मीडिया की लहर में दबी सच की इबारतें
Author: अशोक कुमार पाण्डेय Edition : May 2014
नोम चाम्सकी ने अमेरिकी सत्ता वर्ग द्वारा सूचनाओं पर नियंत्रण करके जिस 'सहमति विनिर्माण'(consentmanufacturing) की बात की थी, उसके संदर्भ में सोचने की प्रक्रिया पर नियंत्रण के संदर्भ में उनका कहना था कि तानाशाही में जो काम (सत्ता पर नियंत्रण तथा विरोधियों का क्रूर दमन) हिंसा से किया जाता है, लोकतंत्र में वह काम 'प्रोपोगेंडा' से होता है। उनका कहना था कि अमेरिका में लोकतंत्र को लोगों को सूचना और विचारों की पूरी छूट देकर उनकी रचनात्मकता को बढ़ाने की आदर्श व्यवस्था की जगह 'जनता की राय के लिपमैन मॉडल' के तहत चलाया जा रहा है, जिसमें लगभग बीस फीसदी विशिष्ट वर्ग, जो खुद भी प्रोपोगेंडा का शिकार होता है, लोकतांत्रिक व्यवस्था को नियंत्रित करता है।
यह असल में उन शक्तिशाली कुलीनों के हाथ में है, जिनका सभी संस्थाओं पर नियंत्रण है। चाम्सकी आगे कहते हैं कि जनता का बहुसंख्यक हिस्सा (अस्सी फीसद) वंचना का शिकार है और उसे 'आवश्यक संभ्रम' के सहारे भटकाया और बरगलाया जाता है। यह 'आवश्यक संभ्रम' उसी प्रोपगेंडा द्वारा पैदा किया जाता है, जिसके सबसे बड़े और प्रभावशाली माध्यम हैं सूचना के आधुनिक साधन टीवी चैनल, अखबार आदि। मीडिया का पूरी तरह से नियंत्रण इस दौर में बड़े और शक्तिशाली निजी पूंजीपतियों के हाथों में हो जाता है, जो अपने निजी लाभों के लिए काम करते हुए यथास्थिति को बनाए रखने में इसका उपयोग करते हैं।
चाम्सकी बताते हैं कि इसके तहत भिन्न विचार रखने वाले या फिर असहमति की आवाजों के लिए स्पेस खत्म कर दिया जाता है। बहसों के आयाम सीमित कर दिए जाते हैं। आधिकारिक स्टैंड्स को ही अंतिम और एकमात्र सही स्टैंड बनाकर इतनी बार दिखाया/बताया जाता है कि वही जनता की स्मृति में हमेशा के लिए दर्ज हो जाए और लोगों का ध्यान ऐसे विषयों और मुद्दों से भटका दिया जाता है, जिस पर विद्रोह या असहमति की कोई गुंजाइश हो। इस तरह उपजाए गए 'आवश्यक विभ्रमों' के सहारे शक्तिशाली कुलीन वर्ग सत्ता पर अपना नियंत्रण और यथास्थिति को बनाए रखने में कामयाब होता है। जाहिर है मीडिया इस तरह बीस प्रतिशत सत्ताधारी कुलीन वर्ग के नियंत्रण का एक प्रमुख हथियार बन जाता है।
जाहिर तौर पर इसे पढ़ते हुए आज किसी भी संवेदनशील भारतीय को इन चुनावों के पहले और चुनावों केदौरान मीडिया के व्यवहार और असर की याद आएगी। पिछले लंबे समय से गुजरात के 'विकास' और इसके नायक के पक्ष में जिस तरह से मीडिया ने एक आम सहमति बनाई है, उसे नब्बे के दशक के बाद से ही नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के पक्ष में बनाई गई आम सहमति से जोड़कर देखा जाना चाहिए। इसके तहत आम जनता के अधिकारों के पक्ष में किए गए धरना/प्रदर्शनों और हड़ताल का समाचार इसके कारण होने वाले कारोबार के कथित नुकसानों और गरीबों को दी गई सुविधाओं को पैसे की बर्बादी के रूप में दिखाने का चलन लगातार बढ़ता चला गया।
यही वह दौर था जिसमें निजी समाचार चैनलों की बाढ़ आती चली गई, जिनका नियंत्रण पूरी तरह से कॉरपोरेट वर्ग के पास था। यही वह दौर था जब अखबारों का चरित्र पूरी तरह से बदल गया, पेज थ्री जैसी घटिया चीज का समावेश हुआ, जनता के पक्ष में आवाज उठाने वाली तथा नवउदारवाद को प्रश्नांकित करने वाली वाम ताकतों का बहिष्कार लगातार बढ़ता गया और हालात यहां तक पहुंचे कि अखबारों में पत्रकारों को सीधे-सीधे इनके न्यूज न कवर करने और मसाला बढ़ाते जाने का निर्देश दिया गया। गुजरात का चमत्कार मीडिया के इसी 'आवश्यक संभ्रम' पैदा करने के प्रयास का हिस्सा है। इस लेख में हम इसी संभ्रम की रूपहली परतों के भीतर छिपी कुछ बदशक्ल सच्चाइयों की तहकीकात करने की कोशिश करेंगे।
'गुजरात मॉडल' आखिर क्या बला है?
नरेंद्र मोदी और उनकी पिछलग्गू मीडिया ही नहीं, बल्कि इनके प्रभाव में सवर्ण मध्यवर्ग का एक बड़ा हिस्सा अक्सर यह कहता नजर आता है कि जो मॉडल गुजरात में विकास के लिए अपनाया गया, वह पूरे देश में अपनाया जाना चाहिए। हालांकि न खुद मोदी, न मीडिया और न ही उनके समर्थक कभी यह बताते हैं कि आखिर यह मॉडल है क्या और किस तरह से बाकी देश में अपनाई जा रही नीतियों से जुदा है। मोटे तौर पर उनका दावा होता है कि इससे विकास की गति बढ़ गई है, विदेशी निवेश में तेजी आई है, मूलभूत सुविधाएं सर्वसुलभ हो गई हैं और गरीबी में कमी आई है। यही नहीं उनका यह भी कहना है कि इसकी सहायता से भ्रष्टाचार में भी कमी आई है। ये बातें अंतिम और अप्रश्नेय सत्य की तरह कही जाती हैं और इन पर कोई सवाल कुफ्र से कम नहीं समझा जाता, लेकिन सवाल तो पूछे जाएंगे।
वर्ष 2013 में प्रकाशित अतुल सूद द्वारा संपादित 'पावर्टी एमिड्स्ट प्रास्पेरिटी : एसेज ऑन द ट्राजेक्ट्री ऑफ डेवलपमेंट इन गुजरात' में इस मिथक की बेहतर पड़ताल की गई है। 'गुजरात मॉडल' की विशेषताएं चिन्हित करते हुए यह इसकी विकास रणनीति के दो प्रमुख अवयव रेखांकित करती है- 'पहला, बंदरगाहों, रेल, रोड तथा ऊर्जा क्षेत्र में संवृद्धि के लिए निजी क्षेत्र का एकीकृत निवेश और दूसरा, औद्योगिक एवं सेवा क्षेत्र की संवृद्धि के लिए 'ग्रीनफील्ड साइट्स' की तरह विशाल अंत: क्षेत्रों का निर्माण जिनमें विश्वस्तरीय बुनियादी सुविधाएं हों। साथ ही इन क्षेत्रों में निवेश करने वालों को भरपूर सब्सिडीज, रियायतें, करों में राहत, सस्ते ऋण तथा ऐसी अन्य सुविधाएं उपलब्ध कराई गई हैं।' देखा जाए तो इसमें नया कुछ नहीं है। विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज), विशेष निवेश क्षेत्र जैसी चीजें नवउदारवादी व्यवस्था के आने के बाद पूरे देश में ही कमोबेश लागू हुई हैं। फिर 'गुजरात मॉडल' देश के बाकी हिस्सों से अलग कहां है?
मूल रूप से देखा जाए तो न ही तरीकों में कोई मूलभूत फर्क है, न ही परिणामों में। गुजरात में भी मूलभूत संरचनाएं गांवों और कस्बों में विकसित करने की जगह ऐसे 'विशेष क्षेत्रों' में की गईं, जिनका उद्देश्य गुजरात के निवासियों को नहीं, बल्कि वहां निवेश करने आ रहे पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाना था। इसका स्वाभाविक असर गैरबराबरी और विषमताओं में वृद्धि के साथ-साथ स्वास्थ्य, शिक्षा और ऐसी जरूरी मदों में खर्च की कमी व इसके चलते बदहाली में ही होना था। हम आगे देखेंगे कि वह हुआ भी।
सूद उदाहरण देते हैं कि दिल्ली मुंबई इंडस्ट्रियल कारीडोर (DMICU) परियोजना की योजना इंगित करती है कि गुजरात को औद्योगिक उपयोग के लिए भूजल सिंचाई और घरेलू उपयोग से हटाकर देना पड़ेगा। साथ ही यह भी दर्शाया गया है कि 2039 तक यहां विस्थापित होकर आने वाले मजदूरों और कामगारों की संख्या नौ लाख चालीस करोड़ होगी। लेकिन इस बात का कहीं जिक्र नहीं है कि इस बढ़ी हुई आबादी की पेयजल सहित दूसरी आधारभूत जरूरतें कैसे पूरी होंगी?
हां, गुजरात मॉडल दो स्तरों पर बाकी जगहों से अलग है। पहला तो यह कि यहां शक्ति और निर्णय का केंद्र पूरी तरह से एक व्यक्ति में सिमट गया है। मंत्रिमंडल तथा अन्य व्यवस्थाएं कागज में हैं, लेकिन कैबिनेट की बैठकें शायद ही कभी होती हैं। सारी लोकतांत्रिक प्रणालियां पूरी तरह से एक व्यक्ति में केंद्रित हो गई हैं, असहमति की सभी संभावनाएं समाप्त कर दी गई हैं और मीडिया पर पूरी तरह से एकाधिकार जमा लिया गया है। मालिकान को उनके दूसरे व्यापारों के लिए अकूत सुविधाएं (आगे विस्तार में) दे देने के बाद उनके अखबारों या चैनलों से वैसे भी सिर्फ सहमति का माहौल बनाने की ही उम्मीद की जा सकती है। दूसरी विशेषता जो इसी से जुड़ी हुई है, वह यह कि निजीकरण की इस मुहिम को सबसे अधिक आक्रामक तरीके से लागू करते हुए सभी परंपराओं और जनहित के ख्यालात को ताक पर रख दिया गया है।
कूंजीभूत कहे जाने वाले क्षेत्र जैसे बंदरगाह, रेलवे, सड़कें और ऊर्जा पारंपरिक रूप से सरकारों के ही नियंत्रण में रहे हैं, क्योंकि इनसे जनता का व्यापक हित और सुरक्षा दोनों ही सीधे-सीधे जुड़े हैं। लेकिन 'गुजरात मॉडल' इस परंपरा और चिंता को तिरोहित कर इनका नियंत्रण सीधे-सीधे निजी पूंजीपतियों को सौंप देता है। देश के और राज्यों में भी निजीकरण हुआ है, लेकिन ऐसा कहीं नहीं हुआ है कि इन चीजों के संबंध में सारे अधिकार और निर्णय लेने की सारी ताकत कॉरपोरेट्स के हाथों में सौंप दी गई।
उदाहरण के लिए बिल्ड ओन ऑपरेट ट्रांसफर (BOOT) के तहत बंदरगाहों को निजी हाथों में सौंपने के साथ आय सरकार के साथ साझा करने की जगह उन्हें 'रायल्टी हालीडे' दे दिया गया, यानी जितना शुल्क उगाहा जाएगा सब उनका, यह भी कॉरपोरेट ही तय करेंगे कि कितना शुल्क होगा और कैसे उगाहा जाएगा, निजी निवेशकों के लिए भूमि अधिग्रहीत करके बाजार दर से कम पर उपलब्ध कराई गई। लाभ कमाने के लिए तीस बरस तक छूट जारी रखने का प्रावधान किया गया और भी जाने क्या क्या! एक दूसरा उदाहरण नैनो तथा दूसरे प्रोजेक्ट्स के लिए टाटा को दी गई सब्सिडी है। टाटा ने 29000 करोड़ के निवेश के बदले 0.1% वार्षिक ब्याज पर 9570 करोड़ रुपए का ऋण दिया गया, जिसका बीस साल तक कोई भुगतान नहीं करना है और बीस साल बाद भी मासिक किस्तों में ही भुगतान करना है।
बाजार से काफी कम कीमत पर जमीन तो उपलब्ध कराई ही गई, जिसमें गांधीनगर के पास एक हाउसिंग काम्प्लेक्स बनाने के लिए दी गई जमीन भी शामिल है, साथ में इसके लिए स्टैम्प ड्यूटी, रजिस्ट्री के खर्चे और बिजली का भुगतान भी राज्य सरकार द्वारा ही किया गया। साथ में टैक्स ब्रेक जो दिया गया है उससे यह तय कर दिया गया कि टाटा की आमदनी का कोई हिस्सा गुजरात की जनता को आने वाले समय में नहीं मिलने वाला। ऐसी सुविधाएं पाने वाले टाटा अकेले नहीं हैं। रिलायंस, अडानी और तमाम लोगों को ये रेवडिय़ां खुले हाथ से बांटी गई हैं। तब अगर ये सारे कॉरपोरेट नमो नमो का गान कर रहे हैं और इनके पैसों से चलने वाले चलन अपनी बनाई हवा को लहर से सुनामी में तब्दील किए दे रहे हैं, तो किमाश्चर्यम्?
इस तरह इस कथित 'नए' मॉडल में असल में कुछ नया है ही नहीं। यह विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष जैसी संस्थाओं द्वारा सुझाया गया वही बाजार आधारित संवृद्धि का आक्रामक नव उदारवादी मॉडल ही है, जिसे अपनाकर लैटिन अमेरिका सहित तमाम देश बर्बाद हो गए। यह वही मॉडल है जिसे नब्बे के दशक से सारे देश में अपनाया जा रहा है। फर्क सिर्फ इतना है कि जहां बाकी जगहों पर इसे इतनी आक्रामकता से लागू न करके गरीब-गुरबे के लिए कुछ राहत योजनाएं भी बनाई जाती हैं, किसानों के बारे में भी थोड़ा सोचा जाता है, लोकतांत्रिक प्रणाली के चलते असहमतियों और विरोधों के कारण आक्रामकता के नाखून कभी कतर दिए जाते हैं, वहीं गुजरात में लोकतंत्र के बाने में चल रही तानाशाही ऐसी सभी असहमतियों और विरोधों के प्रति पूरी तरह से असहिष्णु है, हम आगे देखेंगे कि कैसे जनकल्याणकारी योजनाओं को पूरी तरह से नजरंदाज कर देती है और दोनों हाथों से कॉरपोरेट्स को सरकारी सुविधाओं की रेवडिय़ां मुक्तहस्त लुटाते हुए नियम-कानून ताक पर रख देती है। देखा जाय तो 'गुजरात मॉडल' एक तानाशाह की सरपरस्ती में कॉरपोरेट्स को चरने के लिए मुक्त चारागाह उपलब्ध कराने का मॉडल है। अगर यूपीए के संवृद्धि मॉडल से इसकी तुलना कर सकते हों तो हम कह सकते हैं कि गुजरात मॉडल = यूपीए मॉडल—कल्याणकारी योजनाएं!
इस मॉडल का हासिल क्या है?
आखिर इस मॉडल के परिणाम भी बाकी जगहों पर लागू नवउदारवादी नीतियों के परिणामों से अलग कैसे हो सकते थे? मेनस्ट्रीम में 16 अप्रैल 2014 को छपे एक लेख 'गुजरात : अ मॉडल आफ डेवलपमेंट' में प्रसिद्ध अर्थशास्त्री कमल नयन काबरा न केवल विकास और संवृद्धि (Growth) के अंतर को साफ करते हुए इस कथित मॉडल पर सवाल खड़े करते हुए सूद के निष्कर्षों तक ही पहुंचते हैं, बल्कि सीधा सवाल भी करते हैं कि 'समान तरह की नीतियों, समान ब्यूरोक्रेसी, समान कॉरपोरेट संस्कृति, नियामक संस्थाओं, निर्णयकारी संस्थाओं और समान राजनीतिक संस्कृति जिसमें कॉरपोरेट मानसिकता वाला व्यापारी जैसा राजनीतिक वर्ग है, एक ऐसा अलग परिणाम कैसे हासिल किया जा सकता है, जिसमें आम जनता के लंबे समय से नजरअंदाज किए गए अधिकार, आवश्यकताएं और उम्मीदें पूरी हो सकें? गुजरात सरकार की नीतियां पूरी तरह से सरकार की सरपरस्ती में नव उदारवादी, बाजारोन्मुख नीतियां ही हैं।'
और इसके उदाहरण सामाजिक क्षेत्रों में बिखरे पड़े हैं। सरकारी आंकड़े ही विकास के इन दुष्परिणामों को साफ-साफ दिखा देते हैं। काउंटर करेंट डॉट ओआरजी में 19 मार्च 2014 को छपे एक लेख 'द गुजरात मॉडल ऑफ डेवेलपमेंट : व्हाट वुड इट डू टू द इंडियन इकोनॉमी' में रोहिणी हेंसन बताती हैं कि 'गुजरात के आम लोगों ने इस आर्थिक संवृद्धि की भारी कीमत चुकाई है। गुजरात गरीबी के उच्चतम स्तरों वाले भारतीय राज्यों में से एक है। कॉरपोरेटों को दिए गए जमीन के विशाल पट्टों से लाखों की संख्या में किसान, दलित, खेत मजदूर, मछुआरे, चरवाहे और आदिवासी विस्थापित हुए हैं। 2011 तक मोदी के शासनकाल में 16000 किसानों, कामगारों और खेत मजदूरों ने आर्थिक बदहाली के कारण खुदकुशी की। अपने स्तर की प्रतिव्यक्ति आय वाले राज्यों में गुजरात का मानव विकास सूचकांक सबसे निचले स्तर का है। बड़े राज्यों में नरेगा लागू करने के मामले में यह राज्य सबसे पीछे है। मुसलमानों के हालात गरीबी, भुखमरी, शिक्षा तथा सुरक्षा के मामलों में बहुत खराब हैं। कुपोषण बहुत ज्यादा है और इस बारे में शाकाहारी प्रवृत्तियों को जिम्मेदार ठहराने के मोदी के बयान को खारिज करते हुए एक प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री इसकी वजूहात अत्यंत निचले स्तर की मजदूरी, पोषण योजनाओं का ठीक तरह से काम न करना, पेयजल वितरण की अव्यवस्था और सैनिटेशन की कमी बताते हैं। गुजरात शौचालयों के उपयोग के मामले में देश के सभी राज्यों में दसवें पायदान पर है और यहां की 65 प्रतिशत से अधिक जनता खुले में शौच करती है जिसकी वजह से पीलिया, डायरिया, मलेरिया तथा अन्य ऐसे रोगों के रोगियों की संख्या बहुत ज्यादा है। अनियंत्रित प्रदूषण ने किसानों और मछुआरों की आजीविका नष्ट कर दी है और स्थानीय नागरिकों को चर्मरोग, अस्थमा, टीबी, कैंसर जैसी बीमारियां बड़े पैमाने पर हुई हैं।'
कुपोषण को लेकर तो खुद गुजरात सरकार द्वारा दिए गए आंकड़े भयावह हैं। 5 अक्टूबर 2013 के द हिंदू में छपी एक खबर के अनुसार वहां की महिला एवं बाल विकास मंत्री वसुबेन त्रिवेदी ने विधानसभा में एक लिखित उत्तर में बताया कि प्रदेश के 14 जिलों में कम से कम 6.13 लाख बच्चे कुपोषित या अत्यंत कुपोषित थे, जबकि 12 जिलों के लिए यह आंकड़ा उपलब्ध नहीं था। आश्चर्यजनक रूप से प्रदेश के वाणिज्यिक केंद्र अहमदाबाद में 54, 975 बच्चे कुपोषित तथा 3, 8600 बच्चे अत्यंत कुपोषित थे। इस तरह कुल कुपोषित बच्चों की संख्या (लगभग 85, 000) वहां प्रदेश में सर्वाधिक थी। बनासकांठा और साबरकांठा जैसे आदिवासी इलाकों में भी यह संख्या क्रमश: 78, 421 और 73, 384 थी।
सीएजी की रपट के अनुसार '2007 और 2012 के बीच लक्षित बच्चों को सप्लीमेंट्री पोषण देने के सरकारी दावों के बावजूद मार्च 2012 की मासिक प्रगति रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश का हर तीसरा बच्चा सामान्य से कम वजन का था। इसी रिपोर्ट के अनुसार 'राज्य में आवश्यक 75, 480 आंगनवाड़ी केन्द्रों की जगह केवल 52, 137 आंगनवाड़ी केंद्र संस्तुत किए गए और उनमें से भी केवल 50, 225 काम कर रहे हैं। परिणामस्वरूप एकीकृत बाल विकास योजना के लाभों से 1.87 करोड़ बच्चे वंचित हो गए हैं।'जबकि 2012 की राज्यवार रिपोर्ट में यूनिसेफ ने बताया कि 'पांच साल से कम उम्र का गुजरात का लगभग हर दूसरा बच्चा सामान्य से कम वजन का है और हर चार में से तीन को खून की कमी है। पिछले दशक में नवजात मृत्यु दर तथा प्रजनन के समय की मृत्यु दरों में कमी की दर बहुत धीमी है। गुजरात में हर तीसरी मां भयावह कुपोषण की समस्या से जूझ रही है… बच्चों के स्वास्थ्य की समस्या बाल विवाहों की बड़ी संख्या से और विकट हो गई है।
गुजरात बाल विवाहों की संख्या के ज्ञात आंकड़ों के मद्देनजर देश का चौथा राज्य है। 2001 और 2011 के बीच गुजरात के सेक्स रेशियो में भी कमी आई है। सेव द चिल्ड्रेन की रिपोर्ट में भी इन बातों की पुष्टि होती है। इसके अनुसार गुजरात का कैलोरी उपभोग राष्ट्रीय औसत से काफी नीचे है। ग्रामीण इलाकों में तो यह उड़ीसा, जम्मू कश्मीर, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और मिजोरम से भी नीचे 18वें स्थान पर है। यह रिपोर्ट एक और महत्त्वपूर्ण तथ्य सामने लाती है कि आर्थिक गैरबराबरी के मामले में गुजरात देश में अन्य राज्यों से काफी आगे है। यहां अमीर और गरीब के बीच की खाई पिछले दस वर्षों में सबसे तेजी से बढ़ी है।
शिक्षा के मामले में भी हालात बदतर हुए हैं। यूएनडीपी की एक रपट के अनुसार बच्चों को स्कूल में रोकने के मामले में गुजरात का नंबर देश के सभी राज्यों में 18वां है। साक्षरता दर के मामले में बड़े राज्यों में यह सातवें नंबर पर है और 1997-98 से 2012-13 के बीच इसकी स्थिति अन्य राज्यों की तुलना में बदतर हुई है। रिपोर्ट में वहां के शिक्षा के स्तर पर चिंता प्रकट करते हुए उसे बेहतर बनाने की अनुशंसा भी की गई है। (देखें, मिराज ऑफ डेवलपमेंट, फ्रंटलाइन, 20 फरवरी, 2013) गुजरात सड़कों तथा सिंचाई पर प्रतिव्यक्ति खर्च के मामले में तो सबसे ऊपर है, लेकिन शिक्षा और स्वास्थ्य पर प्रतिव्यक्ति खर्च के मामले में इसका नंबर छठा है। 6-14 साल के आयुवर्ग के बच्चों के बीच शिक्षा में दलित, आदिवासी, महिलाओं तथा आदिवासियों की भागीदारी राष्ट्रीय औसत से कम है और अपने स्तर के आय वाले राज्यों से यह काफी पीछे है। लेकिन सरकार इस मद में अपना खर्च बढ़ाकर शिक्षा का स्तर सुधारने और इन संस्थाओं को बेहतर बनाने की जगह निजी शिक्षा संस्थानों को बढ़ावा देने में लगी है।
जनवरी 2013 की वाइब्रेंट गुजरात समिट में यह स्पष्ट था कि नरेंद्र मोदी ने दुनियाभर के निजी विश्वविद्यालयों के बीच भागीदारी के लिए एक फोरम बनाने का प्रस्ताव दिया। हालांकि मोदी के शासनकाल में राष्ट्रीय औसत की तुलना में गुजरात में शिक्षा में निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ी है, लेकिन खासतौर पर ग्रामीण और कस्बाई क्षेत्रों में सरकारी अनुदान प्राप्त तथा सरकारी और स्थानीय निकायों द्वारा संचालित विद्यालयों पर लोगों की निर्भरता कम होने की जगह बढ़ी है, जो इस बात का सूचक है कि मंहगे निजी स्कूल लोगों की पहुंच से बाहर हैं और शिक्षा के स्तर को बढ़ा पाने में इनकी भूमिका प्रभावी नहीं हो पा रही।
इन सामाजिक सूचकों से इतर अगर शुद्ध आर्थिक पहलुओं को देखें तो भी इस मिथक की कोई सुन्दर तस्वीर नहीं दिखती। गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों की संख्या में कमी के मामले में एनएसएसओ की रिपोर्ट के अनुसार 2004 और 2012 के बीच में गरीबी में सबसे ज़्यादा कमी उड़ीसा में आई (20.2%) और सबसे कम गुजरात में (8.6%)।
रोजगार के मामले में तो हालात बेहद खराब हैं। एनएसएसओ के ही आंकड़े बताते हैं कि पिछले बारह सालों में रोजगार में वृद्धि की दर लगभग शून्य तक पहुंच गई है। ग्रामीण क्षेत्रों में संवृद्धि के बावजूद रोजगार में बढ़ोत्तरी नहीं हुई है। जिस तरह की कृषि भूमि की बिक्री और खरीद की नीतियां बनाई गईं हैं, छोटे और मध्यम किसान अपने खेत लगातार बेच रहे हैं। बदहाली के शिकार इस वर्ग को तुरंत पैसे तो मिल जा रहे हैं, लेकिन इससे रोजगारहीन लोगों की संख्या में बढ़ोत्तरी हो रही है। ग्रामीण क्षेत्रों में स्पेशल इकोनॉमिक जोंस वगैरह बनने से जिस तरह की नौकरियां सृजित हो रही हैं, वे स्थानीय लोगों के अनुरूप नहीं हैं।
5 दिसंबर 2012 को हिमालयन मिरर में लिखे अपने आलेख में अतुल सूद का कहना है कि गुजरात मॉडल के इस विकास का सबसे बड़ा शिकार रोजगार ही हुआ है। 1993-94 से 2004-05 तक जो रोजगार वृद्धि दर 2.69 प्रतिशत प्रतिवर्ष थी, वह 2004-05 से 2009-10 के बीच लगभग शून्य हो गई। इसके साथ ही चौंकाने वाला तथ्य यह है कि इसी दौर में कामगारों के वेतन में वृद्धि की दर भी राष्ट्रीय औसत की तुलना में अत्यंत धीमी रही है। इसका प्रमुख कारण पक्की नौकरियों में कमी और ठेके पर रखे गए कामगारों की हिस्सेदारी में बढ़ोत्तरी है। विडंबना यह कि इसी दौर में कॉरपोरेट्स के लाभ में भारी वृद्धि हुई है। जाहिर है आर्थिक विषमता में भारी वृद्धि हुई है।
विकास के इस मिथक के प्रचार में किस तरह जान-बूझकर मीडिया वाम द्वारा शासित राज्यों को नजरंदाज करती है इसका एक उदाहरण हाल में आई नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस की रिपोर्ट से मिलता है। इसको अगर देखें तो 2004 से 2011 के बीच मैनुफेक्चरिंग क्षेत्र में सबसे ज्यादा नौकरियों का सृजन पश्चिम बंगाल के उस वाम शासनकाल में हुआ, जिसे बदनाम करने के लिए मीडिया और उसके चम्पू अर्थशास्त्री पूरा जोर लगा देते हैं। इस मामले में न केवल गुजरात उससे पीछे रहा, बल्कि महाराष्ट्र और हरियाणा जैसे राज्य भी। मध्य प्रदेश और उड़ीसा जैसे राज्यों में तो इस दौर में ऋणात्मक वृद्धि पाई गई, लेकिन मीडिया के निशाने पर हमेशा ही वाम की 'असफलता' रही। (देखें, द हिंदू, पेज 12, 26 अप्रैल, 2014)
अन्य सूचकों की बात की जाए तो 2012 में भारत के अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों में गुजरात के डिपॉजिट्स की हिस्सेदारी थी 4.8 प्रतिशत जो आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक और महाराष्ट्र से कम थी। इन बैंकों द्वारा दिए गए कुल ऋणों में गुजरात की भागीदारी 4.4ज् थी जो फिर महाराष्ट्र, कर्नाटक और तमिलनाडु से कम थी। इन बैंकों में से गुजरात की प्रति व्यक्ति जमा और प्रति व्यक्ति ऋण तमिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र और यहां तक कि केरल से भी कम थी। जाहिर है जब राज्य पूंजी एकत्रण में पीछे रहा तो गरीबी दूर करने में आगे कैसे रह सकता था? 2011 में प्रति व्यक्ति आय के मामले में यह पांचवें नंबर पर रहा, तो 2004 से 2009 के दौर में औद्योगिक विकास के मामले में छठवें स्थान पर।
सबसे चौंकाने वाले आंकड़े तो उस प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के हैं, जिसका सबसे ज्यादा शोर मचाया जाता है। 'निवेशक अनुरूप राज्य' के अपने गलाफाड़ शोर के बावजूद इस क्षेत्र में भी उपलब्धि उतनी नहीं है, जितनी दिखाई जाती है। हर दो साल पर होने वाली बहुप्रचारित 'वाइब्रेंट गुजरात ग्लोबल निवेशक समिट' भी अपनी चमक खोती जा रही है। 2003 में जहां हस्ताक्षर किए गए एमओयूज में से 73% जमीन पर उतारे जा सके, वहीं 2011 आते-आते कुल समझौतों में से केवल 13% ही कारगर हो सके। इस मामले में अन्य राज्यों की तुलना में उसकी उपलब्धि कोई बेहतर नहीं रही। 2006 से 2010 के बीच गुजरात ने 5.35 लाख करोड़ के प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के समझौतों पर हस्ताक्षर किए, तो उनसे 6.47 लाख नए रोजगारों की उम्मीद जताई गयी। इसी दौर में महाराष्ट्र और तमिलनाडु ने समझौते तो क्रमश: 4.2 लाख करोड़ और 1.63 लाख करोड़ के ही किए, लेकिन इनमें क्रमश: 8.63 और 13.09 लाख नौकरियों की क्षमता बताई गई।
तो जिस मॉडल के सहारे नरेंद्र मोदी गुजरात में न तो गरीबी कम कर पाए, न बेरोजगारी कम कर पाए और न ही औद्योगिक विकास को सबसे तेज कर पाए, उसके सहारे वह किस तरह भारतभर की समस्याएं दूर करेंगे, यह कोई भी अंदाज लगा सकता है। दरअसल, गुजरात पारंपरिक रूप से उद्यमियों का राज्य रहा है। समुद्र तटों से करीब होने के वजह से यहां व्यापार हमेशा से ही फलता-फूलता रहा है। गुजरात के किसानों, मजदूरों, दस्तकारों, महिलाओं और व्यापारियों ने अपनी मेहनत और लगन से इसे एक विकसित राज्य मोदी के आगमन से बहुत पहले ही बना दिया था। गांधी के आंदोलन के समय से ही गुजराती महिलाओं ने आंदोलनों में हिस्सेदारी और घर से बाहर निकलने के सबक सीख लिए थे। अपने इस कथित विकास मॉडल के बहाने मोदी ने सिर्फ इस सामूहिक प्रयास से विकसित किए गए जनता के संसाधनों को कौडिय़ों के भाव कॉरपोरेट्स को मुहैया करा उनका लाभ बढ़ाया है और जनता की मुश्किलात। आगे अडानी वाले केस को विस्तार से देखते हुए हम इस तथ्य को समझ सकते हैं।
यहां एक और आंकड़े का जिक्र कर देना विषयांतर नहीं होगा। 2005 में गुजरात में अपहरण के 1,164 केस दर्ज हुए -जो बिहार, उत्तर प्रदेश और राजस्थान जैसे पारंपरिक अपहरण वाले राज्यों के तो आधा ही हैं लेकिन मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और महाराष्ट्र जैसे राज्यों से कहीं ज़्यादा हैं। लेकिन गुजरात के संदर्भ में विशिष्ट बात यह है कि गुजरात में अपहरण किए गए लोगों में से नब्बे फीसद तीस वर्ष से कम आयुवर्ग के लोग थे, तो अस्सी फीसद महिलायें! यह राष्ट्रीय औसत का लगभग दुगुना है। समझा जा सकता है कि देशभर में महिलाओं को सुरक्षा देने का उनका दावा कितना गंभीर है।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों की मानें तो हिंसक अपराधों में भी गुजरात किसी से पीछे नहीं है। यहां की अपराध दर राष्ट्रीय औसत से कहीं अधिक है। वह गुजरात के सबसे सुरक्षित होने का दावा भी करते हैं, लेकिन 2003 के दौरान वहां कुल चोरी हुए माल का मूल्य था 32, 419 लाख रुपए, जबकि बरामदगी इसमें से केवल 9.5% की हो पायी। हरियाणा सहित कई अन्य राज्यों का प्रदर्शन इस मामले में बेहतर था। (देखें, मिथ ऑफ द गुजरात मॉडल मिराकल, मोहन गुरुस्वामी, आब्जर्वर रिसर्च फाउन्डेशन, 13 फरवरी, 2013। )
5 अक्टूबर 2013 के 'द हिंदू' में छपी एक खबर के अनुसार सीएजी ने पाया था कि देश की सबसे बड़ी कोस्टल लाइन होने के बावजूद गुजरात में समुद्र तट की सुरक्षा पर्याप्त नहीं है। मैरीन पुलिस चौकियों की संख्या बहुत कम है और उनमें भी कार्यरत सुरक्षाकर्मियों का सही तरीके से प्रशिक्षण नहीं हुआ है तथा वे रात्रि गश्तों पर नहीं जाते। आडिटर ने चिन्हित किया था कि कच्छ जिले में 235 किलोमीटर लंबे समुद्रतट के बीच केवल एक मैरीन पुलिस चौकी मुंद्रा में है, जबकि द्वारका और हर्षद के बीच एक भी नहीं है। अपने राज्य की सीमाओं के प्रति इस कदर लापरवाह व्यक्ति जब देश की सुरक्षा की बात करे और मीडिया उसे जोर शोर से प्रचारित करे, तो इसे 'आवश्यक विभ्रम' के अलावा क्या कहा जा सकता है?
असल में मौका तो दुश्मनों ने दिया
गोधरा और उसके बाद की भयावह घटनाओं के बाद बनी मोदी की नकारात्मक छवि को असल में पहला उद्धार जो मिला वह राजीव गांधी फाउंडेशन की वर्ष 2005 की उस रिपोर्ट से मिला, जिसमें गुजरात को 'आर्थिक स्वतंत्रता' के आधार पर देश का अग्रणी राज्य घोषित किया गया। जाहिर है कि मोदी ने इसको हाथोंहाथ लिया और देशभर के अखबारों में पूरे पूरे पन्ने का विज्ञापन दिया गया। इसी बीच सिंगुर की घटना हुई और मोदी ने इसका भी पूरा फायदा उठाते हुए तमाम इनाम-ओ-इकराम तथा रियायत देते हुए टाटा को गुजरात आने का न्यौता दे दिया। फिर तो कॉरपोरेट्स का तांता लग गया और मोदी का कथित विकास रथ सबको रौंदते हुए तेजी से भागने लगा।
आर्थिक स्वतंत्रता की अवधारणा की जड़ें 1986 और 1994 के बीच कनाडा के फ्रेजर इंस्टीट्यूट द्वारा प्रायोजित तथा मिल्टन फ्रीडमैन तथा रोज फ्रीडमैन द्वारा आयोजित सेमिनारों में पड़ीं। घोर दक्षिणपंथी तथा बाजार परस्त जनविरोधी आर्थिक नीतियों के समर्थक नोबेल पुरस्कार विजेता फ्रीडमैन की इस अवधारणा को अमेरिका के दो घोर रूढि़वादी आर्थिक संस्थानों हेरिटेज फाउंडेशन और केटो इंस्टीट्यूट का समर्थन भी मिला था। फ्रीडमैन की आर्थिक नीतियों का सबसे मूर्त रूप चिली के तानाशाह आगस्टो पिनाशो के यहां ही देखने को मिलता है।
तो वाल स्ट्रीट जनरल द्वारा तय किए गए मानकों के आधार पर राजीव गांधी फाउंडेशन ने गुजरात को जो सबसे अधिक 'आर्थिक स्वतंत्रता' वाला राज्य घोषित किया, उसके मानी कोई समझ सकता था। गुरुस्वामी बताते हैं कि एमआईटी के अर्थशास्त्र के शब्दकोष के अनुसार किसी आर्थिक मॉडल की जगह यह दरअसल 'अति दक्षिणपंथियों द्वारा समर्थित एक विचारधारात्मक जीवन शैली है।' फ्रेजर इंस्टीट्यूट कहता है कि 'आर्थिक स्वतंत्रता का स्तर उस हद तक होता है, जिस हद तक किसी समाज में सरकार के किसी हस्तक्षेप के बिना कोई व्यक्ति आर्थिक संक्रियाएं कर सकता है। आर्थिक अवधारणा के अवयव हैं, निजी चुनाव, स्वैच्छिक आदान-प्रदान, अपनी कमाई को अपने ही पास रखने का अधिकार और संपत्ति के अधिकारों की सुरक्षा।' यानी सीधे-सीधे कहें तो एक ऐसी व्यवस्था जिसमें धनिकों को अपनी मनमानी करने की पूरी छूट हो और उन पर सरकार का कोई नियंत्रण न हो यानी बाजार को अपने खेल खेलने की खुली छूट मिले और आम आदमी जाए भाड़ में।
गुजरात मॉडल इसी खेल का नाम है और इसीलिए इसे चलाने के लिए उसे भी पिनोशे जैसा सर्वसत्तावादी तानाशाह चाहिए। क्या राजीव गांधी फाउंडेशन जानता था कि वह किस चीज का सर्टिफिकेट दे रहा है?
किस्सा अडानी का उर्फ खुल्ला खेल फर्रुखाबादी उर्फ सैयां भये कोतवाल
गुलेल डॉट काम के राजीव कुमार ने अडानी-मोदी गठजोड़ पर बड़ा खुलासा किया है। वह बताते हैं कि 2006 में गुजरात ऊर्जा विकास निगम लिमिटेड ने 3000 मेगावाट बिजली के उत्पादन के लिए निजी कंपनियों से सौदे किए। अडानी गु्रप के साथ 1000 वाट के उत्पादन के लिए दो समझौते किए गए, जिसमें पहला आयातित कोयले से बिजली उत्पादन के लिए था तो दूसरा देशी और आयातित कोयले के मिश्रित रूप से उत्पादन के लिए। इनके लिए बिजली खरीदने की दरें क्रमश: रुपए 2.89 और 2.35 प्रति यूनिट के हिसाब से तय की गईं। इन समझौतों के ठीक पहले शेष 1000 मेगावाट के उत्पादन के लिए टाटा के साथ समझौता किया गया। यहां भी बिजली का उत्पादन आयातित कोयले द्वारा ही होना था, लेकिन दर यहां सिर्फ 2.26 रुपए प्रति यूनिट थी। अडानी ग्रुप से अधिक दर पर बिजली खरीदने के चलते सरकार को प्रतिवर्ष 1347 करोड़ रुपयों का नुकसान हुआ, जबकि तय अवधि 25 सालों के लिए यह नुकसान 23, 625 करोड़ रुपयों का होगा!
हालांकि किस्सा इतना ही नहीं है। राजीव कुमार का पूरा लेख पढ़ने पर आप समझ सकते हैं कि किस तरह सरकार के संरक्षण में अडानी ने नियमों के साथ छेड़छाड़ की और उन्हें अपने पक्ष में बदलवाने में सफल हुए। पूरा लेख http//%gulail.com/the-people-ofgujarat-will-bear-the-burnt-of-themodi-adani-ne&us/ पर पढ़ा जा सकता है।
खेल यहीं खत्म नहीं होता है। अपने विशेष आर्थिक क्षेत्र और बंदरगाह के लिए अडानी को गुजरात में सबसे कम कीमत पर जमीन मिली, क्रमश: 32 रुपए और 1 रुपए प्रति वर्गमीटर के हिसाब से। 26 अप्रैल 2014 के बिजनेस स्टैंडर्ड में छपी खबर के अनुसार कच्छ जिले के मुंद्रा ब्लाक में 6, 456 हेक्टेयर जमीन इन दरों पर अडानी को सरकार ने मुहैया कराई, जबकि इनकी बाजार दर 50 रुपए से 100 रुपए प्रति वर्गमीटर तक थी। गुजरात में ही अन्य किसी कॉरपोरेट को इतनी सस्ती दर पर कोई जमीन उपलब्ध नहीं कराई गई है, न ही देश के किसी दूसरे हिस्से में।
किस्से और भी हैं, लेकिन अभी के लिए तो यह भी कम नहीं। अब जब मोदी सरकार गुजरात में इस कदर मेहरबान हो तो अडानी क्यों न चाहेंगे कि अबकी बार केंद्र में भी मोदी सरकार ही हो…और ऐसे अकेले अडानी ही नहीं।
31 मार्च 2012 की रिपोर्ट में सीएजी ने गुजरात सरकार पर पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाते हुए सरकार को 580 करोड़ का नुकसान पहुंचाने का आरोप लगाया। यह मामला गैस से जुड़ा था और फायदा पाने वाली कंपनियां थीं रिलायंस, अडानी और एस्सार स्टील। साथ ही रिपोर्ट में फोर्ड इंडिया और एस्सार समूह को जमीनें देने के मामले में भी अनियमितता का आरोप लगाया गया था। (देखें 3 अप्रैल 2013 का इंडियन एक्सप्रेस)। सीएजी की ही एक अन्य रिपोर्ट में सरकार पर गैस खरीद के मामले में निजी कंपनियों (रिलायंस और अडानी) को लाभ पहुंचाने के लिए सरकारी खजाने को 16, 700 करोड़ का चूना लगाने का आरोप लगा।
लेकिन इनमें से किसी की आंच मोदी तक नहीं पहुंची। यह यों ही नहीं था कि उन्होंने लोकायुक्त को रोकने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा दिया और फिर एक ऐसा लोकपाल बना दिया जिसके दूध के दांत भी नहीं टूटे, उसे उसी सरकार के नियंत्रण में रहना था, जिसकी निगरानी करनी थी। आखिर वह येदियुरप्पा से सबक ले चुके थे।
लेकिन मीडिया में आपने कहीं इसकी चर्चा सुनी? जाहिर है जब अधिकांश चैनलों में रिलायंस का पैसा लगा हो तो यह खबर मीडिया में कैसे आ सकती थी?
तो अब?
इन सबके बावजूद अगर मोदी 2014 के चुनावों के पहले मीडिया के सहारे अपनी छवि एक विकास पुरुष और भ्रष्टाचार विरोधी की बनाने में सफल हो गए, तो यह समझ लेना चाहिए कि अब भारत में भी मीडिया एक निर्णायक कंसेंट मैन्युफैक्चरर बन चुका है। उसकी ताकत इतनी बढ़ चुकी है कि वह अपने नियमित प्रोपोगेंडा से एक तानाशाह को सिर्फ इसलिए एक लोकप्रिय नायक में तब्दील कर सकता है कि वह तानाशाह पूरी ताकत के साथ उसके मालिकान की तिजोरी भरने को तैयार है। वह ह्त्या के सारे दाग मिटा सकता है और सारी असहमतियों और विरोधों को कूड़ेदान के हवाले कर सकता है। फिर जनता के पास चारा क्या है?
जाहिर तौर पर वैकल्पिक मीडिया और जनांदोलन। इन तथ्यों और सच्चाइयों को लेकर जनता के पास जाना होगा और इनका एक मजबूत तथा सकारात्मक विकल्प तैयार करना होगा। रास्ता लंबा है, लेकिन चुनावों के नतीजे जो भी हों चलना इसी पर पड़ेगा।
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