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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Saturday, October 11, 2014

लेकिन क्‍या हमें हमारे 'सत्‍य' को कहने का भी अधिकार नहीं है?


थोडी देर पहले एक मित्र की मदद से मुश्किल से इंटरनेट कनेक्‍शन मिल सका है और अफरातफरी के बीच फेसबुक के साथियों को पढ सका हूं। कहने की आवश्‍यकता नही कि इस कठिन समय में साथ आने वालों फेसबुक के साथियों के प्रति अभांरी हूं। उन साथियों के प्रति भी, जो किंचित असहमति के बावजूद साथ आए हैं। वस्‍तुत: यह मूल रूप से अभिव्‍यक्ति की आजादी और निर्बाध बौद्धिक विमर्श के अधिकार का का मामला ही है। अंतिम सत्‍य हमारे ही पास होने का दावा हमने कभी किया भी नहीं। लेकिन क्‍या हमें हमारे 'सत्‍य' को कहने का भी अधिकार नहीं है?

इस समय मेरे पास इंटरनेट की सुविधा के बहुत कम समय के लिए है। इसलिए सिर्फ इतना कहूंगा कि फेसबुक पर कुछ लोगों द्वारा फारवर्ड प्रेस के विरोध में दिये जाने वाले दो तर्क मेरे लिए आश्‍चर्यजनक हैं। विरोध करने वालों को कम से कम अपनी विश्‍वसनीयता बनाए रखने के लिए तथ्‍यों की जांच तो कर ही लेनी चाहिए।

1. कुछ लोगों का आरोप है कि फारवर्ड प्रेस ने दुर्गा के बारे में अश्‍लील लेख/ अश्‍लील चित्र प्रकाशित किये हैं, 'वेश्‍या' कहा है। ऐसा आरोप लगाने वाले लोगों को कम कम इतना तो सोचना चाहिए कि क्‍या फारवर्ड प्रेस कोई गोपनीय पत्र है, जिसकी प्रतियां अनुपलब्‍ध हों? वस्‍तुत: यह अनर्गल आरेाप है। पत्रिका में एेसा कुछ भी नहीं प्रकाशित हुआ है। ( पत्रिका में महिषासुर-दुर्गा से संबंधित लेख व चित्र आगामी फेसबुक स्‍टेटसों में डाल रहा हूं। आप खुद पढे और इन आरोंपों की सच्‍चाई को समझें।)

2. दूसरे आरोप में कुछ लोगों ने यह सवाल उठाया कि फारवर्ड प्रेस चलाने के लिए पैसा कहां से आता है। उनका कहना है कि यह विदेशी फंडिंग है। शायद उन्‍हें लगता है कि फारवर्ड प्रेस कोई एनजीओ है। एेसे लोगों को जानना चाहिए कि फारवर्ड प्रेस को 'अस्‍पायर प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड' चलाता है। यह एक रजिस्‍टर्ड कंपनी है, जो यदि चाहे तब भी किसी भी प्रकार का विदेशी तो क्‍या 'देशी' 'अनुदान' भी नहीं ले सकती। इन लोगों को यह आरोप लगाने से पहले एनजीओ और कंपनी के तकनीकी फर्क को तो जानना चाहिए। उन्‍हें यह भी जानना चाहिए कि फारवर्ड प्रेस भारत के दक्षिण्‍ा टोलों की पत्रिका है। वे शायद यह भी नहीं जानते कि यह हिंदी की कम से कम उन पांच प्रमुख पांच समाचार-पत्रिकाओं में से हैं, जो सर्वाधिक बिकती हैं। इन श्रेण्‍ीा की पत्रिकाओ मे शायद इंडिया टुडे के बाद सबसे अधिक 'वाषिक- त्रैवार्षिक' सदस्‍यों वाली पत्रिका है। यह सबसे अधिक महंगी पत्रिका भी है - सिर्फ 64 पेज की पत्रिका, 25 रूपये की। शुक्रवार, जो हाल ही बंद हुई, फारवर्ड प्रेस से चौगुने महंगे कागज पर 100 पेजों की पूरी तरह कलर पत्रिका थी, सिर्फ 10 रूपये की (अक्‍लमंद को इशारा काफी है)! फारवर्ड प्रेस किंचित घाटे में ही सही लेकिन अपने पाठकों की बदौलत चल रही है। घाटे से उबारने के लिए लगभग एक साल पहले पत्रिका ने अपने तीन चौथाई पेज ब्‍लैक एंड व्‍हाईट कर दिये हैं। यह वह पत्रिका है, जिसके बामसेफ और बसपा जैसे संगठनों की रैलियों में घंटे-दो घंटे में ही कई सौ ग्राहक बनते हैं। अगर इस तरह के आरोप लागने वाले लोग दलित-बहुजन सामाजिक कार्यकर्ताओं की पढने की भूख को जानते तो शायद विज्ञापनों पर निर्भर पत्रकारिता के बीच फारवर्ड् प्रेस के संघर्ष और हमारे पाठकों की प्रतिबद्धता को समझ पाते।

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