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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Saturday, June 30, 2012

गोली मारने के बाद यहां स्कूली बच्चे भी माओवादी बना दिये जाते हैं

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गोली मारने के बाद यहां स्कूली बच्चे भी माओवादी बना दिये जाते हैं

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शुक्रवार को छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में सीआरपीएफ की कोबरा बटालियन द्वारा एक कथित मुटभेड़ को माओवादियों से मुटभेड़ करार देना अब छत्तीसगढ़ सरकार का मंहगा पड़ सकता है. आज छत्तीसगढ़ के एक अखबार में छपी तस्वीरें और बयान इस मुटभेड़ पर उठाये जा रहे सवालों को सही साबित करती हैं. क्या इस मुटभेड़ में सुरक्षा बलों ने असहाय बच्चों, औरतों और ग्रामीणों को मारकर उन्हें माओवादी घोषित कर दिया? कहानी कुछ ऐसी ही नजर आ रही है.

छत्तीसगढ़ से प्रकाशित होनेवाले पत्रिका अखबार ने प्रत्यक्षदर्शियों के हवाले से इस मुटभेड़ पर सवाल खड़ा किया है. मुटभेड़ में घायल एक 14 वर्षीय बच्चे इरपा छोटू का बयान अखबार ने पहले पन्ने पर प्रकाशित किया है. इरपा छोटू का कहना है कि "हम लोग जानवर चरा रहे थे, उसी वक्त वहां नक्सली आ गये. वे लोग हमको जबर्दस्ती उस बैठक में ले गया जहां जमीन का एक विवाद सुलझाया जाना था. इतने में पुलिसवाले वहां आ गये और इसी के बाद मुटभेड़ हुई." छोटू का कहना है कि सुरक्षाबलों ने गोलीबारी शुरू की तो सारे नक्सली वहां से भाग गये. अगर छोटू की बात सही है तो फिर वहां जो लोग मारे गये वे कौन थे?

प्रत्यक्षदर्शियों के बयान और सरकार की गतिविधियों से इतना तो स्पष्ट होता जा रहा है कि सुरक्षा बलों ने सीधे सादे गांववालों का शिकार कर लिया और अब उन्हें नक्सली बताकर अपनी नाकामी छिपा रहे हैं. जो तस्वीरें प्रकाशित हुई हैं उसमें सिर्फ एक व्यक्ति के कपड़े उसके नक्सली होने का संकेत कर रहा है अन्यथा ग्रामीण महिलाएं और बच्चों ही हैं. मारे गये दो बच्चों के शरीर पर तो स्कूल का यूनिफार्म है. क्या अब नक्सली स्कूल यूनिफार्म में आतंकी गतिविधियां फैला रहे हैं. ये दोनों भाई हैं जिनमें से एक का नाम मरकाम सुरेश और दूसरे का नाम मरकाम नागेश है.

इस मुटभेड़ पर संदेह तब और बढ़ जाता है जब प्रशासन यह दावा करता है कि मारे गये लोगों में 19 लोगों में 13 हार्डकोर नक्सली थे. प्रशासन इनमें से कुछ का नाम भी बता रहा है और कह रहा है कि इन मारे गये लोगों में दंतेवाड़ा जेल ब्रोकर का मास्टरमाइंड मरकम सुरेश भी शामिल है. इसके अलावा जो लोग मारे गये वे जनमीलिशिया के सदस्य थे. अब अगर यह कहानी सच है तो फिर उस सच्चाई का क्या जिसमें पत्रिका अखबार ही दावा कर रहा है कि मारे गये ज्यादातर लोग स्थानीय कोरसेगुड़ा गांव के सदस्य थे. ये सब यहां जमीन का एक विवाद सुलझाने के लिए इकट्ठा हुए थे. हो सकता है यहां नक्सली आये हों लेकिन वे सुरक्षाबलों की गोलियां चलने से पहले ही भाग खड़े हुए. जिन्हें मारकर प्रशासन अपनी बहादुरी पर पीठ थपथपा रही है असल में वे सामान्य ग्रामीण थे जिसमें औरतें और बच्चे भी शामिल थे.

छत्तीसगढ़ में नक्सल मुटभेड़ का जो ढिंढोरा पीटा गया और रमन प्रशासन ने वाहवाही बटोरी उससे उनको भले ही कोई राजनीतिक फायदा मिले या न मिले लेकिन इतना तो तय है कि नक्सलवाद के नाम पर सरकारें कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र हैं. और संकट देखिए कि कोई सवाल उठाने की हिम्मत भी नहीं जुटा पाता है.

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