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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Saturday, April 6, 2013

शक्कर की कड़वाहट

शक्कर की कड़वाहट

शक्कर की मिठास में कड़वाहट घोलने की तैयारी लगभग पूरी हो चुकी है। आर्थिक मामलों की कैबिनेट समिति (सीसीईए) ने कुछ शर्तों के साथ लेवी शक्कर प्रक्रिया को समाप्त करने के अपने बहुप्रतीक्षित फैसले पर मुहर लगा दी है। गौरतलब है कि वर्ष, 2010 में भी कृषि मंत्री श्री शरद पवार ने प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह के समक्ष शक्कर उद्योग को विनियंत्रित करने की योजना प्रस्तुत की थी। इसके बरअक्स दिलचस्प तथ्य यह है कि विगत 15 सालों से इस योजना को अमलीजामा पहनाने के लिए कवायद की जा रही थी। इस दृष्टिकोण से देखा जाये तो सरकार द्वारा शक्कर उद्योग को ठीक चुनाव से पहले नियंत्रण मुक्त करना सरकार के फैसले को संदेहास्पद बनाता है।

नियंत्रण हटाने के बाद निजी शक्कर मिल मालिक अपनी मर्जी से शक्कर को खुले बाजार में बेच सकेंगे, लेकिन किफायती दर पर गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले वर्ग को शक्कर उपलब्ध करवाने का सिलसिला पहले की तरह बदस्तूर जारी रहेगा। पहले निजी शक्कर मिल मालिकों से उनके कुल उत्पादन का 10 प्रतिशत शक्कर सस्ती दर पर सरकार उनसे खरीदती थी, लेकिन अब कम कीमत पर बीपीएल वर्ग को उपलब्ध करवाये गये शक्कर का खर्च सरकार खुद वहन करेगी, जिससे सरकार पर सब्सिडी का बोझ बढ़कर लगभग 5300 करोड़ हो जायेगा और निजी शक्कर मिल मालिकों को 3,000 करोड़ का फायदा होगा। मौजूदा समय में सरकार बीपीएल वर्ग को महज 13.50 रुपये प्रति किलो की दर से शक्कर उपलब्ध करवाती है। लेवी प्रणाली को समाप्त करने के बाद राज्य सरकार बीपीएल वर्ग की जरुरत के अनुसार खुले बाजार से 32 रुपये किलो की दर से शक्कर खरीदकर सस्ती दर पर राशन दुकानों को उपलब्ध करवायेगी तथा कीमतों के अंतर की भरपाई केंद्र सरकार करेगी। ज्ञातव्य है कि वित्त मंत्रालय के विरोध के कारण शक्कर उद्योग को विनियंत्रित करने का मामला एक लंबे अरसे से अधर में लटका हुआ था, परन्तु लगता है कि शक्कर लॉबी के सामने सरकार ने अंततः अपने घुटने टेक दिये।

शक्कर उद्योग को नियंत्रण मुक्त करने के अलावा उत्पाद शुल्क में बढ़ोतरी की संभावना की वजह से भी बीते दिनों शक्कर के वायदा भाव में 2.5 प्रतिशत और हाजिर भाव में 1 प्रतिशत का इजाफा हुआ था। तदुपरांत उत्तर प्रदेश में शक्कर का भाव (मिल कीमत) तकरीबन 1 प्रतिशत बढ़कर 3200-3275 रुपये प्रति क्विंटल हो गया था, वहीं महाराष्ट्र में यह कीमत 3100-3150 रुपये और दिल्ली में 3400-3450 रुपये क्विंटल हो गया था। जानकारों का मानना है कि जल्द ही इसकी कीमत में 3 प्रतिशत की और भी बढ़ोतरी हो सकती है। उल्लेखनीय है कि हाल ही में केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार ने शक्कर पर उत्पाद शुल्क को 71 पैसे बढ़ाकर 1.5 रुपये प्रति किलो करने के खाद्य मंत्रालय के प्रस्ताव का समर्थन किया था।

सूत्रों के अनुसार शक्कर की कीमत में बढ़ोतरी का अंदेशा पहले से ही था, क्योंकि किसी भी जिंस की कीमत को उत्पादन लागत से कम नहीं रखा जा सकता है। ध्यातव्य है कि मौजूदा समय में शक्कर की कीमत इसके लागत भाव से कम है। वैसे शक्कर की कीमत में उबाल आने का कारण सिर्फ शक्कर पर उत्पाद शुल्क की बढ़ोतरी को नहीं माना जा सकता है। इसके अतिरिक्तशक्कर की कीमत में होने वाला उतार-चढ़ाव, आयात-निर्यात में व्याप्त असंतुलन, प्रर्याप्त भंडारण की कमी आदि को भी महत्वपूर्ण कारण माना जा सकता है। इस संदर्भ में ध्यान देने योग्य बात है कि प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार परिषद (पीएमईएसी) के अध्यक्ष सी रंगराजन की अगुआई वाली समिति ने पिछले साल ही शक्कर से जुड़े हुए दो तरह के नियंत्रण, मसलन-निर्गम प्रणाली और लेवी शक्कर को अविलंब समाप्त करने की सिफारिश की थी। इतना ही नहीं, इस समिति ने शक्कर उद्योग पर आरोपित अन्यान्य नियंत्रणों को भी क्रमश: समाप्त करने की बात कही थी।

माना जा रहा है कि शक्कर उद्योग को विनियंत्रित करने के लिए बढ़ते चैतरफा दवाब के ही कारण ही 80,000 करोड़ रुपये के शक्कर उद्योग को अंत में सरकार को नियंत्रण मुक्त करना पड़ा। उल्लेखनीय है कि शक्कर के विनियंत्रण के संबंध में दो सबसे बड़े उत्पादक राज्य उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र को छोड़कर अन्य 10 शक्कर उत्पादक राज्यों ने विनियंत्रण के पक्ष में अपना मत देकर इस दिशा में सरकार द्वारा निर्णायक फैसला लेने का रास्ता साफ कर दिया था।इस मामले में श्री पवार का कहना है कि शक्कर क्षेत्र को विनियंत्रित करने से किसानों को लाभ होगा। वे अपनी मर्जी से सबसे अधिक कीमत देने वाले शक्कर मिल मालिक को अपना गन्ना बेच सकेंगे। श्री पवार का यह भी कहना है कि विनियंत्रण के बावजूद सरकार गन्ना के लिए एफआरपी तय करना जारी रखेगी। एफआरपी उस न्यूनतम मूल्य को कहते हैं जो किसानों को शक्कर के मिल मालिकों के द्वारा गन्ने की कीमत के रुप में अदा की जाती है।

जाहिर है शक्कर उद्योग के विनियंत्रण के लिए निजी शक्कर मिल मालिकों के द्वारा व्यापक स्तर पर लाॅबीइंग किया गया। शक्कर उद्योग के पेड विश्लेषकों का कहना है कि शक्कर उद्योग में विनियंत्रण लाकर गन्ना के उत्पादन में स्थिरता लाई जा सकेगी, जबकि सच ठीक इसके उलट है। भारत में गन्ना या किसी भी दूसरे फसल का उत्पादन मानसून पर निर्भर करता है। दूसरे परिप्रेक्ष्य में इसे देखें तो विगत वर्षों में किसानों के मन में पनपने वाली निराशा के भाव ने भी गन्ना के उत्पादन को प्रभावित करने में अपनी महती भूमिका निभाई है। दरअसल, गन्ना किसानों को पिछले सालों में गन्ना की फसल से उनका लागत भी नहीं निकल सका है। कम या अल्प उत्पादन के साथ-साथ आमतौर पर बिचैलियों और कृत्रिम बाजार के दो पाट में पिसकर किसान आत्महत्या करने पर मजबूर हो जाते हैं। गन्ने का अच्छा उत्पादन हो या कम दोनों स्थितियों में किसानों को व्यापारियों और शक्कर मिल मालिकों की मर्जी से ही गन्ने की कीमत मिलती है। विगत वर्षों इस वजह से महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश के कुछ गन्ना किसानों ने मौत को भी गले लगा लिया था। स्पष्ट है कि वर्तमान परिवेश में गन्ना किसानों के पास गन्ना बोने से तौबा करने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है। इसलिए यह कहना कि शक्कर के क्षेत्र को विनियंत्रित करने से गन्ना के उत्पादन में स्थिरता आयेगी, पूर्णरुपेण गलत संकल्पना है।

फिलहाल शक्कर उद्योग पूरी तरह से सरकार के नियंत्रण में है। उत्पादन से लेकर वितरण तक सरकार का इसपर नियंत्रण है। मूलतः दो तरीके से इस पर नियंत्रण रखा जाता है। निर्गम प्रणाली के अंतर्गत सरकार शक्कर का कोटा तय करती है, जिसे खुले बाजार में बेचा जाता है। लेवी प्रणाली के तहत सरकार शक्कर मिलों के उत्पादन का 10 प्रतिशत हिस्सा राशन दुकानों को उपलब्ध करवाती है। वर्तमान में सरकार हर महीने मिलों के लिए खुली बिक्री और लेवी शक्कर के लिए कोटे की घोषणा करती है। इस आलोक में अब खुले बाजार में शक्कर बेचने के लिए कोटा व्यवस्था को समाप्त किया जाएगा। रंगराजन समिति ने भी कहा है कि शक्कर मिलों को खुले बाजार में शक्कर बेचने की स्वतंत्रता दी जाए। साथ ही, एक स्थिर आयात-निर्यात नीति का भी निर्धारण किया जाए। समिति का मानना है कि इस संबंध में जिंस वायदा बाजार के समुचित विकास को भी प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। वर्ष, 2010 का एफसीआरए संशोधन विधेयक भी वायदा बाजार आयोग (एफएमसी) को वित्तीय स्वायत्तता और संस्थागत निवेषकों को बाजार में कारोबार करने की सहूलियत देने की वकालत करता है।

अर्थशास्त्र के सिंद्धात के अनुसार मांग और आपूर्ति के बीच होने वाले उतार-चढ़ाव के द्वारा बाजार की दशा और दिशा को आकार मिलता है। यदि मांग ज्यादा और आपूर्ति कम हो तो जिंस की कीमत अधिक होती है, जिसे विक्रेता का बाजार कहते हैं। इसी तरह जब आपूर्ति अधिक होती है तथा मांग कम तो जिंस की कीमत कम होती है, जिसे हम क्रेता का बाजार कहते हैं। अर्थशास्त्र के इस स्थापित सिंद्धात को भी अक्सर व्यापारी अपने फायदे के लिए बदल देते हैं। इस खेल का सबसे बड़ा हथियार कालाबाजारी को माना जा सकता है। शक्कर के मामले में भी इसी खेल को शिद्दत के साथ खेला जाता रहा है। इस कारण शक्कर का बाजार अक्सर असंतुलित हो जाता है। जब सरकार के नियंत्रण में रहकर भी शक्कर लगातार कड़वी होती गई, तो विनियंत्रण के बाद हमारी जिहृवा से मिठास का लोप होना तो लाजिमी ही है।

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