न सूरज डूब गया है,न अंधेरा ने सभ्यता को लील लिया है,सफर अभी बाकी है
पलाश विश्वास
न सूरज डूब गया है,न अंधेरा ने सभ्यता को लील लिया है,सफर अभी बाकी है। मान लीजिये कि राष्ट्रपति भवन में आज मोदी की जगह मुलायम, ममता, जयललिता,मायावती या राहुल गांधी या माणिक सरकार भी शपथ ले रहे होते तो क्या भारतीय सत्ता तंत्र सिरे से बदल जाता?
क्या इच्छित वह सरकार कारपोरेट राज के खिलाफ होती?
इंदिरा को नकारने के बाद मोरारजी भाई की जनता सरकार के राज्याभिषेक के उस मुहूर्त को याद कीजिये और देशभर में छात्र युवाओं,महिलाओं की वह प्रबल जनआकांक्षाओं का हश्र याद कीजिये।
याद कीजिये,भ्रष्टाचार के खिलाफ कामयाब मिशन के बाद मंडल मसीहा का सत्ता आरोहण।
बजरंगी केसरिया ब्रिगेड कहते हैं कि केसरिया सत्ता को कहां परखा हैं हमने, तो क्या अटल बिहारी वाजपेयी की दो बार की सरकारें लाल नीली हरी रही हैं,यह पहेली सामने आती है।
लेकिन शायद बजरंगी ब्रिगेड का तात्पर्य कांग्रेस संस्कृति की भजपा की तिलांजलि के बाद विशुद्ध हिंदुत्व की बहुमति संघी सरकार के केसरिया रंग से है और इसमें वे गलत भी नहीं कहे जा सकते।
बेहतर हो कि इस जनादेश के यथार्थ को हम स्वीकार करें।
नरेंद्र मोदी का पापबोध उन्हें कितना शुद्ध करता है,नवाज शरीफ की मेजबानी से यह साफ नहीं होना है।
उनका गुजरात माडल कितना हिंदुत्व है कितना कारपोरेट इसका हिसाब किताब होता रहेगा।
लेकिन इस चुनाव में जो सबसे अच्छी बात हुई है वह यह है कि रंगा सियारों की मौकापरस्त जमात को छोड़ दें तो जाति धर्म के नाम पर राजनीति करने वाले तमाम क्षत्रपों की हार है।
कांशीराम फेल हैं और उनकी जाति मजबूत करो फतवा से बहुजनों का सर्वनाश हुआ, मायावती और बसपा के हार से यह साबित हो जाना बहुजनों की आंखें खोलने का बेहतरीन मौका है।
हिंदुत्व की जातिव्यवस्था ही हिंदुत्व की नींव है,इसे समझकर जाति उन्मूलन की नयी दिशा भी खोल सकते हैं हम।
पहले आप और फिर संघ परिवार के सौजन्य से लोकतांत्रिक प्रक्रिया में अबकी दफा छात्रों,युवाओं,महिलाओं,आदिवासियों,पूर्वोत्तरी और दक्षिणी लोगों की जो देशव्यापी सक्रियता बढ़ी है और आप के फेल कर जाने के बावजूद अस्मिताओं के कब्रिस्तान के आर पार जो बड़ी संख्या में युवा सांसदों की टोली है,उसके महत्व को स्वीकार न करें तो हम दृष्टिअंध हैं।
सत्ता की रेवड़ी किसे मिली किसे नहीं,कौन मंत्री बना कौन नहीं,इसके बजाय देखा यह जाये कि मोदी का गुजरात माडल क्या गुल खिलाता है।
जो लड़ाई हम पिछले तेईस साल से लड़ने में नाकाम रहे हैं अस्मिताओं में खंडित होने के कारण,अस्मिताओं के ध्वस्त हो जाने पर उस लड़ाई की तैयारी बेहद आसान है,यह सिल्वर लाइनिंग है।
इसपर आनंद तेलतुंबड़े से हमारी लंबी बातचीत हुई है और हम सहमत हैं।
यह देखना भी दिलचस्प है कि निजी साख बचाने के लिए संघ और भाजपा के अंकुशमुक्त नमो महाराज क्या शपथ समारोह की तरह कामकाज के मामले में भी कुछ नया करके गूंगी गुड़िया इंदिरा गांधी का करतब दोहराने की हिम्मत कर पाते हैं या नहीं।
आनंद तेलतुंबड़े को उम्मीद है कि चतुर सुजान मोदी खुद को साबित करने की हर संभव कोशिश जरुर करेंगे और वे कुछ भी कर सकते हैं क्योंकि उनके पास अपना एक्सपर्ट बटालियन है।जो वे करें वे संघ एजंडा के मुताबिक नहीं भी हो सकता है।
अगर मोदी भारत राष्ट्र के हित में या गरीबों के हित में या बहुजनों के हित में,जाति नस्ल धर्म भेदभाव से परे भारत के प्रधानमंत्रित्व की मर्यादा का समुचित निर्वाह करते हैं और संघी मंसूबे को फेल करते हैं,तो हम उसे भी नजरअंदाज न करें,यह लोकतंत्र का तकाजा है।
भगवे बजरंगियों से विनम्र निवेदन है कि अब सत्ता उनकी है और फिलहाल लोकतांत्रिक भारत में उन्हीं की विचारधारा की जयजयकार है,इसका मतलब यह नहीं कि उनकी विचारधारा और उनकी सत्ता के खिलाफ जो भी बोलें,वे उनके शत्रु ही नहीं,पाकिस्तानी , बांग्लादेशी, माओवादी,राष्ट्रद्रोही वगैरह वगैरह हो गये।
कृपया हमारी उनकी भी सुनें तो लोकतंत्र का कारोबार चलेगा वरना जैसा कि बाबा साहेब कह गये हैं कि वंचितों ने सड़क पर उतरना शुरु कर दिया तो इस तंत्र मंत्र यंत्र के तिलिस्म का नामोनिशान न बचेगा।
न सूरज डूब गया है,न अंधेरा ने सभ्यता को लील लिया है,सफर अभी बाकी है।
मान लीजिये कि राष्ट्रपति भवन में आज मोदी की जगह मुलायम, ममता, जयलिलाता, मायावती या राहुल गांधी या माणिक सरकार भी शपथ ले रहे होते तो क्या भारतीय सत्ता तंत्र सिरे से बदल जाता?
जिस नरेंद्र दामोदर दास मोदी को रोकने के एकमेव लक्ष्य के साथ हिंदुत्व के मुकाबले नाना प्रकार की सोशल इंजीनियरिंग से विशुद्ध वैज्ञानिक बाजारु तकनीकी दक्षता के हिंदुत्व पुनरुत्थान के विरुद्ध खंड खंड जनप्रतिबद्धता के द्वीपों में चाय की प्याली वाली तूफान खड़ी होती रही है,उन मोदी ने मोरारजी भाई देसाई के बाद दूसरी दफा गुजरातमाडल को इंडिया शाइंनिंग बनाते हुए शपथ ले ली प्रधानमंत्रित्व की।
मोरारजी भाई इंदिरा गांधी और उनकी समाजवादी माडल के धुर विरोधी थे।
जिस जनता पार्टी के प्लेटपार्म से अंततः कांग्रेस के भीतर निरंतर सिंडिकेटी विरोध के मध्य पहले लालाबहादुर और फिर इंदिरा के प्रधानमंत्रित्व का दौर गुजर जाने के बाद मोरारजी भाई प्रधानमंत्री बन पाये,उसमें स्वतंत्र पार्टी और जनसंघ का विलय हो चुका था।
स्वतंत्र पार्टी खास तौर पर उल्लेखनीय है,राजा रजवाड़ों की यह पार्टी इंदिरा केे राष्ट्रीयकरण तूफान और विशेष तौर पर प्रिवी पर्स खत्म करने से बौखलायी हुई थी तो संघ से मधुरतम संबंध होने के बावजूद,71 के मध्यावधि चुनाव से पहले इंदिराम्मा को दुर्गा अवतार घोषित करने के बावजूद आपातकाल मार्फत संघ को प्रतिबंधित करने और संघ प्रचारकों को चुन चुनकर मीसाबंदी बनाने के खिलाफ उबल रही थी हिंदुत्व आत्मा।
हिंदू राष्ट्र को किनारे पर ऱखकर कामरेड ज्योति बसु तक को साथ लेकर जेपी के अमेरिकी संपूर्ण क्रांति सुनामी के सहारे राजे रजवाड़ों और संघियों ने मोरारजी की ताजपोशी कर दी और तब कहा गया कि सीआईए ने इंदिरा गांधी को हरा दिया।
जैसा कि अब कांग्रेसी सीआईए के बजायठिकरा मोसाद पर फोड़ रहे हैं तो बाकी लोग ईवीएम पर ।
कोई अपनी पराजय मानने को तैयार है ही नहीं।
अबकी दफा जब गुजरात के गांधी और सरदार के साझा अवतार नरेंद्र मोदी ने गांधी जेपी साझा संत रामदेव बाबा के तूफानी देशव्यापी जनजागरण और कांग्रेसी तख्ता पलट न होने तक हरिद्वार न लौटने की कसम पूरी होने की रस्म अदायगी बतौर भारत के प्रधानमंत्रित्व की शपथ ली है,तब उनके सामने भी चुनौती मोरारजी भाई से कम नहीं है।
भारी बहुमत मोरारजी भाई को भी मिला था और तब भी कांग्रेस चारों खाने चित्त थी।
बाद का इतिहास दोहराने की जरुरत नहीं है।
भले ही अदालती क्लीन सर्टिफिकेट मिल गया हो,भले ही मीडिया केसरिया हो गया हो,भले ही अल्पसंख्यकों के एक बड़े तबके ने हालात से समझौता कर लिया हो,भले ही अमेरिकी वीसा लगातार रद्द कर चुके अमेरिका अपने कारोबारी हित को बनाये रखने के लिए नमो स्वागते पलक पांवड़े बिछा दिये हों और भले ही वैश्विक संस्थानों,रेटिंग एजंसियों और शेयर बाजार में अबाध लंपट पूंजी छिनाल पूंजी की बाढ़ में गुजरात माडल की जय जयकार हो,लेडी मैकबेथ की तरह अपने गोधरा रंगे हाथ धोने के लिए सात समुंदर का पानी खोजने के लिए संघसाझेदार शिवसेना के उग्र पाकविरोधी जिहाद और तमिल राष्ट्रीयता का राजपक्षे विरोध के मध्य खारिज हो चुके अटल बिहार वाजपेयी का राजनयिक मुखौटा ओढ़ने के अलावा मोदी के पास चारा कोई बचा ही नहीं।
हवाओ में लटकती तलवार की धार को वे कहीं ज्यादा महसूस कर रहे होंगे,उन जिहादी बजरंगियों की तुलना में जो हिंदू राष्ट्र के विरोधी हर शख्स को पाकिस्तान भेजने पर आमादा हैं,मोदी के खिलाफ फेसबुकिया मंतव्यकारियों को जेल भेजने को संकल्पबद्ध हैं या कारपोरेट एजंटा की चर्चा करने वाले हर शख्स को गांधीवादी या अंबेडकरी आंदोलन विचारधारा की चर्चा के मध्य ही माओवादी राष्ट्रद्रोही करार देने को चाकचौबंद हैं।
ब्राह्मणवाद का विरोध कर रहे अपनी अपनी जाति की डंका बजाने वाले बहुजन दुकानदार अब भी कांशीराम की उदात्त घोषणा कि हर कोई अपनी जात को मजबूत करें और पचासी फीसद साझा जनसंख्या के दम पर सत्ता से बाम्हणों को बेदखल करें,की पुनरावृत्ति कर रहे हैं, और सत्ता में अपना हिस्सा मांग रहे हैं चारों खाने चित्त होने के बावजूद केसरिया हो चुके अंबेडकरी झंडावरदारों की छत्रछाया में।
अब भी नारा लगा रहे हैं,जिसकी संख्या जितनी भारी। तो बहुसंक्य तो भाी ओबीसी ठहरे और प्रधानमंत्री भी उनका।
कायदे से मानें तो अंबेडकरी जनता के लिए तो मायावती और तमाम पिछड़े क्षत्रपों की भारी पराजय के मध्य मोड ओबीसी मोदी के चामत्कारिक उत्थान से कांशीराम का एजंडा संघ परिवार ने ही पूरा कर दिया है जो बामसेफ कर नहीं सका न बसपा उस लक्ष्य के कहीं नजदीक पहुंच पायी है।
इससे पहले भी दर्जनों ओबीसी,दलित,आदिवासी, पिछड़ा, सिख, मुसलमान, राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति,प्रधानमंत्री ,उपप्रधानमंत्री,केंद्रीय मंत्री ,मुख्यमंत्री सत्ता अंदर बाहर होते रहे हैं।
हाल ही में बिहार में पिट जाने के बावजूद जेपी जमाने के मेले में बिछड़े भाइयों नीतीश लालू का भरत मिलाप मध्ये महादलित मुसहर मुक्यमंत्री भी बना दिये गये और संघ परिवार ने बिहार में सत्ता पलट की लपलपाती आकांक्षा के मध्य सोशल इंजीनियरिंग की चाल की काट बतौर उसे अत्यंत दक्षता से हजम भी कर लिया है।
अब भी डायवर्सिटी मैन को कारपोरेट राज नहीं दिखता ,सवर्ण राज दिख रहा है।
कम से कम बयालीस फीसद ओबीसी जनसंख्या है और दलित भी भारी संख्या में वामदलों के कैडरों समेत केसरिया हैं,चारों तरफ पद्मगंधी बयार चंदनचर्चित है और आदिवासी और मुसलमान,ईसाई,सिख,बौद्ध,शरणार्थी,बनजारा ,गंदी बस्तियों और फुटपाथ के लोग अपनी अपनी खाल बचाने के फिराक में हैं।
आनंद तेलतुंबड़े लंबे अरसे से लिख रहे थे कि जाति से अंततः हिंदुत्व ही मजबूत होता है।मैंने भी अपनी छोटी सी औकात के बावजूद खूब लिखा है।
अब ब्रांडेड दलित बुद्धिजीवी तुलसी राम ने यही बात जनसत्ता के रविवारीय आलेख में लिखा है।
हम अंबेडकरी आंदोलन की बात कर रहे हैं और अंबेडकर के जाति उन्मूलन के एजंडे की बात कह रहे हैं तो मजा देखिये कि जैसे वे अरुंधति का लिखा कुछ भी पढ़ने से रोकने के लिए उन्हें राष्ट्रविरोधी और माओवादी करार देते रहे हैं, तो उसी तर्ज पर आनंद को भी कम्युनिस्ट कहकर संघी और अंबेडकी दोनों खारिज करते हैं।तुलसीराम जी का वे क्या करेंगे,देखना बाकी है।
मजे की बात है कि तमाम चिंतकों की तुलना में बाहैसियत मीडिया मजदूर हमें भी अब अंबेडकरी संघी दोनों पक्षों से माओवादी तमगा मिलने लगा है।
मुझे कोई छापता नहीं है।नेट पर रोजनामचा है।करीब चार दशक की पत्रकारिता में सैकड़ों संपादक पैदा करने के बावजूद अब भी उपसंपादक हूं।कोई प्रकाशक संपादक घास नहीं डालता।अपने ही अखबार में काली सूची में हूं।पुरस्कार,सम्मान प्रतिष्ठा का सवाल ही नहीं उठता।अब मेरे पहाड़ से भी जो मुझे बेहद करीब से जानते हैं,बांग्लादेशी घुसपैठिया के अलावा मेरे खिलाफ माओवाद का आरोप अंबेडकरी होने के अपराध में लगाया जा रहा है।
पहले तो जोर का गुस्सा आय़ा कि असहमति का तात्पर्य इस लोकतंत्र में ऐसा बनाने वालों को जमकर जवाब दिया जाये,हूं तो पूर्वी बंगाल का चंडाल ही,जिसका चंडालिया गुस्सा जगजाहिर है और मेरे सहकर्मी दशकों से इसके गवाह भी रहे हैं कि कैसे मैं सीधे नकद भुगतान करने का अभ्यस्त हूं।
उधारखाते में यकीन ही नहीं रखता।
अब अपनी मूर्खता पर हंसी आती है कि कैसे हम संघी दुश्चक्र में तमाम आम लोगों की तरह फंस रहा हूं।
लेकिन सवाल यह है कि हम तो अधपढ़ कलम उंगली घिस्सू हैंगे,जो विशेषज्ञ ब्रांडेड सुपरब्रांडेड सुपरकूल हैं,क्या सारा माजरा वे भी ठीकठाक समझते रहे हैं।
हम करीब एक दशक से,यानी जबसे नागरिकता संशोधन बिल संसद में पास हुआ, अंबेडकरी झंडेवरदारों के साथ हैं, इसलिए अपनी बहुजन जनता को नाराज करने का जोखिम उठाने से बचने के लिए ढेर सारे मुद्दों पर अंबेडकरी आंदोलन के सौंदर्यशास्त्र के मुताबिक मुझे जबरन चुप्पी साधना पड़ा है।
जैसे भारत विशेषज्ञ डा. सुकुमारी भट्टाचार्य के सर्वकालीन प्रासंगिक और खास तौर पर हिंदुत्व के पुनरूत्थान के संदर्भ में अत्यंत प्रांसगिक वैदिकी साहित्य और प्राचीन भारत के मिथक खंडनकारी अध्ययन पर लिखना चाहता था।
वे ब्राह्मणवादी पुनरूत्थान और पुरुषतंत्र के विरुद्ध नारी अस्मिता की आवाज रही है दशकों से।
उनके महत्व इसी तथ्य से समझ लें कि इस उपमहादेश में सबसे आक्रामक,बेहद ग्लोबली मशहूर तसलिमा नसरीन के लेखन में सुकुमरी जी का खासा प्रभाव है।उनके निर्वाचित कालम से ही लज्जा से बहुत पहले उनकी नारी सत्ता का महाविस्फोट है,उस निर्वाचित कालम के अनेक अध्यायों में तसलिमा ने हूबहू वही लिखा है जो सुकुमारी जी ने लिखा है।
लेकिन हिंदी के पाठक शायद ही उन्हें जानते हों।
उनके अवसान के बाद चूंकि बांग्ला में उनकी कृतियां सुलभ हैं,सारे संदर्भ बांग्ला में ही हैं,इसलिए कल मैंने बांग्ला में लिखा।साथ ही चाहता था कि बाकी भारत के लोगो को भी उनकी प्रासंगिकता बताऊं,लेकिन सर्वजन स्वीकृत इस इंडियोलाजिस्ट के अमाजन से लेकर तमाम प्रकाशकों के यहां कतारबद्ध किताबें होने के बावजूद कोई विकी पेज तक नहीं मिला अंग्रेजी में भी।
सुकुमरी भट्टाचार्य विवाहसूत्रे भट्टाचार्य हैं और धर्म से ईसाई।
वे मेघनाथ वध लिखकर मर्यादा पुरुषोत्तम राम का मिथक तोड़कर रावणपुत्र मेघनाथ को नायक और राम को खलनायक बतौर पेश करने वाले और बांग्ला कविता में शास्त्रीय छंद अनुशासन तोड़ने वाले महाकवि माइकेल मधुसूदन दत्त के वंश से हैं।
सुकुमारी जी संस्कृत,पाली, अंग्रेजी,जर्मन,ग्रीक और फ्रासीसी भाषाओं की विदूषी रहीं।उनका विवाह हुआ प्रसीडेंसी कालेज के प्राध्यापक विशिष्ट शिक्षाविद अमल भट्टाचार्य से और इसी सूत्र से वे भट्टाचार्य हैं।
उनकी बेटी अनीता और दामाद सुमत सरकार दोनों भरात विख्यात इतिहासकार हैं।
बांग्ला के सबसे बड़े आधुनिक शास्त्रज्ञ नृसिंह भादुड़ी उनके छात्र हैं।उन्ही नृसिंह प्रसाद के मुताबिक सुकुमारी जी के साथ भेदभाव भयानक हुआ है।
बंगाल के ब्राह्मण आधिपात्य अकादमिक जगत में उन जैसी विदूषी को रिटायर होने से कुछ ही समय पहले प्रोफेसर प्रोन्नत किया गया जबकि आजकल तो हर दूसरा अध्यापक प्रोफेसर हैं।
अहिंदू होने के कारण उनको उच्चशिक्षा के लिए छात्रवृत्ति से वंचित किया गया।
संस्कृत पढ़ने में भी उन्हें भारी बहिस्कार का सामना करना पड़ा। संस्कृत पंडितों ने अहिंदू शूद्र महिला को संस्कृत पाठ देने से इंकार कर दिया तो उन्हें अंग्रेजी में पहले एमए करके अपने बंद दरवाजे खोलने पड़े।
लेकिन मजा देखिये वैदिकी साहित्य और प्राचीन भारत पर मिथक ध्वस्त करने वाली बांग्ला और अंग्रेजी की उनकी 35 से ज्यादा पुसतकों की दुनियाभर में धूम है।
प्राचीन भारत को किसी भारतीय इतिहासकरा ने इतने वस्तुनिष्ट ढंग से संबोधित किया ही नहीं है।
फिर अपनी जिद और जीवट की वजह से ही वे जादवपुर विश्वविद्यालय में तुलनात्मक साहित्य की अध्यापिका बनने से पहले लंबे वक्त तक संस्कृत पढ़ाती रही और संस्कृत अध्यापिका बतौर ही वे विख्यात हैं।
अब इस नस्ली आधिपात्य वाले समाज में हमसे बहुत पहले एक शूद्र स्त्री ने इतने भयंकर जीवट और विद्वता से लोहा लिया तो क्या हम उनसे कोई सबक नहीं ले सकते?
न सूरज डूब गया है,न अंधेरा ने सभ्यता को लील लिया है,सफर अभी बाकी है। मान लीजिये कि राष्ट्रपति भवन में आज मोदी की जगह मुलायम, ममता, जयललिता,मायावती या राहुल गांधी या माणिक सरकार भी शपथ ले रहे होते तो क्या भारतीय सत्ता तंत्र सिरे से बदल जाता?
क्या इच्छित वह सरकार कारपोरेट राज के खिलाफ होती?
হিন্দু ছিলেন না বলে তাঁকে ঈশান স্কলারশিপও দেওয়া হয়নি৷
Sushanta Kar আজকালের প্রতিবেদন: প্রয়াত হলেন বিশিষ্ট শিক্ষাবিদ তথা ভারতবিদ সুকুমারী ভট্টাচার্য৷ আগামী ১২ জুলাই তাঁর বয়স হত ৯৪ বছর৷ কয়েকদিন ধরে নিউমোনিয়ায় ভুগছিলেন৷ ডাঃ অভিজিৎ চৌধুরি ব্যক্তিগতভাবে তাঁকে দেখতেন৷ তিনিই উদ্যোগ নিয়ে গতকাল, শুক্রবার তাঁকে এস এস কে এম হাসপাতালে ভর্তি করিয়ে দেন৷ সেখানেই শনিবার দুপুর ২টোয় মৃত্যু হয়৷ তাঁর মৃত্যুর খবর পেয়েই শিক্ষামহল শোকগ্রস্ত হয়ে পড়ে৷ অমিয় বাগচী, যশোধরা বাগচী, নবনীতা দেবসেন, সমীর রক্ষিত, কুমার রাণা প্রমুখ শিক্ষা-সংস্কৃতি জগতের বহু বিশিষ্ট মানুষ হাসপাতালে চলে আসেন শেষ দেখা দেখতে৷ প্রাচীন ভারত ও সংস্কৃত সাহিত্য নিয়ে তাঁর পাণ্ডিত্য ছিল অগাধ৷ জন্ম ১৯২১ সালে৷ ছোট থেকেই সাহিত্যের প্রতি ছিল গভীর অনুরাগ৷ জন্মসূত্রে খ্রিস্টান ছিলেন বলে শিক্ষাক্ষেত্রে তাঁকে নানাভাবে হেনস্হা হতে হয়৷ বাধা দেওয়া হয় কলকাতা বিশ্ববিদ্যালয় থেকে সংস্কৃতে এম এ পরীক্ষা দিতেও৷ তৎকালীন সংস্কৃতের পণ্ডিতেরা তাঁর সঙ্গে সহযোগিতা করতে রাজি হননি, পড়াতেও৷ ফলে পরীক্ষার অল্প কিছুদিন আগেই তিনি বাধ্যত বিষয় বদলে ইংরেজিতে এম এ পরীক্ষা দেন৷ যথারীতি ভালভাবে পাস করেন৷ উল্লেখ্য, হিন্দু ছিলেন না বলে তাঁকে ঈশান স্কলারশিপও দেওয়া হয়নি৷ পরে বিশিষ্ট অধ্যাপক সুশীলকুমার দে তাঁর পাশে দাঁড়ান৷ তাঁর সাহায্যেই সুকুমারী সংস্কৃত নিয়ে এম এ পাস করেন৷ এ ছাড়াও তিনি পালি, ফরাসি, জার্মান এবং কিছুটা গ্রিক ভাষাও জানতেন৷ অধ্যাপনা শুরু করেন লেডি ব্রেবোর্ন কলেজে৷ পরে যোগ দেন যাদবপুর বিশ্ববিদ্যালয়ে৷ সেখানে প্রথমে তুলনামূলক সাহিত্য ও পরে সংস্কৃত বিভাগে অধ্যাপনা করেন৷ এখানেও অধ্যাপক সুশীলকুমার দে তাঁকে অনেক সাহায্য করেছিলেন৷ সুকুমারীর অধীনে গবেষণা করেছেন অভিজিৎ ঘোষ, নৃসিংহপ্রসাদ ভাদুড়ীর মতো কৃতী শিক্ষাবিদেরা৷ নৃসিংহপ্রসাদ জানালেন তাঁর প্রতি অবিচারের কথা৷ বললেন, তাঁকে 'প্রফেসরশিপ' দেওয়া হয়েছে অনেক দেরি করে৷ অবসর নেওয়ার মাত্র কয়েক বছর আগে৷ সুকুমারী বিয়ে করেছিলেন প্রেসিডেন্সি কলেজের বিশিষ্ট অধ্যাপক ও শিক্ষাবিদ অমল ভট্টাচার্যকে৷ ওঁর মেয়ে অনীতা সরকার ও জামাই সুমিত সরকার– দু'জনেই বিশিষ্ট ঐতিহাসিক৷ প্রাচীন ভারতের সমাজ ও সংস্কৃতি নিয়ে বাংলা ও ইংরেজি মিলিয়ে ৩৫টিরও বেশি বই লিখেছেন৷ কেমব্রিজ থেকে প্রকাশিত হয় তাঁর বিখ্যাত বই 'ইন্ডিয়ান থিয়োগনি'৷ শিক্ষিত মহলে আলোড়ন ফেলে দেয় বইটি৷ গবেষণার কাজে যখন তিনি কেমব্রিজের গ্রম্হাগারে যাতায়াত করছেন, তখন গ্রম্হাগারিক মারফত তাঁর গবেষণার কথা কর্তৃপক্ষের কানে যায়৷ তাঁরা সুকুমারীকে অনুরোধ করেন, যাতে গবেষণাপত্রটি তাঁদেরই দেওয়া হয় প্রকাশের জন্য৷ অর্থনীতিবিদ ও দার্শনিক অমর্ত্য সেন একবার বলেছিলেন, হিন্দু দর্শন সম্পর্কে কিছু জানতে চাইলে সুকুমারী ভট্টাচার্যের বইটি পড়তে হবে৷ তাঁর চর্চার বিষয় ছিল প্রাচীন ভারতের সমাজ, সংস্কৃতি ও সাহিত্য৷ সাধারণ পাঠকের মধ্যেও তিনি বিপুল জনপ্রিয়তা পেয়েছিলেন সহজ-সরল প্রকাশভঙ্গির জন্য৷ তাঁর লেখা 'প্রাচীন ভারত: সমাজ ও সাহিত্য' বইটি আনন্দ পুরস্কার পায়৷ তাঁর আরেক উল্লেখযোগ্য কাজ 'হিস্ট্রি অফ লিটারেচার'৷ একেবারে অন্যরকমভাবে সাহিত্যের ইতিহাস লিখেছিলেন, যাতে প্রতিফলিত হয়েছিল তৎকালীন সমাজভাবনা৷ http://www.aajkaal.net/25-05-2014/news/221468/
महाश्वेता जी की वर्तिका में उनका यह आलेख देखेंः
সুকুমারী স্মরণ!
No comments:
Post a Comment