विशेष : पुस्तकों पर केंद्रित छमाही आयोजन : परिच्छेद :समीक्षा ' साक्षात्कार ' लेख ' कविता: जून, 2012
प्रस्तुति : अशोक कुमार पाण्डेय
बाजार - अतीत और वर्तमान: गिरीश मिश्र, ग्रंथ शिल्पी, पृ.174, मूल्य: 350 रु.
ISBN 978 - 81 - 7917 -184 - 4
बाजार को लेकर साहित्य और समाज, दोनों में जितनी बहस आज है, शायद पहले कभी नहीं थी। नब्बे के दशक में भूमंडलीकरण और उदारीकरण के संरचनात्मक समायोजन वाली नई आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद से जिस तरह से बाजार में नई-नई उपभोक्ता वस्तुओं का एकदम से आगमन हुआ और इस नई आर्थिक व्यवस्था के फलस्वरूप जन्मे एक नए मध्यवर्ग के बीच उपभोक्तावाद ने जिस तरह से जड़ें पसारी, यह वैकल्पिक व्यवस्था का स्वप्न देखने वाले लोगों के लिए भौचक कर देने वाली परिस्थितियां थीं। सोवियत रूस के विघटन के बाद पहले से ही अवसन्नता कि स्थिति में पड़े हुए बौद्धिक वर्ग के लिए यह परिघटना एक आघात से कम न थी। वैसे भी खासतौर पर हिंदी के साहित्यिक वाम के एक बड़े हिस्से के बीच वामपंथ को लेकर जो समझदारी रही वह किसी वैज्ञानिक समझदारी की जगह वंचित-शोषित वर्ग के प्रति एक भावनात्मक लगाव और पक्षधरता के कारण ही थी, आज भी है। यह कोई अस्वाभाविक बात नहीं थी, एक हद तक इसके सकारात्मक पहलू भी हैं, लेकिन कई बार वामपंथ के औजारों की सही समझ के अभाव में केवल भावनात्मक पक्षधरता ऐसे सूत्रों में अनूदित होती है कि वह उन्हीं उद्देश्यों के विरुद्ध काम करने लगती है, जिनके साथ होने का वह दावा कर रही होती है। बहुचर्चित कहानी 'बाजार में रामधन' इसका एक बड़ा उदाहरण है। उदारीकरण की नई नीतियों को लेकर अक्सर ऐसी चीजें देखी जाती हैं। इन्हें आजादी के बाद लागू की गई नीतियों और माडलों की तार्किक परिणिति की तरह देखने की जगह एक बिलकुल नई परिघटना की तरह देखा गया। नेहरूवादी समाजवाद को, जो अपने मूल में राजकीय पूंजीवाद का ही एक माडल था, शुरू से ही तमाम लोगों द्वारा 'समाजवादी' माडल की तरह देखा गया, जिनमें खुद को वाम कहने वाले साहित्यकार ही नहीं राजनीतिक कार्यकर्ता और नेता भी शामिल थे। तो नब्बे के दशक के बाद के समय में उस पुराने राजकीय पूंजीवाद को एक तरह की नास्टेल्जिया से याद किया जाना (जो कमोबेश अब भी जारी है) और प्रत्यक्ष दिखाई दे रहे 'शत्रु' — बाजार के खिलाफ जंग का ऐलान कर दिया गया। 'बाजार के खिलाफ' लिखी गई कविताओं से लेकर कहानियों, उपन्यासों और लेखों का एक जखीरा आज हमारे सामने है। एक ऐसे शब्द — बाजारवाद- के खिलाफ यह छायायुद्ध लगातार लड़ा जा रहा है, जो असल में कहीं है ही नहीं, जो असल में 'पूंजीवाद' की जगह बड़ी चतुराई से पूंजीवाद के सिद्धांतकारों द्वारा पेश किए गए शब्द 'बाजार प्रणाली' (मार्केट सिस्टम) का भ्रष्ट अनुवाद है। इस शब्द की लोकप्रियता का यह आलम है कि एक आलेख में मेरे द्वारा लिखे गए 'बाजार की ताकतों' को एक वरिष्ठ संपादक ने, जो एक वरिष्ठ साहित्यकार भी हैं, 'बाजारवाद' में तब्दील कर पूरे वाक्य को हास्यास्पद बना दिया था। वरिष्ठ अर्थशास्त्री और विश्व साहित्य के गंभीर अध्येता प्रोफेसर गिरीश मिश्र की सद्य-प्रकाशित पुस्तक 'बाजार-अतीत और वर्तमान' ऐसे संभ्रम के माहौल में बहुत सारे धुंध और जाले साफ करती है। वह न केवल इस शब्द के पीछे छुपी साजिश को सामने लेकर आती है, बल्कि पूंजीवादी अर्थशास्त्रियों द्वारा प्रस्तावित 'उपभोक्ता की सार्वभौमिकता' के दावे को भी प्रश्नांकित करती है। साथ ही बाजार की उत्पति से लेकर उत्पादन संबंधों में बदलाव के साथ-साथ आई इसकी भूमिका की विस्तार से जांच-पड़ताल करती है।
जिस पहली और सबसे जरूरी बात से वह आरम्भ करते हैं वह यह कि बाजार न तो पूंजीवाद के दौर की पैदाइश है न ही पूंजीवाद के साथ समाप्त हो जायेंगे। 'बाजार का उद्भव' नामक अध्याय में वह उन सामाजिक-आर्थिक स्थितियों का विस्तार से वर्णन करते हैं। प्राक-आधुनिक समाजों में वस्तु-विनिमय (बार्टर सिस्टम) की जगह मुद्रा के उदय की व्याख्या करते हुए वह मुर्गियों और बकरी के बीच के विनिमय की दिलचस्प दिक्कतों का वर्णन करते हुए प्राक-मुद्रा के उदय के बारे में बताते हैं। पश्चिम के साथ भारत में बाजार के उदय और विकास का निर्धारण करने के लिए अथर्ववेद, पाणिनी और कौटिल्य के उद्धरण देते हुए सिद्ध करते हैं कि 500 ई. पूर्व में ही व्यापार न केवल स्थानीय अपितु आयात-निर्यात संबंधी व्यापक स्तर पर भी शुरू हो चुका था। सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के विकास के साथ-साथ व्यापार की पूरी व्यवस्था की संरचना और स्वरूप में भी बदलाव आया। बाणभट्ट की हर्षचरितम के उद्धरणों के सहारे वह बताते हैं कि - इस दौर तक व्यापार में मुनाफाखोरी जैसी प्रवृत्ति भी आ गई थी। इस दौर में 'वणिज तस्कर' जैसे शब्द का प्रयोग मिलता है जिससे यह रेखांकित करने का प्रयास किया गया है कि चोर बने बिना धनवान वणिक होना मुश्किल है। साथ ही वह यह महत्त्वपूर्ण तथ्य भी रेखांकित करते हैं कि 'बाजार को राज्य द्वारा नियंत्रित रखने की परिघटना हजारों वर्ष पुरानी है'। अगले अध्याय में 'पूंजीवाद के पहले भारत में विनिमय' की विवेचना करते हुए तीन निष्कर्षों पर पहुंचते हैं, 'पहला — बाजार निरंतर विकसित और विस्तृत होता रहा, दूसरा- उत्पादन का मूल उद्देश्य उपभोग को विविधतापूर्ण बनाना था न कि मुनाफा कमाना और तीसरा — बाजार सख्ती से ग्राम समुदाय और तत्कालीन प्रशासनिक व्यवस्था के अधीन था, जहां कीमतों, वस्तुओं की गुणवत्ता और मापतौल पर राज्य या समाज की निगाह निरंतर बनी रहती थी। गड़बड़ी करने वालों पर सख्त कार्यवाही होती थी।' इसी दौर में योरोप के बाजारों की संरचना की विवेचना करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि सामंतवाद के पतन तक आई समस्त आर्थिक प्रणालियों के लिए 'यह प्रस्थापना सही थी कि पारस्परिकता, पुनर्वितरण और पारिवारिकता के सिद्धांत मूलाधार बने रहे'। हालांकि वह इस तथ्य को रेखांकित नहीं कर पाए हैं कि इस दौर में खासतौर से भारत जैसे समाज में, जहां जाति जैसी उत्पीडक सामाजिक संरचना के कारण स्वनिर्भर गांवों में उत्पादक खुद अपने उत्पाद का उपभोग कर पाने के लिए आजाद नहीं था, बाजार ने एक हद तक मुक्तिदाता की भूमिका भी निभाई, यहां ग़ालिब का वह शेर याद किया जा सकता है — 'और ले जायेंगे बाजार से गर टूट गया/ जाम-ए-जम से मेरा जाम-ए-सिफाल अच्छा है।'
बाजार का प्रभाव असल में पूंजीवाद के आगमन के साथ बढ़ता चला जाता है। इस दौर में बाजार 'समाज के कार्यकलाप में सहायक' की भूमिका से आगे बढ़कर एक ऐसी सत्ता में तब्दील हो जाता है जो पूरी आर्थिक प्रणाली का नियंत्रण, नियमन और निर्देशन करने लगता है। लाभ इकलौता उद्देश्य बन जाता है और बाजार पर समाज का नियंत्रण धीरे-धीरे खत्म होता चला जाता है। यह 'स्वचालित तथा स्वनियमित' बाजार मनुष्यता के समक्ष एक चुनौती की तरह आता है। उत्पाद आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए नहीं अपितु बाजार में बेचने के लिए आता है, जिसका उद्देश्य, जाहिर तौर पर मुनाफा कमाना होता है। यहां तक कि श्रम, भूमि और मुद्रा भी मुनाफे के उद्देश्य से माल में तब्दील हो जाते हैं। पोलान्यी का उद्धरण देते हुए वह बताते हैं कि 'श्रम, भूमि और मुद्रा को माल बनाकर उन्हें बाजार तंत्र के हवाले करने के परिणाम समाज के लिए विध्वंसकारी होंगे।' आज हिंदुस्तान सहित दुनिया भर में जारी जल-जंगल-जमीन की लूट और श्रम के बेतहाशा शोषण के साथ मुद्रा बाजार की उठापठक के चलते मानवता के सम्मुख उपस्थित अभूतपूर्व संकट के मद्देनजर इस भविष्यवाणी के महत्त्व को समझा जा सकता है। श्रम, भूमि और मुद्रा को माल बनाकर पूंजीवाद की हवस ने खुद स्वनियमित बाजार को भी संकट में डाल दिया है। इसका सीधा परिणाम 'बाजार और समाज में टकराव' के रूप में सामने आता है। इसी शीर्षक के अगले अध्याय में पूंजीवाद के विकास के साथ पैदा हुई परिस्थितियों का विस्तार से वर्णन किया है। योरोप में औद्योगीकरण की प्रक्रिया में हुए गांवों के विघटन और वहां से पलायन पर मजबूर मजदूरों की नगरीय व्यवस्था से पैदा हुई घृणा को रेखांकित करते हुए वह इस असंतोष के कारणों की विस्तार से विवेचना करते हैं। साथ ही वह पूंजीवादी उत्पादन संबंधों के स्थापित होने के साथ-साथ उसके पक्ष में चलने वाली बौद्धिक कार्यवाहियों का जिक्र करते हैं। एडम स्मिथ के 'वेल्थ आफ नेशंस' के साथ वह टामसन हाब्स और विलियम टाउनसेंड के उस निष्कर्ष का जिक्र करते हैं जिसमें यह साफ किया गया था कि 'मुक्त समाज में दो नस्लें होंगी, संपत्तिवानों की और मजदूरों की। मजदूरों की संख्या खाद्य पदार्थों की उपलब्धि पर निर्भर होगी; और जब तक संपत्ति सुरक्षित रहेगी तब तक भूख मजदूरों को काम करने के लिए बाध्य करेगी। किसी मैजिस्ट्रेट की जरूरत नहीं पड़ेगी, क्योंकि भूख अनुशासित करने का अच्छा तरीका है'। जाहिर है कि इस गैरबराबरी और संसाधनों की लूट के पक्ष में माल्थस या रिकार्डो जैसे सिद्धांतकार सामने आते हैं। पी बी से कहते हैं कि 'जो बना है वह सब बिक जाता है', एडम स्मिथ 'किसी अदृश्य हाथ द्वारा बाजार को हमेशा संतुलन में रखे जाने' की बात करते हैं, माल्थस श्रमजीवी वर्ग की विपन्नता की जिम्मेवारी उनके द्वारा जनसंख्या बढ़ाए जाने के सर थोप देते हैं। साहित्य से लेकर दर्शन तक में पूंजीवाद के निजी संपत्ति के अधिकार और श्रम, जमीन और मुद्रा को माल में बदल देने के पक्ष में माहौल बनाया जाता है। लेकिन इसी के साथ-साथ इस लूट का प्रतिरोध भी जन्म लेता है। गिरीश जी ने राबर्ट ओवेन का हवाला दिया है, जिसने 'अगर बाजार अर्थव्यस्था को अपने खुद के नियमों के अनुसार विकसित होने दिया गया तो वह बड़ी और स्थाई बुराइयों को जन्म देगी।' इसी दौर में अंपटन सिंक्लेयर के 'जंगल' जैसे उपन्यास लिखे गए, जो नई फैक्ट्रियों के भीतर श्रमिकों के भयावह शोषण और बाहर उनकी नारकीय जीवन स्थितियों का जिंदा दस्तावेज बना।
इस अध्याय में गिरीश जी, सामंतवाद के दौर से निकलकर पूंजीवाद के दौर में आने पर सामाजिक संरचनाओं में हुए बदलाव का जिक्र करते हैं। जाहिर तौर पर पूंजीवाद सामंतवाद की तुलना में एक आगे बढ़ी हुई सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था थी, जहां मनुष्य की अस्मिता और आजादी के लिए सम्मान था। आर्थिक गैरबराबरी तो खैर पूंजीवाद की लाक्षणिकता है ही, लेकिन सामंतवाद के सामाजिक गैरबराबरी वाले ढांचे में दरार तो इसने लगाई ही। गिरीश जी के शब्दों में ' जाति-बिरादरी, छुआछूत और धर्म-संप्रदाय के बंधनों से मुक्त तो कर दिया मगर भूख और सामाजिक असुरक्षा का हर्निश भय पैदा कर दिया'। हालांकि, भारत में अपनी स्वाभाविक विकास प्रक्रिया से गुजरे बिना जिस तरह से औपनिवेशिक शासन द्वारा बीमार और सतमासा पूंजीवाद आया, गिरीश जी का यह कथन और अधिक विवेचना की मांग करता है कि — 'ब्राह्मण-शूद्र, हिंदू-मुसलमान, ऊंच-नीच के भेद मिट गए और वे सब एक ही नई बिरादरी-मजदूर वर्ग- के सदस्य हो गए।' असल में, भारत में इस तरह के जाति-धर्म विहीन मजदूर वर्ग के उदय की बात सरलीकरण सी लगती है। यहां ये सामाजिक विभेद लंबे समय तक अधिरचना में उपस्थित रहे और आधार में आज भी इनकी गहरी उपस्थिति दिखाई देती है। इस संदर्भ में थोड़ी और विवेचना और खास तौर पर उस दौर के फुले-पेरियार-अंबेडकर जैसे आंदोलनों के महत्त्व के रेखांकन की आवश्यकता थी, साथ ही पूरी किताब में महिलाओं के संदर्भ में कोई बातचीत न होना भी खटकता है। पूंजीवाद महिलाओं को भी एक हद तक आजादी देता है, लेकिन साथ ही वह न तो उन्हें चूल्हे-चौके से मुक्ति दिलाता है और न ही लैंगिक असमानता को पूरी तरह खत्म करता है। साथ ही वह नारी देह को एक वस्तु के रूप में तब्दील कर देता और महिलाओं के श्रमिक के रूप में तब्दील हो जाने के बाद भी उन्हें पुरुषों की तुलना में दोयम दर्जे की मजदूरी और कार्य परिस्थितियां मिलती हैं। अभी हाल में आई जयति घोष की किताब 'नेवर डन एंड पुअरली पेड' और इन्द्रानी मजूमदार की किताब 'विमेन वर्कर्स एंड ग्लोबलाइजेशन' बताती है कि किस तरह आरंभिक पूंजीवादी बाजार में ही नहीं, बल्कि भूमंडलीकृत बाजार में महिला श्रम के साथ दोयम व्यवहार जारी है।
आगे के दो अध्यायों 'पाश्चात्य चिंतन में बाजार : एक' और 'पाश्चात्य चिंतन में बाजार : दो' में गिरीश जी बाजार के प्रति पश्चिमी समाजशास्त्रियों, दार्शनिकों तथा शासन व्यवस्था के बदलते नजरिये का विस्तार से जिक्र करते हैं। किताब पढ़ते हुए इन अध्यायों में बदलती सामाजिक व्यवस्थाओं के साथ बाजार के असर और उसके समर्थन के बदलते माहौल का जिक्र तो मिलता है, लेकिन यहां एक तरह का दोहराव भी लगता है और किताब के क्रम में एक व्यवधान सा आता भी दिखता है। ये दोनों अध्याय अगर 'बाजार और समाज में टकराव' के पहले होते तो शायद बेहतर होता। जहां पहले अध्याय में उन्होंने अरस्तू और ईसाई धर्मगुरुओं की 'धन कमाने की बेलगाम प्रवृत्ति के राजनीतिक सद्गुण और व्यक्ति के कल्याण के लिए घातक' होने की मान्यता के साथ शुरुआत कर अठारहवीं सदी आते-आते पूंजीवाद के प्रमुख विचारक वाल्तेयर के इस निषकर्ष कि 'धार्मिक सहिष्णुता और बाजार के बीच घनिष्ठ संबंध होता है' और फिर उनके इस स्टैंड कि 'धर्मगुरु, योद्धा और सामंत, खलनायक और व्यापारी नायक और बुद्धिजीवी होते हैं' के बहाने पहले कही बात को ही और स्पष्ट किया है। बाद में वह पूंजीवादी विचारों के विकास और इसी के बरक्स समाजवाद के विचार के विकास का विस्तार से विवेचन करते हुए हीगेल, मार्क्स और शुम्पीटर जैसे विचारकों पर चर्चा करते हैं। यहां भी शुम्पीटर के बाद सीधे केन्स का आना थोड़ा खलता है। यहां विषय विस्तार मांगता था। हालांकि केन्स के बाद के विकास को जरूरी तवज्जो दी गई है, जिसमें एक बार फिर से शासकीय नियंत्रण को समाप्त कर मुक्त बाजार विचारधारा की वापसी की बात की गई है। हां, यहां अगर भारतीय संदर्भ में नेहरूवादी 'मिश्रित अर्थव्यवस्था' के तत्कालीन पूंजीवादी विश्व की मजबूरियों और सहूलियतों तथा समाजवादी ब्लाक की मजबूत उपस्थिति के बरक्स चर्चा की गई होती तो पाठक के लिए इसके असली चरित्र को समझना और नेहरूवादी समाजवाद के पूंजीवादी रंग को पहचानना आसान हो जाता। साथ ही वह यह रेखांकित करने में भी स्पष्ट नहीं हैं कि बाजार नहीं बल्कि मुनाफे की हवस में डूबा अनियंत्रित पूंजीवाद हमारे समय के लिए घातक है, जिसके चलते उत्पादन आवश्यकता की पूर्ति की जगह माल के उपभोग को केंद्र में रखकर किया जाता है। दिक्कत बाजार से नहीं, उस पर पूंजीवादी नियंत्रण से है, जिसमें सारा अधिशेष पूंजीपतियों की जेब में चला जाता है और इस प्रकार सामाजिक संपत्ति व्यक्तिगत संपत्ति में तब्दील होती जाती है और असमानता की खाई और गहरी होती जाती है। जिस सरलीकरण के खिलाफ उन्होंने शुरू में बात की थी, कई बार 'बाजार के खिलाफ' जैसे टम्र्स का उपयोग कर वह खुद उसके शिकार होते हैं। यह विषय अलग से एक अध्याय की मांग करता है। इसके आगे मुद्रा बाजार की विवेचना है, जो अर्थशास्त्र न जानने वाले पाठकों के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है।
इस पुस्तक की एक विशिष्ट उपलब्धि है इसका अंतिम अध्याय 'ईश्वर मंडी और बाजार'। वाल्तेयर बाजार की उपस्थिति में जिस 'धार्मिक सहिष्णुता' की बात कर रहे थे, उसे तो खैर उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के इतिहास ने गलत साबित किया ही साथ ही मुनाफे की हवस ने धर्म को ही एक बाजार में तब्दील कर दिया। अक्सर हम सोचते हैं कि ऐसा हिंदुस्तान में ही हुआ। लेकिन गिरीश जी एमिल जोला की किताब लुर्द के हवाले से बताते हैं कि किस तरह डेढ़ सौ साल पहले एक असामान्य दृष्टि वाली चौदह साल की बच्ची द्वारा कुमारी मेरी के तथाकथित दर्शन के किस्से का वाणिज्यिक उपयोग कर पोप की संस्तुति से एक स्थल को तीर्थस्थल और उसके पास के झरने को 'चमत्कारी' घोषित कर वहां न केवल एक भव्य गिरिजाघर बनाया गया बल्कि उसे एक सफल वाणिज्यिक केंद्र में तब्दील कर दिया गया। एक ऐसे दौर में जब औद्योगिक क्रांति के प्रभाव में चारों ओर वैज्ञानिकता का बोलबाला था, यह परिघटना रहस्यात्मकता के प्रति लोगों के असीम आकर्षण और पूंजीवादी बाजार द्वारा हर चीज को माल में तब्दील कर लेने को स्पष्ट रेखांकित करता है। भारत में तो ऐसे तमाम किस्सों से हम परिचित हैं ही।
कुल मिलाकर गिरीश जी की यह किताब हिंदी में अर्थशास्त्र पर उपस्थित गैर पाठ्य-पुस्तकीय पुस्तकों की कमी को एक हद तक पूरा करने वाली ही नहीं बल्कि एक नई बहस को शुरू करने वाली भी है जो आम पाठक को चीजों को देखने की एक ताजा अंतर्दृष्टि देती है।
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