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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Saturday, April 6, 2013

सर्व-हारा के मुक्तिदाता का जयगान सर्वस्व-हाराओं के देश में !एच एल दुसाध

सर्व-हारा के मुक्तिदाता का जयगान सर्वस्व-हाराओं के देश में !


एच एल दुसाध


चंडीगढ़ के भकना भवन से शुरू हुयी पाँच दिवसीय बैठक के बाद नरम-गरम  असंख्य टुकड़ों में बँटे मार्क्सवादियों की बैठकों का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। इन पंक्तियों के लिखे जाने के दौरान झारखण्ड की राजधानी, राँची में उनकी बैठक चल रही है। इसके कुछ दिन बाद ही लखनऊ में उनकी बड़ी बैठक होने वाली है। इन बैठकों में आर्थिक विषमता को मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या चिन्हित करते हुये, उसके खात्मे का वैज्ञानिक सूत्र देने वाले मार्क्स की प्रशंसा में वक्ता एक दूसरे से होड़ लगायेंगे तथा उनके समतुल्य दूसरे महामानवों की छवि धूमिल करेंगे, जैसा कि चंडीगढ़ में आंबेडकर के साथ किया गया, ताकि मार्क्सवाद की अपरिहार्यता लोग और शिद्दत के साथ महसूस कर सकें।

भूमण्डलीकरण के दौर में समाजवाद के यूटोपिया बनने तथा पूँजीवाद के सैलाब में एक-एक करके मार्क्सवाद के दुर्गों ध्वस्त देखकर भी हमें यह स्वीकार करने में कोई उज्र नहीं कि नये संसार के निर्माताओं में मार्क्स दुनिया का पहला और संभवतः सर्वश्रेष्ठ विचारक था, जिसने विषमता की  समस्या हल करने का वैज्ञानिक ढंग निकाला; इस रोग का बारीकी के साथ निदान किया और उसकी औषधि को भी परख कर देखा। किन्तु इसके साथ यह भी स्वीकार करना होगा कि उसने विषमता के दूरीकरण के मोर्चे पर काफी शून्यता छोड़ी थी। इसी शून्यता को भरने के क्रम में मानवता के इतिहास में महानायक की भूमिका में अवतीर्ण हुये अमेरिका के शोषक समाज की

एच एल दुसाध, लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।

संतान अब्राहम लिंकन। इस शून्यता को भरने के लिये अमेरिका के ही शोषक समाज की एक गृहिणी व पादरी पिता की पुत्री हैरियट बीचर स्टो ने जब कलम उठाया तो 1851 में निकली 'अंकल टॉम्स केबिन' जैसी अमर रचना जिसने संगदिल लोगों में बहा दिया मानवता का झरना। जिन दिनों मार्क्स और एंगेल्स द्वारा लिखी छोटी सी किताब, 'कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र' यूरोप के श्रेणी समाजों में शोषक और शोषितों के छोटे-बड़े संघर्षो की पटकथा तैयार कर रही थी, उन्ही दिनों हैरियट स्टो की रचना अंकल टॉम्स केबिन, यूरोप से हजारों मील दूर अवस्थित अमेरिका में, नस्लभेद के तहत नर-पशु बने नीग्रो लोगों की मुक्ति के मुद्दे पर, शोषक वर्ग को ही एक दूसरे के खिलाफ कमर कसने के लिये प्रेरित कर रही थी। नतीजा अमेरिकी गृह-युद्ध!

लगभग चार सालों तक चले उस युद्ध ने शोषक अमेरिकी समाज को दो खेमों में बाँट कर रख दिया। हर अमेरिकी ने ही उस युद्ध में शिरकत किया। जिनके पुरुखों ने नीग्रो दासों का पशुवत इस्तेमाल कर अपनी सुख-समृद्धि का महल खड़ा किया था, उन्हीं में संचारित हुआ था प्रायश्चितबोध। अपने पूर्वजों के अमानवीय कुकृत्यों का प्रायश्चित करने और दास-प्रथा को मिटाने के लिये अमेरिकनों ने थाम लिया था बन्दूक अपने ही उन भाइयों के खिलाफ,जिनमें  वास कर रही थी उनके पूर्वजों की आत्मा। गृह-युद्ध के बाद साकार हुआ हैरियट और लिंकन का सपना तथा मानवता को मिली एक बेमिसाल विजय। 1866 से 1878 तक 'दास कैपिटल' की प्रसव वेदना से गुजर रहे मार्क्स को अमेरिका में घटित मानवता की मुक्ति का वह महासंग्राम कितना स्पर्श किया, नहीं पता, पर हमें यह पता है कि 1873 में जब महामना ज्योतिराव फुले ने जाति –समाज के शोषितों की मुक्ति का घोषणापत्र 'गुलामगिरी' जारी किया तो उसे अमेरिका के उन सदाचारी लोगों के समर्पित करना नहीं भूले, जिन्होंने काले गुलामों को गुलामी से मुक्त कराने के  कार्य में उदारता, निरपेक्षता और उपकार का भाव दिखाया था।

ऐसा क्यों कर हुआ कि दास मुक्तिकामी हैरियट स्टो ने जब कलम थामा तो ताउम्र सिर्फ और सिर्फ कालों की मुक्ति पर अपना रचनाकर्म केन्द्रित किये रहीं  और फुले जब अपनी सर्वश्रेष्ठ रचना निकाले तो उसे दास मुक्ति-संग्राम से जुड़े लोगों को समर्पित कर डाले, जबकि मार्क्स जैसा महान मानवतावादी उससे तुलनामूलक रूप से निर्लिप्त रहा। इसका कारण सम्भवतः कबीर के इस दोहे-तू कहता कागद की लेखी, मैं कहता आँखन की देखि – में छिपा है। हैरियट अमेरिका में जन्मी थीं, जहाँ नस्लभेद मानने वाले गोरे प्रभु-वर्ग ने कालों को नर-पशु बनाकर, उनके श्रम का चरम शोषण करते हुये मानवता को तार-तार कर दिया था। मानवता के उस करुण चित्र से संवेदनशील हैरियट निर्लिप्त न रह सकीं और जब कलम उठाया तो पहले नीग्रो-स्लेवरी पर मानव ह्रदय को द्रवित कर देनेवाले रेखा चित्रों का अंकन किया और बाद उन चित्रों को अंकल टॉम्स केबिन की कहानी में ढाला। उसके बाद तो उनकी दास-प्रथा विरोधी रचनाओं का सिलसिला ड्रेड : ए टेल ऑफ द ग्रेट डीस्मल स्वाम्प, दी पर्ल ऑफ ओर्स ओल्ड, ओल्ड टाइम फोक तक अटूट रहा। वही बात फुले के साथ भी थी। नस्लभेद से भी बदतर जातिभेद –व्यवस्था में विषमता, शोषण और मानवता का कुत्सित रूप फुले ने न सिर्फ देखा, बल्कि भोगा भी था। इसलिये नस्लवादी अमेरिका में मानवता की जय देखकर फुले उत्फुल्लित हो उठे और समर्पित कर दिये अपनी रचना दास मुक्तिकामी संग्रामियों को। लेकिन जाति व नस्ल भेदभाव वाले समाज में व्याप्त विषमता को मार्क्स ने न तो देखा था और न ही भोगा था; उन्होंने सिर्फ लाइब्रेरियों में बैठकर जाना था। इसलिये वे अपने समकालीन लिंकन, हैरियट और फुले की भाँति जन्मगत आधार पर शोषण-विषमता और उत्पीड़न को शिद्दत के साथ महसूस न कर सके, क्योंकि कागद पढकर एक सीमा तक ही जाना जा सकता है।

जन्मगत आधार पर विषमता का शिकार बने लोगों के दुर्भाग्य से महानतम विचारक कार्ल मार्क्स ने एक ऐसे समाज में जन्म ग्रहण किया था जो प्राचीन सभ्यता के पैट्रिशियन, नाइट्स, प्लेबियन और दास; मध्ययुग के सामन्त, अणुसामन्त, गिल्डमास्टर, जर्निमैन, भूमिदास की विविध मानव श्रेणियों से होते हुये अमीर-गरीब के दो वर्गों का रूप ले चुका था; जो भारत के चातुर्वर्ण्य सादृश्य प्लेटो के त्रि-वर्ग सिद्धान्त को धूलिसात करते हुये जर्मन शूद्र मार्टिन लूथर, स्विश जॉन काल्विन, वाल्तेयर के बुद्धिवादी आन्दोलनों के सहारे धार्मिक अंधविश्वासों से मुक्त; हाब्स के 'लेवीयथन'लाक के'ट्रीटीज ऑफ सिविल गवर्नमेंट' और रूसो के 'सोशल काँट्रेक्ट' के सहारे नागरिक अधिकारों से पुष्ट एवं 1096 में इंग्लैण्ड के राजा विलियम के समक्ष सालिसबरी में शपथ लेकर अपने अधिकारों का स्वाद चखने के बाद 1215 में चार्टर ऑफ मैग्नाकार्टा से होते हुये 1688 में राजा जेम्स द्वितीय को पलायित एवं संसदीय प्रणाली स्थापित कर अपने राजनैतिक अधिकारों से अवगत हो चुका था. उधर 1789 में में घटित फ़्रांसीसी क्रान्ति ने उसे समता, स्वधीनता और बंधुता का भी अहसास करा दिया था। अब वह समाज जूझ रहा था कोपर्निकस, ब्रूनो, विलियम हार्वे, गैलेलियो, लिओनार्दो विन्सी, आइजक न्यूटन इत्यादि द्वारा शुरू की गयी वैज्ञानिक क्रान्ति के परिणाम से, जिसकी कड़ी में आगे चलकर जेम्सवाट और जॉर्ज स्टीफेंसन की खोजों ने औद्योगिक उत्पादन में क्रान्ति घटित कर दी जो जॉन व सेवेस्टाइन कैबेट, ड्रेक हॉकिंस, फ्लेशियर, बार्थेल्मू डियाज, वास्कोडिगामा, कोलम्बस, मैगेलन जैसे जुझारू नाविकों द्वारा नये-नये देश खोज निकालने के बाद और घनीभूत हो गयी। वैसे समाज में जन्मे मानवता के महान रक्षक और अत्यन्त असाधारण विचारक मार्क्स के समक्ष पूँजीवाद का ध्वंस और समाजवाद की स्थापना से भिन्न कोई लक्ष्य हो ही नहीं सकता था और मार्क्स ने अपने लक्ष्य को पाने में कोई कसर नहीं उठा रखी।

वे परम सुन्दरी पत्नी जेनी और असाधारण चिन्तक व सहृदय उद्योगपति मित्र एंगेल्स के सहारे अभाव की दरिया में तैरते हुये भी जूनून की हद तक मानवता के कल्याण के लिये ज्ञान को हथियार बनाने में डूबे रहे। अपने लक्ष्य में लीन अद्भूत प्रतिभा का धनी वह मनीषी जीविकोपार्जन व अपने विचारों को अन्यान्य देशों में फ़ैलाने के लिये जब दस सालों तक पूँजीवादी देश अमेरिका के'न्यूयॉर्क ट्रिब्यून' की शरण में जाने के लिये बाध्य हुआ तो जाति पंक में फँसे भारत के लिये, 25 जून 1853 और 8 अगस्त 1853 को, कुल जमा दो लेख लिखने से ज्यादा बौद्धिक अवदान न दे सका। देता भी कैसे? मार्क्स ने खुद ही 1845 में ऐतिहासिक भौतिकवाद के सिद्धान्त को अन्तिम रूप देते हुये माना था, 'प्रत्येक ऐतिहासिक युग में उत्पादन उसका अवश्य अनुगामी ढाँचा उस युग के राजनीतिक और बौद्धिक इतिहास के आधार होते हैं, और इसीलिये सारा इतिहास वर्ग संघर्षों का इतिहास रहा है।' वर्ग संघर्षों के इतिहास पर मतभिन्नता होने से भी हो सकती है, पर इसमें कोई सन्देश नहीं कि ऐतिहासिक युग की स्थितियाँ बौद्धिक इतिहास का आधार होती हैं। इसलिये यूरोप की तत्कालीन ऐतिहासिक परिस्थितियों के अनुरूप मार्क्स का ऐसे विचारक के रूप में उदय होता है जो पूँजीवाद के शोषण से शोषितों को बचाने के लिये कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणा पत्र तैयार करता है। इसी तरह विश्वमय फैले श्रेणी समाजों के विपरीत दुनिया के एकमात्र विरल व विचित्र जाति समाज की तत्कालीन ऐतिहासिक परिस्थितियों के अनुरूप जब भारत में मार्क्स से मात्र नौ साल छोटे फुले का उदय होता है, तब वह जातिभेद व्यवस्था से जन्मी विषमता के निवारण के लिये बहुजन समाज की मुक्ति का घोषणापत्र 'गुलामगिरी' लिखने लिये बाध्य होते हैं।

बहरहाल पुस्तकालयों में भूरि –भूरि समय व्यय कर, अंग्रेजों द्वारा भारत के विषय में लिखे गए दस्तावेजों के सहारे मार्क्स ने भारत के विषय में जो कुछ लिखा, वह काफी हद तक सही ही लिखा। उसने लिखा था, 'भारतीय समाज का कोई इतिहास नहीं है, कम से कम ज्ञात इतिहास। जिसे हम उसका इतिहास कहते हैं, वह मात्र उन सतत आक्रान्ताओं का इतिहास है जिन्होंने उस अपरिवर्तनशील तथा अनवरोधक समाज की निष्क्रियता के आधार पर अपने साम्राज्य स्थापित किये।' यद्यपि मार्क्स का यह कथन हीगेल की भारतीय इतिहास सम्बन्धी विचार का ही अधिक स्पष्ट रूप था, तथापि इसे गलत नहीं माना जा सकता। इसी तरह ब्रितानी दस्तावेजों के सहारे प्लासी युद्ध, जो भारत में ब्रितानी साम्राज्य की बुनियाद तथा मूलनिवासियों की कुछ हद मुक्ति का कारण बना, के विषय में उसका आकलन उसे दूरदर्शी साबित करता है। उस युद्ध के युगान्तरकारी परिणामों पर उसने लिखा था, 'मूल भारतीय सैन्य-वाहिनी जो ब्रिटिश ड्रील सार्जेंटो द्वारा गठित एवं प्रशिक्षण प्राप्त थी, उसने भारतीयों की आत्म -मुक्ति की एक अनिवार्य पूर्व शर्त का काम किया एवं इसी के फलस्वरूप उन्होंने  अपने प्रथम विदेशी अनाधिकार प्रवेशकारियों (first foreign itruders) के अत्याचार का शिकार बनने से बचने के लिये निज मुक्ति का सूत्रपात किया।' न्यूयॉर्क ट्रिब्यून में लिखा उनका यह आकलन- 'भारत के अतीत का राजनैतिक स्वरूप जितना भी परिवर्तनशील क्यों न रहा हो, सुदूर पुराकाल से लेकर वर्तमान तक इसके सामाजिक रूप में रत्ती भर भी परिवर्तन नहीं आया है; एकदम अपरिवर्तित रह गया है। इस समाज की आर्थिक संरचना को कोई भी परिवर्तन बदल नहीं पाया। परिणामस्वरूप दूसरे देशों के प्राचीन युग के पैट्रिशियन, नाइट्स, प्लेबियन और दास तथा मध्य युग के राजा, बैरंस, गिल्ड मास्टर, भूमिदास का समाज में आज कोई अस्तित्व नहीं है, यह सब परिभाषायें श्रेणी समाज वाले देशों में अर्थहीन एवं अतीत का इतिहास मात्र रह गयी हैं, वहीँ भारतीय समाज के प्रागैतिहासिक ब्राह्मण शूद्रादि आज भी आदिम माहात्म लिये स्व-महिमा विद्यमान एवं सम्पूर्ण शक्ति से क्रियाशील हैं – भी उनकी असाधारण मनीषा का सूचक है।

किन्तु भारतीय इतिहास की काफी हद तक निर्भूल व्याख्या करने के वावजूद मार्क्स के विषय में यह बात दृढ़ता से कही जा सकती है कि पूँजीवाद के शोषितों की मुक्ति की व्यग्रता ने उन्हें इतना अवकाश ही नहीं दिया कि वह ब्राह्मणवाद सृष्ट विषमता का शिकार बने यूरोप के कई देशों की मिलित आबादी और अमेरिका के समपरिमाणसंख्यक मानवेतरों की मुक्ति लिये अध्ययन की और गहराइयों में उतरते। इसलिये हर बात को आर्थिक नज़रिये से देखने वाले मार्क्स जाति समस्या को श्रम विभाजन की समस्या से आगे न देख सके। अगर अध्ययन की गहराइयों में और गोते लगाते तो जाति के अर्थशास्त्र को समझ पाते। तब हिन्दू-शास्त्रों में दिये गये स्व-धर्म पालन के आदेश के रास्ते कर्म-शुद्धता की अनिवार्यता और कर्म-संकरता की कठोर निषेधाज्ञा का दामन थाम कर इस नतीजे पर पहुँचते कि भारत की वर्ण/ जाति – व्यवस्था सम्पदा-संसाधनों और पेशों के वितरण व्यवस्था है, जिसका एकमेव लक्ष्य भारत के पहले अनाधिकार अनुप्रवेशकारियों (सवर्णों) को शक्ति के स्रोतों (आर्थिक-राजनितिक-धार्मिक) का एकाधिकारी तथा मूलनिवासियों (शुद्रातिशूद्रों) को निःशुल्क दास के रूप में परिणत करना रहा है। तब वे यह भी जान पाते कि भारत के मूलनिवासी सर्वहारा नहीं, सर्वस्व-हारा हैं। यूरोप के वंचित मात्र सर्व-हारा थे। वे सिर्फ आर्थिक दृष्टि विपन्न थे, राजनीतिक और धार्मिक गतिविधियाँ उनके लिये निषिद्ध नहीं थी। विपरीत उनके भारत के मूलनिवासी आर्थिक के साथ ही राजनीतिक और धार्मिक क्षेत्रों से भी पूरी तरह बहिष्कृत रहे। तब वे उपलब्धि करते कि विश्व के एकमात्र सर्वस्व-हारा पूँजीवाद के दास नहीं मूलतः दैविक-दास (divine-slave) हैं'। यहां के शोषक हिन्दू-ईश्वर द्वारा अधिकृत अपार शक्ति व गगनचुम्बी सामाजिक मर्यादा के स्वामी तथा शोषित उसी हिन्दू-ईश्वर द्वारा सृष्ट जन्मजात सर्वस्व-हारा हैं। दैविक-दासत्व ने सर्वस्वहारों में ऐसा वीभत्स संतोषबोध भर दिया है कि उनमें उन्नततर जीवन की कोई चाह ही नहीं है। जाति पर उनके अध्ययन का करुणतर पक्ष यह भी रहा कि इस अभागे देश के उज्जवल भविष्य का सपना, उन्होंने प्राचीन यूनानियों का प्रतिनिधि बताते हुये उन ब्राह्मणों में देखा जिन्होंने खुद को भूदेवता बताकर भारत में ,'मानव को ऊपर उठा परिस्थितियों का विजयी बनाने की जगह बाहरी परिस्थितयों का गुलाम बनाया; स्वयं विकसित होने वाली सामाजिक स्थिति अपरिवर्तनशील रख प्रकृति के हाथ की कठपुतली बना दिया। इस प्रकार प्रकृति की पाशविक प्रजा को स्थापित किया और प्रकृति के राजा मानव का इतना अधःपतन कराया कि वह बन्दर हनुमान और कपिला गाय की पूजा में घुटने टेकने लगा।'

निष्कर्ष में यही कहा जा सकता है कि यूरोप की तत्कालीन ऐतिहासिक परिस्थितियों के कारण मार्क्स जन्मगत आधार पर शोषण, जिसका चरम प्रतिबिम्बन भारत की जातिभेद और अमेरिका-दक्षिण अफ्रीका के नस्लभेद-व्यवस्था में हुआ, शिद्दत के साथ महसूस न कर सके। पूँजीवादी व्यवस्था में जहाँ मुट्ठी भर धनपति शोषक की भूमिका में क्रियाशील रहते हैं, वहीँ जाति व नस्लभेद में एक पूरे का पूरा समाज शोषक तो दूसरा शोषित के रूप में नज़र आते हैं। ऐसी सामाजिक संरचना के शोषक, शोषितों को सेवक और मनुष्येतर मानने की मानसिकता से पुष्ट रहे हैं। जन्मगत आधार पर सबसे दीर्घ स्थाई प्रभाव भारत की जाति व्यवस्था में रहा है। नस्लभेद की दास-प्रथा में गुलाम बनाये गये लोगों के साथ यह सहूलियत रही कि वे अपने शोषक स्वामियों को खुशकर गुलामी से मुक्त हो सकते थे, पर जातिभेद के शोषित अस्पृश्यों के साथ यह सहूलियत नहीं रही। इसीलिये डॉ. आंबेडकर को कहना पड़ा था, 'अस्पृश्यता गुलामी से बदतर है, अस्पृश्य गुलामों के भी गुलाम हैं।' बहरहाल गुलामों के गुलामों की मुक्ति के रास्ते शेष विश्व के गुलामों की मुक्ति का भार इतिहास ने डॉ. आंबेडकर के कन्धों पर डाल दिया, जिसका उन्होंने नायकोचित अंदाज़ में निर्वहन किया.

तो मित्रों उपरोक्त लेख के आईने में आपके समक्ष निम्न शंकायें रख रहा हूँ-

1-    क्या आप इस बात से सहमत हैं कि मार्क्स, मानव जाति को सुखी करने का मुकम्मल चिंतन नहीं प्रस्तुत कर पाया था। उसने इस मोर्चे पर काफी शून्यता छोड़ी थी जिसे भरने के लिये ही लिंकन, हैरियट,फुले इत्यादि की कड़ी में ढेरों महामानवों का उदय हुआ?

2-    मेरा मानना है कि दास-प्रथा मार्क्स को गहराई से स्पर्श न कर सकी इसलिये ही वे नर-पशु (human-cattle) में तब्दील कालों की मुक्ति का कोई विशेष सूत्र न रच सके। आप इस बात से कितना सहमत हैं।

3-    क्या आप मानते हैं कि जन्मगत आधार पर शोषण, जिसका चरम प्रतिबिम्बन भारत की जाति और अमेरिका-दक्षिण अफ्रीका की नस्लभेद व्यवस्था में हुआ, मार्क्स को गहराई से इसलिये स्पर्श नहीं कर पाया क्योंकि उसने निकट से इसकी अमानवीयता का साक्षात् करने के  बजाय सिफ किताबों में पढ़कर ही थोड़ा – बहुत जान पाया था?

4-    क्या आप यह मानते हैं मार्क्स के सर्वहाराओं की एकमात्र प्रमुख समस्या यूरोप में साइंस और टेक्नॉलोजी के विकास के फलस्वरूप हुयी औद्योगिक क्रान्ति से उपजी आर्थिक-विषमता थी और मार्क्स इसके खात्मे के प्रति इसलिये एकाग्रचित हो पाया क्योंकि यूरोप धार्मिक, राजनीतिक समस्या से बुनियादी तौर पर उबर चुका था। विपरीत उसके आंबेडकर के सर्वस्वहाराओं के समक्ष आर्थिक ही नहीं राजनीतिक, धार्मिक- सांस्कृतिक और उपनिवेशवादी (हिन्दू-इस्लामिक और ब्रितानी) कई तरह की समस्या थीं इसलिये बजाय एक समस्या विशेष के आंबेडकर को कई मोर्चों पर लड़ाई में अपनी मनीषा का इस्तेमाल करना पड़ा था?

5-    यह ऐतिहासिक तथ्य है कि अंग्रेजों का जिन देशीय सिपाहियों ने साथ दिया, वे अस्पृश्य समुदय से थे। मार्क्स के हिसाब से उन्होंने भारत के प्रथम अनाधिकार अनुप्रवेशकारियों (first intruders) के अत्याचारों से निजात पाने के लिये ही अंग्रेजों के पक्ष में लड़ाई लड़ी। आप बतलायें भारत के वे प्रथम आनाधिकार प्रवेशकारी आर्य थे या मुसलमान?

6-    जो जाति/ वर्ण-व्यवस्था शक्ति के स्रोतों के बँटवारे की व्यवस्था रही, उसे मार्क्स द्वारा महज श्रम-विभाजन की व्यवस्था बतलाना क्या, उनके श्रेष्ठ समाज-विज्ञानी होने पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगाती?

7-    मार्क्स द्वारा भारत के उज्जवल भविष्य की सम्भावना उन ब्राह्मणों में देखना, जिन्होंने वर्ण-व्यवस्था का निर्माण कर भारत को गर्त में पहुँचाया, क्या इस बात का संकेतक नहीं कि भारत के विषय में वह भ्रामक धारणा रखता था?

8-    भारत के इतिहास के विषय में 1930 में हीगेल ने कहा था, 'हिन्दुओं का कोई इतिहास नहीं है। ठीक-ठीक राजनैतिक अवस्था की प्रगति कुछ भी विकास नहीं हुआ…भारतीय कोई भी विदेश विजय नहीं कर पाये अपितु प्रत्येक अवसर पर स्वयं को ही हरवाते रहे हैं.' हीगेल की बात को आगे बढ़ाते हुये 1853 में मार्क्स ने लिखा, 'भारतीय समाज का कोई इतिहास नहीं है, कम से कम ज्ञात इतिहास। जिसे हम उसका इतिहास जानते हैं वह मात्र उन सतत आक्रान्ताओं का इतिहास है'। इसी कड़ी में 1941 में डॉ.आंबेडकर ने लिखा, 'भारत के प्राचीन इतिहास का बहुत बड़ा हिस्सा इतिहास है ही नहीं, बच्चों और महिलाओं के मन बहलाव के लिये पौराणिक (काल्पनिक) बना दिया गया है…भारत का इतिहास कुछ भी नहीं है अलावा ब्राह्मणवाद और बौद्ध –धर्म के नैतिक टकराव के …ब्राह्मणवाद और बौद्ध-धर्म के मध्य श्रेष्ठता के टकराव के'। आप बतलायें भारत के इस इतिहास से कितना सहमत हैं?

9-    अस्पृश्यता गुलामी से भी बदतर है तथा अस्पृश्य गुलामों के भी गुलाम हैं, इस सत्य के आईने में आंबेडकर द्वारा गुलामों के गुलामों की मुक्ति के रास्ते दुनिया के गुलामों को मुक्त कराने का संकल्प लेना क्या इस बात का संकेतक नहीं कि डॉ.आंबेडकर के समक्ष इतिहास ने मार्क्स के मुकाबले ज्यादा गुरुतर चुनौती पेश की थी?

10-                       भारत में मार्क्सवाद को नेतृत्व प्रदान कर रहे सवर्ण अगर सर्वस्वहाराओं की मुक्ति का युद्ध लड़ना चाहते हैं तो उन्हें शक्ति के स्रोतों पर 80-85 %कब्ज़ा जमाये अपने ही सजातियों के खिलाफ उस भूमिका में अवतीर्ण होना होगा जिस भूमिका में गोरे अमेरिकी गृह-युद्ध के दौरान अपने ही उन भाइयों के खिलाफ अवतरित हुये थे जिनमें वास कर रही थी उनके पुरुखों की आत्मा। इस पर आपकी क्या राय है?

तो मित्रों, आज इतना ही। फिर मिलते हैं कुछ दिनों के बाद, कुछ और नई शंकाओं के साथ।

बहस में सन्दर्भ के लिये इन्हें भी पढ़ें –

To the Self-proclaimed Teachers and Preachers : debate on 'Caste Question and Marxism'

क्या डॉ. आंबेडकर विफल हुये?

विचारधारा और सिद्धान्त जाति हित में बदल जाते हैं !

बहस अम्‍बेडकर और मार्क्‍स के बीच नहीं, वादियों के बीच है

दुनिया भर में अंबेडकर की प्रासंगिकता को लोग खारिज करके मुक्ति संग्राम की बात नहीं करते।

बीच बहस में आरोप-प्रत्यारोप

'हस्‍तक्षेप' पर षड्यन्‍त्र का आरोप लगाना वैसा है कि 'उल्‍टा चोर कोतवाल को डांटे'

यह तेलतुंबड़े के खिलाफ हस्तक्षेप और तथाकथित मार्क्सवादियों का षडयंत्र है !

भारतीय बहुजन आन्दोलन के निर्विवाद नेता अंबेडकर ही हैं

भावनात्‍मक कार्ड खेलकर आप तर्क और विज्ञान को तिलां‍जलि नहीं दे सकते

कुत्‍सा प्रचार और प्रति-कुत्‍सा प्रचार की बजाय एक अच्‍छी बहस को मूल मुद्दों पर ही केंद्रित रखा जाय

Reply of Abhinav Sinha on Dr. Teltumbde

तथाकथित मार्क्सवादियों का रूढ़िवादी और ब्राह्मणवादी रवैया

हाँडॉ. अम्‍बेडकर के पास दलित मुक्ति की कोई परियोजना नहीं थी

अम्‍बेडकरवादी उपचार से दलितों को न तो कुछ मिला है, और न ही मिले

अगर लोकतन्त्र और धर्मनिरपेक्षता में आस्था हैं तो अंबेडकर हर मायने में प्रासंगिक हैं

हिन्दू राष्ट्र का संकट माथे पर है और वामपंथी अंबेडकर की एक बार फिर हत्या करना चाहते हैं!

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