मांझी, मीडिया और बिहार की सियासत
यह भी ख़बर आई कि उनकी जगह दलित समुदाय से आने वाले किसी अन्य 'ज़्यादा संतुलित और समझदार' नेता की तलाश शुरू हो गई है.
यह भी क़यास लगाए जा रहे हैं कि मांझी को किनारे कर स्वयं नीतीश कुमार फिर से सत्ता संभाल सकते हैं.
पढ़ें, उर्मिलेश का लेख विस्तार से
जनता दल (यू) के कुछ नेताओं-विधायकों ने खुलेआम कहना शुरू कर दिया कि अगले वर्ष होने वाले विधानसभा चुनाव की बड़ी चुनौती के मद्देनज़र नीतीश कुमार को स्वयं मुख्यमंत्री पद पर लौट आना चाहिए. वर्तमान मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के बूते चुनाव जीतना मुश्किल होगा.
यह भी कहा गया कि नवंबर के आखिरी सप्ताह में जनता दल (यू) नेतृत्व मांझी के बनाए रखने या हटाए जाने के सवाल पर सारी अनिश्चितता ख़त्म कर देगा. लेकिन इन पंक्तियों के लिखे जाने तक ऐसा कुछ नहीं हुआ और न होता दिख रहा है.
मांझी को लेकर उनकी पार्टी और वरिष्ठ नेता विचार-मंथन के जिस मंझधार में फंसे हैं, उसे समझने के लिए यह जानना ज़रूरी है कि मुख्यमंत्री के रूप में उनका चयन विधायक दल ने नहीं, पार्टी के शीर्ष नेता नीतीश कुमार ने किया था.
ज़िम्मेदारी का सवाल
लोकसभा चुनाव में मिली शिकस्त के बाद उन्हें सत्ता-शीर्ष पर बने रहना अनैतिक लगा. हार की ज़िम्मेदारी लेते हुए उन्होंने मुख्यमंत्री पद छोड़ा और विधायक दल द्वारा पूरी तरह अधिकृत किए जाने के बाद मांझी के रूप में अपने उत्तराधिकारी का चयन किया.
ऐसा दो कारणों से हुआ. पहला कारण था-मांझी का महादलित समुदाय से आया प्रमुख नेता होना. वह मुसहर समुदाय से आते हैं, जो बिहार का बेहद ग़रीब और उत्पीड़ित समुदाय रहा है. संख्या के हिसाब से वह महादलित समाज का बड़ा हिस्सा है.
दूसरा कारण था-नीतीश की नज़र में उनका भरोसेमंद होना और राजनीतिक तौर पर अति-महत्वाकांक्षी न होना.
लोकसभा चुनाव की हार के बाद जनता दल (यू) नेताओं ने महसूस किया कि भाजपा को सिर्फ सवर्ण वोटों के ध्रुवीकरण का फ़ायदा ही नहीं मिला, पिछड़ों और महादलितों के वोट में भी उसने सेंध लगाई.
वोट का सवाल
आख़िर महादलित समुदाय के लिए नीतीश सरकार द्वारा किए गए सारे काम कहां गए? समुदाय के लोगों ने समर्थन में कोताही और कटौती क्यों की?
बताया जाता है कि ऐसे सवालों पर विचार के क्रम में नीतीश-शरद की टीम ने महसूस किया कि भविष्य में अगर महादलितों में भाजपा की सेंधमारी रोकनी है तो नीतीश के उत्तराधिकारी के तौर पर किसी महादलित समुदाय के मान्य नेता को ही चुनना होगा.
ऐसे नेताओं पर नज़र दौड़ाई गई तो विधानसभा अध्यक्ष उदय नारायण चौधरी के अलावा सिर्फ जीतन राम मांझी का नाम ही उभरकर सामने आया.
जनतादलीय-राजनीति में दाखिल होने से पहले मांझी कांग्रेसी थे. डॉ. जगन्नाथ मिश्र की सरकार में वह राज्यमंत्री भी रहे. मध्य बिहार में उनकी छवि एक सीधे-सादे गैर-विवादास्पद राजनेता की रही.
बाद में वह लालू प्रसाद के साथ गए और राजद सरकार मे मंत्री रहे. फिर वह नीतीश के साथ हो लिए और उनकी सरकार में मंत्री बने.
भाजपा का साथ
मांझी के लगभग छह महीने के कार्यकाल को देखें तो अपने दामाद को मुख्यमंत्री कार्यालय में पदस्थापित कराने के अलावा उन्होंने ऐसा कोई काम नहीं किया, जिसे गरिमाहीन या अनैतिक कहा जा सके.
दामाद के मामले में उन्होंने फ़ौरन कार्रवाई की और उन्हें पदमुक्त कर दिया गया. उन्होंने अपनी ग़लती भी मानी, लेकिन बिहार के एक ख़ास तबक़े में अब भी मांझी की वैसी स्वीकार्यता नहीं है, जैसी एक समय नीतीश की थी.
लोकसभा चुनाव के दौरान यह बात साफ़ हो गई कि बिहार के उस तबक़े का बड़ा हिस्सा अब भाजपा के साथ चला गया है.
नीतीश निजी तौर पर सत्ता-शीर्ष पर होते तो भी उस तबक़े के बड़े हिस्से का समर्थन उन्हें नहीं मिलता.
राजनीतिक असलियत
जनता दल (यू) के शीर्ष नेता इस असलियत से वाक़िफ़ हैं. यही कारण है कि समाज के एक हिस्से में मांझी के कथित अलोकप्रिय होते जाने की कहानियों को फिलहाल वे ज्यादा तवज्जो नहीं दे रहे हैं.
उन्हें मालूम है कि मांझी के हटाए जाने से महादलितों में गहरी निराशा होगी और उसका सीधा फ़ायदा भाजपा को मिलेगा.
भाजपा और आरएसएस पहले से ही महादलितों के बीच सक्रिय हैं. लेकिन इस समुदाय में आज भी राजद-जद (यू) की स्थिति मजबूत है. कांग्रेस और वामपंथी दल भी कुछेक क्षेत्रों में असर रखते हैं.
फिर यह सवाल उठना लाजिमी है कि जनता दल (यू) के कथित राजनीतिक नुकसान का हवाला देते हुए मीडिया, ख़ासकर बिहार के मीडिया में मांझी पर आए दिन दनादन 'गोलाबारी' क्यों हो रही है?
मीडिया का रवैया
मांझी के बयानों को कई बार तोड़मरोड़ कर पेश किया गया. उनकी खूब खिल्ली उड़ाई गई.
इस बारे में बिहार के एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट के निदेशक और समाजशास्त्री प्रो. डीएम दिवाकर कहते हैं, "बिहार के मीडिया में जाति-समुदाय के आग्रह-पूर्वाग्रह पहले से हैं. मांझी को जिस तरह मीडिया के एक हिस्से में हास्यास्पद, नासमझ या अपढ़ की तरह पेश किया जा रहा है, वह दलित समाज के प्रति पूर्वाग्रह की अभिव्यक्ति है."
यह भी कम आश्चर्यजनक नहीं कि बीते कुछ महीनों में मांझी सरकार ने गरीबों-दलितों के बीच भूमि-वितरण, खासकर बासगीत जमीन के बंदोबस्त की जो शुरुआत की है, उसे मुख्यधारा की मीडिया में शायद ही कभी तवज्जो दी गई.
हां, शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में मांझी ने अब तक कोई बड़ी पहल नहीं की है, जो बेहद ज़रूरी क्षेत्र हैं.
उम्मीदें और प्रदर्शन
लेकिन कुछ विपक्षी दल और मुख्यधारा की मीडिया द्वारा की जा रही मांझी की आलोचना ऐसे मुद्दों पर केंद्रित नहीं है. वे विकास के निजी क्षेत्र व मध्यवर्गीय एजेंडे को ज़्यादा तवज़्जो देते हैं.
यह बात सही है कि मांझी राजनैतिक रूप से अनगढ़ और प्रशासनिक स्तर पर नौसिखुए हैं.
प्रशासन पर उनकी पकड़ भी ढीली है. 'विज़न' की भी कमी हो सकती है. पर उनके इरादों पर फिलहाल शक नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि अभी तक उन्होंने ऐसा कोई काम नहीं किया, जो राज्य को क्षति पहुंचाने वाला हो.
छह महीने में वे बिहार को बदलकर रख दें, ऐसी उम्मीद करना उनके साथ नाइंसाफ़ी होगी.
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http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2014/11/141129_bihar_politics_dynamics_rns
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