पहले सुंदरलाल बहुगुणा होने का मतलब समझें तो फिर समझें उनके सरोकार!
अब यह समझने वाली बात है कि ऐसे कारपोरेट दुस्समय में जब धर्म कर्म आस्था राजनीति सामाजिक सरोकार मीडिया कला साहित्य राजनीति कला संस्कृति से लेकर समूची राष्ट्र व्यवस्था प्रत्यक्ष विदेशी निवेश हो या विनिवेश हो या फिर निजीकरण विनियंत्रित विनियमित तो किसे होगी किसी सुंदरलाल बहुगुणा की परवाह!
पलाश विश्वास
मैंने संजोगवश पत्रकारिता में करीब चालीस साल बिता दिये और बाकी जिंदड़ी कारी ही रहनी है,तो इसकी वजह कक्षा दो में पढ़ाई के दौरान ढिमरी ब्लाक आंदोलन के सिलसिले में पिता के साथ मेरी पहली नैनीताल यात्रा है।
तब हम तल्लीताल में एडवोकेट और ढिमरी ब्लाक आंदोलन के नेता हरीश ढौंढियाल के सौजन्य से रुके थे,जो मिडलेक पुस्तकालय की सीध में थोड़े ही ऊपर रहते थे।नैनीताल कोर्ट में उस सुनवाई में आंदोलनकारियों को कब सजा हो गयी और कब उन्हें जमानत मिली,यह तो मुझे तब मालूम नहीं पड़ा,लेकिन मेरे भविष्य का फैसला हो गया।
अदालत से छूटते ही पिता मुझे लेकर डीएसबी चले गये और उनने कहा कि तुम्हें यहीं पढ़ना है तो कक्षा दो ही की अवस्था में मैं डीएसबी का छात्र बन गया।
इसपर तुर्रा नैनीताल का मदहोश कर देने वाला प्राकृतिक सौंदर्य और वादियों से घिरी वह नीली झील।फिर अनंत आत्मीयता का वह अमोघ दुर्निवार आकर्षण।
पिता भूल गये और हाई स्कूल पास करने के बाद बनारस के विख्यात स्वतंत्रता सेनानी बनर्जी परिवार में रहकर काशी में मेरे आगे पढ़ाई की योजना बना ली उनने और उनके मित्र स्वतंत्रताता सेनानी बसंत कुमार बनर्जी ने।लेकिन मैंने तो नैनीताल को ही चुना हुआ था और मैं वहीं का हो गया।जो मेरी जीवनधारा में सबसे निर्णायक फैसला है।
मेरे इस भविष्य और वर्तमान के लिए उनका भी आभार जो मुझे लगातार रिजेक्ट करते रहे और मुझे दूसरा कुछ बनने से रोकते रहे।
जैसे परम सारस्वत प्रभाष जोशी ने बाहैसियत पत्रकार मुझे कोलकाता बुलाकर कोलकाता के सत्तासीनों के असर में सबएडीटर बनाकर मुझे कामयाब कारपोरेट पत्रकार बनकर युद्धअपराधियों की जमात में शामिल होने से रोक लिया।उनका भी आभार।
मैं जो भी कुछ जुनून की हद से चाहता था,वह हासिल हो जाता तो शायद मैं भी बाकी लोगों की तरह सुखी संपन्न जीवन बिताकर चैन की वंशी बजा रहता होता।
या विश्वविद्यालय में प्रोफेसर बनने की गरज से जो मैं जेएनयू तक पहुंच गया था,वहां से झारखंड मदन कश्यप और उर्मिलेश के सौजन्य से न पहुंचता तो मैं देशभर की आदिवासी बिरादरी में इस तरह कभी शामिल नहीं हो पाता।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अगर डा.मानस मुकुल दास मुझे गाइड कर पाते और उपलब्ध गाइड डा.मालवीय से अपने विषय पर मैं अड़ा नहीं होता तो भी कथा दूसरी होती।
नैनीताल छोड़कर भागा नहीं होता ज्ञान की खोज में और फौरन उपलब्ध विश्वविद्यालयी चाकरी ओढ़ लेता तो देश भर में जल जंगल जमीन नागरिकता मानवाधिकार और पर्यावरण के मुद्दों से मेरे कोई सरोकार नहीं होते।
धनबाद में कामरेड एके राय और महाश्वेता दी से न जुड़ता तो पत्रकार बनकर भी मैं उसी पृथ्वी की धूरी पर गोल गोल घूमता,जो अब खत्म होने को है।
ज्ञान डिग्रियों से नहीं मिलता।
पढ़ने लिखने और प्रकांड विद्वता के कारण भी कोई ज्ञानी नहीं होता।
वे इस दुनिया के सबसे कामयाब लोग हैं।स्टेटस के हिसाब से हम उनके चरणों की धूल भी नहीं है लेकिन ऐसे महामहिमों के चरण चिन्हों पर चलने से सरासर इंकार के सिलसिले में ही मेरी जीवन धारा बहती रही है,रहेगी।
एेसे यूं समझे जैसे सूरदास,कबीरदास,संत रविदास, दादू से लेकर चैतन्य महाप्रभु,संत तुकाराम और लालन फकीर जैसे लोग हैं,जो उस मायने में पढ़े लिखे नहीं थे,लेकिन दुनिया के किसी भी पढ़े लिखे के मुकाबले सर्वकालीन प्रासंगिक ज्ञानवृक्ष हैं सभ्यता के।
इस देश के गांवों में सुप्रीम कोर्ट जिन मुकदमों का निपटारा दशकों से कानूनी दांवपेंच से कर नहीं पाता,पलक झपकते ही किसी विक्रमादित्य शिला पर बिन बैठे हल कर देने वाले बूढ़ मानुख भी हैं जो लोक परंपराओं,सहजिया जीवन दर्शन और प्राकृतिक सान्निध्य में निरपेक्ष तरीके से से हंस दक्षता से दूध का दूध और पानी का पानी कर सकते हैं।
मेरे पिता ने कक्षा दो में जब मैं पढ़ रहा था, तब ही मुझे अपना सबसे अंतरंग मित्र बना दिया और अपने हर विमर्श और हर यात्रा में ,मैराथन पंचायती कवायद में भी या फिर राष्ट्रपति दर्शन में मुझे सहयात्री बना लिया और ताराचंद्र त्रिपाठी जैसे गुरुजी और मुझे प्राइमरी से लेकर डीएसबी तक पढ़ाने वाली अध्यापिकाओं की बहती हुई आत्मीय संवेदनाओं का सान्निध्य जो मिला,उसकी वजह से मैं आज जैसा भी हूं,वैसा हूं।
मैं जीवन में बेहद नाकाम डफर रहा,लेकिन रिटायर होने से पहले जीआईसी नैनीताल में मिले ब्रह्मराक्षस के ज्ञानदर्शन का सिलसिला अब भी ताराचंद्र त्रिपाठी माध्यमे मुझे मिलता रहता है और पैंतीस साल पहले एमए पास करने वाले अपने छात्र को आज भी परिजनों में मानते हैं डा. बटरोही,शेखर पाठक,फीजिक्स प्रोफेसर कविता पांडेय या अंग्रेजी की मैडम परमासुंदरी मिसेज अनिल बिष्ट।
मेरे ख्याल से किसी नोबेल पुरस्कार से ये उपलब्धियां बड़ी हैं।
मैं और सविता करीब डेढ़ हजार मील दौड़कर इसबार जो सुंदर लाल बहुगुणा जी को प्रणाम करने देहरादून पहुंचे और पैंतीस साल बाद हुई मुलाकात में बिना परिचय पूछे उन्होंने मुझे झटके से पहचान लिया और छूटते ही बोले,`हम भी बंगाली है और हमारे पूर्वज भी बंगाली हैं',जड़ों को छूने का उनका यह प्रयास हमें आत्मीयता में बांध लेने की उनकी सहज पर्यावरण चेतना है।फिर बंद्योपाध्याय से बहुगुणा बन जाने की कथा उनने सुनायी जो पहाड़ों में लोग जानते होंगे।
बुनियादी मसला यही है यानी पर्यावरण चेतना,जिसके लिए भारत महादेश ही नहीं,इसके मुक्तबाजारी विध्वंसक दायरे से बाहर इस पृथ्वी और उसके समस्त अंतरिक्ष मंडल में शायद अब भी सबसे प्रासंगिक नाम है सुंदर लाल बहुगुणा।
ढिमरी ब्लाक आंदोलन तेलंगना के बाद उसी क्रम में किसानों का जनविद्रोह ही नहीं था सिर्फ,बल्कि भारत में हजारों साल से,यूं समझिये कि हड़प्पा और मोहंजोदोड़ो समय से कृषिजीवी मनुष्यों की जल जंगल जमीन के हक हकूक के लिए एकताबद्ध अस्मिता आरपार बहुजन सामाजिक जो जनांदोलन रहा है, जो औपनिवेशिक भारत में चुआड़ विद्रोह से लेकर सन्यासी विद्रोह,मुंडा,भील,संथाल आदिवासी विद्रोहों,नील विद्रोह,मतुआ आंदोलन, अयंकाली का संयुक्त मोर्चा,ज्योतिबा सावित्री फूले का शिक्षा सशक्तीकरण, नवजागरण की परंपरा में है।
पिता ने जाने अनजाने मुझे उस परंपरा से बांध दिया और वे लगभग अपढ़ थे।
कक्षा दो तक ही पढ़े वे और शायद कक्षा दो में पढ़ने वाले अपने बेटे पर देश दुनिया की चिंताओं और सरोकारों का कार्यभार सौंपने में उन्हें कोई द्विधा नहीं हुई तो शायद इसलिए की उनकी पूंजी वही कक्षा दो की विद्या रही है।
इस बार मैं बसंतीपुर गया तो छोटे भाई पंचानन के बेटे पावेल में मुझे अपना खोया हुआ बचपन जीने का अहसास मिला और लगा जैसे कि उसकी काया में मैं ही अपने शैशव में लौट आया हूं।अब मेरे लिए चुनौती है कि अपने पिताकी तरह मैं उसे अपने सरोकार और अनुभव का साझेदार बना सकूं,यह कितना कठिन है,बाकी बच्चों से संवादहीनता के संकटमध्ये मुझसे शायद बेहतर कोई नहीं जानता।कोई भी नहीं।
पढ़ा लिखा होने के,डिग्रीधारी विद्वता के अनर्थ भी बहुत होते हैं।जैसे कि बाबासाहेब डा.अंबेडकर को भी कहना पड़ा कि उन्हें पढ़े लिखों ने धोखा दिया।
जैसे बिजनौर में एकदम ताजा पीढ़ी के अति कुशाग्र एक बीटेक इंजीनियर जो सर्वर मैनेजमेंट और मैथ्स के विशेषज्ञ हैं,उनसे करीब दो घंटे तक हमारी मुठभेड़ में महसूस हुआ।मैं तो उससे सीखने के मोड में डीफाल्ट था,लेकिन वह आब्जैक्टिव फैक्ट्स को सर्वोच्च प्राथमिकता के नाम जीवन दर्शन और जीवन दृष्टि जैसी बुनियादी चीजों को लगातार खारिज करता रहा।
उसके मुताबिक भारत में सारी समस्याओं की जड़ जनसंख्या महाविस्फोट है या फिर यूरिया।यूरिया वाला तर्क मैं समझता हूं और जनसंख्या महाविस्फोट के बारे में बाकी देश मेरे उच्च विचारों से अवगत है।लेकिन पुरानी पीढ़ियों की सिंपल बीए एमए पीएचडी डिग्रियों को जो वह लगातार खारिज करता रहा और हमारी पीढ़ियों को घंटा समझकर लगातार बजाता रहा तो मौजूदा शिक्षा कारोबार का फंडा भी समझ में आ गया।
फिर उसने कहा कि सबसे बड़ा अपराधी अंबेडकर हैं क्योंकि उनकी वजह से आरक्षण है और अस्मिताओं में बंटा यह देश है।मैंने कहा कि अंबेडकर पढ़े हो या नहीं,उसने कहा कि किताबों में ऐसा लिखा है।वह अनुसूचित जाति से ही है।
यह जो पूर्वाग्रह है,उसका शिकार मैं भी रहा हूं।यह पढ़े लिखे होने का दोष है।तजिंदगी हम अपने आग्रहों से मुक्त नहीं हो पाते और अपने ही पक्ष का लगातार अंध बचाव करते हुए दृष्टि अंध होकर सुॆखी संपन्न होकर दक्षिण हो जाते हैं।
मेरे पिता एक मुश्त गांधी,अंबेडकर,लोहिया,मार्क्स,लेनिन और माओ के विचारों के समन्वय से अपना फैसला करते थे और कहते थे कि सिर्फ मार्क्सवाद होना ही काफी नहीं है,इस देश के जल जंगल जमीन और पर्यावरण के साथ इतिहास को समझने के लिए अंबेडकर को समझना जरुरी है,तो यही बात हमारे दिमाग में भी थी कि अंबेडकर तो जात पांत की राजनीति के प्रणेता हैं,वर्गीय ध्रूवीकरण या क्रांति के अंतिम लक्ष्य को हासिल करने के लिए अंबेडकर पढ़ना क्यों जरुरी है।
पिता तो चिपको आंदोलन से लेकर पृथक उत्तराखंड आंदोलन तक में हमारे सारे साथियों के साथ बेहिचक खड़े हो गये,मैं उनके किसी आंदोलन में शरीक नहीं हो सका उनके जीते जी,पढ़े लिखे होने के दुराग्रह के कारण और उनका पक्ष जान ही न सका।
सुंदर लाल जी से मैंने पूछा भी कि नैनीताल समाचार में नवंबर 1978 में नैनीताल क्लब अग्निकांड के तुरंत बाद जो गिरदा की अगुवाई में उनसे हमारी आखिरी प्रचंड बहस हुई थी और गिरदा ने दो टुक शब्दों में कह दिया था कि जनांदोलन सहिंस होगा कि अहिंस,इसका फैसला आप हम करने वाले कौन होते हैं,क्या उसकी कोई याद उन्हें है।
उन्होंने ना कह दिया और फिर भी ताज्जुब कि वे हमें भूले नहीं है।
अपने पिता के निधन से पहले लगता है,मैं जीवनदृष्टि से ही वंचित रहा हूं,तब तक मैं खूब पढ़ता लिखता रहा हूं,लेकिन भारतीय लोक को समझना हमारी औकात से बाहर की चीज थी।अब उन्हींके सरोकारों से लबालब मुझे पढ़ने लिखने की फुरसत ही नहीं है।जो मैं अब अतिशय लेखन भिन भिन भाषाओं में करता हूं वह न पत्रकारिता है और न साहित्य।वे मेरे जीवन के सरोकार से जुड़े संवाद का अटूट सिलसिला है अराजक।
देश भर में छितरा दिये गये बंगाली शरणार्थियों ने पिता की मौत के बाद जब अपने हर संकट में मुझे दस्तक देना शुरु किया और बाकी समुदायों के लोग भी उस पिता की संतान होने की वजह से मुझे अपनों से जोड़ने लगे,तब जाकर कहीं मुझे पिता की जीवनदृष्टि का ज्ञान हुआ और अंबेडकर को पढ़ने के बाद लगा कि उनके जीवन के अनुभव हमारे पाठ के मुकाबले कितना अहम है।
पिता अक्सर हां कहते हैं कि ज्ञान पोथियों में नहीं,समाज और जीवन में होता है,जो पढ़ने की चीज नहीं होती ,महसूसने और आत्मसात करने की चीज होती है औऱ इसके लिए लोक की गहराइयों में पैठना होता है।मैं उन्हें कभी समझ ही न सका।शिक्षा के आडंबर ने मुझे सिरे से दृष्टिअंध बना दिया था।
सुंदर लाल बहुगुणा से बाहैसियत पत्रकार मैं कभी नहीं मिला हूं।
देहरादून में उत्तराखंड में महिला आंदोलन को नेतृत्व देने वाली और उमा बाभी की उत्तराटीम की दो अति प्रिय महिलायें रहती हैं,पहली तो गीता गैरोला दीदी और दूसरी हमारी वैणी कमला पंत।
इसके अलावा भास्कर उप्रेती की सहधर्मिनी केदार जलआपदा की विलक्षण युवा पत्रकार सुनीता भास्कर से भी मिलने की बड़ी तमन्ना थी,लेकिन सरकारी अतिथिशाला की दीवारों में फंस जाने की वजह से उनसे मुलाकात नहीं हो सकी।
इसके बावजूद मुझे कोई पछतावा नहीं है।
क्योंकि जीवंत पर्यावरण चेतना से मेरा अंतिम साक्षात्कार तो हो ही गया।
दरअसल आंदोलन के सिलसिले में ही सुंदरलाल बहुगुणा से हमारी मुलाकातें होती रही हैं और आंदोलन के तौर तरीके से हमारी उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी के वाम ब्रिगेड से उनका कोई तालमेल था नहीं ,लेकिन हम उन्हींकी पर्यावरण चेतना की मशालें लेकर अपने अपने गांव से निकल पड़े थे,यह तमीज हमें तब भी थी।
बहुगुणा जी गांधीवादी हैं।
वे संत विनोबा भावे के सहकर्मी सर्वोदयी भी हैं।
भारत में या दुनिया में किसी भी विचारधारा के किसी भी अन्य व्यक्ति के जल जंगल जमीन मनुष्यता प्रकृति और पर्यावरण को जोड़कर अपनी जीवन दृष्टि और उस मुताबिक जमीनी स्तर पर सक्रियता के धारक वाहक होने की सूचना मुझे नहीं है।
वैसे हम पिता की मृत्यु के बाद लगातार यह कहते लिखते रहे हैं कि पर्यावरण चेतना के बिना भारतीय अर्थव्यवस्था,विश्वजनीन समस्याओं ,राष्ट्रतंत्र और राजकाज समामाजिक आंदोलन और राजनीति ही नहीं,साहित्य, कला और संस्कृति की कोई भी गतिविधि गैर प्रासंगिक हैं।
हम मानते रहे हैं कि इस देश के नीति निर्धारक लोग खासतौर पर मेधा तबके के लोग,राजनेता और अर्थशास्त्री और खासतौर पर जनप्रतिबद्ध सामाजिक कार्यकर्ताओं को सर्वोच्च प्राथमिकता पर्यावरण को देनी चाहिए।
अनिवार्यतः उन्हें पर्यावरण कार्यकर्ता होना चाहिए,तभी वे जनपक्षधरता के मोर्चे से कुछ करने के काबिल बन सकते हैं।ऐसी सीख हमें इन्हीं सुंदरलाल बहुगुणाजी से मिली है जो हमारे बाबूजी के बराबर हैं।
मेरे पिता अब नही हैंं लेकिन राजीव नयन बहुगुणाके पिता में अपने पिता को साक्षात पिर जीवंत देखने का अनुभव हुआ है अबकी दफा देहरादून में।
अब यह समझने वाली बात है कि भारतीय संविधान और अंतररार्ष्ट्रीय कानून,सभ्यता के मानक,सुप्रीम कोर्ट के फैसलों,नागरिकता ,नागरिक अधिकारों और मानवाधिकारों का बर्बर उल्लघंन करने की जो जनसंहारी साढ़ संस्कृति का विकास सूत्र है,उसमें एक एक इंच को सीमेंट के जंगल में तब्दील कर देने की रियल्टी बिल्जर प्रमोटर माफिया उत्कट अश्लील तत्परता है और लंबित परियोजनाओं में फंसी देशी विदेशी पूंजी के अलावा न मनुष्यता और न प्रकृति की कोई चिंता है।
अब यह समझने वाली बात है कि ऐसे कारपोरेट दुस्समय में जब धर्म कर्म आस्था राजनीति सामाजिक सरोकार मीडिया कला साहित्य राजनीति कला संस्कृति से लेकर समूची राष्ट्र व्यवस्था प्रत्यक्ष विदेशी निवेश हो या विनिवेश हो या फिर निजीकरण विनियंत्रित विनियमित तो किसे होगी किसी सुंदरलाल बहुगुणा की परवाह!
जो आजादी से पहले से उत्तुंग हिमाद्री शिखरों को छूते हुए समुंदर की गहराइयों में पैठते हुए इस पृथ्वी,पृथ्वी की समस्त मनुष्य ही नहीं जीवप्रणालियों,प्राकृतिक संसाधनों और पर्यावरण परिवेश बचाने की लड़ाई लड़ने वाले भीष्म पितामह हैं और देहरादून में अपनी बेटी के घर में वृद्धावस्था में उनकी सबसे बड़ी चिंता यह है कि न अब इस पृथ्वी पर जल होगा और न कोई अनाज।
मुक्त बाजारी आत्मघाती विकास सर्वनाश बजरिये हमने अपनी प्रकृति और पर्यावरण,जलवायु और समूचे कायनात को इतना इतना जहरीला बना दिया है।
वे कई वर्षों से पहाड़ की यात्रा नहीं कर पा रहे हैं।लेकिन उन्हें खुशी है कि उत्तरकाशी में बाढ़,भूस्खलन और भूकंप की मार सहकर भी लोग जिंदा हैं और उजेली का सर्वोदय आश्रम बना हुआ है।
उन्हें पुरानी टिहरी के ठक्कर छात्रावास,जो पहाड़ों में दलित छात्रों की शिक्षा के लिए उन्होंने स्थापित किया था,उसके साथ समूची पुरानी टिहरी और सैकड़ों गांवों के डूब में शामिल होने के बाद ऊर्जा प्रदेश उत्तराखंड के पीपीपी विकास माडल से सख्त ऐतराज हैं।
और केदार जल प्रलय में खोये जनपदों,गांवों और मनुष्यों के शोक में वे फिर वहीं तीरबिद्ध कंटकशय्या पर इच्छा मृत्यु अभिशप्त भीष्म पितामह, जिनकी प्यास बुझाने वाला कोई अर्जुन द्वापर के बाद हुआ नहीं है और न होने के आसार हैं।
इतना प्रलाप सुंदरलाल बहुगुणा का मतलब समझने के आशय से है।इसे समझे बिना वे क्या कहते हैं,क्या भूलते हैं और भूमि उपयोग,पर्यावरण,जलवायु और विकास के बारे में उनके विचारों पर बहस हम शुरु कर ही नहीं सकते।
आज फिलहाल यही तक।
आगे इस सिलसिले में चर्चा से पहले इंडिया वाटर पोर्टल पर उपलब्ध पर्यावरण के छेड़छाड़ से हमें भारी नुकसान होगा : सुंदर लाल बहुगुणा,शीर्षक आलेख में उनके विचारों को पहले समझ लेंः
हमारी भारतीय संस्कृति अरण्य संस्कृति थी। हमारे शिक्षा के केन्द्र, अर्थात आश्रम अरण्य में थे। गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर ने अरण्यों को पुर्नजीवित करने के लिए शांति निकेतन की स्थापना की। कमरों के अंदर पढ़ने का चलन तो अंग्रेजों ने पैदा किया था क्योंकि उनका देश ठंडा था और घरों से बाहर बैठकर पढ़ाई नहीं हो सकती थी। इसलिए उन्होंने ये सारा जाल बुना। उनके आने से पहले तक तो भारत में सब कुछ खुले आसमान के नीचे होता था। क्योंकि खुले आकाश के नीचे और प्रकृति के सानिध्य में मनुष्य के विचारों को स्फूर्ति मिलती है, नए-नए विचार आते हैं।
वह कमरे के अंदर उन्हीं विचारों को बार-बार दोहराता रहता है जो उसके अंदर जमा होते हैं। क्योंकि कमरे की इतनी कम परिधि होती है जिसमें वह कमरे के चारों और ही चक्कर काटता रहता है। यदि भारत को अपना वर्चस्व कायम रखना है तो उसे अपने अतीत की ओर देखना चाहिए अर्थात उसे पुनः वही जीवन पद्धति अपनानी चाहिए जो उसे अरण्य संस्कृति से प्राप्त हुई थी। जिसमें चिन्तन करने और नए विचारों को प्राप्त करने के लिए, खुले आसमान के नीचे, पेड़ों के नीचे और नदी के किनारे बैठकर अध्ययन किया जाता था।
आपने देखा ही होगा कि कोई भी ऋषि नदी के किनारे या पहाड़ की उस चोटी पर बैठकर ध्यान लगाता है जहां से प्राकृतिक सुंदरता अर्थात जीवंत प्रकृति के दर्शन होते है। इस प्रकार प्रकृति से हमें स्थाई मूल्यों की प्राप्ति होती है। आज हमें दो-तीन चीजों की आवश्यकता है पहली तो अपने आज को अपने अतीत से जोड़ने की, जिस प्रकार कोई भी वृक्ष अपनी जड़ों के साथ जुड़ा होता है और अगर उसे जड़ से अलग कर दिया जाए तो वह सूख जाता है उसी तरह किसी भी समाज की जड़ उसका अतीत होता है और अगर उसको उसके अतीत से काट दिया जाए तो वह भी तरक्की नहीं कर पाता है।
दूसरी, बात मनुष्य को जिंदा रहने के सभी साधन प्रकृति से मिलते हैं। प्रकृति को जीवित रहने के लिए ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है और ऑक्सीजन कमरे के अंदर पैदा नहीं हो सकती है। उसे जल की भी आवश्यकता होती है और जल के बारे में आस्ट्रेलिया के सोवरगर नामक विद्वान ने "The Living Water" 'जिन्दा जल', नामक एक पुस्तक लिखी। उनके अनुसार हर जगह का पानी जिंदा नहीं रहता है जैसे नल के अंदर गया हुआ पानी स्वछन्द रूप से खासकर पहाड़ी नदी में बहने वाले जल की अपेक्षा कम स्वच्छ होता है क्योंकि वह पानी पहाड़ों से टकरा-टकराकर अपने को स्वच्छ रखता है और उसी पानी को जीवन्त कहा जाता है।
शायद इसीलिए हमारे यहां हरिद्वार में गंगा में श्राद्ध तर्पन करने के पीछे भी यही सोच काम करती हो क्योंकि गंगा, अपना हरिद्वार तक का सफर पहाड़ी क्षेत्र में बहकर तय करती है उसके बाद उसका पानी, उसकी गति कम हो जाती है और गति कम होते ही वह प्रदूषण का घर बन जाती है। इस प्रकार दूसरा तत्व स्वच्छ पानी है।
उनके अनुसार जीने के लिए तीसरा साधन 'अन्न' है और वृक्ष हमें फलों के द्वारा पोषण देते हैं। हम वृक्षों को इसलिए उगाते हैं ताकि हमें उनसे अन्न की प्राप्ति हो। शुरू में अन्न, मनुष्य की खुराक नहीं थी। शुरू-शुरू में हम पशुपालक थे और पशुओं के साथ अपना जीवनयापन करते हुए फलों का सेवन करते थे लेकिन उस दौरान स्त्रियों को काफी कष्ट होता था क्योंकि उनके साथ रहने वाले पशु सब घास तथा अन्य पौधों को चर लिया करते थे जिससे फिर उस स्थान पर हरियाली की कमी हो जाती थी और उन्हें उस स्थान को छोड़कर अन्य स्थानों पर जाना होता था इसलिए उन्होंने धीरे-धीरे घास के बीजों को पकाकर खाना शुरू किया और इस तरह मनुष्य ने अन्न पैदा करना, उसे संग्रह करना और उसे पकाना शुरू कर दिया।
जब से मनुष्य ने अन्न की खेती करना और उसे संग्रह करना शुरू किया तभी से दुनिया में अधिकांश लड़ाइयां शुरू होने लगी। अब समय आ गया है जब पूरी मनुष्य जाति को अपने भविष्य के बारे में नए सिरे से सोचना होगा। सबसे पहले तो हमें आधुनिक युग के नए अवतार 'प्रदूषण' का हल निकालना होगा।
आज पूरे विश्व में प्रदूषण ने अपना जाल इस तरह से बिछाया हुआ है जबकि आज से कुछ साल पहले तक लोगों ने प्रदूषण शब्द के बारे में सुना तक भी नहीं था। मुझे याद है कई वर्ष पहले "India International Center" (इंडिया इंटरनेशनल सेंटर) में प्रदूषण के बारे में एक गोष्ठी हो रही थी। हमारी गोष्ठी चल ही रही थी, तभी वहां एक ग्रामीण आदमी आ गया, उसने उन सभी बातों को सुनने के बाद हमसे पूछा कि ये खरदूषण कहां से आ गया?
ये बड़े-बड़े साहब उससे इतना क्यों डर रहे हैं, आखिर ये है कहां? तो इस प्रकार से आज तक उसने इस प्रदूषण शब्द को भी नहीं सुना था इसलिए वह उसे खरदूषण कहकर पुकार रहा था। मैंने, किसी की ओर इशारा करते हुए कहा कि यह इनकी पोशाक के अंदर छिपा हुआ है, इनकी जीवनशैली ही प्रदूषण को जन्म देती है।
आज समाज की प्रगति के आगे कई समस्याएं मुंह बाएं खड़ी हैं उनमें पहली है, 'युद्ध का भय' क्योंकि आज गरीब से गरीब देश भी अपनी अधिकांश कमाई अनुत्पादक कार्यों जैसे हथियारों को जमा करने और सेनाओं पर खर्च करने में लगा रहा है, इस कारण से वहां की सामान्य जनता को नुकसान हो रहा है। समाज का दूसरा बड़ा खतरा 'प्रदूषण' है। आज आबादी बढ़ने के साथ-साथ नागरिक सुविधाएं भी बढ़ रही हैं जिससे धूल, धुआं और शोर जैसे तीन दैत्य हमारे देश को प्रदूषित करते जा रहे हैं। हवा में बढ़ते धूल और धुएं के कारण पत्तों के ऊपर भी धूल जमती जा रही है जिससे हमें सांस लेने में भी दिक्कत होने लगी है और हम लोग कई सांस संबंधी समस्याओं से ग्रस्त होते जा रहे हैं।
आज भी मुझे सन् 72 में संयुक्त राष्ट्र विज्ञान परिषद् की पत्रिका में छपे एक दंड चित्र के कार्टून की याद आती है जिसमें, एक बौना आदमी एक बड़े पेड़ को अपनी बांह के बीच में पकड़कर दौड़े जा रहा है, दौड़े जा रहा है किसी ने उससे पूछा - कहां जा रहे हो? जरा ठहरो ... उसने कहा, देखता नहीं है कि सीमेंट की सड़क मेरा पीछा करती आ रही है। इस प्रकार काफी सालों से मनुष्य को सभी तरह की सुख-सुविधाएं प्रदान करने की लालसा के कारण आज ऐसे कई निर्माण कार्यों पर जोर दिया जा रहा है जिससे हमारी प्रकृति और हमारे स्वास्थ्य को घातक नुकसान हो रहा है।
एक परिभाषा है, कि जंगल एक समुदाय है जैसे समाज में अनेक प्रकार के लोग एक साथ रहते हैं उसी तरह से जंगल में भी कई प्रकार के वृक्ष, लताएं, झाड़ियां और जीव-जन्तु मिलकर एक समुदाय बनाते हैं और वे सभी एक-दूसरे से जुड़े रहते हैं।
वनों के संरक्षण में कई ऐसे औषधीय पेड़-पौधे और जड़ी-बूटियों का रोपण हो रहा है लेकिन शायद वो अधिक उत्तम न हों।
अगर वे उत्तम किस्म के न हों तो उनके गुण धर्मों में भी अंतर होगा। प्रकृति के साथ छेड़छाड़ नहीं होनी चाहिए। अब समय आ गया है जब हमें अपनी प्रकृति के साथ छेड़छाड़ करनी बंद कर देनी चाहिए और विकास के साथ-साथ प्रकृति के पुर्नजीवन के बारे में भी सोचना चाहिए। इसके अलावा मनुष्य को प्रकृति के साथ मिलकर रहने की आदत बनाने का भी प्रयास करना चाहिए।
जैसा कि पहले भी था जिसे symbiotic relationship कहते हैं।
मैं, यहां पहाड़ों की बात इसलिए कर रहा हूं कि पहाड़ हमारे जल की मीनारें हैं और हमारे जीवन के लिए जल बहुत महत्वपूर्ण है जल संकट का तो कोई मुकाबला ही नहीं कर सकता है। इसी प्रकार खेती भी सभी के लिए अनिवार्य है, अगर हमने भविष्य की जाति को जिंदा रखना है तो हमें अपनी कृषि-व्यवस्था को जिंदा रखना होगा।
क्या, आपको अन्न की खेती का भविष्य बहुत उज्ज्वल नजर नहीं आता है?
हालात जैसे भी हों, इतने कम समय में अन्न की बढ़िया खेती नहीं हो सकती।
अब पहले वाली विशुद्धता भी खत्म हो गई है, उसमें कीटनाशक भी शामिल हो गए हैं और उसका जैविक स्तर भी बिगड़ गया है।
हमारे यहां दो तरह की खाद्य पदार्थ होते हैं। एक तो, विशुद्ध, साधारण खादों वाली और दूसरी जैविक खादों वाली होती है जिसे अमीर लोग ही खरीदते और खाते हैं।
अब तो ऐसी स्थिति हो गई है कि हम टमाटर जैसी चीज में भी जिनेटिक इंजीनियरिंग के द्वारा मांस डालकर उसमें मांस पैदा कर दिया। ऐसे में, अब हमारा टमाटर भी शाकाहारी की जगह मांसाहारी ही हो गया है। प्रकृति के साथ इस तरह की छेड़छाड़ ठीक नहीं है क्योंकि इस तरह की छेड़छाड़ से हमारे पर्यावरण के साथ-साथ हमें भी भारी नुकसान को झेलना होगा।
http://hindi.indiawaterportal.org/node/47307
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