Posted by Reyaz-ul-haque on 10/19/2015 04:38:00 PM
शिवप्रसाद जोशी की आवाज में दुख है, पीड़ा है, दर्द है. लेकिन सबसे बढ़ कर फासीवाद के प्रतिरोध में सम्मान लौटा रहे लेखकों के साथ मजबूती से खड़े रहने की जिद है.
सुनियोजित हिंसा और हमले का ये पैटर्न बन गया है. इसके लिए किसी भविष्यकथन की थपथपी से रोमांचित होने की ज़रूरत भी नहीं. लोग मारे जाते रहेंगे. एक दर्दनाक मायूसी छा गई है. कौमें उदास हैं. और बद्दुआएं किन्हीं कोनों से उठने लगी हैं. नाइंसाफ़ी के प्रतिकार की गूंजे वही नहीं जो सिर्फ़ सुनाई दी जाती रहें. कुल विपदा एक साथ नहीं गिरेगी.
जातीय, धार्मिक और अभिव्यक्ति की आज़ादी पर तो हमले नए नहीं है, वे तो मंटो से बदस्तूर जारी हैं.
हमारे और बहुत सारे युवाओं, नवागुंतकों के इन अति प्रिय कवियों लेखकों की पंक्तियां हम कोट करते हैं और आगे बढ़ाते हैं और बाज़दफ़ा हमला करने वालों की आंखों में टॉर्च की रोशनी की तरह रखने का साहस कर देते हैं. इधर जो स्टैंड या जो निष्क्रिय सा या उदासीन सा रवैया इनमें से कुछ सम्मानीय लेखकों ने दिखाया है, ये हिंदी की युवतर और नई पीढ़ी को चौंकाता है और स्तब्ध करता है. हो सकता है अन्य भाषाओं में भी ऐसा ही सोचा जा रहा हो.
लेकिन सज्जनो, पुरस्कार लौटाने वाले 'थके हुए लोग' नहीं हैं. वे प्रतिरोध के ताप से भरे हुए साहसी लोग हैं. ये कोई तात्कालिक नायकत्व थोड़े ही है. ये कोई बॉलीवुड की मसाला फ़िल्म नहीं चल रही हैं. ये कोई अस्थायी संवेग नहीं है, ये वृथा भावुकता और इसके वशीभूत कोई शहादत नहीं है.
ये क्षणभंगुरता नहीं है. क्या आप ऐसा ही मानते हैं?
आज इतिहास पलटकर एक मांग कर रहा था. कुछ लोग कंबल ओढ़कर करवट ले बैठे हैं और सो गए हैं. साहित्य अकादमी को छोड़ दीजिए. आज जो ये लेखकीय संताप अपनी रचनाओं से निकलकर एक निर्णय की तरह प्रकट हो चुका है और फैल रहा है, क्या ये कोई बीमारी है या संक्रमण?
आप किन वक़्तों का इंतज़ार करेंगे? क्या हो जाएगा जब आप कहेंगे- हां, ये हद है? क्या सारी हदें चूर-चूर होने के लिए आपको किसी भारी शक्तिशाली विस्फोट की आवाज़ चाहिए या उससे होने वाली बरबादी?
आप सलीब की तरह इसे क्यों ढोएंगे? ईसा पर सलीब उनकी इच्छा से नहीं लादी गई. उन पर थोपी गई. क्या आप कहना चाह रहे हैं कि ये आप पर थोपा गया है? और आपकी तो सलीब हुई आपको चुभती हुई और हर रोज़ दबाती हुई। और वे जो बाक़ायदा पीट पीट कर मार डाले जा रहे हैं, वे?
क्या उनकी तक़लीफ़ की कोई कील होगी जो सीधे आत्मा में आपके जा चुभ जाए और आप कराह उठें? ग्लानि की और कुछ न कर पाने की छटपटाहट की और अपराधबोध की सलीब ढोने के बजाय क्यों न सामूहिकता की एक जवाबदेही आप भी अपने ऊपर ले लें? आप इसे अपनी वैचारिकता और यातना का एकांत कैसे बना सकते हैं? इन वक़्तों में. आप छिटके हुए क्यों हो सकते हैं?
सलीब को ढोने के मुहावरे में क्यों जा रहे हैं? वो तो आप दैनंदिन व्यथाओं, वेदनाओं, हिंसाओं और संघर्षों के हवाले से ढो ही रहे हैं. ये पुरस्कार कैसे उस अत्यन्त यातना में शुमार हो गया है जो आपके लेखकीय जीवन की धुरी थी?
आपने सलीब ढोने के लिए जन्म नहीं लिया था. आपका मक़सद कविता करना ही था. आप उस पीड़ित और व्याकुल समाज की परवाह करते थे और इसलिए आपने लिखा. फिर सलीब क्योंकर आ गई?
और भाड़ फोड़ना किसे कहते हैं? क्यों प्रिय कवि मुहावरों में जा रहे हैं? क्यों वो एक तरह की ग्रंथि के हवाले से कह रहे है कि उनका कहा ही सही है और सिद्ध है? प्रतिरोध को इतना कमतर और इतना संदेहास्पद क्यों बनाया जा रहा है?
आज जब कन्नड़, पंजाबी, कोंकणी, मराठी जैसी भाषाओं में हम एकजुटता देख रहे हैं तो इधर हिंदी के खेमे- कुंजे क्यों बिखरे हुए हैं? उसके शामियानों पर अलग अलग पताकाएं क्यों लहरा रही है? जैसे ब्रिटिश राज और उसके पूर्व भारत का कोई दृश्य हो. ये एक तंबू क्यों नहीं है, कोई एक कैंप? इन कैंपों पर ये घुसपैठ किसकी है?
कोई हैरानी नहीं कि जो विचार आपके हैं और जो धारणाएं आप ज़ाहिर कर रहे हैं वे कमोबेश इस देश के श्रीमंत भी कर रहे हैं, वही मीडिया के अधिकांश हिस्से के मूढ़मति भी कर रहे हैं. और लेखकों में तो दो फाड़ बता ही दिया गया है. देखिए चेतन भगत कहने वाले हो गए हैं. तो आज चेतन भगत जैसे तत्व भी ज्ञान दे रहे हैं और पीएम निंदा से हमेशा व्याकुल नज़र आते अनुपम खेर जैसे लोग भी. वे लेखकों से ही उनका हिसाब पूछ रहे हैं. एक विवादास्पद और वाद विवाद के लंदन माहिर, शशि थरूर तक कहने से बाज़ न आए. आप लेखक हैं तो लेखक ही रहिए, ख़बरदार, राजनीति पर मत बोलिए. और इस राजनीति पर जो इधर दिल्ली से लेकर भारत भूमि के कस्बों शहरों तक एक भयावह अट्टाहस में कह रही हैं, मुझे मानो मुझे मानो, उस पर कोई कुछ न बोले. सब शरणागत हो जाएं. क्या यही हासिल है?
न जाने क्यों भटके हुए से दिख रहे माननीयो, इस समय हम सही हैं. अहंकार नहीं, आत्मबल है. चतुराई नहीं साहस है. स्वार्थ नहीं विवेक है. हमारा विवेक हमारी अंतरात्मा के साथ पूरे समन्वय में है. ये एक स्थायी दृढ़ता है. प्लीज़ आप इस दृढ़ता में लौट आएं. ये लौट आना भविष्य में दाख़िल होना होगा. भविष्य का निर्माण दृढ़ता ही करती आई है. ये झपटना और ऐंठना नहीं.
अगली रचना आख़िर आप किस हवाले से करेंगे, कौन सा मर्म होगा जो आपकी मुंदी हुई आंखों के सामने थरथरा उठेगा? मुक्तिबोध होते तो हमारी ओर से बेशक कहते पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है. ये क्लिशे नहीं हो जाता जैसा क्लिशे "अंधेरे में" नाम की कुल महान रचना का बना दिया गया है और सब उस पर मानो "तृप्त" होकर बोलते न रहते. "अंधेरे में" को कोल्ड ड्रिंक की तरह या किसी भी अन्य ड्रिंक की तरह पीना बंद कीजिए.
हम क्या कहें. हम सब लोग हुसेन के गुनहगार हैं. उनकी जन्मशती है. क्या ग्लानिबोध इतनी अस्थायी सी भटकन होती है कि जल्द ही बिला जाती है? क्या भारतीय परंपरा के उस्ताद हुसेन के सम्मान में ही ऐसा नहीं हो सकता कि लोग उस ड्योढ़ी पर आ पहुंचें. जहां उस महान कलाकार ने अपनी उदासी और अवसाद में एक छतरी रख छोड़ी है जस की तस?
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शिवप्रसाद जोशी की आवाज में दुख है, पीड़ा है, दर्द है. लेकिन सबसे बढ़ कर फासीवाद के प्रतिरोध में सम्मान लौटा रहे लेखकों के साथ मजबूती से खड़े रहने की जिद है.
सुनियोजित हिंसा और हमले का ये पैटर्न बन गया है. इसके लिए किसी भविष्यकथन की थपथपी से रोमांचित होने की ज़रूरत भी नहीं. लोग मारे जाते रहेंगे. एक दर्दनाक मायूसी छा गई है. कौमें उदास हैं. और बद्दुआएं किन्हीं कोनों से उठने लगी हैं. नाइंसाफ़ी के प्रतिकार की गूंजे वही नहीं जो सिर्फ़ सुनाई दी जाती रहें. कुल विपदा एक साथ नहीं गिरेगी.
जातीय, धार्मिक और अभिव्यक्ति की आज़ादी पर तो हमले नए नहीं है, वे तो मंटो से बदस्तूर जारी हैं.
हमारे और बहुत सारे युवाओं, नवागुंतकों के इन अति प्रिय कवियों लेखकों की पंक्तियां हम कोट करते हैं और आगे बढ़ाते हैं और बाज़दफ़ा हमला करने वालों की आंखों में टॉर्च की रोशनी की तरह रखने का साहस कर देते हैं. इधर जो स्टैंड या जो निष्क्रिय सा या उदासीन सा रवैया इनमें से कुछ सम्मानीय लेखकों ने दिखाया है, ये हिंदी की युवतर और नई पीढ़ी को चौंकाता है और स्तब्ध करता है. हो सकता है अन्य भाषाओं में भी ऐसा ही सोचा जा रहा हो.
लेकिन सज्जनो, पुरस्कार लौटाने वाले 'थके हुए लोग' नहीं हैं. वे प्रतिरोध के ताप से भरे हुए साहसी लोग हैं. ये कोई तात्कालिक नायकत्व थोड़े ही है. ये कोई बॉलीवुड की मसाला फ़िल्म नहीं चल रही हैं. ये कोई अस्थायी संवेग नहीं है, ये वृथा भावुकता और इसके वशीभूत कोई शहादत नहीं है.
ये क्षणभंगुरता नहीं है. क्या आप ऐसा ही मानते हैं?
आज इतिहास पलटकर एक मांग कर रहा था. कुछ लोग कंबल ओढ़कर करवट ले बैठे हैं और सो गए हैं. साहित्य अकादमी को छोड़ दीजिए. आज जो ये लेखकीय संताप अपनी रचनाओं से निकलकर एक निर्णय की तरह प्रकट हो चुका है और फैल रहा है, क्या ये कोई बीमारी है या संक्रमण?
आप किन वक़्तों का इंतज़ार करेंगे? क्या हो जाएगा जब आप कहेंगे- हां, ये हद है? क्या सारी हदें चूर-चूर होने के लिए आपको किसी भारी शक्तिशाली विस्फोट की आवाज़ चाहिए या उससे होने वाली बरबादी?
आप सलीब की तरह इसे क्यों ढोएंगे? ईसा पर सलीब उनकी इच्छा से नहीं लादी गई. उन पर थोपी गई. क्या आप कहना चाह रहे हैं कि ये आप पर थोपा गया है? और आपकी तो सलीब हुई आपको चुभती हुई और हर रोज़ दबाती हुई। और वे जो बाक़ायदा पीट पीट कर मार डाले जा रहे हैं, वे?
क्या उनकी तक़लीफ़ की कोई कील होगी जो सीधे आत्मा में आपके जा चुभ जाए और आप कराह उठें? ग्लानि की और कुछ न कर पाने की छटपटाहट की और अपराधबोध की सलीब ढोने के बजाय क्यों न सामूहिकता की एक जवाबदेही आप भी अपने ऊपर ले लें? आप इसे अपनी वैचारिकता और यातना का एकांत कैसे बना सकते हैं? इन वक़्तों में. आप छिटके हुए क्यों हो सकते हैं?
सलीब को ढोने के मुहावरे में क्यों जा रहे हैं? वो तो आप दैनंदिन व्यथाओं, वेदनाओं, हिंसाओं और संघर्षों के हवाले से ढो ही रहे हैं. ये पुरस्कार कैसे उस अत्यन्त यातना में शुमार हो गया है जो आपके लेखकीय जीवन की धुरी थी?
आपने सलीब ढोने के लिए जन्म नहीं लिया था. आपका मक़सद कविता करना ही था. आप उस पीड़ित और व्याकुल समाज की परवाह करते थे और इसलिए आपने लिखा. फिर सलीब क्योंकर आ गई?
और भाड़ फोड़ना किसे कहते हैं? क्यों प्रिय कवि मुहावरों में जा रहे हैं? क्यों वो एक तरह की ग्रंथि के हवाले से कह रहे है कि उनका कहा ही सही है और सिद्ध है? प्रतिरोध को इतना कमतर और इतना संदेहास्पद क्यों बनाया जा रहा है?
आज जब कन्नड़, पंजाबी, कोंकणी, मराठी जैसी भाषाओं में हम एकजुटता देख रहे हैं तो इधर हिंदी के खेमे- कुंजे क्यों बिखरे हुए हैं? उसके शामियानों पर अलग अलग पताकाएं क्यों लहरा रही है? जैसे ब्रिटिश राज और उसके पूर्व भारत का कोई दृश्य हो. ये एक तंबू क्यों नहीं है, कोई एक कैंप? इन कैंपों पर ये घुसपैठ किसकी है?
कोई हैरानी नहीं कि जो विचार आपके हैं और जो धारणाएं आप ज़ाहिर कर रहे हैं वे कमोबेश इस देश के श्रीमंत भी कर रहे हैं, वही मीडिया के अधिकांश हिस्से के मूढ़मति भी कर रहे हैं. और लेखकों में तो दो फाड़ बता ही दिया गया है. देखिए चेतन भगत कहने वाले हो गए हैं. तो आज चेतन भगत जैसे तत्व भी ज्ञान दे रहे हैं और पीएम निंदा से हमेशा व्याकुल नज़र आते अनुपम खेर जैसे लोग भी. वे लेखकों से ही उनका हिसाब पूछ रहे हैं. एक विवादास्पद और वाद विवाद के लंदन माहिर, शशि थरूर तक कहने से बाज़ न आए. आप लेखक हैं तो लेखक ही रहिए, ख़बरदार, राजनीति पर मत बोलिए. और इस राजनीति पर जो इधर दिल्ली से लेकर भारत भूमि के कस्बों शहरों तक एक भयावह अट्टाहस में कह रही हैं, मुझे मानो मुझे मानो, उस पर कोई कुछ न बोले. सब शरणागत हो जाएं. क्या यही हासिल है?
न जाने क्यों भटके हुए से दिख रहे माननीयो, इस समय हम सही हैं. अहंकार नहीं, आत्मबल है. चतुराई नहीं साहस है. स्वार्थ नहीं विवेक है. हमारा विवेक हमारी अंतरात्मा के साथ पूरे समन्वय में है. ये एक स्थायी दृढ़ता है. प्लीज़ आप इस दृढ़ता में लौट आएं. ये लौट आना भविष्य में दाख़िल होना होगा. भविष्य का निर्माण दृढ़ता ही करती आई है. ये झपटना और ऐंठना नहीं.
अगली रचना आख़िर आप किस हवाले से करेंगे, कौन सा मर्म होगा जो आपकी मुंदी हुई आंखों के सामने थरथरा उठेगा? मुक्तिबोध होते तो हमारी ओर से बेशक कहते पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है. ये क्लिशे नहीं हो जाता जैसा क्लिशे "अंधेरे में" नाम की कुल महान रचना का बना दिया गया है और सब उस पर मानो "तृप्त" होकर बोलते न रहते. "अंधेरे में" को कोल्ड ड्रिंक की तरह या किसी भी अन्य ड्रिंक की तरह पीना बंद कीजिए.
हम क्या कहें. हम सब लोग हुसेन के गुनहगार हैं. उनकी जन्मशती है. क्या ग्लानिबोध इतनी अस्थायी सी भटकन होती है कि जल्द ही बिला जाती है? क्या भारतीय परंपरा के उस्ताद हुसेन के सम्मान में ही ऐसा नहीं हो सकता कि लोग उस ड्योढ़ी पर आ पहुंचें. जहां उस महान कलाकार ने अपनी उदासी और अवसाद में एक छतरी रख छोड़ी है जस की तस?
We,the apolitcal activists of creativity from 150 nations stand United Rock solid to sustain Humanity and nature!
दुनियाभर के लेखकों,कलाकारों,कवियों को मेहनतकश जनता का लाल सलाम।
बहुजन समाज का नील सलाम!
বাংলার সুশীল সমাজ 1857 সালে মহাবিদ্রোহে সুশীল বালক ছিল!
তাঁরা চুয়াড় বিদ্রোহ,সন্যাসী বিদ্রোহ,নীল বিদ্রোহ,সাঁওতাল মুন্ডা ভীল বিদ্রোহের সমর্থনে দাঁড়াননি!তাঁরা চিরকালই শাসক শ্রেণীর অন্তর্ভুক্ত!
আজও তাঁরা নিরুত্তাপ!প্রতিবাদ করবেন কিন্তু সম্মান পুরস্কার ফেরত নৈব নৈব চ!শুধু এই শারদে মন্দাক্রান্তা বাংলার মুখ!ভালোবাসার মুখ!
সারা বিশ্বের শিল্প সাহিত্য সংস্কৃতির দায়বদ্ধতার মুখ!ভালোবাসা!
हमें जनजागरण का इंतजार है।चूंकि जनादेश हिटलर को भी मिला था और कोई जनादेश अंतिम निर्णायक नहीं होता।मनुष्यता हर हाल में जीतती है और फासिज्म हर हाल में हारता है।भारत में भी हारने लगा है फासिज्म क्योंकि मनुष्यता की रीढ़ सीधी है फिर।
Palash Biswas
Thanks Outlook team to stand with us.Outlook focused on Creativity in protest in its current issue!
हमें मूक वधिर जनगण,भेढ़ धंसान में तब्दील लोकतंत्र के पंजाब के अग्निपाखी की तरह जागने का इंतजार है।विश्वभर में मनुष्यता फासीवाद के खिलाफ लामबंद हो रही है कायनात की रहमतें बरकतें नियामतें बहाल रखने के लिए।
हमें जनजागरण का इंतजार है।चूंकि जनादेश हिटलर को भी मिला था और कोई जनादेश अंतिम निर्णायक नहीं होता।
मनुष्यता हर हाल में जीतती है और फासिज्म हर हाल में हारता है।
भारत में भी हारने लगा है फासिज्म क्योंकि मनुष्यता की रीढ़ सीधी है फिर।
हमें अपने दोस्त दुश्मन उदय प्रकाश,हिंदी के कवि की इस पहल पर गर्व है।1976 से जिस राजा का बाजा बजा के कवि मनमोहन को जानता हूं,हमारे आदरणीय काशीनाथ सिंह,हमारे बड़े भाई डूब में तब्दील टिहरी के कवि मंगलेश डबराल,जेएनयू से मित्र प्रोफेसर चमनलाल,मध्यप्रदेश के कवि राजेश जोशी,करानाटक की वह सत्रह साल की लड़की,कोलकाता पुस्तक मेले में 2003 में मिली मंदाक्रांता सेन से लेकर कृष्णा सोबती,मृदुला गर्व सभीने पुरस्कार और सम्मान लौटा दिये हैं।यह अभूतपूर्व है।
नवारुण दा और वीरेन दा होते तो वे भी लौटा देते।
हमें उम्मीद है कि हमारी महाश्वेता दी,गिरिराज किशोर, गिरीश कर्णाड,जावेद अख्तर से लेकर अमिताभ बच्चन और रजनीकांत भी औऱ आखिरकार बंगाल के संस्कृतिकर्मी भी हर हाल में मनुष्यता और प्रकृति के पक्ष में मेहनकशों और बहुजन समाज,छोटे मध्यम कारोबारियों के हक में,भारतीय उद्योग धंधे के हक में फासिज्म के राजकाज के खिलाफ मूक वधिर भारतीय जनता की आवाज बनकर हमारे कारवां में शामिल होंगे।
साझा चूल्हा जो अब भी जल रहा है,जैसा सविता बाबू का कहना है कि साझा चूल्हा सरहदों के आर पार सुलग रहा है,उसे अब घर घर में जलाना है।
उनका मिशन: The Economics of Making in!
उनका मिशन:The institution of the religious partition and the Politics of religion
उनका मिशन: the strategy and strategic marketing of blind nationalism based in religious identity!
मृत मनुष्यता,समाज और सभ्यता की देह में प्राण फूंकना हमारा एजंडा है नरसंहार संस्कृति और नस्ली रंगभेद के इस फासीवाद के खिलाफ,जो भारत में सात सौ साल के इस्लामी शासन और दो सौ साल के अंग्रेजी हुकूमत के बावजूद जीवित सनातन हिंदू धर्म के लोकतंत्र,उसकी आत्मा और उसके मूल्यबोध, नैतिकता, आदर्श और स्थाईभाव विश्वबंधुत्व की हत्या कर रहा है।
संविधान की हत्या कर रहा है।
देश को मृत्यु उपत्यका,गैस चैंबर बना रहा है।
हमारा एजंडा मनुष्यता और कायनात का एजंडा है उनके आर्थिक सुधारों के वधस्थल के विरुद्ध,उनकी मजहबी सियासत के विरुद्ध, उनकी बेइंतहा नफरत के खिलाफ हम मुहब्बत के लड़ाके हैं।
हम खेतों,खलिहानों,कारखानों को आवाज लगा रहे हैं।
हमने हस्तक्षेप को हर बोली हर भाषा में जनसुनवाई का मंच बनाया है।हम फतवों के खिलाफ हैं।
हम नरसंहार संस्कृति और बलात्कारसंस्कृति के खिलाफ देश दुनिया जोड़ने की मुहिम चला रहे हैं।
जिसे घर फूंकना है आपणा इस दुनिया को हमारे बच्चों की खातिर बेहतर बनाने के लिए,वे हमारे कारंवा में शामिल हो।
हस्तक्षेप पर आपके हस्तक्षेप का इंतजार है।
মন্ত্রহীণ,ব্রাত্য,জাতিহারা রবীন্দ্র,রবীন্দ্র সঙ্গীত!
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