फिर क्यों भुगतान संतुलन का संकट?
एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास
ग्लोबल रेटिंग एजेंसी मूडीज ने बढ़ते राजकोषीय घाटे के साथ साथ भुगतान संतुलन के संकट की चेतावनी दी है। १९९१ में इसी भुगतान संकट के बहाने नरसिंहराव की अल्पमत कांग्रेसी सरकार नें वाम व संघी निष्क्रियता के माहौल में समाजवादी विकास का नेहरु इंदिरा माडल का परित्याग करके उदारीकरण का युग शुरु किया था। अमेरिकी सरकार के दबाव में तब विश्वबैंक के प्रतिनिधि बतौर डा. मनमोहन सिंह को भुगतान संकट से निपटने के लिए बतौर गारंटी भारत का वित्तमंत्री बनाया गया था। इंदिरा गांधी के मुख्य आर्थिक सलाहकार रहे अर्थशास्त्री डा. अशोक मित्र ने पूरे प्रकरण का खुलासी बहुत पहले कर दिया है और जिसका आज तक खंडन नहीं हुआ है।कांग्रेस की सरकार ने 1991 में आर्थिक सुधार की शुरुआत की जो इस अवधि से पहले के दशकों में भी सत्ता में थी, हालांकि 1977-79 के बीच गतिरोध का दौर जरूर रहा। बीस साल हो गये आर्थिक सुधारों के , लिकिन यह देश अब भी भुगतान संतुलन संकट के सामने असहाय है।याददाश्त इतनी भी कमजोर नहीं होनी चाहिए कि संकट ही याद न रहे। अभी 21 साल पहले की ही बात है, जब जून 1991 में विदेशी मुद्रा भंडार एक अरब डॉलर से भी कम रह गया यानी बस केवल तीन हफ्ते के आयात का जुगाड़ बचा था। रिजर्व बैंक ने विदेशी मुद्रा देना बंद कर दिया। निर्यातों को प्रतिस्पर्धात्मक बनाने के लिए तीन दिन में रुपये का 24 फीसद अवमूल्यन हुआ। आइएमएफ से 2.2 अरब डॉलर का कर्ज लिया गया और 67 टन सोना बैंक ऑफ इंग्लैंड व यूनियन बैंक ऑफ स्विटजरलैंड के पास गिरवी रखकर 600 मिलियन डॉलर उठाए गए, तब आफत टली।देश में विदेशी निवेश भी खूब हो रहा है और अब निवेश बढ़कर देश के जीडीपी का एक तिहाई हो गया है।वर्ष 1991 में जब भारत भुगतान संतुलन के संकट से गुजर रहा था तो सबकी आम सहमति से इसे अपने सोने के भंडार को गिरवी रखना पड़ा ताकि कर्ज का भुगतान किया जा सके। इसी दौर में आर्थिक सुधार की नींव पड़ी जिससे भारत की तकदीर में अविश्वसनीय बदलाव आया। 1991 में आर्थिक सुधार के सूत्रधार उस वक्त के वित्त मंत्री और मौजूदा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह थे। उस वक्त के प्रधानमंत्री पी वी नरसिंह राव ने भारत को इस संकट से बाहर निकालने के लिए सभी जरूरी कदम उठाने के लिए मनमोहन सिंह को इजाजत दे दी। उन्होंने, आईएमएफ से बड़ी मात्रा में संरचनात्मक समायोजित ऋण लेने और अर्थव्यवस्था को उदार बनाने के लिए सुधार के कार्यक्रमों की शुरुआत करके ऐसा कर दिखाया।राव की आर्थिक सुधार लाने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका थी लेकिन सावधानी के तौरपर वे मध्यमार्ग की बात करते थे।ठीक उसी तरह समावेशी विकास की मृगमरीचिका बनाने के लिए प्रधानमंत्री अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्व व्यापार संगठन और विश्वबैंक के अर्थशास्त्री डा. मनमोहन सिंह की राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने नीतियों की दिशा के निर्धारण में प्रधानमंत्री के मुकाबले कुछ एनजीओ को ज्यादा महत्वपूर्ण बना दिया है। इंदिरा के गरीबी हटाओ और समाजवादी विरासत वाले गांधी नेहरु वंशगर्भ से निकले राजनीतिक नेतृत्व को अच्छी तरह मालूम है कि चुनाव आर्थिक विकास से नहीं जीते जा सकते।वरन जनकल्याणकारी योजनाओं (जैसे मनेरगा),खैरात बांटने(2008 की कृषि ऋण माफी) या रोजगार में आरक्षण से जीते जाते हैं। उनका मानना है कि इस रणनीति ने उन्हें 2009 में दोबारा चुनाव जिताया और उसे बदलने में उन्हें कोई तुक नजर नहीं आता।जयपुर चिंतन शिविर में व्यक्त उद्गारों में इसी रणनीति की ही गूंज प्रतिगूंज है, सनसनीखेज बयानबाजी से धर्मनिरपेक्ष बाजारवादी हिंदुत्व का महाविस्फोट है। वैश्विक आर्थिक संकट के बीच फंसी भारतीय अर्थव्यवस्था का मौजूदा संकट भी इसका अपवाद नहीं है। आश्चर्य नहीं कि अर्थव्यवस्था के इस गहराते संकट को यू.पी.ए सरकार के आर्थिक मैनेजरों और नव उदारवादी आर्थिक सलाहकारों ने बहुत चालाकी के साथ मौके और उससे अधिक एक बहाने की तरह इस्तेमाल किया है। साल 2012 के उत्तरार्ध में यू.पी.ए सरकार ने जिस तेजी और झटके के साथ नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के अगले और सबसे कड़वे चरण को आगे बढ़ाया है, उससे ऐसा लगता है जैसे वह अर्थव्यवस्था के संकट के गहराने का ही इंतज़ार कर रही थी।
भुगतान संतुलन 1991
http://books.google.co.in/books?id=0cVCgRhW7SoC&pg=SA7-PA6&lpg=SA7-PA6&dq=%E0%A4%AD%E0%A5%81%E0%A4%97%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%A8+%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A4%A8+1991&source=bl&ots=LMZz5_AMzs&sig=sHH0jBGt2gzeVicmZaqcNH95zWY&hl=hi&sa=X&ei=eOf-UPw8iYStB-GzgKgC&ved=0CCkQ6AEwAA#v=onepage&q=%E0%A4%AD%E0%A5%81%E0%A4%97%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%A8%20%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A4%A8%201991&f=false
भुगतान संतुलन (बीओपी) खाते किसी देश और शेष विशव के बीच सभी मौद्रिक कारोबार का लेखा -जोखा होता है| दूसरे शब्दों में, यह एक निर्द्रिष्ट अवधि में एक देश और अन्य सभी देशों के बीच समस्त लेन - देन का अभिलेख है। यदि किसी देश को धन मिला है, तो वह ऋण कहलाता है।इसी प्रकार जब कोई देश धन देता है अथवा भुगतान करता है, इसे डेबिट अर्थात नामे डालना कहते है। सैद्धांतिक तौर पर यह कहा जाता है की भुगतान संतुलन (बीओपी) सदैव शून्य होना चाहिए। इसका अर्थ होता है कि परिसंपत्ति अथवा ऋण और देनदारियां अथवा नागे राशि, एक - दूसरे के बराबर होनी चाहिए।परंतु हकीकत में ऐसा विरले ही होता है और इसलिए किसी देश का भुगतान संतुलन आमतौर पर घाटे अथवा अतिशेष में होता है| ऋणात्मक भुगतान संतुलन का अर्थ होता है कि देश से बाहर जाने वाला धन आने वाली राशि से कम है। इसकी विपरीत स्थिति भी इसी श्रेणी में आती है।
याद करें कि पूर्व वित्तमंत्री और मौजूदा राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने पहले ही चेताया है कि 12वीं योजना में उच्च आर्थिक वृद्धि लक्ष्य हासिल करने के लिए सरकार को भुगतान संतुलन के मोर्चे पर बेहतर स्थिति बनाए रखने के ठोस उपाय करने होंगे।किंतु वित्तीय प्रबंधन में उनके उत्तराधिकारी भुगतान संतुलन संकट के बारे में देश को विश्वास में लेने के बजाय नायाब आंकड़ेबाजी से जनता कोगुमराह करने का खेल ही कर रहे हैं।सत्तावर्ग का हर शख्स इस खेल में शामिल है और इसीकी रणनीति बनाने में तमाम तरह का चिंतन मंथन होकर रंग बिरंगे उच्चविचार और भावनाओं के विस्पोटक उद्गार, एक दूसरे केकिलाफ फर्जी विरोध और घऋणा अभियान का आयोजन!विषपान का संकल्प और नीलकंठ बनकर सर्पाघात मिसाइलें!मुखर्जी ने ने पहले ही चेताया है मेरा मानना है कि यह सही फैसला है कि आठ प्रतिशत के आसपास का कुछ महत्वकांक्षी लक्ष्य वृद्धि लक्ष्य रखा गया है। यह हासिल हो सकता है। हालांकि, उन्होंने कहा लेकिन हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि यदि अभी सुधारात्मक उपाय नहीं किए गए तो भुगतान संतुलन संकट बढ़ सकता है। वित्त मंत्रालय और योजना आयोग को इसका ध्यान रखना होगा।सरकार ने 12वीं पंचवर्षीय योजना (2012 से 2017) के लिए सालाना औसत आठ प्रतिशत वृद्धि का लक्ष्य रखा है। प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में नई दिल्ली में हुई राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक में योजना को मंजूरी दे दी गई।राष्ट्रपति ने कहा कि 12वीं योजना के दौरान सकल पूंजी निर्माण जीडीपी का 37 प्रतिशत अनुमानित किया गया है और इसमें कहा गया है कि इसके लिये 35.1 प्रतिशत संसाधन सकल घरेलू बचत और 2.9 प्रतिशत विदेशी समर्थन से जुटाए जाएंगे।
भारत का विदेशी मुद्रा भंडार खाली है। सोना गिरवी रखा जाएगा। विदेशी मुद्राकोष [आइएमएफ] से कर्ज लिया जा रहा है। रुपया बुरी तरह गिरा है।विदेशी मुद्रा भंडार का तेजी से गिरना, व्यापार घाटे [आयात-निर्यात का अंतर] में अभूतपूर्व उछाल, रुपये पर दबाव, छोटी अवधि के विदेशी कर्जो का विस्फोटक स्तर और साथ में ऊंचा राजकोषीय घाटा यानी कि जुड़वा घाटों की विपत्ति। तकरीबन ऐसा ही तो था 1991। बस अंतर सिर्फ यह है कि तब भारत ग्यारह लाख करोड़ की [जीडीपी] अर्थव्यवस्था था और जो आज 50 लाख करोड़ की है। अर्थव्यवस्था बड़ी होने से संकट छोटा नहीं हो जाता। इसलिए विदेशी मुद्रा बाजार से लेकर बैंकों के गलियारों तक खौफ की ठंडी लहरें दौड़ रही हैं। मगर दिल्ली के राजनीतिक कानों पर रेंगने लिए शायद हाथी जैसी जूं चाहिए, इसलिए दिल्ली बेफिक्र ऊंघ रही है। गरीबों को सब्सिडी के कारण यह संकट नहीं है, जैसा कि विश्वबैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के पिट्ठू, कारपोरेट एजंट जनविरोधी अर्थशास्त्री बार बार कहते रहते हैं।भुगतान संतुलन के घाटे में आते ही एक जटिल दुष्चक्र शुरू हो जाता है। इसलिए दुनिया अब भारत के विदेशी मुद्रा भंडार से निकलने वाला एक एक डॉलर गिन रही है। केवल व्यापार घाटा ही नहीं, बल्कि विदेशी कर्ज भी तेजी से बढ़ा है। मार्च, 2011 में विदेशी कर्ज और विदेशी मुद्रा भंडार का संतुलन ठीक था, लेकिन दिसंबर में 88 फीसद कर्ज चुकाने लायक विदेशी मुद्रा ही हमारे पास बची। मार्च से दिसंबर के बीच विदेशी मुद्रा भंडार औसतन तीन फीसद घटा, जबकि विदेशी कर्ज करीब नौ फीसद बढ़ गया।
नेहरु जमाने से पूंजीपतियों को करों में छूट देकर राजस्व घाटे की भरपाई विदेशी ऋण से चुकाने की वजह से यह बीमारी है।विदेशी ऋण चुकाने का कोई आंकड़ा को कोई सरकार जारी नहीं करती और न ही पूंजीपतियों को करों में छूट का खुलासा किया जाता है और न ही राजस्व घाटे की भरपायी के लिए लिये गये विदेशी कर्ज के एवज में चुकता किये जाने वाले ब्याज का आंकड़ा जारी होता है।
वित्तमंत्री राजकोषीय घाटे के आंकड़े जारी करते हुए भुगतान संतुलन की सूचना सिरे से दबा रहे है।
अर्थ व्यवस्था में बुनियादी समस्याएं जस की तस है, कारपोरेचट वैश्विक मनुस्मृति व्यवस्था के जायनवादी हितों के लिए कारपोरेट नीति निर्धारण के तहत काले धन की अबाध प्रवाह ही आर्तिक सुधारों के अंतर्गत एक मात्र वित्तीय नीति है।धर्मनिरपेक्ष हिंदुत्व और संघी हिंदुत्व के अंध राष्ट्रवाद की राजनीति की संतान सरकारों के रंग चाहे कुच भी हो, जननियति नहीं बदलती।
उत्पादन प्रणाली ध्वस्त है, कृषि विकास दर शून्य के करीब है। पर पूंजीपतियों को छूट का अनंत सिलसिला है। न सिरफ गार को खत्म कर दिया गया, बल्कि पूंजीपति घरानों से लेकर बिल्डरों और प्रमोटरों तक को बैंकिंग लाइसेंस देने की तैयारी है ताकि मुद्राप्रणाली पर पूरा कारपोरेट वर्चस्व हो जाये।
जो असंवैधानिक अनिर्वाचक कारपोरेट विशषज्ञ १९९१ से देश में सरकारें और अर्थ व्यवस्था चला रहे हैं, उनकी सर्वोच्च प्राथमिकता जनसंहार संस्कृति और बहिस्कार आधारित अर्थतंत्र की निरतंरता है , जिसके लिए संसद , संविधान और लोकतंत्र की हत्या की जा रही है।
पर बेशर्म दगाबाज राजनीति या अराजनीति यह सवाल नहीं पूछता कि एक के बाद एक कानून सर्वदलीय सहमति से पास करने के बावजूद , इतने साहसी कदमों के बावजूद, शेयर बाजार में अक्षय दिवाली के बावजूद, पेंशन पीएफ बीमा और जमा पूंजी तक बाजार में झोंक देने के बावजूद, जल जंगल जमीन आजीविका और नागरिकता से बेदखली के जरिये कारपोरेट हित में प्रकृतिक संसाधनों के पर्यावरण और जलवायु का सत्यानाश करते हुए निर्मम दोहन के बावजूद दूसरे चरण के आर्थिक सुधारों के इस अश्वमेध समय में भुगतान संतुलन का संकट क्यों है?
भुगतान संतुलन को आसान शब्दों में एक देश और शेष दुनिया के बीच हुए वित्तीय लेन-देन का हिसाब कहा जा सकता है। दरअसल एक देश और शेष दुनिया के बीच में आयात- निर्यात के लिए होने वाला वित्तीय लेन-देन शामिल रहता है। इस आयात-निर्यात में वस्तुएं, सेवाएं, वित्तीय पूंजी और वित्तीय हस्तांतरण शामिल है।यह एक विशेष अवधि के आधार पर तैयार होता है। सामान्य रूप से इसे वार्षिक आधार पर तैयार किया जाता है। यह अकाउंट सरप्लस या डेफिसिट दोनों तरह का हो सकता है।अगर किसी देश का आयात उसके निर्यात से ज्यादा है तो सीधी सी बात है कि वह दूसरे देशों को ज्यादा मुद्रा चुकाएगा उसके एवज में उसे दूसरे देशों से कम मुद्रा मिलेगी। लेकिन यह अंतर दूसरे रास्तों से कम किया जा सकता है। विदेशों में किए गए निवेश पर होने वाली आय से इस घाटे की क्षतिपूर्ति की जा सकती है। इसके अलावा दूसरे बैंकों को दिए गए लोन से भी आय हो सकती है। हालांकि बीओपी हमेशा ही संतुलित रहता है।इसका कारण यह होता है कि इसमें कई क्षेत्र शामिल रहते हैं। अगर एक क्षेत्र में घाटा होता है तो दूसरे क्षेत्र के मुनाफे से उसकी भरपाई हो जाती है। हालांकि अलग-अलग असंतुलन होना भी संभव है जैसे कि चालू खाता आदि। मतलब यह है कि जब बात भुगतान संतुलन की होती है तो उसमें देश के संपूर्ण लेन- देन का हिसाब होता है लेकिन अगर अलग- अलग क्षेत्रों की बात करे तो इनमें असंतुलन हो सकता है।
बहरहाल राजकोषीय मजबूती की भारत की प्रतिबद्धता दोहराते हुए वित्त मंत्री पी़ चिदंबरम ने यथारीति जनता कीआंखों में दूल झोंकने की रणनीति के तहत कहा है कि चालू वित्त वर्ष में राजकोषीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 5.3 प्रतिशत रहेगा और अगले वित्त वर्ष (2013-14) में इसे और कम कर 4.8 प्रतिशत तक लाया जाएगा।चिदंबरम ने कहा कि सरकार ने हाल के महीनों में वित्त में सुधार के लिए जो कदम उठाए हैं उनसे रेटिंग में कमी के जोखिम से बचने में मदद मिलेगी। स्टैंडर्ड एंड पूअर्स तथा फिच रेटिंग एजेंसियों ने भारत की रेटिंग घटाने की चेतावनी दी है। ग्लोबल रेटिंग एजेंसी मूडीज ने बढ़ते राजकोषीय घाटे पर भारत को आगाह किया है। भारत की रेटिंग को मौजूदा स्तर पर बरकरार रखते हुए एजेंसी ने कहा है कि ऊंचा राजकोषीय घाटा आने वाले वर्षो में आर्थिक विकास दर को प्रभावित कर सकता है।
मूडीज ने इंडिया रेटिंग रिपोर्ट में कहा कि बढ़ते राजकोषीय घाटे और कर्ज अनुपात के आलावा बुनियादी ढांचे के रूप में आपूर्ति संबंधी बाधाएं, नीति व प्रशासनिक खामियों के चलते सरकार की साख खराब होती है। फिलहाल, एजेंसी ने भारत की रेटिंग बीएए3 पर बरकरार रखी है। यह स्थिर परिदृश्य के साथ भारत को बेहतर निवेश गंतव्य के तौर पर दिखाती है। अंतरराष्ट्रीय एजेंसी का मानना है कि भारत की व्यापक आर्थिक रूपरेखा में सरकार की वित्तीय स्थिति ही सबसे कमजोर पहलू है। उसका अनुमान है कि सरकार की वित्तीय स्थिति मध्यम अवधि में कमजोर रहेगी। इसमें सतत सुधार से रेटिंग उन्नत भी हो सकती है। आर्थिक विकास की संभावना पर मूडीज ने कहा कि नरमी बनी हुई है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आर्थिक विकास की रफ्तार धीमी पड़ने से यह और धीमी हो सकती है। हालांकि, मजबूत घरेलू बचत और गतिशील निजी क्षेत्र मध्यम अवधि में मजबूती प्रदान करेगा। एजेंसी का अनुमान है कि चालू वित्त वर्ष में भारत की आर्थिक विकास दर 5.4 फीसद रहेगी। 2013-14 में इसके छह फीसद रहने के अनुमान हैं। बीते वित्त वर्ष में आर्थिक विकास की दर साढ़े छह फीसद रही थी।
वित्त मंत्री ने मंगलवार को कहा कि पहला कदम राजकोषीय मजबूती है, भारत इसके लिए प्रतिबद्ध है। इस वित्त वर्ष के अंत तक हम राजकोषीय घाटे को 5.3 प्रतिशत पर रखने में सफल होंगे और अगले वित्त वर्ष में यह 4.8 फीसदी से अधिक नहीं होगा।
वित्त मंत्री ने कहा कि सरकार का इरादा अगले पांच साल के दौरान हर साल राजकोषीय घाटे में 0.6 प्रतिशत की कमी लाने का है। सब्सिडी पर बढ़ते खर्च की वजह से सरकार के वित्त पर दबाव बढ़ा है। इसके चलते सरकार को चालू वित्त वर्ष के लिए राजकोषीय घाटे के लक्ष्य को 5.1 प्रतिशत से बढ़ाकर 5.3 फीसदी करना पड़ा। अन्यथा किसी भी स्थिति में मैं 5.3 प्रतिशत राजकोषीय घाटे को पूरा करने के लिये सहमत नहीं होता।
हममें से कई लोग भारतीय अर्थव्यवस्था के मौजूदा रिकॉर्ड से खुश होंगे क्योंकि वह तेज रफ्तार से वृद्घि करने वाली अर्थव्यवस्था है लेकिन वे भूल चुके हैं कि आजादी के बाद भारत ने समान रूप से जबरदस्त शुरुआत की थी। बीसवीं सदी की एक जानी-मानी शख्सियत जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में भारत ने विकास योजना की आधारशिला रखी और इसमें देश अग्रणी रहा।सबसे ज्यादा उल्लेखनीय बात यह रही कि सरकार के दिशानिर्देशों के साथ नियंत्रणबद्घ योजना की प्रक्रिया शुरू हुई और भारत ने वर्ष 1954-55 और और 1964-65 के बीच सालाना औसतन 8 फीसदी से ज्यादा की औद्योगिक वृद्घि हासिल की। लेकिन इसके बाद वह बिल्कुल अलग पड़ गया। इस दौर के अगले 10 सालों को (1965-66 से 1974-75) आजादी के बाद के इतिहास में सबसे बुरे वक्त के तौर पर देखा गया। इस दौरान औद्योगिक वृद्घि में गिरावट आई और यह सालाना 3 फीसदी रह गई, वहीं कुल वृद्घि दर में भी कमी आई और यह करीब 2 फीसदी पर आ गई।भारत को समय-समय पर भुगतान संतुलन के संकट का सामना करना पड़ा। ऐसे में भारत को अपनी न्यूनतम जरूरतें पूरी करने के लिए बाहरी मुल्कों से मदद की गुहार लगाने के अलावा कोई और विकल्प नहीं बचा था। 1970 के मध्य से योजनागत विकास से मोहभंग होने लगा और अर्थव्यवस्था में उदारीकरण की मांग होने लगी। 5 जनवरी 1976 को संसद में दिए गए राष्ट्रपति के अभिभाषण में सरकार ने ऐसे नियंत्रण को खत्म करने का इरादा जताया जो उत्पादकता बढ़ाने और उद्यमशीलता के आधार के लिए प्रासंगिक नहीं थे।
तगड़ी चुनौती
संपादकीय / 01 02, 2013
भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने बीते सोमवार को वर्ष 2012-13 की दूसरी तिमाही में देश के भुगतान संतुलन संबंधी आंकड़े जारी कर दिए। इनमें उन चुनौतियों का जिक्र है जिनका सामना देश को नए साल में करना होगा। चुनौतियां मामूली नही हैं। जुलाई-सितंबर 2012 के दौरान देश का चालू खाता घाटा (सीएडी) सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 5.4 फीसदी के बराबर रहा। पिछले साल की समान अवधि में सीएडी जीडीपी के 4.2 फीसदी के बराबर था। वह स्तर भी कम नहीं था लेकिन वह मौजूदा आंकड़ों के समान चौंकाने वाला भी नहीं था। देश के सीएडी में हो रहे इजाफे के लिए निर्यात से आने वाले राजस्व में कमी जिम्मेदार है। इसके अलावा आयात में कोई कमी नहीं आई ताकि उसकी भरपाई हो सके। सोने की जबरदस्त मांग ने भी आयात में वृद्घि जारी रखी। इसका एक अर्थ यह भी है कि देश की विभिन्न वित्तीय योजनाएं निवेशकों को आकर्षित नहीं कर सकीं और उन्होंने सोने में निवेश करना बेहतर समझा। चालू खाता घाटे की भरपाई भारी मात्रा में पूंजी के जरिये की जा रही है। पिछला साल भारतीय शेयर बाजारों के लिए बेहतरीन था क्योंकि विदेशी संस्थागत निवेशकों ने भारतीय शेयरों में जबरदस्त रुचि दिखाई। उनके जरिये देश में आने वाली पूंजी के जरिये ही सीएडी का प्रबंधन किया जा सका। लेकिन यह समझा जाना चाहिए था कि केवल विदेशी संस्थागत निवेशकों के भरोसे के दम पर यह कितना टिकाऊ साबित होगा। सोमवार को ही वित्त मंत्रालय ने सिंतबर 2012 तक देश के बाहरी कर्ज संबंधी जानकारी भी सार्वजनिक की। इसमें भी पिछली तिमाही के मुकाबले 5.8 फीसदी का इजाफा हुआ है। अल्पावधि के दौरान लिए जाने वाले कर्ज में मार्च 2012 के स्तर के मुकाबले 8.1 फीसदी की दर से भी अधिक तेजी से बढ़ोतरी हुई। कोई भी देश आयात की भरपाई अपने अल्पावधि के कर्ज से करके लंबे समय तक बचा नहीं रह सकता। इन आंकड़ों में भविष्य के लिए क्या संकेत हैं? सबसे बड़ी बात तो यह है कि भारत में मांग का स्तर अभी भी भी बहुत अधिक बना हुआ है। खासतौर पर सोने और तेल की मांग बहुत ज्यादा है और उसकी भरपाई निर्यात से आने वाले राजस्व से नहीं हो सकती। अगर विश्व अर्थव्यवस्था में सुधार होता है तब भारत का निर्यात सुधर सकता है लेकिन यह प्रक्रिया बेहद धीमी है। इस बीच बाहरी वित्तीय मदद के अन्य स्रोत कमजोर बने हुए हैं। आरबीआई ने विशिष्ट उल्लेख किया है कि निजी हस्तांतरण कमजोर बना रहा है। वर्ष 2012-13 की दूसरी तिमाही में विदेशों से भारतीयों द्वारा भेजा जाने वाला धन महज 2.9 फीसदी की दर से बढ़ा। पिछले सालों की समान तिमाही में यह 20 फीसदी तक की दर से बढ़ता रहा है। अतीत में निर्यात के मोर्चे पर खराब प्रदर्शन की भरपाई विदेशों से भेजे गए धन द्वारा होती रही है। उसकी वजह से ही वर्ष 2011-12 के आंकड़े कुछ ठीकठाक रहे। इस वर्ष भी हम बहुत सुरक्षित नहीं है। हम अनिवासी भारतीयों की जमा अथवा कंपनियों की ऊंची बाह्यï वाणिज्यिक उधारी के जरिये इसकी भरपाई करना जारी नहीं रख सकते। जुलाई-सितंबर 2012 के दौरान इक्विटी फ्लो आने से दो तिहाई से अधिक सीएडी की भरपाई हुई। जुलाई-सितंबर 2011 के दौरान यह महज 30 फीसदी था। निवेशकों का किसी भी क्षण मोहभंग हो सकता है। विदेशों से भारतीयों द्वारा भेजा जाने वाला धन का सिलसिला भी कमजोर बना हुआ है। निर्यात में रातोंरात सुधार नहीं हो सकता। अचानक ऐसा हो सकता है कि हम तेल अथवा सोना आयात करने की स्थिति में न रह जाएं। 31 दिसंबर 2012 को जारी किए गए आंकड़े बताते हैं कि हम ऐसे संकट के कितने करीब हैं। वर्ष 2013 में नीतिकारों की पहली चुनौती इससे बचना होगी।
http://hindi.business-standard.com/storypage.php?autono=67507
तेज विकास के लिए ध्यान रखनी होंगी बातें कुछ खास
शंकर आचार्य / January 10, 2013
अधिकांश लोग सन 1991 के बाहरी भुगतान संकट के बाद के यानी पिछले 20 सालों के दौरान देश के विकास क्रम और उसके दायरे के बारे में जानकारी रखते हैं। बस जरा याददाश्त को ताजा करते हैं। सन 1950 से 1980 के बीच के तीन दशकों में देश की विकास दर चार फीसदी से भी कम बनी रही और 80 के दशक में यह दर मामूली बढ़कर 5.4 फीसदी हो गई। सन 1991 के दशक के बाह्य भुगतान संकट ने व्यापक पैमाने पर आर्थिक सुधारों का मार्ग प्रशस्त किया। इसके बाद सन 1992 से 97 तक देश की विकास दर 6.6 फीसदी रही। इसके बाद पूर्वी एशियाई संकट आया और विकास दर एक बार फिर सुधार के पहले के स्तर यानी 5.4 फीसदी पर पहुंच गई। यह स्थिति 2003 तक बनी रही। सौभाग्यवश वर्ष 1998-2004 के दौरान राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार के कार्यकाल के दौरान आर्थिक सुधारों को नए सिरे से अंजाम दिया गया और इसे वैश्विक आर्थिक तेजी का साथ भी मिला। वर्ष 2003-08 के दौरान आई तेजी की नींव रखी गई। इस अवधि में विकास दर तकरीबन 9 फीसदी रही। इसके बाद के चार सालों में वैश्विक आर्थिक संकट का प्रभाव देखने को मिला और वर्ष 2011-12 में विकास दर घटकर 6.5 फीसदी पर आ गई और चालू वित्त वर्ष में वह छह फीसदी से भी नीचे है। शुरुआती मजबूती की बदौलत ही वर्ष 2009-12 के दौरान विकास दर 7.5 फीसदी बनी रही लेकिन आगे विकास दर में कमी अवश्यंभावी है।
इस आलेख के जरिये हम विकास के कुछ व्यापक रुझानों पर नजर डालेंगे और पिछले दो दशकों के राष्ट्रीय लेखा आंकड़ों के जरिये कुछ प्रमुख बिंदुओं की व्याख्या करेंगे। पिछले दो दशकों को चार भागों में बांटा जा सकता है। शुरुआती यानी सुधार के आधार पर तेजी वाला वर्ष 1992-97 के बीच का समय, सन 1997 से 2003 के बीच का आगामी हल्के सुधार वाला समय, वर्ष 2003-08 के बीच का जबरदस्त तेजी वाला वक्त और वर्ष 2009 -12 तक हालिया गिरावट वाला वक्त।
वर्ष 1992 से 1997 तक के सुधार आधारित विकास वाले समय की बात करें तो वह बेहद संतुलित था। उस वक्त विकास में कृषि का योगदान पांचवां हिस्सा, उद्योग जगत का (विनिर्माण के अलावा) चौथाई हिस्सा और सेवा क्षेत्र (विनिर्माण समेत) आधे से अधिक था। दूसरी बात, बात उस वक्त उद्योग जगत में खासी विविधता थी और यह जीडीपी में 20 फीसदी से अधिक योगदान कर रहा था। तीसरा, अगले तीन काल खंडों को देखें तो वे कम
संतुलित नजर आते हैं। जीडीपी में सेवा क्षेत्र की हिस्सेदारी काफी बढ़ गई है। चौथी बात, इन तीनों अवधियों में कृषि का योगदान काफी कम रहा और 1990 के दशक की शुरुआत में जहां कृषि का योगदान 30 फीसदी था वहीं वर्ष 2009-12 के दौरान यह घटकर 15 फीसदी रह गया। पांचवीं बात, जीडीपी विकास में उद्योग जगत के योगदान में उतार-चढ़ाव आता रहा लेकिन फिर भी समूची अवधि के दौरान यह 20 फीसदी से अधिक बना रहा। छठी बात, इसका मतलब यह है कि जीडीपी में कृषि की हिस्सेदारी में 15 फीसदी की जो गिरावट आई वह पूरी तरह सेवा क्षेत्र के खाते में गई। जीडीपी में इस क्षेत्र की हिस्सेदारी 1990 के दशक के 51 फीसदी से बढ़कर 2009-12 में 66 फीसदी हो गई।
सेवा क्षेत्र के दबदबे वाला यह विकास रुझान विभिन्न क्षेत्रों के प्रतिनिधित्व वाले धीमे विकास से तो बेहतर ही है। बहरहाल, जैसा कि मैंने कई वर्ष पहले कहा था इससे लंबी अवधि के दौरान स्थिरता की समस्या जरूर पैदा होती है। उद्योग जगत की हिस्सेदारी में लंबी स्थिरता भी निश्चित तौर पर चिंता का विषय बनेगी। इन सब बातों के बीच देश की श्रम शक्ति का बदलता स्वरूप भी चिंता का विषय है। इसमें धीरे-धीरे बदलाव आ रहा है। जीडीपी में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी भले ही घटकर 15 फीसदी से कम हो चुकी है लेकिन कुल रोजगार में क्षेत्र का योगदान 50 फीसदी से अधिक बना हुआ है और यह बात चिंताजनक है। ऐसा होना ही था क्योंकि सेवा और उद्योग क्षेत्र में रोजगार निर्माण की दर बहुत धीमी रही। आइए अब बात करते हैं खर्च और मांग से जुड़े बिंदुओं की।
यहां निवेश की मांग की बड़ी भूमिका रही है। खासतौर पर वर्ष 2003 से 2008 के बीच के उछाल वाले वर्षों में। उस वक्त कुल खर्च में इसकी हिस्सेदारी बढ़कर 64 फीसदी तक पहुंच गई थी। वर्ष 1997-2003 और 2008-12 के कम बेहतर वर्षों में भी निवेश की मांग 35 फीसदी थी। इस बढ़ोतरी की वजह से कुल निवेश की हिस्सेदारी सन 1990 के आरंभ के जीडीपी के 23 फीसदी से बढ़कर वर्ष 2009-12 के दौरान 38 फीसदी तक हो गई।
वहीं दूसरी ओर हाल के वर्षों यानी वर्ष 2008-12 के दौरान स्थायी निवेश के योगदान में अपेक्षाकृत कमी ने तमाम चिंताओं को जन्म दे दिया है। जीडीपी में शेयरों और सोने के अलावा अन्य मूल्यवान वस्तुओं का निवेश बढऩा भी मिलाजुला साबित हुआ है। इसे हम बढ़ते खाद्य भंडारण और सोने के जमा होने में महसूस कर सकते हैं। निजी खपत की बात करें तो जीडीपी में इसकी हिस्सेदारी में तेजी से कमी आई है। 90 के दशक के आरंभ में जहां जीडीपी में इसकी हिस्सेदारी 66 फीसदी थी वहीं वर्ष 2009-12 के दौरान यह घटकर 58 फीसदी रह गई। जीडीपी में निवेश की हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए मांग के जिस अन्य घटक में कमी आई है वह है वस्तुओं एवं सेवाओं का विशुद्घ निर्यात। इसका आकलन निर्यात में से आयात को घटाकर किया जाता है। वर्ष 1990-93 में जहां यह जीडीपी के 0.9 फीसदी ऋणात्मक था वहीं वर्ष 2009-12 के दौरान यह 6.7 फीसदी ऋणात्मक हो चला है। इसे पिछले तीन सालों के दौरान बेहद तेजी से बढ़े चालू खाता घाटे में भी देखा जा सकता है।
व्यय की विकास दर तेज करने में सरकारी खपत का योगदान भी नाकाम साबित हुआ है।
परिव्यय वृद्घि के लिए सरकारी खपत के उपाय निरर्थक साबित हुए हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि राजकोषीय मजबूती के दौर में तो इसमें गिरावट आई जबकि राजकोषीय शिथिलता के दौर में इसमें बढ़ोतरी देखने को मिली। हाल के समय में यह बहुत आरामदेह इसलिए भी नहीं रहा है क्योंकि ऐसा मोटे तौर पर उस समय हुआ है जबकि आर्थिक विकास दर धीमी बनी रही है। भविष्य में अधिक संतुलित और तेज आर्थिक विकास हासिल करने के लिए हमें निवेश, निर्यात और उद्योग आदि क्षेत्रों को हाल की तुलना में कहीं अधिक तेज गति से विकसित करना होगा।
http://hindi.business-standard.com/hin/storypage.php?autono=67800
विदेशी निवेश नीति
वर्ष 1991 तक, शेष विश्व के साथ भारत का आर्थिक एकीकरण बहुत सीमित था। परन्तु नई आर्थिक नीति और इसमें शुरू किए गए उदारीकरण के उपायों ने भारतीय व्यापार के भूमंडलीकरण का रास्ता प्रशस्त किया। पहले, निर्यात विदेशों में व्यापार बढ़ाने का मुख्य तरीके के, अत: जो नकद बहिर्प्रवाहों पर प्रतिबंधों के साथ निर्यात संवर्धन रणनीतियों पर था, ताकि हमारे विदेशी मुद्रा भंडारों को संदर्भित किया जा सके। परन्तु विगत वर्षों में, यह अनुभव किया जा रहा है कि भारतीय कंपनियों के विस्तार और वृद्धि के लिए, यह आवश्यक है कि वे न केवल उनके उत्पादों का निर्यात करके वरन विदेशी परिसम्पत्तियों का अधिग्रहण करके तथा विदेशों में अपनी मौजूदगी कायम करके विश्व बाजार में अपनी भागीदारी बढ़ाए। तदनुसार चरणबद्ध उदारीकरण के साथ-साथ बर्हिगामी पूंजी प्रवाह बढ़ा है।
विदेशों में प्रत्यक्ष निवेश को शासित करने वाले दिशा निर्देशों के रूप में पहली नीति भारत सरकार द्वारा 1969 में जारी की गई थी। इन दिशानिर्देशों में विदेशी परियोजनाओं में भारतीय कंपनियों की भागीदारी की सीमा को परिभाषित किया गया था। उनमें भारतीय पक्ष द्वारा गौण भागीदारी की अनुमति दी गई थी जिसमें कोई नकदी पारेषण नहीं था। जहां कहीं आवश्यक हो, स्थानीय पक्षों, स्थानीय विकास बैंकों, वित्तीय संस्थाओं और स्थानीय सरकारों की सहबद्धता का पक्ष भी ऐसे निवेशों को प्रोत्साहित करने के लिए लिया गया।
सरकार ने 1978 में अधिक सर्वांगीण उपायों का सैट जारी करके इन दिशानिर्देशों को संशोधित किया। इन उपायों में वाणिज्य मंत्रालय द्वारा एक केन्द्र बिन्दु पर निवेश प्रस्तावों के अनुमोदन, निगरानी, मूल्यांकन का प्रावधान था। इन दिशानिर्देशों में किसी भारतीय कंपनी के विदेश में निवेशों से संबंधित इसके आरंभिक और अनुवर्ती खर्चों को पूरा करने के लिए विदेशी मुद्रा जारी करने हेतु भारतीय रिजर्व बैंक( आरबीआई) के पास आवश्यक अधिकार सौंपने की आवश्यकता को भी मान्यता दी गई।
इन दिशानिर्देशों को तदनंत्तर 1986, 1992 और 1995 में संशोधित किया गया। विदेशों में भारतीय निवेशों संबंधी नीति का सबसे पहले 1992 उदारीकरण किया गया। इसके अंतर्गत, विदेशी निवेशों के लिए एक स्वचालित मार्ग शुरू किया गया और कुल मूल्य पर प्रतिबंधों सहित पहली बार नकद पारेषणों की अनुमति दी गई। विदेशों में भारतीय निवेशों की व्यवस्था खोलने के लिए मूल तर्काधार भारतीय उद्योग को नए बाजारों और प्रौद्योगिकियों तक पहुंच प्रदान करने की आवश्यकता है ताकि वे वैश्विक रूप से अपनी प्रतिस्पर्द्धात्मकता बढ़ा सकें और देश के निर्यात को बढ़ावा दे सकें।
प्रक्रियाओं को और उदार बनाने और कारगार बनाने का कार्य 1995 में आरंभ किया गया। 1995 के दिशानिर्देशों में विदेशी निवेश से संबंधित कार्य वाणिज्य मंत्रालय से भारतीय रिजर्व बैंक( आरबीआई) को अंतरित करके एक विस्तृत फ्रेमवर्क की व्यवस्था की गई और भारतीय रिजर्व बैंक विदेशी निवेश नीति को प्रशासित करने के लिए एक केन्द्रीय एजेन्सी बन गई। इसमें विदेशी निवेश अनुमोदनों के लिए एक एकल बिंदु प्रणाली की व्यवस्था की गई। तब से, विदेशों में प्रत्यक्ष निवेश के सभी प्रस्ताव भारतीय रिजर्व बैंक( आरबीआई) को प्रस्तुत किए जा रहे हैं जिसके द्वारा इन पर कार्रवाई की जा रही है। इसके अतिरिक्त, इन दिशानिर्देशों का लक्ष्य निम्नलिखित मूल उद्देश्यों के साथ विदेशी निवेश नीति के ढांचे में पारदर्शिता लाना है :-
भारतीय उद्योग और व्यापार को वैश्विक नेटवर्कों को पहुंच प्रदान करने के लिए फ्रेमवर्क की व्यवस्था करना;
यह सुनिश्चित करना कि व्यापार और निवेश प्रवाह, यद्यपि ये वाणिज्यिक हितों द्वारा निर्धारित होते हैं, विशेष रूप से पूंजी प्रवाहों के आकार की दृष्टि से देश के वृहत आर्थिक और भुगतान संतुलन की विवशताओं के अनुरूप हों;
भारतीय व्यापार को प्रौद्योगिकी हासिल करने अथवा संसाधन प्राप्त करने अथवा बाजार तलाशने के लिए उदार पहुंच प्रदान करना;
यह संकेत देना कि सरकार की नीति में परिवर्तन है, और वह एक विनियामक या नियंत्रक के स्थान पर सुविधा प्रदाता है;
भारतीय उद्योग को विदेशों में छवि सुधारने के उद्देश्य से स्व-विनियमन और सामूहिक प्रयास की भावना अपनाने के लिए प्रोत्साहित करना।
तत्पश्चात 2000 में, फेमा (विदेशी मुद्रा प्रबंधन अधिनियम) के लागू होने से विदेशी मुद्रा के संबंध में विशेषकर विदेशों में निवेश से संबंधित समूचे परिदृश्य में परिवर्तन आया, इस मुद्रा विनियमन के स्थान पर मुद्रा प्रबंधन पर जोर दिया। इसका लक्ष्य विदेशी व्यापार और भुगतानों को सुविधाजनक बनाना तथा भारत में विदेशी मुद्रा बाजार के व्यवस्थित विकास और रख-रखाव को बढ़ावा देना था।
पिछले वर्षों के दौरान भारतीय कंपनियों द्वारा विदेशी निवेश के लिए उदारीकरण के उपाय जारी रहे हैं। भारतीय रिजर्व बैंक ने दिनांक 13.01.2003 के ए.पी. (डीआईआर श्रृंखला) परिपत्र संख्या 66 द्वारा (अधिसूचना संख्या फेमा 19/2000-आरबी दिनांक 3 मई 2000 के आंशिक संशोधन में) स्वचालित मार्ग के तहत नीति में उदारीकरण किया गया है।
कॉर्पोरेट: - सूचीबद्ध भारतीय कंपनियों को विदेशी कंपनियों में निवेश की अनुमति है। (क) जो मान्यता प्राप्त स्टॉक एक्सचेंज में और (ख) जिनके पास भारत में मान्यताप्राप्त स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध एक भारतीय कंपनी में कम से कम 10 प्रतिशत की शेयर धारिता हो (निवेश के वर्ष में एक जनवरी को)। यह निवेश भारतीय कंपनी के निवल मूल्य के 35 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए, जैसा कि नवीनतम लेखापरीक्षित तुलनपत्र में दिया गया हो।
वैयक्तिक: - भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा ''निवासी व्यक्तियों के लिए उदारीकृत प्रेषण योजना'' के तहत निवासी व्यक्तियों को किसी अनुमत वर्तमान या पूंजी खाते के लेन देन में या इन दोनों के संयोजन के लिए प्रति वित्तीय वर्ष 1,00,000 अमेरिकी डॉलर तक के प्रेषण अनुमति दी जाती है जैसे कि बैंक में जमा राशि, अचल संपत्ति की खरीद, इक्विटी में निवेश और विदेश में ऋण। इसी प्रकार निवासी व्यक्ति को वर्तमान लेखा लेनदेन के लिए प्रेषण की अनुमति है जैसे कि उपहार, दान, चिकित्सा उपचार, शिक्षा, रोजगार, प्रवास, दवाओं के आयात, पुस्तकें और पत्रिकाएं जो विदेशी व्यापार नीति के अधीन हों।
भारतीय कॉर्पोरेट / पंजीकृत भागीदारी फर्मों को प्रत्यक्ष रूप से या किसी विदेशी शाखा के माध्यम से कृषि संबंधी गतिविधियां करने की अनुमति नहीं है।
भारत में वित्तीय क्षेत्र में विदेशी निवेश के लिए वित्तीय क्षेत्र की गतिविधियों में संलग्न किसी भारतीय कंपनी के लिए 15 करोड़ रुपए के न्यूनतम निवल मूल्य के निर्धारण को हटा दिया गया है। जबकि वित्तीय क्षेत्र में संलग्न किसी इकाई में निवेश के लिए इच्छुक एक भारतीय पक्षकार को निम्नलिखित अतिरिक्त शर्तें पूरी करनी चाहिए :
इसका पंजीकरण वित्तीय क्षेत्र की गतिविधि के आयोजन हेतु भारत में किसी उपयुक्त विनियामक प्राधिकरण के साथ होना चाहिए।
इसमें वित्तीय सेवा गतिविधियों से पिछले तीन वित्तीय वर्षों के दौरान निवल लाभ अर्जित किया हो।
भारत और विदेश में संबंधित विनियामक प्राधिकारियों से विदेश में वित्तीय क्षेत्र की गतिविधियों में निवेश हेतु अनुमोदन प्राप्त किया हो; और
इसने भारत में संबंधित विनियामक प्राधिकारियों द्वारा निधारित पूंजी पर्याप्तता से संबंधित विवेकपूर्ण मानकों को पूरा किया।
वित्तीय वर्ष 2005-06 में आरंभ किए गए अन्य उदारीकरण उपाय इस प्रकार हैं :-
गारंटी:- गारंटी का विस्तार क्षेत्र स्वचालित मार्ग के तहत बढ़ाया गया है। भारतीय इकाइयां गारंटी के किसी भी रूप को प्रस्तावित कर सकती हैं, अर्थात नैगम या व्यक्तिगत / प्राथमिक या सह पार्श्वीय / प्रवर्तक कंपनी द्वारा गारंटी / समूह कंपनी, सहयोगी कंपनी या संबद्ध कंपनी द्वारा भारत में गारंटी, बशर्ते कि : -
सभी ''वित्तीय वचनबद्धताएं'' जिनमें गारंटी के सभी रूप शामिल हैं, भारतीय पक्ष के विदेशी निवेश के लिए समग्र निर्धारित सीमा के अंदर हैं अर्थात वर्तमान में निवेश करने वाली कंपनी के निवल मूल्य के 300 प्रतिशत के अंदर;
'खुले सिरे' वाली कोई गारंटी नहीं है अर्थात गारंटी की मात्रा अपफ्रंट रूप से निर्दिष्ट की जानी चाहिए; और
कॉर्पोरेट गारंटी के मामले में सभी गारंटियों की रिपोर्ट भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई), को फॉर्म ओडीआर में दी जानी चाहिए।
विनिवेश:- कंपनियों को अपने वाणिज्यिक निर्णय में प्रचालनात्मक लचीलापन देने की क्षमता पाने के लिए विनिवेश का स्वचालित मार्ग पुन: उदारीकृत किया गया है। भारतीय कंपनियों को निम्नलिखित श्रेणियों में भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व अनुमोदन के बिना विनिवेश की अनुमति दी गई है: -
ऐसे मामलों में जहां संयुक्त उद्यम / डब्ल्यूओएस को विदेशी स्टॉक एक्सचेंज की सूची में डाला गया है;
ऐसे मामलों में जहां भारतीय प्रवर्तक कंपनी को भारत के स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध किया गया है और इसका निवल मूल्य 100 करोड़ रु. से कम है;
जहां भारतीय प्रवर्तक एक गैर सूचीबद्ध कंपनी है और विदेशों में उद्यम निवेश 10 मिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक नहीं है।
स्वामित्व वाली कंपनियां :- मान्यता प्राप्त स्टार निर्यातकों को सक्षम बनाने के विचार से, जिनका सिद्ध ट्रैक रिकॉर्ड है और वे निरंतर उच्च निर्यात निष्पादन करते आए हैं, उन्हें वैश्वीकरण और उदारीकरण के लाभ प्रदान करने के लिए स्वामित्व वाली / गैर पंजीकृत भागीदार फर्मों को भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व अनुमोदन के साथ भारत के बाहर संयुक्त उद्यम / डब्ल्यूओएस स्थापित करने की अनुमति दी गई है।
यह दवा है कि जहर
प्रभात पटनायक
वरिष्ठ समाजविज्ञानी
अर्थव्यवस्था में इन सट्टेबाजों का 'विश्वास' खत्म हुआ और उन्होंने अपना पैसा वापस खींच लिया तो इस विश्वास को बहाल करने के लिए सरकार को मजबूरन और कदम उठाने पड़ेंगे.
भारत में जब 1991 में नव-उदारवादी 'सुधार' शुरू किए गए थे तो इसके आलोचकों का यह कहना था कि मॉलों, सेवाओं तथा पूंजी के मुक्त प्रवाह के लिए अर्थव्यवस्था को खोलने से देश के लाखों-लाख मेहनतकश लोगों का जीवनस्तर अंतरराष्ट्रीय सट्टेबाजों के एक समूह की स्वेच्छाचारिता तथा सनक का शिकार हो जाएगा. अगर अर्थव्यवस्था में इन सट्टेबाजों का 'विश्वास' खत्म हुआ और उन्होंने अपना पैसा वापस खींच लिया तो इस विश्वास को बहाल करने के लिए सरकार को मजबूरन और कदम उठाने पड़ेंगे.
इससे जनता बुरी तरह प्रभावित होगी क्योंकि सरकार को सिर्फ ऐसे ही कदम उठाने पड़ेंगे, जिनसे उनका विश्वास बहाल हो, और दूसरे कदमों का अर्थात ऐसे कदमों का जो अमीरों तथा फाइनेंसरों के खिलाफ हों, स्वाभाविक रूप से इसके विपरीत प्रभाव पड़ेगा. इस तरह जैसे एक अंग्रेजी कहावत के मुताबिक कुत्ता पूंछ को नहीं, बल्कि पूंछ कुत्ते को हिलाने लगती है, उसी तरह अंतरराष्ट्रीय सट्टेबाजों के गिरोह की सनक लाखों-लाख लोगों का जीवन तय करेगी, जिसका अर्थ है जनतंत्र, समानता तथा संप्रभुता को नकारना.
तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह और नव-उदारवाद के अन्य हिमायतियों ने इन 'सुधारों' के आलोचकों की इस दलील का मजाक बनाया था और अपने आलोचकों को आदतन निशाराजनक भविष्यवाणियां करनेवाला बताया था. उनकी दलील थी कि अर्थव्यवस्था को खोले जाने से वह इतनी मजबूत, दक्ष और अंतरराष्ट्रीय रूप से प्रतियोगी बन जाएगी कि वह एक सफल निर्यातक के रूप में उभरकर सामने आएगी और अंतरराष्ट्रीय पूंजी की मनपसंद मंजिल बन जाएगी. देश में 1991 में भुगतान संतुलन का जो संकट आया था और जिसकी पृष्ठभूमि में ये 'सुधार' शुरू किए गए थे, वह सुधारों के इन हिमायतियों के अनुसार सुधार-पूर्व के अंतर्मुखी निजाम में निहित अक्षमताओं का ही परिणाम था. उनके अनुसार एक बार सुधारों के जरिए जब इस विरासत से मुक्ति पा ली जाएगी तो इस तरह के भुगतान संकट अतीत की बात हो जाएंगे.
गत 21 सितम्बर का देश के प्रधानमंत्री का टेलीविजन के जरिए देश को संबोधन स्पष्ट रूप से इसी की स्वीकृति है कि उनके उस समय के आलोचक सही थे और उनकी खुद की नव-उदारवादी दलीलें गलत थीं. उन्होंने 1991 के संकट की आज से तुलना की.
लेकिन अगर 1991 की तरह का संकट 2012 में हमारी अर्थव्यवस्था में आया है, जबकि अंतमरुखी रणनीति को अरसे पहले दफनाया जा चुका है, तो इसका अर्थ साफ है कि उस रणनीति को दोष नहीं दिया जा सकता है. जबकि 1991 के संकट का भी उस रणनीति से कोई लेना-देना नहीं था और 1991 का संकट इस रणनीति के चलते नहीं आया था, बल्कि ठीक इसके उलट कारणों के चलते ही आया था. जैसा कि इन सुधारों के आलोचकों ने तब कहा था. और यह कारण था कि 1980 के दशक से उस रणनीति का क्रमिक परित्याग, जब अर्थव्यवस्था को आज यहां तो कल वहां पहुंचने वाली और संभावित रूप से चंचल एनआरआई जमाराशियों के रूप में, वैश्विक वित्तीय प्रवाह के लिए खोला गया था.
उसी पैमाने से, नव-उदारवादी निजाम के तहत भारत के निर्यात में सफल रहने की तमाम बातों के बावजूद और एक आर्थिक महाशक्ति के रूप में भारत के उभरकर सामने आने के सारे हल्ले-गुल्ले के बावजूद, वह अभी भी कमजोर बना हुआ है. ठीक वैसे ही जैसे कि नव-उदारवाद के आलोचकों ने पूर्वानुमान लगाया था. सट्टेबाजों का विश्वास खत्म हो गया है, जो रातों-रात उसे धराशायी कर सकता है और उसने सरकार को ऐसे बौखलाहट भरे कदम उठाने के लिए मजबूर कर दिया है, जो जनता की बदहाली को और बढ़ाएंगे. संक्षेप में यह वित्तीय प्रवाह के लिए अर्थव्यवस्था का खुलापन ही है जिसने उसे वित्तीय संकट के सामने कमजोर बनाया है और एक ऐसी स्थिति पैदा कर दी है जहां सट्टेबाजों का विश्वास भारी महत्व अख्तियार कर लेता है और लोगों की जीवन स्थितियों को इस विश्वास को बनाए रखने के लिए एडजस्ट करना पड़ता है.
चलिए, हम मान लेते हैं कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जिन कथित सुधारवादी कदमों की पहले ही घोषणा कर चुके हैं और आने वाले दिनों में जो कुछ वे करने को उत्सुक हैं- जैसे, सार्वजनिक क्षेत्र की परिसंपत्तियों को बेचना और जनता के धन को घरेलू तथा विदेशी पूंजीपतियों को फाइनेंस के लिए देना आदि- क्योंकि उससे अर्थव्यवस्था में वित्तीय प्रवाह की लहर चल निकलेगी और रुपए में आ रही गिरावट खत्म हो जाएगी. चलिए, हम इससे भी एक कदम आगे बढ़कर यह मान लेते हैं कि वित्त का प्रवाह और बढ़ेगा जिससे एक नया 'बुलबुला' फूलेगा और सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि बहाल हो जाएगी लेकिन कुछ समय बाद अगर वैश्विक या घरेलू घटना विकास के चलते सट्टेबाजों का विश्वास फिर टूटता है, जो वक्त-वक्त पर होना ही है, तो यह बुलबुला, सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि के साथ एक बार फिर फूटेगा और तब इस विश्वास को फिर से बहाल करने के लिए जनता को निचोड़ने वाले और कदमों की घोषणा की जाएगी.
जिन लोगों को इस विकास का कोई लाभ नहीं मिला है, बल्कि इसके उलट जब विकास हो रहा था, तब भी उनका दरिद्रीकरण ही हो रहा था, उन्हें और ज्यादा निचोड़ा जाएगा ताकि सट्टेबाजों का विश्वास बनाए रखा जा सके. यह हमारे संविधान के उन वादों का मजाक ही बनाना होगा कि हमारे देश में इस तरह की आर्थिक राह अपनाई जा रही है.
नव-उदारवाद के समर्थक यह दावा करेंगे कि इस तरह के रास्ते के अलावा कोई विकल्प ही नहीं है और वित्त के उपरोक्त वैीकरण समेत, इस वैीकरण को बने ही रहना है और हमें उसी के अनुकूल अपने को ढालना होगा. अगर यह भी मान लें कि ऐसा ही है तो इस आवश्यकता के लिए बहाने बनाने की कोई जरूरत नहीं है. यह दिखाने की कोई जरूरत नहीं है कि जो चीज देश पर जोर-जबर्दस्ती से थोपी जा रही है, वह जनता के लिए बहुत अच्छी होगी.
बहरहाल, इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि यह सच नहीं है कि पूंजी नियंत्रण थोपने के जरिए वैीकृत वित्त के भंवर से कोई भी देश कभी भी निकल सकता है, जैसा कि हमारे बिल्कुल पड़ोस में महातिर मोहम्मद के शासन में मलयेशिया ने करके दिखाया था. और अगर किसी सरकार को यह लगता है कि हमारे संविधान की भावना का उल्लंघन करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है और क्योंकि वित्त के वैीकरण के निजाम के तहत हमें जनता के अधिकारों और उसकी रोजी-रोटी पर हमला करना ही है, तो उसे सत्ता में बने रहने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है.
(लेखक वरिष्ठ समाजविज्ञानी हैं. आलेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं)
http://www.samaylive.com/article-analysis-in-hindi/172699/drug-poison-economy-bookmaker-capital.html
... इस खेल ने पूरे लोकतंत्र को बेमानी बना दिया
आनंद प्रधान
कहते हैं कि हर आर्थिक-राजनीतिक संकट एक मौका भी होता है। वैश्विक आर्थिक संकट के बीच फंसी भारतीय अर्थव्यवस्था का मौजूदा संकट भी इसका अपवाद नहीं है। आश्चर्य नहीं कि अर्थव्यवस्था के इस गहराते संकट को यू.पी.ए सरकार के आर्थिक मैनेजरों और नव उदारवादी आर्थिक सलाहकारों ने बहुत चालाकी के साथ मौके और उससे अधिक एक बहाने की तरह इस्तेमाल किया है। साल 2012 के उत्तरार्ध में यू.पी.ए सरकार ने जिस तेजी और झटके के साथ नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के अगले और सबसे कड़वे चरण को आगे बढ़ाया है, उससे ऐसा लगता है जैसे वह अर्थव्यवस्था के संकट के गहराने का ही इंतज़ार कर रही थी। हालाँकि यह पहली बार नहीं हो रहा है।
भारत में विश्व बैंक-मुद्रा कोष की अगुवाई में 1991 में नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के पहले चरण की शुरुआत भी ऐसी ही परिस्थिति में हुई थी, जब भारतीय अर्थव्यवस्था भुगतान संतुलन के गहरे संकट में फंस गई थी। उस समय भी अर्थव्यवस्था के संकट को बहाना बनाते हुए आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने के लिए यह तर्क दिया गया था कि 'इसके अलावा और कोई विकल्प नहीं है (देयर इज नो आल्टरनेटिव).' यह सिर्फ संयोग नहीं है कि आज एक बार फिर 'राष्ट्र के नाम सन्देश' में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह (1991 में वित्त मंत्री) अर्थव्यवस्था के संकट की दुहाई देकर नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के अगले चरण को अपरिहार्य बता रहे हैं।
असल में, नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने और लोगों में उसे स्वीकार्य बनाने के लिए यह एक जानी-पहचानी रणनीति है जिसे 'झटका उपचार' (शाक थेरेपी) के नाम से भी जाना जाता है। सबसे पहले इसकी वकालत नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के सबसे प्रमुख सिद्धांतकार और शिकागो स्कूल के अर्थशास्त्री मिल्टन फ्रीडमैन ने की थी। उन्होंने इसे 'झटका नीति' (शाक पालिसी) का नाम दिया था जिसे बाद में उनके एक शिष्य और अर्थशास्त्री जैफ्री साक्स ने 'झटका उपचार' (शाक थेरेपी) कहा। इस रणनीति में आर्थिक-राजनीतिक संकट को एक अवसर की तरह इस्तेमाल करके कड़वे आर्थिक फैसलों को एक झटके में और एकबारगी लागू करने पर जोर दिया जाता है ताकि लोगों को संभलने और उसपर प्रतिक्रिया करने का समय न मिल सके।
हैरानी की बात नहीं है कि यू.पी.ए सरकार ने आर्थिक सुधारों के अगले दौर और उसके तहत कई कड़वे फैसलों को आगे बढ़ाने के लिए मौजूदा आर्थिक संकट को इस्तेमाल किया है। इसके लिए पिछले कई महीनों से गुलाबी अखबारों, मीडिया, कारपोरेट समूहों के जरिये अनुकूल माहौल बनाया जा रहा था। कहा जा रहा था कि यू.पी.ए सरकार 'नीतिगत पक्षाघात' (पॉलिसी पैरालिसिस) की शिकार हो गई है। वह आर्थिक सुधारों को आगे नहीं बढ़ा पा रही है जिसके कारण अर्थव्यवस्था पटरी से उतर रही है। कहने की जरूरत नहीं है कि 'नीतिगत पक्षाघात' का सबसे ज्यादा शोर देशी-विदेशी बड़ी पूंजी, कारपोरेट समूह और उनके हितों के मुखर पैरोकार मचा रहे थे। रही-सही कसर वैश्विक क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों ने इस धमकी के साथ पूरी कर दी कि अगर सरकार ने आर्थिक सुधारों को आगे नहीं बढ़ाया और कड़े कदम नहीं उठाये तो वे भारत की क्रेडिट रेटिंग गिरा देंगी। यू.पी.ए सरकार ने इस धमकी को बहाने की तरह इस्तेमाल किया और एक तरह से देश को डराने की कोशिश की कि अगर कड़े फैसले नहीं किये गए तो देश एक बार फिर 1991 की तरह के संकट में फंस सकता है।
इस तरह आर्थिक सुधारों के दूसरे चरण को पेश करने का स्टेज पूरी तरह से तैयार हो चुका था। इसके बाद सरकार ने आनन-फानन में कई बड़े नीतिगत फैसलों की घोषणा की जिसमें खुदरा बाजार और घरेलू एयरलाइंस सेवा को विदेशी पूंजी के लिए खोलने से लेकर बैंकिंग-बीमा और पेंशन क्षेत्र में विदेशी निवेश की इजाजत देने या उसकी सीमा सीमा बढ़ाने तक के फैसले शामिल थे। इसके अलावा यू.पी.ए सरकार ने बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को खुश करने और उसका विश्वास जीतने के लिए वोडाफोन मामले में पीछे से टैक्स कानून में संशोधन करने और टैक्स कानून के छिद्र बंद करने के लिए लाये जा रहे 'गार' नियमों को ठन्डे बस्ते में डालने की घोषणा की। आवारा पूंजी यानी विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफ.आई.आई) को निवेश सम्बन्धी कई रियायतें देने का एलान किया गया।
इसके साथ ही निवेश को बढ़ावा देने के नामपर एक हजार करोड़ रूपये से अधिक के प्रोजेक्ट्स को सीधी मंजूरी देने और उसकी राह में आनेवाली अडचनों को दूर करने के लिए प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में कैबिनेट कमिटी आन इन्वेस्टमेंट का गठन किया गया। इसके पीछे तर्क दिया गया कि बड़े प्रोजेक्ट्स लालफीताशाही और पर्यावरण मंजूरी जैसे अडचनों के कारण लंबे समय तक फंसे रहते हैं। यही नहीं, सरकार ने आर्थिक सुधारों के प्रति अपनी वचनबद्धता साबित करने के लिए राजकोषीय घाटे में कटौती की आड़ में पेट्रोल-डीजल और रसोई गैस की कीमतों में वृद्धि और सब्सिडीकृत गैस सिलेंडरों की संख्या छह तक सीमित करने की भी घोषणा की। राजकोषीय घाटे में कटौती के मकसद से केलकर समिति का गठन किया गया जिसने सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के विनिवेश से लेकर पेट्रोलियम-खाद्य-उर्वरक सब्सिडी में कटौती और डायरेक्ट कैश ट्रांसफर जैसी कई सिफारिशें की हैं। वित्त मंत्री उन्हें एक-एक करके लागू करने में जुटे हुए हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि डायरेक्ट कैश ट्रांसफर का फैसला भी आर्थिक सुधारों के ही पैकेज का हिस्सा है और इसका मुख्य मकसद सब्सिडी के बोझ को कम करना है।
हालाँकि इन फैसलों का देशव्यापी विरोध हुआ है और आमलोगों में नाराजगी बढ़ी है। यहाँ तक कि यू.पी.ए गठबंधन के अंदर भी दरार पड़ गई और तृणमूल कांग्रेस के बाहर निकलने के कारण सरकार अल्पमत में आ गई है। लेकिन यू.पी.ए सरकार न सिर्फ अपने फैसलों पर डटी हुई है बल्कि वह नव आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ानेवाले और फैसले किये जा रही है। देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और बड़े कारपोरेट समूह यू.पी.ए सरकार के इन 'साहसिक और कड़े' फैसलों से खुश हैं, सरकार की तारीफों के पुल बांधने में जुटा हुआ है और अब 'नीतिगत पक्षाघात' की शिकायतें बंद हो गई हैं।
जाहिर है कि यू.पी.ए सरकार ने नव उदारवादी आर्थिक सुधारों पर दांव बहुत सोच-समझकर लगाया है। असल में, उसने एक तीर से कई शिकार करने की कोशिश की है। पहला, उसने जिस 'शाक थेरेपी' वाली रणनीति के साथ इन आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाया, उसके कारण सरकार पर भ्रष्टाचार-घोटालों और याराना पूंजीवाद को बढ़ावा देने जैसे गंभीर आरोप तात्कालिक तौर पर राष्ट्रीय एजेंडे से बाहर हो गए हैं। दूसरे, यू.पी.ए सरकार ने देशी-विदेशी बड़ी पूंजी को खुश करके उसका विश्वास जीतने में कामयाबी हासिल की है। बड़ी पूंजी का समर्थन सत्ता में बने रहने के लिए कितना जरूरी है, यह किसी से छुपा नहीं है। तीसरे, वह इन सुधारों के मुखर समर्थक मध्य वर्ग को भी आकर्षित करने में सफल रही है। लेकिन सवाल यह है कि क्या इससे अर्थव्यवस्था का संकट खत्म हो जाएगा? इसका उत्तर है- बिलकुल नहीं। इसकी वजह यह है कि जिन नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के कारण यह आर्थिक संकट आया है, उन्हीं सुधारों में उसका उत्तर खोजने से संकट खत्म होनेवाला नहीं है. यूरोप का उदाहरण सामने है। यह संभव है कि बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को रियायतें देने से संकट कुछ समय के लिए टल जाए लेकिन फिर कुछ समय बाद उसकी वापसी भी तय है। आश्चर्य नहीं कि पिछले चार महीनों में बड़ी देशी-विदेशी पूंजी के अनुकूल फैसलों के कारण तात्कालिक तौर पर देश में आवारा पूंजी का प्रवाह फिर से बढ़ा है जिससे शेयर बाजार सुधरा है और डालर के मुकाबले रूपये की कीमत में गिरावट थमी है और औद्योगिक उत्पादन में भी तात्कालिक उछाल दिखा है।
वित्त मंत्री पी. चिदंबरम इसे ही अर्थव्यवस्था में सुधार के 'हरे अंकुर' (ग्रीन शूट्स) बता रहे हैं। लेकिन असल सवाल यह है कि क्या नव उदारवादी आर्थिक सुधारों की ताजा खुराक से भारतीय अर्थव्यवस्था का संकट पूरी तरह से दूर हो जाएगा? इसकी क्या गारंटी है कि यह संकट दोबारा नहीं आएगा? असल में, नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के हर नए डोज से अर्थव्यवस्था में कुछ समय के लिए एक बुलबुला पैदा होता है। अर्थव्यवस्था एक उछाल लेती है और 8-9 फीसदी की वृद्धि दर को उसकी सेहत का सबसे बड़ा प्रमाण मान लिया जाता है। लेकिन पिछले दो दशकों का इतिहास इसका गवाह है कि अर्थव्यवस्था का संकट जल्दी ही फिर लौट आता है। उस समय एक बार फिर से बड़ी पूंजी के लिए और रियायतों की मांग शुरू हो जाती है। संकट को टालने के नामपर उसे और रियायतें दी जाती हैं। इस तरह से धीरे-धीरे पूरी अर्थव्यवस्था बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और कार्पोरेट्स के हवाले की जा रही है। लेकिन याद रहे कि इन रियायतों की असली कीमत आम लोगों को चुकानी पड़ती है जिन्हें बिना किसी अपवाद के इन कड़े फैसलों की मार झेलनी पड़ती है।
यही नहीं, सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि जब अर्थव्यवस्था उछाल पर होती है तो उसकी मलाई बड़ी पूंजी, निवेशक, कम्पनियाँ, अमीर और उच्च मध्य वर्ग चट कर जाते हैं और आमलोगों खासकर गरीबों के हिस्से छाछ भी नहीं आती है। लेकिन जब संकट की कीमत चुकाने की बारी आती है तो उसकी पूरा बोझ उनपर ही डाला जाता है। ताजा संकट भी इसका अपवाद नहीं है। कहने की जरूरत नहीं है कि इस खेल ने पूरे लोकतंत्र को बेमानी बना दिया है क्योंकि बड़ी पूंजी के इस सर्वव्यापी राज में सरकारें बदलने से भी नव आर्थिक सुधारों की दिशा नहीं बदलती। आमलोगों की राय का कोई मतलब नहीं रह गया है। आखिर क्या कारण है कि सरकार पर 'नीतिगत पक्षाघात' लगानेवाले खाद्य सुरक्षा विधेयक के लटकाए रखे जाने को 'नीतिगत पक्षाघात' नहीं मानते हैं?
लेखक भारतीय जनसंचार संस्थान में एसोसियेट प्रोफ़ेसर हैं। सम-सामयिक मुद्दों पर कई पत्र-पत्रिकाओं में कालम लिखते हैं।(साभार–तीसरा रास्ता)
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December 26, 2011, 6:09 PM
मनमोहन सिंह को 1991 में दिया भाषण दोहराना चाहिए
पॉल बैकेट
मनमोहन सिंह के 1991 में संसद में दिए सबसे महत्वपूर्ण भाषण के बाद भारत ने एक लंबी दूरी तय कर ली है, जिससे जीवन के कई अहम घटकों में सुधार हुआ है।
24 जुलाई 1991 को, तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने संसद में ऐसा भाषण दिया, जिसे निसंदेह भारतीय संसद में दिए सबसे महत्वपूर्ण भाषणों में एक माना जाना चाहिए।
अपने भाषण मे उन्होंने गहरे वित्तीय संकट में फंसी भारतीय अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए स्पष्ट दूरदर्शिता दिखाई। श्री सिंह के शब्द स्पष्ट, ईमानदारीपूर्ण, मानवीय और यदा-कदा विनोदी थे। वो भारत के प्रति अपने उस नज़रिए को लेकर दृढ़ थे, जिसके तहत सरकार आम भारतीयों के जीवन को सुधारने हेतु सक्षम ताकत है ना कि महज़ राजनीतिक ताल्लुकातों वालों या फिर अमीरों को और ज्यादा अमीर बनाए जाने के लिए।
ज़ाहिर है, तब से भारत ने एक महत्वपूर्ण यात्रा की है, जिसमें जीवन के कई कारकों का सुधार हुआ है। कई वजहों से महज़ एक या दो साल पहले भारत को दुनिया ईर्ष्याभरी नज़रों से देखती थी इसलिए क्योंकि यहां और विदेशों में विश्वास था कि देश के अंतहीन संभावनाओं के स्त्रोत को तेज़ और असरदार ढंग से एकत्र किया जा रहा है। फिर भी आज, श्री सिंह के नेतृत्व के बावजूद, बिगड़ती हुई अर्थव्यवस्था, प्रभावहीन शासन और पिछले दो दशकों के विकास को लेकर बढ़ती हुई चिंता के मद्देनज़र भारत खुद को निराशा से परिपूर्ण पाता है।
इस बात को लेकर शंकाएं उभर रही हैं कि क्या भारत के बेहतरीन साल उसके पीछे ही रह गए हैं। अगर पीछे मुड़कर देखें तो 2005-2009 के साल भारत के पूर्ण प्रक्षेपपथ के लिए एक अर्थपूर्ण बदलावों की शुरूआत के तौर पर ही नहीं देखे गए, बल्कि उन्हें ऐसे कुछ सुनहरे वर्षों की भांति देखा गया, जब आर्थिक विकास, फिलहाल नज़र आने वाले ह्वासोन्मुख औसतन दीर्घावधि विकास से कहीं ज्यादा था।
तब, यह देखने लायक था कि श्री सिंह ने 1991 में कैसे देश के हालातों का वर्णन किया और भारत की संभावनाओं की रक्षा करने के लिए जरूरी समाधानों को प्रस्तुत किया था। सबसे ज्यादा आश्चर्यजनक बात यह है कि उन्होंने जिन समस्याओं को जाना और उनके समाधान के नुस्खे प्रस्तुत किए वो अब भी उतने ही अर्थपूर्ण हैं, जितने 1991 में थे। प्रश्न उठता है कि वास्तव में क्या कुछ किया गया।
हमने 1991 के भाषण के उन शब्दश: अंशों को चुना है, जो विशेष तौर पर उपयुक्त लगते हैं। हमने यह दिखाने के लिए कुछ बदलाव किए हैं (इटैलिक में) कि कैसे श्री सिंह आज फिर उस स्पष्टवादिता का प्रदर्शन कर सकते हैं, जैसा उन्होंने तब किया था। आज भारत में क्या कुछ विचित्र हो रहा है, हम उनके भाषण में साथ ही साथ यह भी खोज सकते हैं। समीक्षा विभाग में अपने विचार प्रस्तुत करके हमें बताइए कि आप इस विषय पर क्या कुछ सोचते हैं।
महोदया,
2011-12 में राष्ट्र की स्थिति के बारे में बोलने जा रहा हूं।
नवबंर 2010 तक जब हमारी पार्टी सत्ता में थी, हमारी अर्थव्यवस्था पर दुनिया का भरोसा बहुत ज्यादा था। हालांकि, उसके बाद राजनीतिक अस्थिरता, राजकोषीय असंतुलन के ज़ोर और यूरोज़ोन संकट जैसे संयुक्त प्रभावों के कारण अंतर्राष्ट्रीय भरोसे में काफी कमी आई।
अंदरूनी और बाहरी प्रभावों के संयुक्त प्रतिकूल कारकों की वजह से, 2009 के मध्य से मुद्रास्फिति के दबाव के कारण मूल्य स्तर में काफी वृद्धि हुई। लोगों को दो अंकों वाली मुद्रास्फिति का सामना करना पड़ा, जिसने प्रमुख तौर पर समाज के गरीब तबके को परेशान किया। कुल मिलाकर, अर्थव्यवस्था का संकट काफी तीव्र और गहरा है। हमने देश के 21वीं शताब्दी के इतिहास में ऐसा पहले कुछ भी महसूस नहीं किया है।
समस्या का उद्भव प्रत्यक्ष तौर पर व्यापक और लगातार स्थूल आर्थिक असंतुलन और निवेश की निम्न उत्पादकता में देखा जा सकता है, खास तौर पर पहले किए गए निवेशों में, जिनका अच्छा फायदा नहीं मिला। सरकारी खर्चे में बेलगाम बढ़ोतरी हुई है। संदिग्ध सामाजिक और आर्थिक प्रभावों के साथ बजट में दी जाने वाली सब्सिडी खतरनाक स्तर तक पहुंच चुकी है।
सरकारी आय और व्यय के बीच लगातार बढ़ते अंतर के परिणामस्वरूप अर्थव्यवस्था में आय और व्यय के बीच का अंतर भी बढ़ता जा रहा है। यह भुगतान के बकाए में चालू खाता घाटा बढ़ने के मद्देनज़र दिखाई भी दिया। राजकोषीय प्रणाली का संकट गंभीर चिंता की वजह है। बगैर निर्णायक कदम उठाए, स्थिति सुधारात्मक कार्यवाही की संभावना से परे निकल जाएगी।
खोने के लिए समय नहीं है। ना ही सरकार और ना ही अर्थव्यवस्था साल-दर-साल बगैर साधनों के रह सकती है। उधार के धन या समय पर रहने की युक्ति का मौका अब नहीं है। लंबे समय से अपेक्षित व्यापक आर्थिक समायोजन के स्थगन का अर्थ होगा, बेहद मुश्किल भुगतान के संतुलन की स्थिति संभलने योग्य नहीं रहेगी और पहले से ही ज्यादा मुद्रास्फिति धैर्य की सीमा लांघ जाएगी।
अर्थव्यवस्था के प्रबंधन में सुधार के लिए, शुरूआती बिंदु और बल्कि हमारी योजना का केन्द्रीय-अंश, मौजूदा वित्तीय वर्ष के दौरान एक विश्वसनीय राजकोषीय समायोजन और वृहद आर्थिक स्थिरीकरण होना चाहिए। इसके पश्चात इसका अनुगमन सतत राजकोषीय समेकन द्वारा किया जाए।
अगर हम ज़रूरी सुधार प्रस्तुत नहीं करते, तो मौजूदा स्थिति में केवल विलंबित विकास, मंदी और ईंधन मुद्रास्फिति को बढ़ाएगें ही, जो अर्थव्यवस्था को और ज्यादा नुकसान पहुंचाने के साथ-साथ गरीबों पर और ज्यादा भार डालेगा।
सुधार प्रक्रिया का ज़ोर औद्योगिक उत्पादकता की क्षमता और अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा बढ़ाने पर होगा। इस प्रयोजन हेतु इस्तेमाल करने के लिए विदेशी निवेश और तकनीक उस दर्जे से कहीं ज्यादा होनी चाहिए, जितनी हमने अतीत में निवेश की उत्पादकता बढ़ाने के लिए इस्तेमाल की है। ये सुनिश्चित करने के लिए भारत का वित्त क्षेत्र का तेज़ी से आधुनिकीकरण होना चाहिए। ऐसा सार्वजनिक क्षेत्र का प्रदर्शन सुधारने के लिए होना चाहिए, ताकि हमारी अर्थव्यवस्था के अहम क्षेत्र तेजी से बदलती वैश्विक अर्थव्यवस्था में पर्याप्त तकनीक और प्रतिस्पर्धात्मक बढ़त पा सकें।
अब जब हम 21वीं शताब्दी के दूसरे दशक में प्रवेश कर रहे हैं, भारत चौराहे पर खड़ा है। इस अहम वक्त में, वो फैसले जो हम लेते हैं और जो नहीं लेते उन हालातों का आकार निर्धारित करेगें, जो कुछ समय पश्चात हमारे समक्ष उपस्थित होगें। लिहाज़ा, हमें नहीं चौंकना चाहिए कि देशभर में इस बात को लेकर एक गहन बहस छिड़ी हुई है कि हमें कौन सा रास्ता पकड़ना चाहिए। एक लोकतांत्रिक समाज में इसे अन्यथा नहीं लिया जा सकता।
हमारे देश में ज्यादातर लोग एक निर्वाह अर्थव्यवस्था के आसपास गुज़र-बसर करते हैं। हमें ऐसे प्रत्यक्ष सरकारी हस्तक्षेप के विश्वसनीय कार्यक्रमों की दरकार है, जो इन लोगों की जरूरतों पर फोकस करते हों। हमारे ऊपर उन्हें गुणवत्ता योग्य सामाजिक सेवाएं मसलन शिक्षा, स्वास्थ्य, पीने का साफ पानी और सड़कें सुलभ कराने की जिम्मेदारी है।
चुनौती ये है कि हम बगैर नमूने के इसका सामना कर रहे हैं। हमने विकास, आधुनिकीकरण और बेहतरीन सामाजिक समानता के पथ पर असाधारण सफलता पाई है। हालांकि, हम इन सभी क्षेत्रों में अपनी पूर्ण क्षमता का एहसास कर पाने से अभी दूर हैं। हमें अधूरे कामों को पूरा करने के साथ-साथ लोकतांत्रिक व्यवस्था के मूल्यों पर अपनी निष्ठा को लेकर अडिग रहना होगा।
सुधारों की अहमियत पर रोशनी डालते हुए, मेरा उद्देश्य एक नासमझ और बेरहम उपभोक्तावाद के लिए प्रोत्साहन करना नहीं है, जो हमने पश्चिम के संपन्न समाज से उधार लिया है। उपभोक्तावादी तथ्य से मेरी आपत्ति दोहरी है। पहली, हम इसे वहन नहीं कर सकते। वो भी एक ऐसे समाज में जहां हमें पीने का पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य, छत और अन्य आधारभूत जरूरतें मयस्सर नहीं हैं, ऐसे में अगर हमारे उत्पादक स्त्रोतों को व्यापक रूप से कुछ संपन्न लोगों की जरूरतों को संतुष्ट करने के लिए समर्पित कर दिया जाए, तो यह दर्दनाक होगा।
पीने और सिंचाई के लिए पानी, ग्रामीण इलाकों में सड़कें, बेहतरीन शहरी अवसंरचना, गरीबों के लिए प्राथमिक शिक्षा और आधारभूत स्वास्थ्य सेवाओं में अच्छे-खासे निवेश की देश को इतनी ज्यादा जरूरत है कि वो प्रभावी ढंग से उपभोक्तावादी उन्नत औद्योगिक समाज के व्यवहार के अनुगमन को नामुमकिन बनाता है।
कुछ लोग इस बात से असहमत होगें कि मैं इस समय का सबसे परेशान प्रधानमंत्री हूं। ऐसे भारी-भरकम काम को शुरू करने से पहले मुझे प्रेस के समर्थन की जरूरत है।
मैं तकरीबन अपने कष्ट को खत्म करने के मुकाम पर हूं। इस संप्रभु गणतंत्रात्मक देश ने मुझे कुछ सबसे महत्वपूर्ण सार्वजनिक ऑफिसों में नियुक्त कर इज्ज़त बख्शी है। यह एक ऐसा ऋण है, जिसे मैं कभी भी वापस नहीं लौटा सकता। बस, मैं यह वचन दे सकता हूं कि अपने देश को अत्यन्त ईमानदारी और समर्पण के साथ अपनी सेवाएं प्रदान करूंगा।
एक प्रधानमंत्री को कठोर होना ही चाहिए। मैं ऐसा होने का प्रयास करूंगा। जब राष्ट्र के हितों की रक्षा की बारी आएगी, तो मैं तटस्थ रहूंगा। लेकिन मैं वादा करता हूं कि जब कभी भारत के लोगों से पेश आने की बात होगी, तो मैं नरम बर्ताव करूंगा।
हमारा देश जिस गंभीर आर्थिक संकट का सामना कर रहा है, उसे सरकारी स्तर पर अब एक दृढ़ प्रतिज्ञ कार्यवाही की आवश्यकता है। हम इस भूमिका के लिए पूरी तरह से तैयार हैं। हमारी पार्टी देश को एक असरदार शासन प्रदान करेगी। हमारे लोग हमारे मालिक हैं। मैं अपने लोगों को समर्थ बनाने की अपनी पूरी क्षमताओं को महसूस करने हेतु अपनी सरकार की विशेष भूमिका देखता हूं।
हमने इस लंबी और कठिन यात्रा के लिए जो मार्ग चुना है, उसमें आने वाली तमाम बाधाओं को मैं कम करके नहीं आंक रहा। लेकिन जैसा कि विक्टर ह्यूगो ने एक दफा कहा था, "धरती पर कोई भी शक्ति उस विचार पर विराम नहीं लगा सकती, जिसका वक्त आ गया है।" मुझे लगता है कि विश्व में भारत का एक बड़ी आर्थिक शक्ति के रूप में उभरना भी एक ऐसा ही विचार है। पूरी दुनिया को इस बात को ज़ोर और स्पष्टता से सुनने दीजिए। भारत अब पूरी तरह से जाग गया है। हम जीतेगें। हम कामयाब होगें।
पॉल बैकेट नई दिल्ली में डब्ल्यूएसजे के ब्यूरो चीफ हैं। उन्हें ट्वीटर @paulwsj पर फॉलो कीजिए।
http://realtime.wsj.com/india/2011/12/26/%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%B9%E0%A4%A8-%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%B9-%E0%A4%95%E0%A5%8B-1991-%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82-%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE-%E0%A4%AD%E0%A4%BE/
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