, un-identifiable creatures ?
Is it not the case, that it turned to be so, because we all tried stand to oppose forces and their representatives, who were having their field days for all those years, we have lived ?
I've lived for more than 62 years and you ?)
वे बीच सड़क पर अपने पूरे कुनबे, कबीले और परिवार के साथ चुपचाप, उदास, यहां-वहां, जगह-जगह बैठे हुए दिखाई देते हैं।
लगभग डेढ़-दो सौ किलोमीटर तक जाती उस हाई-वे सड़क पर, जो किसी भी दूसरी अच्छी सड़क की तरह सरकार द्वारा 'टोल-रोड' बना दी गई है और जिस पर कोई भी 'दुपहिया' या 'चौपहिया' चलाने के लिए टैक्स चुकाना पड़ता है और जिसे किसी मलयेशियाई कांस्ट्रक्शन कंपनी ने शानदार ढंग से बनाया है, उसी सड़क पर, धीरे-धीरे उजाड़ में बदलते तितर-बितर सरई-महुआ-छुइला के जंगलों के आस-पास, वे झुंड के झुंड बैठे रहते हैं।
लगता है, जैसे वे कहीं जाने के लिए किसी बस का इंतज़ार कर रहे हों। सपरिवार। शायद तीर्थ यात्रा पर निकले हों या कोई देहाती-आदिवासी हाट-मेला, जहां जाने के लिए कई किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है और अगर कोई ट्रक वाला उन्हें पीछे बिठा ले, तो दूरियां कुछ कम हो जाती हैं। लेकिन उन्हें कोई नहीं बिठाता ।
कहीं वे भिखमंगे तो नहीं हैं ? या अकाल पीड़ित ? जो सड़क पर किसी की मदद से अपना पेट भरने के लिए, किसी दयालु से रोटी-भात पाने की उम्मीद में इस तरह बैठे हैं? तपती सुलगती मई-जून की कड़ी धूप या जुलाई-अगस्त की मानसून की बारिशों से बिल्कुल बे-परवाह ! धूप, बारिश, ठंड उनके ऊपर से यों ही गुज़र जाती है।
वे सड़क को घेर लेते हैं। कई-कई जगह तो वे पूरी सड़क पर छितर कर बैठ जाते हैं। अपने नन्हें-नन्हें बच्चों, बूढ़े हो चुके कुटुंबियों और परिजनों के साथ।
आप हार्न बजाते रहिये, वे वहां से नहीं हिलते। वे अपना सिर तक उस तरफ़ नहीं घुमाते, जहां से तेज़ हार्न की आवाज़ या उन्हें डांटने की तीखी कानफोड़ू चिल्लाहट आ रही है। वे ड्राइवरों की भद्दी-भद्दी गालियां सुनते हुए भी अपनी जगह से टस से मस नहीं होते।
लगता है उन्होंने कोई नशा कर लिया है और वे उसमें धुत्त हैं। बेहोश मदमत्त।
क्या जंगल में कहीं कोई नशीला कनेर या धतूर उन्हें मिल गया, जिसे उन्होंने अपनी भूख मिटाने के लिए खा लिया ? शायद गांजा, अफ़ीम या भांग के वनैले-जंगली पौधे इस इलाके में कहीं उगे हों, जिसकी लत उन्हें लग गयी है। वे नशेड़ी हो चुके हों ।
वे दिल्ली के लालकिले के मैदान, निगमबोध घाट, आई.एस.बी.टी. के आसपास, पुरानी दिल्ली या पहाड़गंज के रेल्वे स्टेशन या दरियागंज के ओवर ब्रिज के ऊपर या नीचे, मैले-फटे चिथड़ों में लिपटे अनगिनत ड्रग एडिक्ट्स की तरह लगते हैं।
वे गहरे अवसाद की सुन्न मानसिक अवस्था में हैं। उन्हें कुछ भी होश नहीं है, जैसे किसी सन्निपात या 'डिलीरियम' में हों ।
वे वक्त और भूगोल के अहसास से छिटक कर, उससे दूर हो चुके हैं। वे निर्विकार वीतराग हैं। या तो उन्होंने सब कुछ त्याग दिया है या सब कुछ उनसे छीन लिया गया है।
वे सन्यासी, अवधूत, योगी हैं या वंचित, लुटे-पिटे बे-घरबार, किसी हिंसा से उत्पीड़ित शरणार्थी समूह ?
कुछ समझ में नहीं आता।
लेकिन यह ज़रूर समझ में आता है कि वे मनुष्य नहीं हैं। वे लंगूर हैं। उस पूरे इलाके में उन्हें - 'करमुहां बंदरा' यानी 'काले मुंह वाला बंदर' कहा जाता है। वे आदिवासी या जन-जातीय समुदाय के मनुष्य नहीं हैं लेकिन आदिवासियों, जन-जातियों के साथ उनको जोड़ने वाली उनकी एक बहुत महत्वपूर्ण कड़ी ज़रूर ऐसी है, जिसकी ओर अक्सर समाजशास्त्रियों, एंथ्रोपोलाजिस्ट्स, एन.जी.ओ. या एक्टिविस्ट्स का ध्यान नहीं जाता।
वह कड़ी है -विस्थापन।
उनको उनकी जल, जंगल, ज़मीन से हटाया है –'विकास' ने । वे 'विस्थापित' हैं ।
'विकास' का जो माडल आज लगभग सारी तीसरी दुनिया में अपनाया जा रहा है, उसकी त्रासद परिणतियों के एक प्रमाण ये 'लंगूर' भी हैं। ये 'विकासवाद' के बढ़ते हुए मौज़ूदा उन्माद के मार्मिक शिकार हैं। ट्रैजिक विक्टिम्स आफ़ क्रेज़ी डवलपमेंटलिज़्म। जिसके बारे में कहा जाता है कि डार्विन का 'विकास का सिद्धांत' उन पर, या हम सब पर, ज्यों का त्यों लागू होता है, यानी जो सबसे 'फिट' होगा, वही ज़िंदा बचेगा। 'सरवाइवल आफ़ फिटेस्ट।'
कुछ साल पहले मिशेल फ़ुको की एक बहुचर्चित किताब का शीर्षक था -'मैड्नेस इन सिविलाइज़ेशन', जिसमें उसने सभ्यताओं के विकास की हर अवस्था में हमेशा मौज़ूद रहने वाले किसी 'उन्माद' या 'पागलपन' की चर्चा की थी और जिसे उसने पंद्रहवीं-सोलहवीं सदी के यूरोप के इतिहास से उठाये गये तथ्यों से प्रमाणित भी किया था। फ़ुको ने पिछली सभ्यताओं के ऐसे उन्माद को इतिहास के विकास का एक नियामक कारक माना था। यह 'उन्माद' या 'सनक' ही उन कारकों में से एक मुख्य कारक है, जो समाज को आगे बढ़ाता है । हम इस समय फिर से ऐसे उन्माद की चपेट में हैं । फ़िलहाल, इस छोटे से आलेख में इसके बारे में अधिक चर्चा करने की जगह नहीं, इसलिए हम वापस 'लंगूरो' या 'करमुहां बंदरा' की ओर लौट चलते हैं। इस वक्त वही हमारा विषय है।
रीवा से शहडोल और अनूपपुर-अमरकंटक तक जाने वाले नेशनल हाई वे में, ब्यौहारी के आसपास से वे सड़क पर दिखना शुरू हो जाते हैं। कई जगह उनके शव भी सड़क पर कुचले हुए दिखते हैं। किसी तेज़ रफ़्तार से आने वाली बस या ट्रक के पहियों के नीचे आ कर वे हर रोज़ दुर्घटनाओं में मारे जाते हैं। शायद मध्य प्रदेश का फ़ारेस्ट डिपार्टमेंट उनकी आबादी की गणना का रिकार्ड कभी रखता हो कि उनकी संख्या पहले के मुकाबले कितनी घट या बढ़ रही है, लेकिन इसका अंदाज़ा मुझे नहीं है।
उनका विस्थापन हुआ है 'वाण सागर परियोजना' के तहत बने एक बहुत बड़ी बांध की वजह से। १९७०-८० के दशक से निर्मित होने वाला यह विशाल जल-भराव टिहरी या भरूच के बांधों की तरह बहु-विख्यात और चर्चित तो नहीं है, लेकिन इसके कारण पड़ने वाले प्रभाव किसी भी दूसरी बड़ी बांध और उससे पैदा की जा रही जल-विद्युत ऊर्जा परियोजनाओं से भिन्न नहीं है। विंध्याचल शृंखला की दो पहाड़ियों के बीच से बहते सोन नदी को उस जगह रोक दिया गया है और एक छोटा-मोटा समुद्र जो किसी विशाल समुद्री बैक वाटर की तरह लगता है, उसमें बहुत से आदिवासी बस्तियां, वन्य प्राणी और वहां के घने जंगलों के बहुमूल्य तथा विरल पेड़-पौधे और अन्य वनस्पतियां डूब गयी हैं। इस डूब में आने वाले किसानों को सरकार ने मुआवज़ा भी दिया है लेकिन आदिवासियों में से कितने ऐसे होंगे जिन्हें यह मुआवज़ा मिला होगा, इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है।
लेकिन लंगूरों को सरकारी मुआवज़ा कैसे मिलता ? उनके पुनर्वास के लिए कोई सरकारी लैंड एलोकेशन कैसे होता। उनके पास न तो किसी पेड़ का पट्टा था, न वे लगान भरते थे, न उनके राशन कार्ड-आधार कार्ड थे, न वो मतदाता सूची में कहीं दर्ज थे.
'करमुहां बंदरों' या लंगूरों के पास अपनी नागरिकता का कोई भी 'प्रमाणपत्र' नहीं था। वे बी.पी.एल. कार्डधारी भी नहीं थे।
लंगूर की भला कौन-सी 'आइडेंटिटी' हो सकती है, खासकर उस व्यवस्था में, जिसमें लाखों-करोड़ों लोगों के पास भी अपनी नागरिकता को प्रमाणित करने के लिए कोई 'आइडेंटिटी कार्ड' नहीं है।
आपको याद होगा, कुख्यात 'निठारी कांड' का मामला, जिसमें एक अमीर की कोठी में रहने वाला मालिक पंढेर और उसका नौकर कोली, स्लम में रहने वाले मासूम बच्चे-बच्चियों का यौन शोषण करने के बाद उनकी हत्याएं कर दिया करता था और बाद में उसके फ़्रिज से उन्हीं गुमशुदा बच्चों के मीट से बनाये गये कबाब पुलिस ने बरामद किये थे। उन गुमशुदा बच्चों के अधिकतर माता-पिताओं की एफ़.आई.आर. किसी पुलिस थाने में इसलिए नहीं दर्ज हो सकी थी क्योंकि उनके पास कोई राशन कार्ड, बिजली का बिल भरने की रशीद, मकान का प्रापर्टी या मतदाता प्रमाणपत्र वगैरह नहीं था. वे तो शहर में रहने वाले 'अ-नागरिक' थे, जो दिल्ली और नोएडा में बनने वाली बिल्डिंगों में कांस्ट्रक्शन लेबर के रूप में दिहाड़ी मजूरी करते थे। आज भी दिल्ली-मुंबई जैसे 'विकसित' महानगरों में ऐसी 'अनागरिक' आबादी खासी बड़ी संख्या में है।
(ज़ारी.....)
(दो)
तो यह बात साफ़ है कि ये लंगूर अपने विस्थापन का एफ़.आई.आर. किस पुलिस थाने में लिखाएं ?
हमारे गांव में, जो मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की सीमा पर है, एक किसान के घर ऐसा ही एक विस्थापित लंगूर आ कर रहने लगा था। वह रोटी या भात खाता था। बीड़ी पीना सीख गया था और महुए की शराब को चुक्कड़ या प्याले से अपने मालिक के साथ बैठ कर पीता था। वह जंगल में उस आदिवासी किसान के साथ बकरियां चराने भी जाता था।
ऐसे बहुत से लोग आसपास के गांवों में हैं, जिनके घर में कोई विस्थापित लंगूर रहने लगा है। वह पालतू या 'पेट' हो चुका है। ठीक उसी तरह, जिस तरह बहुत से छत्तीसगढ़ के आदिवासी मज़दूर या उनकी लड़कियां शहरी इलाकों में रहने वाले, अपने से बिल्कुल दूसरी नस्ल के बिल्डर्स, ठेकेदार या अमीर कोठियों के साहबों की सेवा में 'डोमिस्टिकेट' हो चुके हैं। यानी 'पालतू' बन गये हैं, बस उनके गले में कोई 'पट्टा' नहीं बंधा है।
दो साल पहले मैं अपने गांव में, घर के पिछवाड़े वाले कमरे में दोपहर की नींद ले रहा था और जब अचानक आंख खुली तो खाट के बिल्कुल बगल में, फ़र्श पर, एक बड़ा-सा, मोटा, अधेड़ लंगूर बैठा हुआ था। मुझे हिलने-डुलने में भी डर लग रहा था। कहीं वह हमला न कर दे। इतने बड़े आकार का डरावना 'करमुहां बंदर' इतनी नज़दीक से, इसके पहले मैंने कभी नहीं देखा था। वह मेरी ओर देख रहा था। लेकिन उसकी आंखों में कोई हिंसा नहीं, कोई लाचारी झलक रही थी। शायद उसे उसके गुट ने अपने समुदाय से बाहर निकाल दिया था, या शायद वह खुद ही उन सबसे अलग हो गया था। मेरी हिम्मत बढ़ी और मैं खाट से उतर कर रसोई की तरफ़ गया और वहां जो भी उसके खाने लायक था, उसे थमाया। वह पिछवाड़े के जंगल की ओर चला गया, जहां अब बस सिर्फ़ कुछ गिने-चुने साल-महुए के पेड़ बचे थे। वहां ऐसा कुछ भी नहीं बचा था, जो उसके खाने लायक हो.
कौन चुरा ले गया लंगूरों, चिड़ियों, बंदरों, आदिवासियों का खाना ?
आदिवासी और लंगूर या अन्य वन्य-प्राणी जंगलों पर ही निर्भर होते हैं। वनोपज से ही उनकी आजीविका चला करती थी। अब वह उनसे छिन गया है। जैसे कोई मछली या कछुए से उसका पानी ...नदी, तालाब, समुद्र छीन ले।
लेकिन 'लंगूरों' के इस विस्थापन की कहानी सिर्फ़ भावनात्मक या रोमेंटिक भर नहीं है। इसके बहुत व्यापक, महत्वपूर्ण और गहरे प्रभाव उस समूचे क्षेत्र की सामाजिक - आर्थिक बनावट पर पड़े हैं।
इस विस्थापन ने कई तरह के पारंपरिक और लाभकारी कृषि-पद्धतियों को बदल डाला है, इस इलाके के ग्रामीण मकानों के समूचे स्थापत्य और उनकी निर्माण-सामग्री को बदला है और इसने कुछ समुदायों की आजीविका के पारंपरिक पेशे को छीन कर उन्हें बेरोज़गार कर दिया है।
लंगूरों का यह विस्थापन सिर्फ़ पर्यावरण का या सिर्फ़ भावनात्मकता का मसला नहीं है, यह एक आर्थिक-सामाजिक प्रक्रिया भी है, जिसे समझने की ज़रूरत है।
पिछले कुछ साल से इन दर-ब-दर भटकते, भूख और प्यास में व्याकुल विस्थापित लंगूरों ने उस इलाके के एक बहुत बड़े हिस्से के गांव-देहातों में धावा बोल दिया है। वे घरों के छप्पर पर चढ़ जाते हैं और मिट्टी के खपड़ैलों को तोड़ डालते हैं। इससे गर्मी के तीन महीनों , अप्रैल, मई और जून के खाली दिनों में कुम्हारों की आजीविका छिन गयी है। खेती के बाद, यही वह समय होता था जब वे मिट्टी के घड़े, बरतन और बड़ी तादाद में खपड़े ( पके हुए मड टाइल्स) बनाया करते थे। यह उनका पीढ़ियों से चला आता सामुदायिक पेशा था। वे माटी के दस्तकार होते थे। लेकिन अब वहां के गांवों में लोग टाटा के टिन-शीट्स या कारखानों में उत्पादित एस्बस्टस चादरों का इस्तेमाल करने लगे हैं। घर बनाने की पुरानी सामग्री बदलने से उस पिछड़े क्षेत्र का पारंपरिक स्थापत्य बदल गया है। मिट्टी के खपड़े ताप प्रतिरोधी होते थे। गर्मी की जलती हुई धूप के बावज़ूद, मिट्टी के बने घर ठंडे और रहने लायक होते थे। खपड़ैलों पर कुम्हड़े, लौकी, करेले की बेलें चढ़ जाती थीं। लगता था, वे घर धरती से ही उगे हैं। वे प्राकृतिक हैं।
अब वहां टाटा या किसी और कंपनी की टिन की चादरें हैं। गर्मी की दोपहर घर तंदूर बन जाता है।
अब वे घर 'नैसर्गिक' या प्रकृति के हिस्से नहीं, धरती के ऊपर फेंके गये 'कूड़ा-कचरा' हैं।
दूसरा असर बागवानी या फलदार वृक्षों (हार्टिकल्चर) पर निर्भर रहने वाले लोगों की आय पर पड़ा है। हमलावर लंगूरों के झुंड के झुंड आम, अमरूद, सहजन और अन्य फलों के बगीचों पर टूट पड़ते हैं। पटाखे फोड़ कर या एयरगन के छर्रों से उन्हें भगा पाना दिनों-दिन मुश्किल हो रहा है क्योंकि अपने अनुभवों से इन लंगूरों ने चतुराई सीख ली है। वे आसपास तक ही भागते हैं और मौका पाते ही फलों को चट कर जाते हैं। कमज़ोर पेड़ों को उजाड़ जाते हैं। लंबे समय से चली आती खेती की फ़सल-परिपाटी (क्राप-पैटर्न) पर गहरा प्रभाव हुआ है। किसान अब अधिक आय देनेवाली दलहनों की खेती लगभग बंद कर चुके हैं। अरहर, चना, मसूर, उड़द, मूंग की नगदी खेती (कैश क्रापिंग) बंद हो चुकी है। यानी अगर गहराई से देखें तो इन विस्थापित 'करमुहां बंदरों' ने पूरी तरह से ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था को उलट-पुलट डाला है। बेरोज़गारी और पेशागत कामकाज बंद होने से बहुतेरे आत्मनिर्भर लोग अब मज़दूरी या कोई दूसरा काम करने लगे हैं।
सब्जियां उगाने वाले किसानों से पूछिये कि उन्हें क्या-क्या मुश्किलें आती हैं !
लोग कहते हैं कि जो सड़क पर अपने कुटुंब-कबीले के साथ विस्थापन के शिकार 'लंगूर' बैठे हैं और हर रोज़ दुर्घटनाओं के शिकार होते हैं, वे 'गांधीवादी' हैं, अहिंसा, अनशन और सत्याग्रह के अनुयायी।
और जो गावों पर आक्रमण करने वाले लंगूर हैं, वे 'माओवादी' या 'नक्लासइट' हैं।
यह तो पता नहीं कि उन्हें ये 'विचारधाराएं किसने सिखाई ? किसने उन्हें खास तरह का प्रशिक्षण दे कर, उनके दिमाग को इस तरह ढाल दिया कि वे 'उप-मानव' या 'साकार सिद्धांत' बन गये !
लेकिन सोचने पर एक बात ज़रूर समझ में आती है कि अन्याय और उत्पीड़न के प्रतिरोध के सभी रूप, उपकरण या तरीके किसी एक ही संकट के गर्भ से जन्म लेते हैं।
मेरी इच्छा इन अनोखे-अनदेखे विस्थापितों पर एक गंभीर 'डाक्युमेंटरी' बनाने की ज़रूर है। इसलिए भी क्योंकि 'विकासवादी उन्माद' के हाथों विस्थापित होने वाले इन शरणार्थियों का अपना कोई संगठन या राजनीतिक पार्टी नहीं है, जो उनकी आवाज़ उन तक पहुंचाये जो सब कुछ का 'विकास' कर डालने और देश का जी.डी.पी. बढ़ाने की योजनाएं हर रोज़ किसी उसी 'उन्माद' में बनाते हैं, जो हर सभ्यता में बार-बार देखा गया है।
...और एक बात यह भी कि मेरे जैसे लोग, इस विकासवादी उन्माद के दौर में खुद को इन विस्थापित 'लंगूरों' के साथ ही आइडेंटिफ़ाइ कर पाते हैं...!
विकासवाद के किसी 'लौह-मर्द' या 'आयरन-मैन' के साथ तो बिल्कुल नहीं !!
(Friends, this is the first time ever when I tagged one half-baked article, which really perturbed me. Is there any 'political power system' having an eye to see onslaughts we all are subjected to face. Why, after all, we are compelled to identify ourselves with wild, non-civilian, un-identifiable creatures ?
Is it not the case, that it turned to be so, because we all tried stand to oppose forces and their representatives, who were having their field days for all those years, we have lived ?
I've lived for more than 62 years and you ?)
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