इस जड़ यथा स्थिति का मुरजिम कौन?
पलाश विश्वास
विडंबना तो यह है कि मनुस्मृति बंदोबस्त के धारक वाहक और हिंदू राष्ट्रवाद के प्रमुख सिपाहसालार सत्ता की दोनों ध्रूवों पर तमाम अनुसूचित, आदिवासी और पिछड़े क्षत्रप हैं, सामाजिक न्याय और समता के सिद्दांतों को अमली जामा पहनाने का एजंडा चुनने के बजाय जिन्होंने आरक्षित राजनीति चुन ली। इसके विपरीत अघोषित बहुजन समाज का निर्माम अमेरिका में इसलिे संबव हुआ क्योंकि वहां दासता के विरुद्ध, रंगभेद के खिलाफ युद्ध के लिए शांति आंदोलन लगातार चलाता रहा। वहां स्त्री देवी नहीं है और न उनकी पूजा होती है। समाज और देश में उनकी भूमिका नेतृत्वकारी है। पर धर्म राष्ट्रवाद मूल के दक्षिणपंथ की पराजय और सामाजिक न्याय के उद्घोष की सूचना तक भारत में नहीं है। हमारे यहां मीडिया और कारपोरेट जगत के मर्जी मुताबिक ओबामा की जीत पर मातम मनाया जा रहा है। कारपोरेट मीडिया की क्या कहें, हमें तो हैरत है कि जिस वैकल्पिक मीडिया में हमारे सबसे प्रतिभाशाली साथी पिछले पांच दशकों से काम कर रहे हैं, वे भी इस रवींद्र के दलित विमर्श की तरह अमेरिका में दक्षिम पंत और ग्लोबल हिंदुत्व की पराजय पर कोई चर्चा नहीं कर रहा है। क्यों?
भारत में अगर अति अल्पसंख्यक वर्चस्ववादी समुदाय का जीवन के हर क्षेत्र में राज है और इस स्थिति में बदलाव की कोई संभावना नहीं है, तो िसके लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार कौन है, इसपर बहस की सख्त जरुरत है।वरना पीर पर्वत सी होती रहेगी, पर इस हिमालय से अब कोई गंगा नहीं निकलने वाली।हम मूर्तियां बनाने और मूर्ति पूजा के कर्मकांड में आजीवन निष्णात रहने को अभिशप्त हैं। मिथकों में जीने के अभ्यस्त हैं। भाववादी दृष्टिकोण हमें समस्याओं के वस्तुनिष्ठ विश्लेषण और उनके मुकाबले से रोकता है। हम मस्तिषक नियंत्रण तंत्र में इसे प्रोग्राम कर दिये गये हैं, कि स्वतन्त्र ढंग से सोच ही नहीं सकते। हम अमेरिका बनने की जल्दी में हैं, जहां श्वेत वर्चस्व अब इतिहास है।वहां बहुजन समाज का निर्माण हो चुका है। इसलिए बराक ओबामा कारपोरेट अमेरिका और युद्धक अर्थ व्यवस्था, धर्म राष्ट्रवादियों के प्रबल विरोध के बावजूद खासकर सामाजिक व उत्पादक शक्तियों की महिलाओं की अगुवाई में हुई गोलबंदी के सौजन्य से दोबारा राष्ट्रपति बनने के बाद दो फीसद अमीरों पर टैक्स लगाकर वित्तीय संकट से मुकाबला करने का दुस्साहस कर सकते हैं। हमारे यहां मध्ययुग से तमाम संत फकीर, महापुरुष सामाजिक न्याय और समता के आधार पर बहुलतावादी संस्कृति के मुताबिक बहुजन समाज के निर्माण की बात करते रहे हैं। पर हम बहुजन समाज तो बना ही नहीं सकें, उलट इसके देश की बहुलतावादी संस्कृति और उसके पोषक सदियों के स्वतंत्रता संग्राम से अर्जित स्वतंत्रता, लोकतंत्र और संविधान की हत्या के दोषी है। कारपोरेट साम्राज्यवादी देश अमेरिका में, जिओनिस्ट वर्चस्व और ग्लोबल हिंदुत्व, कट्टर श्वेत रंगभेदी ईसाइयत के रसायन से बने सत्तावर्ग के विरुद्ध वियतनाम और इराक युद्ध के अनुभवों के आधार पर युद्धक अर्थव्यवस्था के खिलाफ कामयाब मोर्चाबंदी हो रही है। कारपोरेट लोभ के खिलाफ वाल स्ट्रीट पर दखल का आंदोलन वहां चल रहा है। पर हमारे यहां बहिष्कार और अस्पृश्यता के शंखनिनाद के साथ ममुस्मृति की जय जयकार है।वर्ण व्यवस्था के विरुद्ध गौतम बुद्ध की क्रांति इसीलिए संभव हुई क्योंकि तब ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्णों के मुकाबले शूद्र सारे अधिकारों से वंचित थे और वे बहुसंख्यक थे। मनुस्मृति ने इस एकता को तोड़ा। जातियों उपजातियों में बंटे बहुसंख्यक की हर जाति हर उपजाति एक दूसरे के मुकाबले श्रेष्ठ हैं और एक दूसरे के विरुद्ध हैं, एक दूसरे के मुकाबले लड़ते रहते हैं। अति अल्पसंख्यक व्रचस्ववादी ऊंची जातियों मुकाबले हर जाति उपजाति अति अल्पसंक्यक हैं।ये तमाम बहुजन शूद्र बिरादरी की एकता के बजाय एक दूसरे के विरुद्ध ्स्पृश्यता का बर्ताव करते हैं और खुद को ब्राह्मणों और क्षत्रियों के समगोत्रीय समझते हैं और उन्ही के साथ एकात्म होकर गठबंधन करते हैं। बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर ने अपनी पुस्तक शूद्र कौन हैं,में इसपर विस्तार से वस्तुपरक विश्लेषण किया है। जाति व्यवस्था और हिंदुत्व की पहेलियों पर उनका लिखा शूद्र पढ़ते नहीं हैं।
अब बतायें कि कायस्थ, वैद्य, खेती करने वाले मराठा, कुर्मी, भूमिहार वर्ण व्यवस्था के मुताबिक ब्राह्मण हैं या क्षत्रिय या वैश्य ्गर वे तीनों वर्ण में नहीं हैं तो पवित्र ग्रंथों के मुताबिक वे किस चतुर्थ वर्ण में हैं या क्या वे सवर्ण समुदाय से बाहर यानी दलित या अस्पृश्य हैं। आर्यावर्त से बाहर अरावली और विंध्य पर्वतों के पार, सिंधु सभ्यता की नगरियों और हड़प्पा के नगरों के शासकों के क्षत्रियकरण और देश के पराजित मूलनिवासियों के शूद्रायन की तो इतिहास और मानवशास्त्र, आनुवांशिकी के जरिये खुला रहस्य है। मराठा और जाट, यहां तक कि कल तक कुर्मी जातियों का शूद्रों और दलितों के प्रति व्यवहार क्या रहा है, लेकिन आज मराठा और जाट आरक्षम की लड़ाई में सबसे आगे हैं।लिंगायत आंदोलन के जरिये दक्षिण भारत में
जाति उन्मूलन की लंबी संघर्षगाथा है, पर आज लिंगायत ही सत्तावर्ग है, ऐसा कैसे हो गया?
बाकी भारत में लोगों को यह मालूम शायद न हो कि रवींद्र नाथ टैगोर दरअसल पीराली यानी प्रदूषित ब्राह्मण थे और जाति से बहिष्कृत थे।खुद उन्हें पुरी के मंदिर में प्रवेश न मिला था। उनके पूर्वजों को ब्राह्मण धर्म से बहिष्कार के कारण धर्मांतरण तक करना पड़ा और उनकी कुछेक वंशधाराएं दलित बतौर जीती रहीं। पूर्वी बंगाल से बहिष्कार की वजह से कोलकाता में आकर खासकर रवींद्र के दादा प्रिसं द्वारका नाथ टैगोर के उद्यम से टैगोर परिवार को व्यवसायिक प्रतिष्ठा मिली। वे जमींदार भी ह गये। तब रवींद्र के पिताजी ब्राह्मणवाद विरोधी ब्रह्म सामाज के शीर्ष नेताओं में से थे। इस बहिष्कार और अस्पृश्यता की वेदना चंडालिका जैसे नृत्यनाटिका और रूस की चिट्ठी जैसी पुस्तक के अलावा उनकी पूजा घराने की कविताओं में व्यापक पैमाने पर है। गीतांजलि का आध्यात्मिक दर्शन कोई ब्पाह्मणवादी दर्शन नहीं हैं, उसकी जड़ें सूफी संत और बंगाली बाउल आंदोलन की लालन फकीरी धारा में है। इसी तरह बंगाल के कुलीन ब्राह्मणों को नेताजी सुबाष चंद्र बोस और स्वामी विवेकानंद के परिवारों के कर्मकांड मे ब्राह्मणों के भाग लेने पर ऐतराज था क्योंकि वर्ण व्यवस्था के मुताबिक कायस्थ न ब्राह्मण हैं और न क्षत्रिय। वैश्य भी नहीं। पंडितों के विधान मुताबिक वे शूद्र ही थे। महाराष्ट्र के चितपावन ब्राहण तो मुखर्जी चटर्जी बनर्जी और तमाम बंगाली ब्राह्मणों को कायस्थ ब्राह्मण मानते हैं। क्योंकि बंगाल में बारहवीं सदी तक ईश्वरमुक्त, कर्मकांड मुक्त बौद्धकाल रहा है और चैतन्य महाप्रभु के आविर्भाव के बाद ही यहां विष्णु का अवतरण हुआ। नेताजी के बारे में भारत के ब्राह्मण नेताओं की यही राय थी और वे उन्हें कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व में देखना नहीं चाहते थे।इसीतरह कायस्थ ज्योतिबसु के शूद्रत्व के कारण ही बंगाल और केरल के माकपा ब्राह्मण नेताओं ने उन्हें भारत का प्रधानमंत्री बनने से रोक दिया।
सतीकथा के जरिये अनार्य शिव देवादिदेव बन गये तो मूलनिवासियों के तमाम देव भैरव हो गये। विंध्यवासिनी से लेकर कामाख्या और काली तक सती के अंश में समाहित कर दिये गये। इसीतरह संघपरिवार के हिंदुत्व की समरसता के जरिये रंगभेद, अस्पृश्यता और बहिष्कार के बावजूद अनुसूचित जातियों, जनजातियों, पिछड़ों और आदिवासियों को हिंदुत्व की पहचान देकर उन्हें हिंदू राष्ट्रवाद की पैदल सेना में तब्दीलकिया जा रहा है और इसके नतीजे गुजरात जैसे नरसंहार के बाद भी असम और हाल में उत्तर प्रदेश में भी दीखने को मिले। यही बहिष्कार और अस्पृश्यता का स्थायी भाव खुले बाजार की अर्थ व्यवस्था के मातहत विकास गाथा में भी देका जा सकता है। कारपोरेट इंडिया, भारतीय पूंजीपतियों और कालाधन के कारोबारियों में अनुसूचित, पिछड़ों और आदिवासियों का प्रतिशत क्या है? इन समुदायों के राजनेताओं ने बहुजन समाज के विसर्जन की जो कीमतवसूल की,उसकी दलाली बतौर उनके कुछ पैसे जरूर स्विस बैंक खातों में होंगे। मुक्त बाजार व्यवस्था के मुताबिक क्रय शक्ति और उसे अर्जित करने के तमाम संसाधनों पर अति अल्पसंख्यक वर्चस्ववादी समुदायों का ही कब्जा है। भूमि सुधार हुए नहीं, संसाधनों का राष्ट्रीयकरण हुआ नहीं, जाति उन्मूलन का प्रश्न ही नहीं उठता तो इस खुले बाजार से किनके हित सधते हैं?
विडंबना तो यह है कि मनुस्मृति बंदोबस्त के धारक वाहक और हिंदू राष्ट्रवाद के प्रमुख सिपाहसालार सत्ता की दोनों ध्रूवों पर तमाम अनुसूचित, आदिवासी और पिछड़े क्षत्रप हैं, सामाजिक न्याय और समता के सिद्दांतों को अमली जामा पहनाने का एजंडा चुनने के बजाय जिन्होंने आरक्षित राजनीति चुन ली। इसके विपरीत अघोषित बहुजन समाज का निर्माम अमेरिका में इसलिे संबव हुआ क्योंकि वहां दासता के विरुद्ध, रंगभेद के खिलाफ युद्ध के लिए शांति आंदोलन लगातार चलाता रहा। वहां स्त्री देवी नहीं है और न उनकी पूजा होती है। समाज और देश में उनकी भूमिका नेतृत्वकारी है। पर धर्म राष्ट्रवाद मूल के दक्षिणपंथ की पराजय और सामाजिक न्याय के उद्घोष की सूचना तक भारत में नहीं है। हमारे यहां मीडिया और कारपोरेट जगत के मर्जी मुताबिक ओबामा की जीत पर मातम मनाया जा रहा है। कारपोरेट मीडिया की क्या कहें, हमें तो हैरत है कि जिस वैकल्पिक मीडिया में हमारे सबसे प्रतिभाशाली साथी पिछले पांच दशकों से काम कर रहे हैं, वे भी इस रवींद्र के दलित विमर्श की तरह अमेरिका में दक्षिम पंत और ग्लोबल हिंदुत्व की पराजय पर कोई चर्चा नहीं कर रहा है। क्यों?
हैरतअंगेज हैं कि विवेकानंद की तुलना दाउद से करने वाले हिंदू राष्ट्रवादी संघ परिवार की संतान भाजपा के अध्यक्ष बने हुए हैं। इस पर कोई ज्यादा बवाल नहीं हुआ, उसीतरह जैसे राजनीति कालिख से पुते अपने तमाम चेहरों को दूध से धोकर साफ करने में लगी है। लकिनन इसके पीछे संघी हिंदुत्व की दीर्घकालीन स्थायी शूद्रविरोधी राजनीति का खुलासा होते ही हिंदुत्व के स्वंभू झंडावरदार पवित्र उद्धरणों के साथ मोरचाबंद हो गये। कायस्थ जाति का महिमामंडन होने लगा। जातियों के महिमामंडन का मिथक हर जाति, उपजाति और समुदाय की पुश्तैनी संपत्ति है। इससे बेदखली के बिना जाति उन्मूलन असंभव हैं।गौतम बुद्ध ने ईश्वर विहीन मनुष्यता के उत्कर्ष बतौर बौद्धधर्म की दीक्षा दी थी, जो अब अवतारवाद के जंजाल में फंस गयी है। तमाम महापुरुष, संत , फकीर के प्रयत्न फेल हो गये। हम जीति से ऊपर उठ ही नहीं सकें। और तो और, अंबेडकर जैसे महापंडित ने मिथकों को द्वस्त करते हुए जाति उन्मूलन की जो विचारधारा बाकायदा अकादमिक और आर्थिक तथ्यों के मुताबिक प्रतिपादित की थी, ुनके ही अनुयायियों ने उसे जाति की पहचान मजबूत करने और जाति के लिए सत्ता हासिल करने या सत्ता में भागेदारी या कम से कम आंशिक आरक्षण के जरियेकमाने खाने का ब्रहामास्त्र बना डाला।
हम मूर्ति पूजक हैं और श्रद्धाभाव में हमारी आंखें बंद हैं। धर्मोन्माद हमारे ीवन दर्शन का स्थायी भाव है और जाति हमारी अस्मिता है। इसलिए मूर्ति खंडित हते ही हम हिंसक हो जाते हैं। हमारी उत्तेजना के लिए, हमें धर्मबद्ध जातिबद्ध पार्टीबद्ध अंधों की जमात में बनाये रखने के लिए, हमारी मूर्तियों को लेकर रंग बिरंगे विवाद छेड़ दिये जाते हैं। विवेकानंद हो या राम, किसी भी मूर्ति को खंडित करके अस्पृश्यता और कारपोरेट वर्चस्व का यह मुक्त बाजार बना रहें तो बुरा क्या है। अंबेडकर भी तो अब एक मूर्ति है, जिसकी पूजा की जाती है लेकिन जिसकी विचारधारा से किसी को कोई लेना देना नहीं होता है। यही धर्म है।
हम लोग धार्मिक हैं और राष्ट्रपति संविधान के मुताबिक सर्वोच्च हैं। इसलिए उनकी मूर्ति खंडित नहीं हो सकती। लेकिन कालाधन की सूची सार्वजनिक हो जाने के बाद, केंद्र सरकार की जांच पहल के बाद इस सिलसिले मे आम माफी की पहल करने वाले, खास गरानों को बचाने की कवायद करने वाले पूर्व वित्तमंत्री पर भी क्या हम सवाल खड़े नहीं कर सकते। पर वे राष्ट्रपति से ज्यादा ब्राह्मण हैं,संवैधानिक उत्तरदायित्व से ज्यादा उनके लिए पुरोहिती कर्मकांड, चंडीपाठ और दुर्गा पूजा ज्यादा बड़ी प्राथमिकताएं हैं।भारत कोई अमेरिका नहीं है। खुला बाजार के जरिये हम चाहे इसे कितना ही अमेरिका दिखाने का प्रयास करें। भारतीय लोकतंत्र में नागरिक की औकात का सबूत तो िइरोम शर्मिला है या फिर आधार कार्ड।जब समाजिक न्याय, समता और कानून का शासन हमारा ध्येय नहीं है और यथा स्थिति में ही हमें मोक्ष मिलना है, तब लोकतंत्र से विश्वासघात के इस मामले में हम निश्चय ही अमेरिकियों की तरह महाभियोग लाने की मांग अवश्य ही नहीं करेंगे। चाहे अन्ना ब्रिगेड हो या केजरीवाल या फिर धर्म को अफीम मानने वाले साम्यवादी, वर्णव्यवस्था और कारपोरेट राज की मर्यादाओं का उल्ल्ंघन क्यों होना चाहिए?
This Blog is all about Black Untouchables,Indigenous, Aboriginal People worldwide, Refugees, Persecuted nationalities, Minorities and golbal RESISTANCE. The style is autobiographical full of Experiences with Academic Indepth Investigation. It is all against Brahminical Zionist White Postmodern Galaxy MANUSMRITI APARTEID order, ILLUMINITY worldwide and HEGEMONIES Worldwide to ensure LIBERATION of our Peoeple Enslaved and Persecuted, Displaced and Kiled.

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