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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Sunday, January 20, 2013

Fwd: हमारी तारापीठ यात्रा



---------- Forwarded message ----------
From: DrMandhata Singh <drmandhata@gmail.com>
Date: 2013/1/20
Subject: हमारी तारापीठ यात्रा
To: Palash Biswas <palashbiswaskl@gmail.com>, Palash Biswas <palashchandra@sify.com>



हमारी तारापीठ यात्रा
  कहते हैं  जबतक बुलावा न होतो किसी धर्मस्थल ( शक्तिपीठों यथा मां वैष्णवी, मां तारा या मां विंध्यवासिनी, दक्षिणेश्वर व कोलकाता के कालीघाट में मां काली  के दर  ) पर पहुंचने के प्रयास विफल होते रहते हैं। ऐसा इसलिए भी कह रहा हूं क्यों कि इसी समय मैंने अपनी पत्नी भारती सिंह से भी आग्रह किया कि तारापीठ चलो मां के दर्शन कर आओ मगर उसने कोई रुचि ही नहीं दिखाई। जबकि धर्म-कर्म में वह हमेशा आगे रहती है। यह शायद उसी बुलावे का चक्र था जो उसे तो रोक रहा था मगर मेरा जाना तय हो रहा था।
    २१ सालों से कोलकाता  में था। आस्था भी थी मगर कभी ऐसा संयोग नहीं बन पाया कि मां तारा के दर्शन हो पाएं। बीते साल अक्तूबर में बनारस से मेरे भांजे डा. विजय कुमार सिंह और उनकी पत्नी डा. शीला सिंह का फोन कि मामा हमलोग तारापीठ जाएंगे। मुझे लगा कि अब शायद मां का बुलावा आ गया है तभी तो भांजे लोगों को मां के दर्शन का निमित्त बना दिया। तीनों लोगों के टिकट बनवा लिया और निश्चिंत था अब तारापीठ जाना तय है। तभी वापी में रह रहे मेरे जीजा रामजन्म सिंह ने सूचित किया मेरी बहन रमा कोलकाता आ रही है और बेटी विक्की की तिलक की तैयारी के लिए खरीदारी वगैरह करनी है। वह भी उसी समय जब मुझे तारापीठ जाना था। मुझे लगा कि अब शायद मां के दर्शन नहीं हो पाएंगे।
   कई बार सोचा कि अपना टिकट रद्द करवा दूं और भांजे लोगों से कह दूं कि आप लोगों के साथ मेरा जाना नहीं हो पाएगा। इस उहापोह में फंस गया कि किस बात को तरजीह दूं। मां शायद मेरी परीक्षा ले रही थी। आखिर में तय किया कि तारापीठ तो जरूर ही जाउंगा भले ही रमा के साथ किसी और को लगाना पड़े। दरअसल ना मैं तारापीठ जाने के भांजे लोगों के आग्रह को टाल सकता था और न ही रमा को मना कर सकता था। दोनों के साथ अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए तय किया कि कुछ भी हो जाए तारापीठ अवश्य जाउंगा। मैंने रमा को बताया ही नहीं कि जब तुम कोलकाता आ रही हो तभी मैं तारापीठ जा रहा हूं और अपनी इस मुश्किल को भांजे लोगों को भी बताकर उन्हें मुश्किल में नहीं डालना चाहता था।
   बहरहाल हम २४ अक्तूबर विजयादशमी के दिन तारापीठ पहुंच गए। और वर्षों की वह साध भी पूरी हुई जिसकी फिलहाल तो कोई संभावना ही नहीं दिख रही थी। हम तीनों इतिहास के विद्यार्थी रहे हैं इसलिए अपनी आस्था व तत्थान्वेषण दोनों को साथ रखकर उसी दिन शाम को ही मंदिर व श्मशान इलाके में काफी देर तक भटकते रहे। मेरे दोनों भांजे डां विजय कुमार सिंह और डा. शीला सिंह मुझसे उम्र में बड़े हैं मगर हम एक दूसरे से मित्रवत व्यवहार रखते हैं। मेरे लिए दोनों सम्माननीय भी हैं क्यों कि काशी हिंदू विश्वविद्यालय के प्राचीनइतिहास विभाग में दोनों मुझसे सीनियर रहे हैं। एक ही गुरू  डा. सुदर्शना देवी सिंहल के निर्देशन में मैं और डा. शीला सिंह ने अपनी पीएचडी पूरी की। सीनियर होने के कारण दोनों का मार्गदर्शन मेरे लिए काफी अहमियत भरा था।
   इस पूरी यात्रा में बहुत कुछ जानने के कौतूहल के कारण हम कई मुद्दों पर बहस मुबाहिसा भी करते रहे। आभारी हूं  कि दोनों लोगों के  सानिध्य में यह यात्रा काफी शुकून वाली थी। मां के दर्शन करके तो मैं धन्य ही हो गया। जीवन का वह सर्वाधिक मूल्यवान क्षण था जब गर्भगृह में मां के सामने खुद को खड़ा पाया। इतने दिन से बंगाल में रह रहा हूं मगर सपने में भी नहीं सोचा था कि मां इस तरह अपने दर पर बुला लेगी। मां की इस कृपा से अभिभूत हूं मैं।
    एक  इतिहासकार ( डा.. शीला सिंह ) को तो मां तारामय होते देखना मेरे लिए अद्भुत अनुभव रहा। कहते हैं भक्ति हर किसी को नसीब नहीं होती। इतिहास गवाह है कि वर्षों की तपस्या के बाद जब किसी भक्त को अपने आराध्य से कुछ मांगना हुआ तो  वह बिना देरी किए जन्म-जन्म की भक्ति का वरदान मांगना नहीं भूला।  मेरे पिताजी भी कहते थे कि बिना पूर्व जन्म के पुण्य के भक्ति संभव नहीं। डा. शीला को देखकर यही आभास हुआ। बिना भक्ति के उनका मां के ध्यान में ऐसे लीन होना संभव नहीं। मंदिर में जबतक रहे और जब दर्शन करके दूसरे दिन कोलकाता लौट रहे थे तो  जिस आत्मसंतुष्टि का अनुभव हुआ वैसा मैंने पहले कभी महसूस नहीं किया था।
   मैं और डा. विजय कुमार सिंह ने मंदिर व आसपास के कई फोटो खींचे जिसमें होटल से लेकर उस द्वारका नदी तक का फोटो है जिसे धर्मस्थलों पर जाने वाले  श्रद्धालुओं की सेवा के बहाने जीविकोपार्जन में लगे स्थानीय लोगों , दुकानदारों और खासतौर पर होटल वालों ने नरक बना रखा है।
   शायद प्रशासन भी इस ओर ध्यान नहीं दे रहा है जिसके कारण पवित्र द्वारका नदी गंदगी के नाले में बदल गई है। धर्मस्थल अगर साफ सुथरे दिखते हैं तो मन भी विचलित नहीं होता है। किसी धर्मस्थान को साफ रखना भी हमारा ही उत्तरदायित्व है। प्रशासन को इस और भी ध्यान देना चाहिए।
  इस संस्मरण के साथ तारापीठ मंदिर व वामाखेपा के बारे में कुछ इतिहास व कुछ जनश्रुतियों पर आधारित जानकारी भी दे रहा हूं। यह विवरण वामाखेपा के चमत्कार और तारिणी मां तारा की कृपा कहानी भी है।

http://aajkaitihas.blogspot.in/2013/01/blog-post.html
बंगाल के इतिहास में अघोर परम्परा का प्रसिद्ध स्थल तारापीठ--


Dr. Mandhata Singh
From Kolkata (INDIA)

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