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Memories of Another day

Memories of Another day
While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Saturday, November 15, 2014

….जहाँ सभ्यता नंगी खड़ी है ….जहाँ सभ्यता नंगी खड़ी है

कतरा-कतरा आबरू

भंवर मेघवंशी

 ''दोपहर होते-होते नीचे हथाई पर पंच और गाँव के मर्द लोग इकट्ठा होने लगे। उनकी आक्रोशित आवाजें ऊपर मेरे कमरे तक पहुँच रही थी, सबक सिखाने की बातें हो रही थी। आज सुबह से ही हमारे परिवार को हत्यारा समझकर गाँव से भाग जाने की अफवाह जान-बूझकर फैला दी गयी थी, जबकि हम निकटवर्ती नाथेला उप स्वास्थ्य केन्द्र पर अपनी गर्भवती बेटी लीला को प्रसव पीड़ा उठने पर नर्स के पास लेकर गये थे। जब अफवाहों की खबर हमें लगी तो बेटी को वहीं छोड़कर घर लौटे। तब तक 50-60 लोग आ चुके थे। धीरे-धीरे और लोग भी आ रहे थे। हम अपने घर में ही थे। नीचे आवाजें तेज होने लगी। 'बुलाओ नीचे' की एक साथ कई आवाजें। तब धड़धड़ाते हुए कई नौजवान मर्द सीढि़याँ चढ़कर मेरे घर में घुस आए। पहले मुझे चोटी से पकड़ा, फिर पाँवों की ओर से पकड़कर घसीटते हुए नीचे ले गये, जहाँ पर सैंकड़ों पंच, ग्रामीण अन्य तमाशबीन खड़े थे। मैं सोच रही थी ये मर्द भी अजीब होते हैं, कभी 'कालीमाई' कहकर पाँव पड़ते है तो कभी 'कलमुँही' कहकर पैर पकड़ कर घसीटते है। मर्द कभी औरत को महज इंसान के रूप में स्वीकार नहीं कर पाते। उसे या तो पूजनीय देवी बना देते है या दासी, या तो अतिमानवीय मान कर सिर पर बिठाल देते हैं या अमानवीय बनाकर पाँव की जूती समझते हैं।

वे मुझे घसीटकर नीचे हथाई पर ले आए। उन्होंने मेरे दोनों हाथों में तीन-तीन ईंटें रखी और सिर पर भारी वजन का पत्थर रख दिया। मेरा सिर बोझ सहने की स्थिति में नहीं था। पत्थर नीचे गिर पड़ा, हाथों में भी दर्द हो रहा था, उन्होंने मेरी कोहनियों में लकड़ी के वार किए, वे मुझसे पूछ रहे थे- सच बता। मैं क्या सच बताती? जाने कौन सा सच वे जानना चाहते थे। मैंने कहा-''म्है नहीं जाणूं (मैं नहीं जानती), म्हूं कठऊं कहूँ (मैं कहाँ से कहूँ)।''

एक अकेली औरत और वह भी हत्या जैसे संगीन आरोप के शक में पंचों की आसान शिकार बनी हुई, अगर निर्भीकता से बोले तो पुरुषों का संसार चुनौती महसूस करने लगता है। लोगों को उसका निडर होकर बोलना पसंद नहीं आया। आखिर तो वह अभी तक औरत ही थी ना। क्या वह अरावली की इन पहाड़ियों के बीच बसे इलाके के प्राचीन कायदों को नहीं जानती थी? क्या वह भूल गयी थी, पिछले ही साल तो राजस्थान के राजसमंद जिले के इसी चारभुजा थाना क्षेत्र में बुरे चाल-चलन के सवाल पर एक बाप ने अपनी ही बेटी का सर तलवार से कलम कर डाला था और फिर लहू झरते उस सिर को बालों से पकड़े, बाप उसे थाने में लेकर पहुँच गया था।

इज्जत के नाम पर, ऐसा तालिबानी कृत्य करते हुए यहाँ के मर्द तनिक भी नहीं झिझकते हैं तो भी इसकी यह बिसात, अरे यह तो सिर्फ औरत जात है यहाँ तो किसी मर्द पर भी हत्या का शक मात्र हो जाए तो उसे गधे पर बिठाकर घुमाते है पंच। फिर यह औरत है ही क्या?

बस फिर देर किस बात की थी। इस छिनाल को नंगा करो…। एक साथ सैकड़ों आवाजें! एक महिला को निर्वस्त्र देखने को लपलपाती आँखों वाले कथित सभ्य मर्द चिल्ला पड़े। 'उसे नंगा करो।' उसके कपड़े जबरन उतार लिए गये। वह जो आज तक रिवाजों से, कायदों से, संस्कृति और कथित संस्कारों के वशीभूत हुई मुँह से घूँघट तक नहीं उघाड़ती थी। आज उसकी इज्जत तार-तार हो रही थी, इस बीच 2 नवम्बर 2014 को आत्महत्या करने वाले वरदी सिंह की बेवा सुंदर बाई चप्पलों से उसे मारने लगी। एक महिला पर दूसरी महिला का प्रहार, मर्द आनंद ले रहे थे।

जमाने भर की नफरत की शिकार अपनी पत्नी की हालत उसके पति उदयसिंह से देखी नहीं गयी। वह अपने बेटों पृथ्वी और भैरों के साथ बचाव के लिए आगे आया। उसके दुस्साहस को जाति पंचायत ने बर्दाश्त नहीं किया। सब उस पर टूट पड़े। मार-मार कर अधमरा कर डाला तीनों बाप-बेटों को और उनको उनके ही घर में बंद कर दिया गया। ''अब तुझे कौन बचाएगा छिनाल। बोल, अब भी वक्त है, सच बोल जा, तेरी जान बख्श देंगे। स्वीकार कर ले कि तेने ही मारा है वरदी सिंह को, तू उसकी बेवा सुंदर को नाते देना चाहती है, तेरा कोई स्वार्थ जरूर है, तूने ही मारा है उसे।''

पीड़िता ने मन ही मन सोचा, यह कैसा गाँव है, अभी जिस दिन वरदी सिंह ने आत्महत्या की तो पुलिस को इत्तला देने की बात आई थीं तब सारा गाँव एकजुट हो गया कि पुलिस को बताने की कोई जरूरत नहीं है। फिर बिना एफआईआर करवाए, बिना पोस्टमार्टम करवाए ही चुपचाप मृतक वरदी सिंह की लाश को इन्हीं लोगों ने जला दिया था तथा उसकी आत्महत्या को सामान्य मौत बना डाला था… और आज उसकी हत्या का आरोप उस पर लगाकर उसकी जान के दुश्मन बन गये हैं।

''अच्छा… ये ऐसे नहीं बोलेगी। इसके मुँह पर कालिख पोतो, बाल काटो इस रण्… के! और गधे पर बिठाओ कलमुँही को।'' जाति पंचायत का फरमान जारी हुआ। फिर यह सब अकल्पनीय घटा- शर्म के मारे नग्न अवस्था में गठरी सी बनी हुई पीड़िता का काला मुँह किया गयाबाल काटे गयेजूतों की माला पहनाई गयी और गधे पर बिठा कर उसे पूरे गाँव में घुमाया गया। इतना ही नहीं उसे 2 किलोमीटर दूर स्थित थुरावड़ के मुख्य चौराहे तक ले गये। यह कथा पौराणिक नहीं है और ना ही सदियों पुरानी। यह घटना 9 नवम्बर 2014 को घटी।

पीड़िता रो रही थी, मदद के लिए चिल्ला रही थी, उसके आँसू चेहरे पर पुती कालिख में छिप गये थे और रुदन मर्दों के ठहाकों में। औरतें भी देख रही थी, वे भी मदद के लिए आगे नहीं आई। थुरावड़ चौराहे पर तो एक औरत ने उसके सिर पर किसी ठोस वस्तु का वार भी किया था। पढ़े-लिखे, अनपढ़, नौजवान, प्रौढ़, बुजुर्ग तमाम मर्द इंसान नहीं हैवान बन गये थे। लगभग पाँच घंटे तक हैवानियत और दरिंदगी का एक खौफनाक खेल खेला गया मगर किसी की इंसानियत नहीं जागी। जो लोग इस शर्मनाक तमाशे में शरीक थे, उनके मोबाइल तो पंचों ने पहले ही रखवा लिए थे ताकि कोई फोटो या विडियो क्लिपिंग नहीं बनाई जा सके, मगर राहगीरों व थुरावड़ के लोगों ने भी इसका विरोध नहीं किया।

थुरावड़ पंचायत मुख्यालय है। वहाँ पर पटवारी, सचिव, प्रधानाध्यापक, आशा सहयोगिनी, रोजगार सहायक, सरपंच, वार्ड पंच, नर्स, कृषि पर्यवेक्षक इत्यादि सरकारी कर्मचारियों का अमला विराजता है। इनमें से भी किसी ने भी घटना के बारे में अपने उच्चाधिकारियों को सूचित नहीं किया और ना ही विरोध किया। वह अभागिन उत्पीड़ित होती रही। अपनी गरिमा, लाज, इज्जत के लिए रोती रही। चीखती-चिल्लाती, रोती-कलपती जब उसकी आंखें पथरा गयीं और निरंतर मार सहना उसके वश की बात नहीं रही तो वह गधे पर ही बेहोश होकर धरती पर गिरने लगी। मगर दरिंदे अभी उसको कहाँ छोड़ने वाले थे। वे उसे जीप में डालकर वापस उसके गाँव थाली का तालाब की ओर ले चले, रास्ते में जब होश आया तो फिर वही सवाल-'सांच बोल, कुणी मारियो' (सच बोल, किसने मारा)। उसने कहा ''मेरा कोई दोष नहीं, मुझे कुछ भी मालूम नहीं, मैं कुछ नहीं जानती, मैं क्या बोलूं।'' तब उसकी फिर पिटाई की गयी, तभी अचानक रिछेड़ चौकी और चारभुजा थाना पुलिस की गाड़ियाँ वहाँ पहुँच गयी। बकौल पीड़िता-''पुलिस उसके लिए भगवान बनकर आई, उन दरिंदों से पुलिस ने ही छुड़वाया वरना वे मुझे मार कर ही छोड़ते।''

बाद में पुलिस पीड़िता, उसके पति व बच्चों सहित पूरे परिवार को चारभुजा थाने में ले गयी, ढाढ़स बंधाया और मामला दर्ज किया, उसे अस्पताल ले गये, डॉक्टरों को दिखाया, इलाज करवाया और रात में वहीं रखा।

अब पुलिस के सामने चुनौती थी, आरोपियों की गिरफ्तारी की। सुबह पुलिस ने गाँव में शिकंजा कसा, जो पंच मिले उन्हें पकड़ा और थाने में ले गयी। थाने तक पहुँचने तक भी इन पंचों को अपने किए पर कोई शर्मिन्दगी नहीं थी। वे कह रहे थे-''इसमें क्या हो गया? वो औरत गलत है, उसने गलती की, जिसकी सजा दी गयी।'' वे कानून-वानून पर भरोसा नहीं करते, अपने हाथों से तुरंत न्याय और फटाफट सजा देने में यकीन करते है। उनका मानना है कि- ''हमने कुछ भी गलत नहीं किया, हम निर्दोष है।'' यहाँ इसी प्रकार के पाषाणयुगीन न्याय किए जाते हैं, जो कि अक्सर औरतों तथा गरीबों व कमजारों के विरुद्ध होते हैं। यहाँ खाप पंचायत के पंचों का शासन है, वे कुछ भी कर सकते हैं, इसलिए यह शर्मनाक कृत्य उन्होंने बेधड़क किया।

पंचों को घटना की गंभीरता का अहसास ही तब हुआ, जब उन्हें शाम को घर के बजाय जेल जाना पड़ा और पिछले कई दिनों से करीब 30 लोग जेल में पड़े हैं, अब उन्हें अहसास हो रहा है कि – शायद उनसे कहीं कोई छोटी-मोटी गलती हो गयी है।

घटना के दूसरे दिन जिला कलक्टर राजसमंद कैलाश चंद्र वर्मा तथा पुलिस अधीक्षक श्वेता धनखड़ मौके पर पहुँचे, महिला आयोग की अध्यक्ष लाडकुमारी जैन और संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून के प्रवक्ता फरहान हक एवं मजदूर किसान शक्ति संगठन व स्कूल फॉर डेमोक्रेसी और महिला मंच के दलों ने भी पीड़िता से मुलाकात की है। मगर आश्चर्य की बात यह है कि इसी समुदाय के एक पूर्व जनप्रतिनिधि गणेश सिंह परमार यहाँ नहीं पहुँचेना कोई वार्ड पंच आया और ना ही सरपंच,स्थानीय विधायक एवं पूर्व मंत्री सुरेंद्र सिंह राठौड़ भी नहीं आएइसी जिले की कद्दावर नेता और सूबे की काबीना मंत्री किरण माहेश्वरी भी घटना के पांच दिन बाद आई और मुख्यमंत्री की ओर से राहत राशि देकर वापस चली गयीं।

गृहमंत्री हो अथवा मुख्यमंत्री किसी के पास इस पीड़िता के आंसू पोछने का वक्त नहीं है। कुछ मानवाधिकार संगठन, मीडिया और पुलिस के अलावा सबने इस शर्मनाक घटना से दूरी बना ली है। सत्तारूढ़ दल के नेताओं पर तो आरोपियों को बचाने के प्रयास के आरोप भी लग रहे है, वहीं राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित इस कांड के विरूद्ध मुख्य विपक्षी दल ने तो बोलने की जहमत तक नहीं उठाई है।

जब मामला मीडिया के मार्फत थाली का तालाब गाँव से निकलकर देश, प्रदेश और विदेश तक पहुँचा और चारों ओर थू-थू होने लगी, तब राज्य की नौकरशाही चेती और पटवारी, स्थानीय थानेदार, नर्स, प्रधानाध्यापक, वार्ड पंच, उप सरपंच और सरपंच आदि को निलंबित किया। राशन डीलर तो इस जघन्य कांड में खुद ही शामिल हो गया था। उसका प्राधिकार पत्र खत्म करने की कार्यवाही भी अमल में लाई गयी है, मगर प्रश्न यह है कि सांप के निकल जाने पर ही लकीर क्यों पीटता है प्रशासन? क्या उसे नहीं मालूम कुंभलगढ़ का यह क्षेत्र महिला उत्पीड़न की नरकगाह हैयहाँ 'डायनबताकर कई औरतें मारी गयी हैं। हत्या, जादू-टोने के शक में महिलाओं पर अत्याचार आम बात है, आज भी इस इलाके में जाति के नाम पर खौफनाक खाप पंचायतों के तालिबानी फरमान लागू होते है, सरकारी धन से बने सार्वजनिक चबूतरों पर बैठकर खाप पंच औरतों तथा गाँव के कमजोर वर्गों के विरुद्ध खुले आम फैसले करते है, सही ही कहा था संविधान निर्माता अंबेडकर ने कि गाँव अन्याय, अत्याचार तथा भेदभाव के मलकुण्ड है।

सबसे ज्वलंत सवाल अभी भी पीड़िता व उसके परिवार की सुरक्षा का है, उसके पुनर्वास तथा इलाज का है। न्याय देने और उसे क्षतिपूर्ति देने का है। सरकार से किसी प्रकार की मदद के सवाल पर पीड़िता ने कहा-'' पुलिस ने मुझे बचाकर मदद की है, बाकी मेरे हाथों की पाँचों अंगुलियाँ सलामत है तो मैं मेहनत मजदूरी करके जी लूँगी।''

मुझे पीड़ितों की इस बात को सुनकर पंजाब के संघर्षशील दलित कवि और गायक कामरेड बंत सिंह की याद हो आईजिनको अपनी बेटी के साथ दबंगों द्वारा किए गये बलात्कार का विरोध करने की सजा उनके हाथ-पाँव काट कर दी गयी। जब बंत सिंह होश में आए तब उन्होंने कहा-''जालिमों ने भले ही मेरे दोनों हाथ व दोनों पाँव काट डाले है मगर मेरी जबान अभी भी सलामत है और मैं अत्याचार के खिलाफ बोलूँगा।''

सही है, इस पीड़िता ने भी अपनी अंगुलियों की सलामती और बाजुओं की ताकत पर भरोसा किया है तथा उसे लगता है कि उसकी अंगुलियाँ सलामत है तो वह संघर्ष करते हुए मेहनत-मजूरी से जीवन जी लेगी। पीड़िता की तो अंगुलियाँ सलामत है मगर हमारे इस पितृसत्तात्मक घटिया समाज का क्या सलामत है, जो उसे जिंदा रखेगा? पीड़िता के पास तो अपना सच है और पीड़ा की यादें है, ये यादें उसके जीने के संघर्ष का मकसद बनेगी, मगर हम निरे मृतप्रायः लोगों के पास अब क्या है जो सलामत है ? अगर अब भी हम सड़कों पर नहीं उतरते हैं, अन्याय और अत्याचार की खिलाफत नहीं करते है तो हमारा कुछ भी सलामत नहीं है। हम पर लाख-लाख लानतें और करोड़ों-करोड़ धिक्कार!

About The Author

भंवर मेघवंशी, लेखक राजस्थान में कमजोर वर्गों के अधिकारों के लिए संघर्षरत हैं।

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2014/07/17



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