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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Monday, April 15, 2013

पेशे में यंत्रणा

पेशे में यंत्रणा

Sunday, 14 April 2013 13:39

जनसत्ता 14 अप्रैल, 2013: पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता भाषा सिंह ने अपनी पुस्तक अदृश्य भारत में भारत की एक दृष्टि-ओझल नागरिक आबादी के निश्शब्द जीने-मरने और अब संघर्ष के पथ पर आगे बढ़ने की जद्दोजहद दिखाई है।

यह अदृश्य भारत मानव मल ढोने के बजबजाते यथार्थ से जुड़ा है। 
भारत में कश्मीर से कन्याकुमारी तक विभिन्न जलवायु और भूगोल वाले प्रांत हैं। यहां धर्म, भाषा, खानपान और पर्व-त्योहारों में भी विविधता है। लेकिन विस्मय की बात यह कि मैला ढोने के इस घृणित और अमानवीय कृत्य को पूरे भारत में एक ही जाति के सदस्य करते हैं। इनके लिए अलग-अलग भाषाओं में अलग-अलग संबोधन हैं, पर यह समुदाय दलितों में भी 'अछूत' ही समझा जाता है। 
भाषा सिंह का मानना है कि इस समुदाय की भयावह स्थिति के लिए हिंदू धर्म और उसकी जाति-व्यवस्था जिम्मेदार है, जिसने दलितों की भी अलग-अलग जातियों के भीतर दूरियां और भेदभाव पैदा कर दिए हैं। हिंदू धर्म की जाति-व्यवस्था को वे ऐसी 'जहरीली बेल' मानती हैं, जो 'धर्म बदलने, जातिगत पेशा छोड़ने के बाद भी पीछा नहीं छोड़ती, बल्कि डसती रहती है।' 
बेजवाड़ा विल्सन सफाई कर्मचारी आंदोलन से लंबे समय से जुड़े हुए हैं। उन्होंने इस पुस्तक के आमुख में कई ज्वलंत सवाल उठाए हैं। वे पूछते हैं कि 'क्यों देश के साढ़े सात सौ से ज्यादा मौजूदा और उनसे पहले के भी सैकड़ों सांसदों में से एक ने भी इस पर चिंता जाहिर नहीं की या संसद में हंगामा नहीं किया।' इसी तरह वे पूछते हैं कि 'दलित आंदोलनों ने कभी अपने ही भीतर के इस तबके की पीड़ा को मुद्दा नहीं बनाया। क्यों?'
यह पुस्तक इस समस्या की अखिल भारतीय व्याप्ति और घृणित उपस्थिति दर्ज कराती है। लेखिका बहुत व्यंग्यात्मक और सधे हुए ढंग से पुस्तक का आरंभ भारत के स्वर्ग कहे जाने वाले राज्य 'कश्मीर' से करती हैं। वे लिखती हैं कि 'हम बढ़े शौचालय की ओर, जो एक शुष्क शौचालय ही था। भीषण अनुभव रहा, उसे इस्तेमाल करना।... यहां कोई विकल्प नहीं था। इस मोहल्ले में इतनी कम जगह थी कि कहीं बाहर या खुले में नहीं जाया जा सकता था।... भयानक गंध और गंदगी... उबकाई को मुश्किल से रोका...। उफ्फ...। इसे इस्तेमाल करना इतना यातनादायक है, तो साफ करना कितना नारकीय होता होगा। कोई इंसान यह काम कैसे कर सकता है और क्यों हमारी पूरी व्यवस्था इस बर्बर जातिगत चलन को जारी रखे हुए है।' 
इसका उत्तर देता है- शहजाद। 'शहजाद तैयार थे इसे साफ करके दिखाने को, वे अपने साथ बेलचा भी लाए थे। लेकिन मन नहीं हुआ हममें से किसी का भी। शहजाद ने कहा, 'आप फ्रिक्र न करो मैडम, जैसे आपके लिए कलम पकड़ना, वैसे ही हमारे लिए बेलचा पकड़ना।' क्या वाकई यह सिर्फ अभ्यास की बात है! सफाईकर्मी या मैला ढोने वाले अकुशल श्रमिकों के लिए यह स्वेच्छया नहीं, बल्कि मजबूरी या अभिशाप है, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी उनके जीवन पर लदा रहता है। 
कश्मीर के बिलाल अहमद शेख के अनुभव से इसकी पुष्टि होती है कि कैसे इस गंदे काम की आदत पड़ती है। '...उन्होंने सत्रह साल की उम्र में यह काम शुरू किया, इसलिए बेहद दिक्कत हुई, तालमेल बिठाने में। फिर धीरे-धीरे आदत पड़ गई।' उनका यह भी मानना है कि अगर उनके बच्चों को भी यही काम करना है, तो वे उन्हें पढ़ाएंगे ही नहीं! 
हरियाणा की कौशल पंवार इस दिशा में एक प्रेरक नाम हैं, जिन्होंने परिवार के इस पेशे से अपने को अलग किया और आज वे दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में संस्कृत भाषा और साहित्य की प्राध्यापक हैं, साथ ही मैला मुक्ति अभियान से सक्रिय रूप में जुड़ी हैं। मैला ढोने को डॉ. पंवार 'हिंसा' मानती हैं। वे कहती हैं: 'मैला प्रथा एक ऐसी हिंसा है, जिसमें उन (दलितों) के आत्मसम्मान को कुचल कर मार दिया जाता है।' 

यह समुदाय सिर्फ हिंदू धर्म में नहीं, इस्लाम और सिख समेत अन्य धर्मों में भी अस्पृश्य और अदृश्य ही हैं। यहां कश्मीर के शोपियां शहर के वातल मोहल्ले की सारा की बात पर सहसा ध्यान चला जाता है। 'सबसे पहले (शादी की बात चलने से पहले) मैंने यह पता किया कि वहां टच पाजिन (मल ढोने) का काम तो नहीं है, तभी घर वालों को रिश्ते के लिए हां करने दी। मेरे होने वाले शौहर टेलर हैं, गरीब हैं, पर ठीक है। इस गंदे काम से तो छुटकारा है।' इस काम के प्रति घिन के कारण ही, यह उस काम को करने वाले पूरे समुदाय के प्रति व्यापक घृणा में बदल जाती है। यह पुस्तक चेतना जागृति के इस अर्थ में भी सामाजिक उपयोग की महत्त्वपूर्ण वस्तु बनती है। 
दो खंडों में विभाजित इस पुस्तक के पहले खंड में कश्मीर से कर्नाटक तक, ग्यारह राज्यों के आधार पर ग्यारह अध्याय हैं और दूसरे खंड में सरकारी तंत्र पर तीन अध्याय हैं। इसके अलावा, परिशिष्ट खंड में छह ऐसे अध्याय हैं, जिनमें कानूनी और प्रशासनिक मुस्तैदियों और कोताहियों का वर्णन है। 
हैरत की बात है कि पश्चिम बंगाल, जहां लंबे समय तक वामपंथी यानी श्रमिकों की सरकार रही, वहां भी इस प्रथा का उन्मूलन नहीं किया गया। भाषा सिंह ने इस अध्याय का शीर्षक दिया है- 'पश्चिम बंगाल: भाटपाड़ा- लाल माथे पर मैला'। उत्तर प्रदेश में सरकार चाहे किसी भी दल की हो, उसका इन समुदायों के जीवन पर कोई गुणात्मक प्रभाव नहीं पड़ता। दिल्ली समेत पूरे भारत ने जैसे इस समुदाय की भीषण और भयावह जिंदगी से आंखें फेर ली है। इस समुदाय के एक-एक व्यक्ति की चिरपोषित आकांक्षा है कि इस गंदे काम से मुक्ति मिल जाए, पर मुक्ति जैसे आकाशकुसुम हो गई है। 
डॉ   आंबेडकर ने बहुत पहले सफाईकर्मी समुदायों से अपील की थी कि इस अपमानजनक पेशे को तुरंत छोड़ कर दूसरे पेशों में लग जाना चाहिए। वे जानते थे कि जब तक कोई भी समुदाय इस काम से जुड़ा रहेगा, तब तक शेष समुदाय उससे अस्पृश्यता और दूरी बरतेंगे। 
प्रश्न है कि आखिर इस पेशे से इन समुदायों को आज तक मुक्ति क्यों नहीं मिल पाई। शायद इसलिए कि इस समुदाय का दुख-दर्द शेष भारत की चिंता और सरोकारों का अभिन्न हिस्सा नहीं हो पाया है। यह कैसा लोकतंत्र है जहां वर्ग, धर्म और जाति जानने के बाद आंदोलनों और कार्रवाइयों की रफ्तार, तेज या धीमी होती है। मैला ढोने के विरुद्ध कानून तो बहुत बने, पर उनका क्रियान्वयन बिल्कुल नहीं हो पाया। 
यह पुस्तक उस वर्ग के लोगों में इस दृढ़ इच्छाशक्ति को रेखांकित करती है कि वे स्वेच्छा से इस कार्य को छोड़ रहे हैं। दूसरी ओर, शासन-प्रशासन का भी आह्वान करती है कि वे अपने कर्तव्यों को निष्ठा से पूरा करें। पर भाषा सिंह कहती हैं कि जिम्मेदारी सवर्ण समुदाय की सबसे अधिक है, क्योंकि वही मुख्यतया शक्ति केंद्रों का संचालन सूत्र संभाले हुए है। इसी वर्ग की राष्ट्रनिष्ठा और ईमानदार कोशिशों के फलस्वरूप यह 'अदृश्य भारत' भारत के परिदृश्य पर दृश्यमान हो सकता है।

अजय नावरिया
अदृश्य भारत: भाषा सिंह; पेंगुइन बुक्स इंडिया प्रालि, 11 कम्युनिटी सेंटर, पंचशील पार्क, नई दिल्ली; 199 रुपए।

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/42417-2013-04-14-08-09-42

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