मुसीबत बन गया मातृ संगठन
भारतीय जनता पार्टी के लिए अब उसका मातृ संगठन यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ही मुसीबत बनता जा रहा है। कभी राजनीति से दूर रहनेवाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अति राजनीतिक सक्रियता भाजपा को भटकाने लगी है। एनडीए का मजबूत गठजोड़ करके भाजपा को सत्ता और खुद को प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाने वाले अटल बिहारी वाजपेयी के निष्क्रिय होने के बाद खुद भाजपा तो दिशाहीन है ही, आरएसएस भी भाजपा की कमाई पर कब्जा जमाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है. इसका परिणाम यह हो रहा है कि भाजपा के राजनीतिक साथी भाजपा को आंख दिखाने लगे हैं। आलोक कुमार का आंकलन-
बीते दशक की शुरूआत में ही राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के अंदर उसे लेकर घटते आकर्षण पर चिंतन शुरू हो गया था। संघ का ''संस्कार'' भरने के लिए लगने वाली शाखा कम हो गई थी। शाखाओं में आने वालों की तादाद में कमी को दूर करने के उपायों पर चर्चा हुई थी। हालात में सुधार के लिए दो तात्कालिक प्रयास करने की बात सामने आई थी। पहला, गणवेश में बदलाव के जरिए आकर्षण बढाया जाए। संघ का गणवेश यानी खाकी निक्कर को बदलकर पहचान के लिए नया रुप रंग आजमाने पर बल दिया गया। दूसरी बात संघ की शाखाओं और उसमें शामिल होने वालों की संख्या में आ रही कमी को सुधारने के लिए उपायों पर सार्वजनिक चर्चा हुई। चर्चा से निकले नतीजे सार्वजनिक नहीं हुई। खोजखबर लेने पर पता लगा कि बदलाव की कोई हिम्मत नहीं कर पाया। इसलिए बदलाव के विचार को रोक दिया गया।
संघ से जुडी इन बातों का व्यापक महत्व है। खासकर, देश की मुख्य प्रतिपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी की मातृ संगठन के नाते आम भारतीयों के लिए यह समझना जरूरी है कि संघ के अंदर कोई बदलाव आने में आखिर इतना वक्त क्यों लगता है? या, बदलाव की जो बात होती है वह जड़ता का शिकार क्यों हो जाती है?
बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार के "गोल्डेन वर्ड" के प्रकरण ने संघ से जुडे सवाल को और महत्वपूर्ण बना दिया है। यह समझना जरूरी है कि 1996 से संघ की बैसाखी के सहारे बढे चले आ रहे नीतिश कुमार की टोली को सोलह साल के बाद भी ऐसा क्यों लगा कि प्रधानमंत्री पर संघ की पसंद को नहीं चलने दी जाए। 'एलायंस विद डिफरेंस' का मुखौटा बने नीतिश कुमार ने राष्ट्रपति चुनाव के वक्त प्रधानमंत्री की पसंद बताकर रोचक राजनीतिक स्थिति पैदा कर दी। नीतिश कुमार के मुताबिक प्रधनमंत्री की कुर्सी पर कोई धर्मनिरपेक्ष आदमी हीं बैठना चाहिए।
बिन मौसम बरसात की तर्ज पर आया यह सवाल और एऩडीए की दरार को चौड़ी कर गया, और नीतिश कुमार को फायदा दे गया। यूनाइटेड जनता दल के लिए गठबंधन धर्म से मुक्त होकर राष्ट्रपति चुनाव में कांग्रेस नेता प्रणव मुखर्जी के पक्ष मतदान करने का रास्ता खोल गया। जबकि बीजेपी की पसंद बने पूर्णों संगमा नीतिश कुमार की धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा में प्रणव मुखर्जी की तुलना में ज्यादा धर्मनिरपेक्ष हैं। पंडित प्रणब मुखोपाध्याय हर दशहरा अपने गांव में रहकर दुर्गा पूजा करने के आदी हैं। जबकि पूर्णों संगमा आदिवासी हैं और ईसाई होने के नाते धार्मिक अल्पसंख्यकों में शामिल हैं। पर नीतिश कुमार से ये बात कौन कहे। राजनीति की चौरस पर नीतिश की यह दूर की चाल है। जिसने दो साल बाद प्रधानमंत्री के चुनाव के वक्त हो सकने वाले राजनीति का बोध करा दिया।
होशियार मुख्यमंत्री ने हिंदुत्ववादी को प्रधानमंत्री मंजूर नहीं करने को इतना बडा मसला बना दिया कि गठबंधन धर्म से हटकर उनके दल का राष्ट्रपति चुनाव में अलग राह थाम लेने का मुद्दा गौण पड गया। बीजेपी में थोडी चीख चिल्लाहट हुई और फिर सब शांत हो गया। हिंदुत्ववादी को प्रधानमंत्री बनाने पर संघ प्रमुख मोहन भागवत का सवाल भरे बयान और संघ की पत्रिका के जरिए इसे तुल देने की कोशिश को फिलहाल बीजेपी का कोई बड़ा नेता ने तरजीह देने की मूड नहीं दिख रहा।
राजनीति की क्षितिज पर लुंजपुंज नजर आ रहे राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ और आपसी कलह की वजह से नेतृत्वहीन हुई बीजेपी को देखकर यह कहने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए कि राष्ट्रपति चुनाव के वक्त एनडीए की फूट ने कांग्रेस के लिए 2014 में यूपीए-3 की सरकार बना लेने की उम्मीद पैदा कर दी है। कांग्रेस के लिए अबतक दुरूह रहे रास्ते को आसान करते हुए शिवसेना ने जता दिया है कि एनसीपी के नाज नखरे से झेलने में अगर दिक्कत महसूस हो रही हो, तो चौरस पर वह शिवसेना को साथ लेने का चाल चल सकती है। जनता दल (यू) ने राष्ट्रपति चुनाव में अलग दाव लगाकर वेगा बाउंड वाले दलों को मिलाकर तीसरा मोर्चा बनने की उम्मीद पैदा कर दी है।
संघ की बैसाखी थामकर आगे बढने और दौडने की ताकत हासिल करते ही बैसाखी नचाकर फेंकने की चाहत रखने वाले नीतिश कुमार अकेले नहीं है। बल्कि एनडीए की प्रयोगधर्मिता की शुरुआत से ऐन वक्त पर बीजेपी को आइना दिखाने वालों की लंबी फेहरिस्त है। जिसकी वजह से एनडीए का सबसे बडा पार्टनर होने के बावजूद बीजेपी मौके बेमौके बौना नजर आता है। यह बीजेपी के मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की कमजोरी को भी दर्शाता है। यह साबित करता है कि लंबे समय तक सोहबत में रखने के बावजूद संघ परिवार अतिथि दलों के आचार विचार को प्रभावित करने की कूव्वत नहीं रखता है। गोल्डेन वर्ड के सहारे दूर की चाल चलने वाले नीतिश कुमार अपने समाजवादी साथी नवीन पटनायक के नक्शेकदम पर हैं। उडीसा में नौकरशाह से राजनीतिज्ञ बने प्यारे मोहन महापात्र की सलाह पर नवीन पटनायक ने छह साल पहले जो किया नीतिश बीजेपी नेतृत्व को वही कर देने की लगातार भभकी दे रहे हैं।
नवीन पटनायक और नीतिश कुमार ही नहीं दोनों राज्यों के बीच नए बने झारखंड में गठबंधन की राजनीति ने बीजेपी का बुरा हाल कर रखा है। राज्य में कहने को बीजेपी का मुख्यमंत्री है पर सबसे ज्यादा काम सहयोगी दल के दो उप मुख्यमंत्रियों के दफ्तर से चल रहा है। एक सहयोगी झारखंड मुक्ति मोर्चा से राज्य और केंद्र की राजनीति में दो अलग अलग रिश्ते बने हुए हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को बीजेपी जिस कोयला घोटाले की आंच पर जलाने की कोशिश कर रही है वह घोटाला उसी झामुमो के नेता शिबु सोरेन के कार्यकाल में हुआ है, जिसकी मदद से झारखंड में बीजेपी नेतृत्व वाली एनडीए की सरकार चल रही है। झारखंड के पडोस पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के उदय में एनडीए का अहम योगदान है। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार की मनमर्जी वाली मंत्री ममता ने बडी होशियारी से पश्चिम बंगाल में बीजेपी के पूरे वोट बैंक को अपने झोले में बंद कर लिया। पश्चिम बंगाल के पडोसी असम में बीजेपी संघ नेताओं के गठबंधन नहीं करने के स्पष्ट राय के बावजूद असम गण परिषद से गठबंधन करके कांग्रेस के लिए लगातार सत्ता में बने रहने का कारण बनती रही है।
दिल्ली प्रदेश की राजनीति में बीजेपी का शायद इसलिए बोलबाला है कि वो लाख जिद के बावजूद एनडीए के दलों को साझेदार नहीं बना रही है। पडोस के हरियाणा में बीजेपी कभी चौटाला, कभी बंसीलाल तो अब कुलदीप बिश्नोई की पार्टी की तरफ अपने वोटों को शिफ्ट करने का सौदा करती रही है। संघ के सिपाही पंजाब में अकाली दल को बडा पार्टनर जैसे तैसे अपनी साख बचाए हुए हैं। हिमाचल में बीजेपी के अंतरकलह से तीसरा मोर्चा अस्तित्व में आता दिख रहा है। आने वाले चुनाव में संघ नेताओं के आगे दुविधा है कि वह प्रेमकुमार धूमल के परिवारवाद और भ्रष्टाचार के खिलाफ खडे हुए नेताओं का समर्थन करे या फिर खुद को बीजेपी की डोर से बांधे रखे।
जम्मू कश्मीर की अंदरूनी सच्चाई है कि राजनीतिक कारणों से अक्सर संघ को बीजेपी के बजाए कांग्रेस का साथ निभाना पडता है। जम्मू से बीजेपी की तुलना में कांग्रेस का उम्मीद्वार ज्यादा हिंदुत्ववादी नजर आता है। दक्षिण के राज्य में आंध्र प्रदेश में बीजेपी चंद्रबाबू नायडू को साथ रखने की कीमत आजतक अदा कर रही है। जयललिता चाहकर भी बीजेपी के पाले में नहीं आ सकती इसलिए उसने बीजेपी के बडे नेताओं को ही अपनी पार्टी में शामिल करके संघ समर्थित मतों को अपने पाले में गिरने का रास्ता बना लिया है। केरल में संघ का मजबूत आधार के बावजूद कमजोर बीजेपी खडी नहीं हो पाई है। गोवा में बीजेपी के बजाय मनोहर पनिक्कर के व्यक्तिगत मेहनत की वजह से मौजूदा सरकार बनी है। गुजरात में नरेंद्र मोदी के आगे लिपलिपी बीजेपी का क्या होगा यह आने वाले चुनाव में साफ होना है। छत्तीसगढ और मध्यप्रदेश में बीजेपी की बेहतर हालत के पीछे राज्य के कांग्रेस नेताओं का दोनों राज्यों के बीजेपी मुख्यमंत्रियों पर खास कृपा को माना जाता है।
संघ और बीजेपी के आपसी रिश्तों में दुविधा के बीच इस सच को समझना भी जरूरी है कि राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की विचारधारा में चुम्बकीय ताकत नहीं है। ऐसे ताकत जिससे एकबार संसर्ग में आने वाले दल या राजनीतिक व्यक्तित्व उसमें सदा चिपके रहे। संघ को बाकी सब छोड छाडकर अपनी इस कमी को दूर करना चाहिए। वरना अब वह वक्त दूर नही दिख रहा जब जड़ता की शिकार लग रहे राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की न केवल राजनीतिक महत्वाकांक्षा अधूरी रह जाएगी बल्कि खुद उसका राजनीतिक महत्व पूरी तरह से खत्म हो जाएगा।
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