Twitter

Follow palashbiswaskl on Twitter

Memories of Another day

Memories of Another day
While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Monday, June 25, 2012

शून्य शिखर पर कुछ ना सूझै

http://visfot.com/index.php/permalink/6654.html

शून्य शिखर पर कुछ ना सूझै

By  
शून्य शिखर पर कुछ ना सूझै
Font size: Decrease font Enlarge font

जिस आर्थिक सुधार का ताना-बाना बीते दो दशकों से देश में बुना जा रहा है और अगर अब यह लगने लगा है कि बुना गया ताना-बाना जमीन से ऊपर था। यानी जमीन पर रहने वाले नागरिकों की जगह हवा में तैरते उपभोक्ताओं के लिये अर्थवयवस्था का खांचा बनाया गया तो कई सवाल एक साथ खड़े हो सकते हैं। मसलन क्या इन बीस बरसों में संसदीय राजनीति भी जमीन से उठकर हवा में गोते लगाने लगी? क्या लोकतंत्र का राग अलापती चुनावी प्रक्रिया भी लोगों के वोट से उपर उठ गई? क्या सरकार का टिकना या चलना जनता के ऊपर निर्भर नहीं रहा? क्या सत्ता का मतलब चुने हुए नुमाइन्दों से हटकर कुछ और हो गया?

जाहिर है सभी सवाल राजनीतिक हैं। तो क्या यह मान लिया जाये कि असल में इस दौर में राजनीतिक शून्यता ही गहराती चली गई और इस वक्त देश एक ऐसे मुहाने पर आ खड़ा हुआ है जहां विकल्प का सवाल भी विकल्पहीन हो चला है क्योंकि हर राजनीतिक अराजकता के सामने राजनीतिक शून्यता कुछ इस तरह आ खड़ी हुई है, जहां राजनीतिक अराजकता की सत्ता भी बर्दाश्त है।

देश के 14 कैबिनेट मंत्री दागदार हैं। प्रधानमंत्री चाहे दागदार नही हैं लेकिन वह दागदार मंत्रियों को देश के लिये बेदाग नीतियों को बनाने की जिम्मेदारी सौपने के गुनाहगार तो हैं। क्योंकि दागदार कभी बेदाग नीतियां बना नहीं सकते और यह गृह, रक्षा, संचार, कोयला, खनन, जहाजरानी, सडक, उर्जा, वाणिज्य मंत्रालय से लेकर योजना आयोग तक की नीतियों से सामने आया है। जाहिर है यहां सवाल सीधे सरकार का है, जिसे जनता ने चुना है। लेकिन यहीं से राजनीतिक शून्यता का वह सिलसिला शुरु होता है जो बताता है कि आखिर जनता द्वारा चुनी गई सरकार लगातार खुद की सत्ता बनाये रखने के लिये लोकतंत्र की सत्ता को खारिज कर देश के भीतर सत्ता की एक ऐसी लकीर खिंचती जिसमें हर तबके के भीतर सत्ता का कठघरा बनता चला जा रहा है। और लोकतंत्र की नयी परिभाषा हर सत्ता अपने अपने तरीके से गढ़ती चली जा रही है और वही लोकतंत्र की सत्ता कहलाने लगी है। यह सत्ता भ्रष्ट को भी पनाह देती है और ईमानदार को तमगे से नवाजती भी है। रईसों के लिये नीतियों की सुविधा बनाती है तो गरीब को भी सियासी सुविधा में तौलती है। यह हर स्वायत्त संस्था के भीतर नौकरशाह को सरकार से जुड़ने का न्यौता देकर उसकी अपनी सत्ता बनाने का मौका भी देती है और स्वायत्ता बरकरार रखने वाले नौकरशाह को सत्ता की हनक दिखाती भी है। यह जनता को वोट की ताकत समझाती भी है और कॉरपोरेट को ताकतवर बनाकर खुद उसके सामने नतमस्तक भी हो जाती है। यानी सत्ता लोकतंत्र का ऐसा ताना बाना बुनती है, जिसमें हर कोई अपने अपने घेरे में सत्ता बनने की पहल को ही लोकतंत्र मान लें।

2014 को लेकर जिस राजनीतिक संघर्ष की तैयारी में सभी राजनीतिक दल ताल ठोंक रहे हैं, वह ताल भी कही राजनीतिक तौर पर साझा रणनीति का हिस्सा तो नहीं है। जिससे देश के 72 करोड वोटरो को लगे कि उनकी भागेदारी के बगैर सत्ता बन नहीं सकती चाहे 2009 में महज साढ़े ग्यारह करोड़ वोटरों के आसरे कांग्रेस देश को लगातार बता रही है कि उसे जनता ने उसे चुना है और पांच बरस तक वह जो भी कर रही है वह जनता की नुमाइन्दगी करते हुये कर रही है। यह अलग बात है कि इस दौर में जनता सड़क से अपने नुमाइन्दों को संसद को चेताने में लगी है और संसद कह रही है कि यह लोकतंत्र पर हमला है।राजनीतिक विकल्प का संसदीय सवाल यही से शुरु होता है। और विपक्ष की राजनीतिक दिशा विकल्प का ताना बाना बुनती है। लेकिन यही से एक दूसरा सवाल भी खड़ा होता है कि सत्ता के सरोकर अगर जन-लोकतंत्र को नहीं देखते तो क्या विपक्ष की राजनीति जन-सरोकारो को देख कर अपनी सत्ता बनाती है। अगर विपक्ष की राजनीति के सरोकार जमीन से जुड़े हैं तो फिर सरकार कैसे जमीन से उपर हवा में गोते लगा कर अपनी सत्ता बरकरार रख सकती है। जाहिर है यहा सरकार को नहीं विपक्ष को परखने की जरुरत है। और विपक्ष का राजनीतिक मिजाज केन्द्र से लेकर राज्यों तक में इस एहसास को जगाता है कि सत्ता बरकरार होने या रखने का मतलब राजनीतिक शून्यता से लबरेज होना है। केन्द्र में भाजपा का रास्ता संघ परिवार यह कहकर बनाने पर आमादा होता है कि वह तो समाज और देश को देखता है। सियासत या सत्ता तो भाजपा की राजनीति के तंत्र हैं। जाहिर है कांग्रेसी सत्ता के लिये यह वाक-ओवर की स्थिति है। क्योंकि राजनीति का ककहरा भाजपा को वह परिवार पढ़ाता है जो खुद को गैर-राजनीतिक मानता है। इसका दोहरा असर भी राजनीतिक तौर पर भाजपा या संघ के भीतर से कैसे निकलता है, नरेन्द्र मोदी या संजय जोशी के सियासी कदमताल से समझा जा सकता है। गुजरात में संघ की व्यूहरचना करते करते मोदी संघ के दायरे से बाहर भाजपा की नई राजनीति के मार्गदर्शक बनते नजर आते हैं। तो भाजपा की राजनीति के संगठनिक व्यूह को रचते संजय जोशी भाजपा के बाहर निकाल दिये जाते हैं। और उनका आसरा संघ हो जाता है।

राजनीतिक शून्यता का यह खेल संयोग से हर प्रांत में उभरता है और सत्ता अपने लोकतंत्र का जाप सत्ता की भरपूर मलाई खा-खाकर करती जाती है। मसलन नरेन्द्र मोदी को राजनीतिक टक्कर देते नीतिश कुमार का लोकतंत्र बिहार से आगे जाता नहीं। और बिहार में लोकतंत्र का मतलब नीतिश की सत्ता पर अंगुली ना उठा पाने की शून्यता है। अगर कानून व्यवस्था को छोड दें तो बिहार के हालात में कोई परिवर्तन आया हुआ दिखता नंहीं है लेकिन बिगड़े हालात के मर्म में जाने का मतलब है नीतिश पर हल्ला बोल कम और लालू यादव की सत्ता को जगाना ज्यादा होगा, जो कोई बिहारी चाहेगा नहीं। और राजनीतिक तौर पर विपक्ष की यही शून्यता नीतिश को टिकाये भी रखेगी और मनमाफिक तानाशाह बनने से रोकेगी भी नहीं। अगर बारीकी से परखे तो मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, पंजाब सरीखे राज्यों में यही स्थिति है। उत्तर प्रदेश में सत्ताधारी यादव परिवार की बहू को कोई राजनीतिक चुनौती इसलिये नहीं मिलती क्योंकि राजनीतिक गणित में समाजवादी की स्थिति शतरंज की बिसात पर इस वक्त घोड़े की ढाई चाल वाली है। और हर किसी को लगता है कि जो हालात देश के हैं, उसमें मुलायम की किसी भी चाल की जरुरत उन्हें कभी भी पड़ सकती है।

लेकिन लोकतंत्र के तकाजे में जरा अतीत के पन्नों को टटोले तो इससे पहले यादव परिवार की बहू को उस कांग्रेसी उम्मीदवार ने मात दी थी, जिसकी पहचान राजनीतिक तौर पर नहीं थी और यूपी में कांग्रेस की साख नहीं थी। तब कांग्रेसी टिकट पर राज बब्र्बर इसलिये जीत गये क्योंकि तब डिंपल की जीत का मतलब सफेद पैंट-शर्ट पहने वसूली करने वालो का हुजुम होता। तो राज बब्र्बर की जीत के साथ वोटरों ने खुद को वसूली के आतंक से निजात दिलायी। लेकिन इस दौर में क्या सपा बदल गई। यकीनन नहीं। लेकिन सवाल है अब सपा के विरोध का मतलब है दुबारा उस मायावती की साख को जगाना जिसने राजनीतिक साख को भी नोटों की माला में बदला कर पहना और दलित संघर्ष के गीत गाये। तो बेटे के जरीये पिता मुलायम का समाजवाद लोकतंत्र के जैसे भी गीत गाये, वह बर्दाश्त करना ही होगा। यही सवाल पंजाब में अकालियो को लेकर खड़ा है। वहां कांग्रेसी कैप्टन का दरवाजा ही आम लोगों के लिये कभी नहीं खुलता तो खुले दरवाजे से बादल परिवार का भ्रष्टाचार ज्यादा बर्दाश्त है। छत्तीसगढ़ में जिसने भी कांग्रेसी जोगी की सत्ता के दौर को देखा-भोगा उसके लिये रमन सिंह की सत्ता की लुट कोई मायने नहीं रखती।

मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान इसलिये बरदाश्त है क्योंकि उनकी सत्ता जाने का मतलब है कांग्रेस के सियासी शंनशाहो का कब्जा। दिग्गी राजा से लेकर सिंधिया परिवार तक को लगता है कि उनका तो राजपाट है मध्यप्रदेश। कमोवेश यही स्थति उड़ीसा की है। वहां कांग्रेस या भाजपा जिस खनन के रास्ते लाभ उठाते रहे और इन्फ्रास्ट्रक्चर चौपट रहा। ऐसे में नवीन पटनायक चाहे उड़ीसा में कोई नयी धारा अभी तक ना बना पाये हो लेकिन नवीन पटनायक के विरोध का मतलब उसी कांग्रेस-भाजपा को जगाना होगा जिससे आहत उडीसा रहा। यानी सत्ता ने ही इस दौर में अपनी परिभाषा ऐसी गढी जिसमें वही जनता हाशिये पर चली गई जिसके वोट को आसरे लोकतंत्र का गान देश में बीते साठ बरस से लगातार होता रहा। क्योंकि जो सत्ता में है उसका विकल्प कही ज्यादा बदतर है। तो सवाल संसदीय चुनावी राजनीति पर है और राजनीतिक तौर पर पहली बार लोकतंत्र ही कठघरे में है क्योंकि जिन माध्यमो के जरीये लोकतंत्र को देश ने कंघे पर उठाया उन माध्यमों ने ही लोकतंत्र को सत्ता की परछाई तले ला दिया और सत्ता ही लोकतंत्र का पर्याय बन गया। इसलिये अब यह सवाल उठेंगे ही जो राजनीतिक व्यवस्था चल रही है उसमें सत्ता परिवर्तन का मतलब सिर्फ चेहरों की अदला-बदली है, और हर चेहरे के पीछे सियासी चेहरा एक सा है तो फिर जब उसके दायरे में आम आदमी या वोटर कितना मायने रखेगा? ऐसे में जो नीतियां बन रही हैं, जो संस्थाये नीतियों को लागू करवा रही हैं, जो विरोध के स्वर हैं, जो पक्ष की बात कर रहे है, सभी एक ही है। यानी इस दायरे में राजनेता, नौकरशाही, कारपोरेट घराने और स्वायत्त संस्थाये एक सरीखी हो चली हैं तो फिर बिगड़ी अर्थव्यवस्था या सरकार के कारपोरेटीकरण के सवाल उठाने का मतलब क्या हैं? जब सुननेवाले कान ही बहरे हो जाएं तो कैसे सुनाएं कि हालात अच्छे नहीं हैं।

No comments:

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...