मोदी की निगाह में भारत
वी एस नायपॉल ने 1976 में भारत को 'एक घायल सभ्यता' का नाम दिया था जिसकी जाहिर राजनीतिक व आर्थिक नाकामियों की तह में एक गहरा बौद्धिक संकट पैबस्त था। इसके साक्ष्य के तौर पर उन्होंने कुछ विचित्र लक्षणों की ओर इशारा किया था जो 1962 में अपने पूर्वजों के इस देश की पहली यात्रा से लेकर बाद तक ऊंची जाति के मध्यवर्गीय हिंदुओं में उन्होंने पाए। भारतीयों का यह सम्पन्न तबका 'विदेशी' उपभोक्ता सामग्री और पश्चिम की स्वीकृति को लेकर सनक से उतना ही ज्यादा भरा हुआ था जितना कि उसे हर बात में 'विदेशी हाथ' का खुद का गढ़ा एक भय सताता था। नायपॉल ने इसी संदर्भ में निष्कर्ष देते हुए कहा था, 'भारतीयों को बिना विदेशी संदर्भ के अपने यथार्थ का पता ही नहीं लगता है।'
नायपॉल हिंदू पुरुषों की उस अहंम्मन्यता से भी काफी स्तंभित थे जो दावा करती थी कि पश्चिमी विज्ञान के किए आविष्कार और खोजें पहले से ही पवित्र हिंदू ग्रंथों में वर्णित हैं और अपने पुराने ज्ञान से दोबारा ऊर्जित होकर भारत बहुत जल्द ही पश्चिम को पीछे छोड़ देगा। वे खासकर 19वीं सदी के पुनरुत्थानवादी धार्मिक व्यक्तित्वों, जैसे स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रयुक्त 'विनाशकारी
हिंदू शब्दावली' के प्रति काफी सतर्क थे जिन्होंने राष्ट्र निर्माण के लिए क्षत्रिय-मूल्यों का आवाहन किया था और इसी प्रस्थापना के चलते भारत के नए हिंदू राष्ट्रवादी शासकों के बीच वे केन्द्रीय प्रतीक पुरुष बनकर उभरे हैं।
ऊंची जाति की राष्ट्रवादी पहचान की तलाश में अतिसरलीकरणों को अंजाम देने के बावजूद नायपॉल ने बेशक बौद्धिक असुरक्षा, भ्रम और आक्रामकता का एक उपयोगी समीकरण खोज निकाला। यह समीकरण एक बार फिर पहले की तुलना में आज कहीं ज्यादा प्रकट हो रहा है। आज भारतीय राष्ट्रवादियों की नई पीढ़ी आत्मोत्पीड़न और उग्रता के दो छोर के बीच झूल रही है जिसके निहितार्थ बेहद खतरनाक हैं। देश का जैसा उभार (और समानांतर पतन) देखने में आ रहा है, उसी क्रम में पहले से कहीं ज्यादा विस्तारित और पूर्णत: वैश्विक हो चुके हिंदू मध्यवर्ग के कई महत्वाकांक्षी सदस्यों में श्वेत पश्चिमी नागरिकों की ओर से ऊंचे दरजे की मांग के संदर्भ में एक कुंठा महसूस की जा रही है।
भारत के नए प्रधानमंत्री और हिंदू राष्ट्रवादी भारतीय जनता पार्टी के मुख्य वैचारिक अगुवा नरेंद्र मोदी अपने भाषणों में हिंदुओं की उस पुरानी शर्म और आक्रोश का हवाला दे रहे हैं जिसे वे मुस्लिमों और अंग्रेज़ों के शासनकाल में हज़ार से ज्यादा वर्षों की गुलामी का नाम देते हैं। इस माह के आरंभ में जब भारत और पाकिस्तान के बीच पिछले एक दशक का सबसे गंभीर संघर्ष जारी था, तब मोदी ने दावा किया था कि ''दुश्मन'' अब ''चीख'' रहा है।
नायपॉल ने जिस विनाशकारी भारतीय कल्पना की बात की थी, उसे हिंदू राष्ट्रवादियों ने 1992 के बाबरी विध्वंस और 1998 के परमाणु परीक्षण जैसे हादसों से पाला-पोसा है। नब्बे के दशक के आखिर में परमाणु परीक्षणों का जश्न मनाते हुए अपने भाषणों में (जिनमें एक का नाम था ''एक और महाभारत'') राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन मुखिया ने दावा किया था कि हिंदुओं की ''नायकीय और मेधावी नस्ल'' अब तक उपयुक्त हथियारों से वंचित थी लेकिन शैतानी हिंदू विरोधियों के साथ आगामी संघर्षों में यह तय हो चुका है कि जीत हिंदुओं की ही होगी। हिंदू विरोधी नाम की व्यापक श्रेणी में अमेरिकी भी शामिल हैं (जो ''अमानवीयता के वैश्विक उभार'' का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं)।
हाल ही में हारवर्ड से पढ़े एक अर्थशास्त्री सुब्रमण्यम स्वामी ने उन उदार और सेकुलर भारतीय इतिहासकारों व बुद्धिजीवियों की लिखी किताबों को आग के हवाले कर देने की मांग की थी जिन्हें 2000 में आरएसएस प्रमुख ने ''उन हरामज़ादों की जमात बताया था जो अपनी धरती पर बाहरी संस्कृति को थोप देना चाहते हैं।'' सोशल मीडिया में तमाम हिंदू वर्चस्ववादियों द्वारा इन्हें ''सिक्युलर लिबटार्ड्स'' और सिपाहियों की संज्ञा दी गई है (अंग्रेज़ी फौज में भारत के सिपाहियों के लिए प्रयुक्त नाम) जो पश्चिम के ट्रॉयन घोड़े की भूमिका निभाते हैं। मोदी के नज़रिये को साकार करने के लिए, जिसके मुताबिक कभी ''सोने की चिडि़या'' कहा जाने वाला भारत एक बार फिर ''उभरेगा'', इनका संहार ज़रूरी है।
ऐसा लगता है कि मोदी को यह बात नहीं मालूम कि ''सोने की चिडि़या'' के रूप में भारत की प्रतिष्ठा उन सदियों के दौरान हुई जब वह कथित तौर पर मुस्लिमों का गुलाम था। शेल्डन पॉलक से लेकर जोनार्डन गनेरी तक तमाम विद्वानों ने यह प्रदर्शित किया है कि अंग्रेज़ों के आने से पहले यही वह दौर था जब भारतीय दर्शन, साहित्य, संगीत, चित्रकला और वास्तु के क्षेत्रों में भारत ने महानतम उपलब्धियां अर्जित की थीं। नायपॉल ने अर्ध-पश्चिमीकृत उच्च जाति के हिंदुओं में जिन मनोविकारी ज़ख्मों की पहचान की थी, वे वास्तव में पहले यूरोप और फिर अमेरिका के भूराजनैतिक व सांस्कृतिक वर्चस्व के साथ भारतीय अभिजात्यों की शर्मनाक समक्षता से पैदा हुए थे।
ये ज़ख्म इसलिए पैदा हुए और ज्यादा गहरे होते गए क्योंकि न तो नकल से और न ही साझेदारी की अकल से ही पश्चिमी ताकतों की बराबरी की जा सकी (और ज्यादा जलन की बात यह है कि पश्चिम विरोधी चीनी राष्ट्रवाद इसकी तुलना में कहीं ज्यादा स्वायत्त तरीके से विकसित हो चुका है)। पश्चिम को लेकर दमित अभिजात्यों के भीतर दबा हुआ यह असंतोष सामान्यत: सतह के नीचे खदबदाता रहता है और अल कायदा, इस्लामिक स्टेट और तालिबान जैसी ताकतों के प्रति नफ़रत और उन्हें खारिज करने के सहज भावों से भी कहीं ज्यादा ख़तरनाक शक्लें अख्तियार कर सकता है। रूस व जापान के दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद का बौद्धिक इतिहास भी हिंदू राष्ट्रवादियों के जन्मजात प्रतिशोधी प्रवृत्ति की तर्ज पर शैतानी जान पड़ता है: जो पश्चिम की स्वीकृति की चाह से पलटी मारकर मज़हबी और नस्ली प्रभुता के प्रसार तक आता है।
पश्चिम की आधुनिकता का पीछा कर रहे समाजों के इस काम में नाकाम और अधूरे रह जाने के व्यापकतम अहसास को पहली बार सूत्ररूप देने का काम रूसी अभिजात्यों ने किया जो पीटर महान के चलाए पश्चिमीकरण अभियानों की उपज था। प्योत्र चादेव ने 1836 में ''फर्स्ट फिलॉसाफिकल लेटर'' पर बहस चलायी और कहा कि ''हम न तो पश्चिम के हैं और न ही पूरब के, और हम में इन दोनों में से किन्हीं की परंपराएं भी नहीं हैं।'' उनके आत्मदया के इस भाव ने पुश्किन से लेकर गोगोल और तोलस्तोय तक को हिला कर रख दिया और यहीं से अर्ध-पश्चिमीकृत रूसी अभिजात्यों द्वारा पश्चिम के बरक्स अपनी एक देशज पहचान की तलाश की शुरुआत हुई।
1920 के दशक में बोल्शेविक क्रांति के बाद पेरिस और दूसरे पश्चिमी देशों में निर्वासित कर दिए गए रूसी चिंतकों ने रूस को यूरोप और एशिया के बीच अवस्थित करने का प्रयास किया और इसके समर्थन में यूरेशियावाद नाम का एक सिद्धांत गढ़ा। इन अतिराष्ट्रवादियों ने एक पार्टी के शासन और केंद्रीकृत एकाश्म अर्थव्यवस्था का समर्थन करते हुए अखिल रूस में धार्मिक पुनरुत्थान और अखंडता को जगाने का रास्ता चुना ताकि अनैतिक पश्चिम के शैतानी प्रभावों से लड़ा जा सके।
आश्चर्यजनक बात यह रही कि इनकी इस भव्य बौद्धिक अहंम्मन्यता को शीत युद्ध के अंत तक लोकप्रियता व इज्जत हासिल होती रही जबकि पश्चिम के विजेताओं के हाथों रूस को ठगा जा चुका था। आज क्रीमिया को अपने में मिलाने के क्रम में घरेलू आलोचकों का मुंह बंद करवाते हुए राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन धार्मिक सिद्धांतकार निकोलाई बर्देयेव को उद्धृत कर रहे हैं जिन्होंने ''दि रशियन आइडिया'' नाम की किताब लिखी थी। दूसरी ओर मीडिया और रूढि़पंथी चर्च में बैठे उनके गुर्गे इस षडयंत्रकारी सिद्धांत का प्रचार करने में जुटे हैं जो कहता है कि पश्चिमी ताकतें आज अपने एनजीओ, पत्रकारों, समलैंगिकों और पूसी रायट के माध्यम से रूस को शर्मसार करने पर आमादा हैं।
ऐसी विचारधारात्मक मदहोशी के खतरे 20वीं सदी के आरंभ में हम जापान के निर्बाध साम्राज्यवाद विरोध में देख चुके हैं। जापान आंशिक तौर पर पश्चिमी साम्राज्यवादियों की मदद से जैसे-जैसे मजबूत होता गया और एशिया में उनकी मौजूदगी के खिलाफ खड़ा होने लगा, अपने ही जाल में फंसाकर पश्चिम को मात देने की उसकी सनक रशियन आइडिया के पैरोकारों की ही तरह बलवती होती गई। कई जापानी चिंतक पश्चिम के बरक्स जापानी पहचान को परिभाषित करने की सनक में घरेलू समाज पर कठोर राजकीय नियंत्रण के समर्थक होते गए।
इसी क्रम में कोकुताई नाम की अवधारणा जापानी होने का पर्याय बनती गई, जिसका मोटे तौर पर आशय वह ''राष्ट्रीय राजनीति है जो सम्राट के पास केंद्रित हो''। क्योटो स्कूल के दार्शनिकों जैसे निशिदा कितारो और वात्सुजी ततेत्सुरो ने अपने महत्वाकांक्षी प्रयासों से अंतर्ज्ञान के माध्यम से जापानी ज्ञानबोध की पद्धति को पश्चिम की तार्किक विचार प्रणाली के मुकाबले अलहदा और सर्वोच्च स्थापित करने की कोशिश की। इसी गर्वोन्मत्त देशजता ने 1930 के दशक में चीन पर जापान के बर्बर हमले और फिर 1941 में उसके सर्वाधिक अहम व्यापारिक सहयोगी पर किए गए अचानक हमले को बौद्धिक स्वीकृति प्रदान की।
आज पूंजीवाद के गंभीर संकट की पृष्ठभूमि में प्रधानमंत्री पुतिन की तरह प्रधानमंत्री शिंजो एबे एक बेशर्म राष्ट्रवाद की पैरोकारी में जुटे हैं। देश के शांतिपूर्ण संविधान को आंशिक रूप से संशोधित करने और अतीत में जंग से जुड़ी बर्बरताओं के लिए जताए गए खेद से खुद को अलग कर के ''जापान को वापस लाने'' के अपने संकल्प को दुहराते हुए एबे ने चीन के साथ अपने तनाव को दोबारा जिंदा कर दिया है।
1920 के दशक की तर्ज का यही प्रतिगामी राष्ट्रवादी रूढि़वाद जो आज भारत में बड़े पैमाने पर वापसी कर रहा है, खासकर पिछले साल से, जब एबे के करीबी सहयोगी मोदी ने अपने ऊपर लगे तमाम आपराधिक धब्बों को दरकिनार करते हुए सर्वोच्च सत्ता के लिए दांव खेलना शुरू किया था। दिलचस्प बात यह है कि वे आरएसएस के हाफ पैंटी भगवाधारी स्वयंसेवक नहीं बल्कि कॉरपोरेट मालिकाने वाले मीडिया व रहस्यमय फंडिंग से चलने वाले थिंकटैंक, पत्रिकाएं व वेबसाइटों में बैठे अर्ध-पश्चिमीकृत भारतीय हैं जिन्होंने मोदी को इस सम्मानजनक स्तर पर पहुंचाने में अनुकूल माहौल बनाया है।
हाल में भारत की आर्थिक खस्ताहाली और अंतरराष्ट्रीय समुदाय में घटी साख ने इन उभरते भारतीयों के अधिकार-बोध को चोट पहुंचायी है जिससे भड़क कर वे ''नस्ली'' व ''प्राच्यवादी'' पश्चिमकारों और भारतीय लिबटार्ड और सिपाहियों जैसे सस्ते जुमलों पर उतर आए हैं। इनके नकली देशज भाव का मुज़ाहिरा ''दि न्यू क्लैश ऑफ सिविलाइजेशंस'' नाम की एक नई किताब में देखने को मिल सकता है जो दुनिया भर में भारत के नए प्रभुत्व का जश्न मनाती है। इसके लेखक हैं मिन्हाज़ मर्चेंट, जो कभी लाइफस्टाइल पत्रिका जेंटलमैन के अंग्रेजीदां संपादक रह चुके हैं जो अब बंद हो चुकी है और आजकल प्रधानमंत्री के स्वयंभू प्रचारक बने हुए हैं। सलमान रश्दी ऐसे लोगों को ''मोदी टोडी'' का नाम देते हैं। ऐसे लोगों के कभी पश्चिम की पूंछ हुआ करती थी। इन्हीं में एक हारवर्ड के एक पुराने अर्थशास्त्री (सुब्रमण्यम स्वामी) भी हैं जो आजकल किताबें जलाने की बात कर रहे हैं।
कुछ औश्र हैं जिनके पीछे अब भी वह पूंछ चिपकी हुई है, जैसे राजीव मल्होत्रा नाम के रईस कारोबारी, जिनकी प्रशंसा मोदी ने ''हमारी राजसी विरासत को प्रतिष्ठित करने के लिए'' की थी। न्यूजर्सी के बाहरी इलाके में स्थित अपने ठिकाने से मल्होत्रा निरंतर अपना ज्ञान प्रसारित करते रहते हैं कि अमेरिकी और यूरोपीय चर्च, आइवी लीग के अकादमिक, थिंक टैंक, एनजीओ और मानवाधिकार समूह दलितों और सिपाही बौद्धिकों के साथ मिलकर भारत माता को तोड़ने की साजिशें रच रहे हैं।
मल्होत्रा यह दावा भी करते हैं कि भारत का अंतर्दृष्टि आधारित ज्ञानबोध पश्चिम की तर्क प्रणाली के मुकाबले न सिर्फ अलहदा है बल्कि उससे सर्वोच्च भी है। मल्होत्रा ने रशियन आइडिया और कोकुताइ का अपना एक संस्करण तैयार किया है जिसमें भारतीय दर्शन की ''अखंड एकता'' को लेकर कुछ बकवास है, एक ऐसी अवधारणा जो निहायत अलहदा हिंदू और बौद्ध परंपराओं को मिलाती है। इसके अलावा मल्होत्रा अमेरिका में कुछ कार्यशालाएं भी चलाते हैं जिनका उद्देश्य थोक में ''बौद्धिक क्षत्रिय'' पैदा करना है।
धार्मिक और नस्ली प्रतिशोध तथा विमोचन की यह फंतासी जो पश्चिम की परिधि और भारत के अभिजात्य कोनों में पल रही है, वह बड़े पैमाने पर आध्यात्मिक तबाही व गहराते बौद्धिक दिवालियापन का पता देती है। यहां तक कि नायपॉल भी संक्षिप्त रूप से इस नकलची नायकत्व का शिकार बन चुके हैं (जिन्हें बाद में मुस्लिम देशों में उग्र राष्ट्रवादी के रूप में पहचाना गया)। उन्होंने 1992 में हिंदुओं की भीड़ द्वारा बाबरी मस्जिद ढहाए जाने को सही ठहराया था जिसके बाद बड़े पैमाने पर मुसलमानों का कत्ल किया गया और उन्होंने इस घटना को लंबे समय से लंबित राष्ट्रीय ''जागरण'' का संकेत माना था।
आज पश्चिम में ऐसे तमाम प्रवासी भारतीय हैं जो अपने प्रवास में इतिहास के इस हिंसक प्रहसन के प्रतिनिधि बने हुए हैं: पिछले महीने न्यूयॉर्क के मैडिसन स्कवायर गार्डेन में 19000 से ज्यादा लोगों ने मोदी द्वारा भारत की हज़ार साल की गुलामी को खत्म किए जाने के भाषण का स्वागत किया। यह और बात है कि अपनी जड़ों से उखड़े सैकड़ों हज़ारों भारतीय आज जन-उत्तेजना पर टिकी इस लोकप्रिय सत्ता के खुले शिकार बने हुए हैं। इसी महीने एक अभूतपूर्व सार्वजनिक घटना में आरएसएस के मौजूदा मुखिया दूरदर्शन पर अवतरित हुए और उन्होंने मुस्लिम घुसपैठियों के खिलाफ व चीनी माल के बहिष्कार के समर्थन में आवाहन किया। ये वही शख्स हैं जो चाहते हैं कि भारत के सभी नागरिकों की पहचान ''हिंदू'' हो क्योंकि भारत एक ''हिंदू राष्ट्र'' है।
बाहरी चीज़ के प्रति ऐसे भय को अब मोदी के भारत में आधिकारिक स्वीकृति मिल चुकी है और ऐसा लगता है कि यह भाव आरएसएस के पूर्व मुखिया द्वारा सभी हिंदू विरोधी शैतानों के खिलाफ एक और महाभारत की सदिच्छा से कुछ ही कम खतरनाक और धमकी भरा है। पिछली सदी में चीन और प्रशांत क्षेत्र में जापान की विस्तारवादी साजिशें व हाल ही में उक्रेन में रूस का हमलावर रवैया यह दिखाता है कि राष्ट्रवादी पहचान का कोई भी मुहावरा मुख्यधारा में आने पर तेजी से एक जंग की शक्ल ले सकता है। सुपरपावर बनने की चाह रखने वाले देशों के सत्ताधारी तबकों ने बेशक एक जटिल स्थिति पैदा कर दी है: साम्राज्यवाद-विरोधी साम्राज्यवाद की विचारधारा आधुनिक राज्य, मीडिया व नाभिकीय प्रौद्योगिकी के साथ मिलकर एक ऐसी धुरी बना रही है जो इस्लामिक कट्टरपंथियों को अप्रभावी बना सकती है। सिर्फ यही उम्मीद की जा सकती है कि भारत की लोकतांत्रिक संस्थाएं इतनी ताकतवर बनी रहें कि वे इस देश के ज़ख्मी अभिजात्यों को भूराजनीतिक व सैन्य उद्यम में कूद पड़ने से रोक सकें।
(समकालीन तीसरी दुनिया के नए अंक में प्रकाशित, मूल लेख न्यूयॉर्क टाइम्स से साभार, अनुवाद अभिषेक श्रीवास्तव )
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